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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, February 28, 2008

अंतर्जाल है बहुत बड़ा मायाजाल-हास्य कविता

आया फंदेबाज और बोला
''क्या दीपक बापू लिखते हुए थकते नहीं हो
इस दुनिया में क्या हो रहा है तकते भी नहीं
अरे कहाँ अंतर्जाल पर
ब्लोग लिखते जा रहे हो
लोग नाम, नामा, इनाम और सम्मान
बटोरते हुए मशहूर हो जायेंगे
तुम जैसे तकते रह जायेंगे
हाथ घिसते रहोगे, पर लोगों तक नहीं पहुंच जायेंगे

टोपी पहनते हुए कहैं दीपक बापू
''यह है अंतर्जाल
बहुत बड़ा मायाजाल
और एक इंद्रजाल
यहाँ केवल नाम नहीं चलेंगे
जो जलाएगा शब्दों को दीपक की तरह
उसकी रौशनी में उनके नाम ही चमकेंगे
यहाँ बडे-बडे नाम नहीं चलेंगे
कर सकते हैं जो गागर में सागर की तरह
शब्दों के संजोने का काम
उनके ही डंके यहाँ बजेंगे
इनाम तो आखिर अलमारी में ही सजते
पर यहाँ शब्दों में भर देंगे चमक
उनके नाम ही आकाश में तैरेंगे
नाम तो होगा बहुतों के पास तिजोरी में
पर जिनके शब्दों में होगी सोने की चमक
वही यहाँ साहित्य के साहूकार बनेंगे
लिखीं गईं किताबें पडी रहतीं हैं कबाड़ में
पर यहाँ सभी शब्द अलग-अलग
किताब की तरह खुले में सांस लेते रहेंगे
उनकी सांस तब भी चलेगी
जब हम शवासन में आ जायेंगे
रोज करते हैं नये प्रयोग
तकनीकी श्रेणी के नहीं है तो क्या
कभी इसके भी विशेषज्ञ कहलायेंगे
जो बाजार में सजते
वह शब्दों के खेल नहीं समझते
जो समझते हैं वह सबसे बचते हुए
बस रोज लिखते जायेंगे
उनको नाम, नामा, इनाम और सम्मान
कहीं भी न मिले
पर बाद में उनके नाम पर दिए जायेंगे
यह अंतर्जाल बहुत बड़ा मायाजाल
चंद शब्द लिखकर जो
फंसेंगे माया के चक्कर में
वह यहाँ कभी विजेता नहीं कहलायेंगे
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Tuesday, February 26, 2008

रहीम के दोहे:भविष्य बलवान होता है

भावी काहू ना दही, भावी दह भगवान
भावी ऐसी प्रबल है, कहि रहीम यह जान

कविवर रहीम कहते हैं की भविष्य को कोई नष्ट नहीं कर सकता। केवल प्रभु ही भविष्य के प्रभाव को ख़त्म कर सकते हैं। यह समझ लोग को भविष्य बहुत बलवान है।

भावी या उनमान को पांडव बनहिं रहीम
जदपि गौरि सुनी बाँझ है, बरु हैं संभु अजीम


कविवर रहीम कहते हैं की उसने भविष्य के लिए पांडवों को कृपालु बनाया। यद्यपि पार्वती को बाँझ कहा जाता है पर किन्तु भगवान शंकर की कृपा से वह दो पुत्रों की माता कहलायीं।

Saturday, February 23, 2008

विदुर नीति: सरल स्वभाव का विरोधी हो वह बल नहीं

१.मनुष्य में धन और आरोग्य को छोड़कर कोई दूसरा गुण नहीं है, क्योंकि रोगी मनुष्य मुर्दे के समान है।
२.जो बिना रोग के उत्पन्न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करने वाला, पाप से संबद्ध, कठोर, तीखा और गरम है जो सज्जनों द्वारा ग्रहण करने योग्य नही और जिसे दुर्जन ही व्यक्त सकते हैं, उस क्रोध को पी जाइये और शांत हो जाइये।
३.रोग से पीड़ित मनुष्य मधुर फलों का आदर नहीं करते, विषयों में भी उन्हें जीवन का सुख और सार भी नहीं मिल पता। रोगी सदा ही दुखी रहते हैं। वह न तो धारण से प्राप्त धन का और वैभव के सुख का अनुभव कर पाते हैं ।
४.वह बल नहीं है जिसका जो सरल स्वभाव का विरोधी हो। सूक्ष्म धर्म को शीघ्र ही ग्रहण करना चाहिए। क्रूरता से अर्जित धन नष्ट होता है। यदि धन सात्विक मार्ग से आया है तो वह लंबे समय तक स्थिर रहता है.

Thursday, February 21, 2008

संत कबीर वाणी:सत्संग का सुख वैकुण्ठ में कहाँ

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय
जो सुख साधू संग में, सो वैकुण्ठ में न होय


संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं की जब मेरे को लेन हेतु रामजी ने बुलावा भेजा तो रोना आ गया क्योंकि जो सुख साधू और संतों की संगत से जो सुख मिलता है वह भला वैकुण्ठ में कहाँ मिलता है।

लुट सके तो लूट ले, संत नाम की लूट
पीछे फिर पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट


संत कबीरदास जी कहते हैं की भगवान के नाम का स्मरण कर ले नहीं तो समय व्यतीत हो जाने पर पश्चाताप करने से कुछ लाभ नहीं है।

Wednesday, February 20, 2008

रहीम के दोहे: बुरे दिनों में चुप रहना बेहतर

अब रहीम चुप करि रहउ समुझि दिननकर फेर
जब दिन नीके आई हैं बनत न लगि हैं देर


कविवर रहीम कहते हैं की बुरे दिनों के चक्र को समझकर अब मैं मौन धारण करके रहूँगा. जब जीवन में अच्छे दिन आएँगे तो कार्य बनते देर नहीं लगेगी।

अब रहीम मुश्किल पडी, गाढ़ै दोउ काम
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम



कविवर रहीम कहते हैं कि अब तो जीवन में ऐसी कठिनाई आ गयी है कि सब तरह के कार्य मुश्किल हो गए हैं. सत्य बोलने से संसार में चलना कठिन है तो तो झूठ बोलने से भगवान् का मिलना संभव नहीं है.

Saturday, February 16, 2008

संत कबीर वाणी:जहाँ गुण की कद्र न हो वहाँ रहना व्यर्थ

करनी का राजमा नहीं, कथनी मेरू समान

कथता बकता मर गया, मूरख मूढ़ अजान

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि जिस व्यक्ति की करनी मिटटी के समान भी नहीं है और कथनी पर्वत के समान ऊंची है वह अपनी पूरी जिन्दगी बकवाद करते हुए गुजार देता है। ऐसे बकवादी मनुष्य की बात पर ध्यान नहीं देना चाहिऐ।

जहाँ न जाको गुन लहैं, तहां न ताको ठाँव

धोबी बसके क्या करे, दीगंबर के गाँव

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि जहाँ कोई अपने गुण का सम्मान करने वाला व्यक्ति न हो तो वहाँ जाकर रहने से कोई लाभ नहीं है। जहाँ निर्धन व्यक्ति रहते हैं वहाँ कोई कपडे की धुलाई करने वाला व्यक्ति कैसे अपना व्यवसाय कर सकता है। उसी प्रकार विद्वान, गुणीऔर ज्ञानी मनुष्य को मूर्खों की संगतनहीं करना चाहिऐ क्योकि वह उसका उपहास करेंगे।

Friday, February 15, 2008

अपने अस्तित्व के निशान-कविता साहित्य

पूरी जिन्दगी जुटाते सामान
पर कितना ले पाते उससे काम
फ़िर भी रुकते नहीं
चले जा रहे अंधेरे रास्ते पर
रौशनी की तलाश में
शायद मिल जाए खुशी का निशान

एक सामान जुटाते
दूसरों के नाम सामने आ जाते
कल जो लिया था उसे आज पुराना पाते
बाजार से लाने की करते कवायद
कुछ फ़िर नया
लोग भी नए नाम सुझाते
चलता जाता है अनवरत यह क्रम
अपने चलने का होता हमें भ्रम
जमीन पर चलते तो कार की चाहत होती
कार में होते, चाहते हवा में उड़ने वाला विमान

समान टूटते और बिखरते जाते
हम उन्हें कबाड़ में भेजते जाते
हर बार नया पाने की चाहत में चले जाते
चलाता है जो मन
नहीं समझते इशारे
कभी-कभी उससे बात करते तो
यह पाते जान
वह चाहता है खामोशी से दुनिया को
एक दृष्टा बनकर देखना
जब जुटाते हम उसके चैन के लिए समान
हम अपने होने के प्रमाण इस
दुनिया में छोड़ना चाहते और
वह चाहता देखना
अपने अस्तित्व के निशान

Sunday, February 10, 2008

भला कौन खुश रहा है इस भीड़ में-कविता साहित्य

अपने कुछ लोग खो गए
इस शहर की भीड़ में
उनके पते लिखे हैं
बहुत से कागजों पर
जो पड़े हैं फाईलों की भीड़ में

किसे ढूंढें और क्यों
ढेर सारे सवाल आते हैं सामने
किसी से मिलने की वजह
चाहिए हमको
जाएं मिलने तो वह भी
उठाते आने की वजह के प्रश्न सामने
समय निकला जाता है
जूझते हुए प्रश्नों की भीड़ में

अपने ही जाल में उलझे लोग
फुरसत नहीं पाते
जीवन की इस भागमभाग से
ओढ़ लिया है दिमाग में तनाव
कब ले सकते हैं दिल से काम
नहीं आता समझ में
खोये हुए है लोग
अपनी समस्याओं की भीड़ में

हम भीड़ में कहाँ तलाशें उनको
जो छोड़ नहीं पाते उसको
डरते हैं अपनी तन्हाई से
जीतने की क्या सोचेंगे वह
हारे हैं हर पल जिन्दगी के लड़ाई से
अकेले में अपने पहचाने का डर
उनके मन में रहता है
खोए रहना चाहते हैं भीड़ में

अकेले ही खडे देख रहे हैं उनको
वहाँ हाँफते और कांपते
जबरन हंसने की कोशिश करते हुए
कभी हमारे तन्हाई पर भी
हँसते हैं दूसरों के साथ
दूर रखते हैं हमारे से अपना हाथ
पर हम भी हँसते हैं
साथी है हमारी यह तन्हाई
भला कौन खुश रहा है इस भीड़ में
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