बेकारी के जो सताये हैं,
राजमार्ग पर चले आये हैं।
‘दीपकबापू’ दिल बहला लेते
वादों का पिटारा जो वह लाये हैं।
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वादों के व्यापारी हमदर्द वेश धरेंगे,
धोखे से अपने घर भरेंगे।
कहें दीपकबापू लाचार और लालची
इंसान ठगी पर यूं ही मौन करेंगे।
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दूसरे की फिक्र से कमाते हैं,
हमदर्दी की दुकान जमाते हैं।
कहें दीपकबापू अंग्रेजी के गुलाम
हिन्दी में साहब बन जाते हैं।
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जिंदगी में दर्द होना है जरूरी,
हर रस पीना दिल की है मजबूरी।
कहें दीपकबापू डर लगता
जब सोच से हो जाती चिंता की दूरी।
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सिंहासन मिलते ही नया चेहरा लगा,
मित्र छोड़े घर पर पहरा लगा।
कहें दीपकबापू वीर हुए कायर
महल में छिपे राज गहरा जगा।
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सर्वांग संपन्न फिर भी बेबस बनते,
धन मद में सीने भी तनते।
कहें दीपकबापू भ्रष्ट राह मिले
चलें फिर तन मन से उफनते।
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