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Wednesday, December 31, 2008

नहीं जानते कौन देवता कहां से आया-हास्य कविता

नववर्ष की पूर्व संध्या पर
फंदेबाज अग्रिम बधाई देने
घर आया और बोला
‘‘दीपक बापू, इधर कई बरसों से
सांताक्लाज का नाम बहुत सुनने में आया
हालत यह हो गयी सभी
हिंदी के सारे टीवी चैनल और
पत्र-पत्रिकाओं में यह नाम छाया
सुना है बच्चों को तोहफे देता है
हम बच्चे थे तो कभी वह नहीं आया
यह कहां का देवता है
जिसकी कृपा दृष्टि में यह देश अभी आया’

सुनकर पहले चौंके फिर
अपनी टोपी घुमाकर
कंप्यूटर पर उंगलियां नचाते हुए
बोले दीपक बापू
‘हम भी ज्यादा नहीं जानते
पहले अपने देवताओं के बारे में
पूरा जान लें, जिनको खुद मानते
मगर यह बाजार के विज्ञापन का खेल है
जो कहीं से लेता डालर
कहीं से खरीदता तेल है
इस देश के सौदागर जिससे माल कमाते हैं
उसके आगे सिर नवाते हैं
साथ में वहां के देवता की भी
जय जयकार गाते हैं
अपने देश के पुराने देवताओं की
कथायें सुना सुनाकर
ढोंगी संत अपना माल बनाते हैं
बाजार भी मौका नहीं चूकता पर
सभी दिन तो देश के देवताओं के
नाम पर नहीं लिखे जाते हैं
पर सौदागरों को चाहिऐ रोज नया देवता
इसलिये विदेश से उनका नाम ले आते हैं
अपने देश का उपभोक्ता और
विदेशी सेठ दोनों को करते खुश
एक तीर से दो शिकार कर जाते है
वैसे देवता भला कहां आते जाते
हृदय से याद करो देवता को
तो उनकी कृपा के फूल ऐसे ही बरस जाते
हम तो हैं संवेदनशील
जीते हैं अपने विश्वास के साथ
नहीं जानना कि कौन देवता कहां से आया
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Sunday, December 28, 2008

प्रतियोगिता से कहीं अधिक वजन जंग में आता है-लघू व्यंग्य

अपने वाद्ययंत्रों के साथ सजधजकर वह घर से बाहर निकला और अपनी मां से बोला-‘‘मां, आशीर्वाद दो जंग पर जा रहा हूं।’
मां घबड़ा गयी और बोली-‘बेटा, मैंने तुम्हें तो बड़ा आदमी बनने का सपना देखा था । भला तुम फौज में कब भर्ती हो गये? मुझे बताया ही नहीं। हाय! यह तूने क्या किया? बेटा जंग में अपना ख्याल रखना!’
बेटे ने कहा-‘तुम क्या बात करती हो? मैं तो सुरों की जंग में जा रहा हूं। अंग्रेजी में उसे कांपटीनशन कहते हैं।’
मां खुश हो गयी और बोली-‘विजयी भव! पर भला सुरों की जंग होती है या प्रतियोगिता?’
बेटे ने कहा-‘मां अपने प्रोग्राम को प्रचार में वजन देने के लिये वह प्रतियोगिता को जंग ही कहते हैं और फिर आपस में लड़ाई झगड़ा भी वहां करना पड़ता है। वहां जाना अब खेल नहीं जंग जैसा हो गया है।’
वह घर से निकला और फिर अपनी माशुका से मिलने गया और उससे बोला-‘मैं जंग पर जा रहा हूं। मेरे लौटने तक मेरा इंतजार करना। किसी और के चक्कर में मत पड़ना! यहां मेरे कई दुश्मन इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि कब मैं इस शहर से निकलूं तो मेरे प्रेम पर डाका डालें।’

माशुका घबड़ा गयी और बोली-‘देखो शहीद मत हो जाना। बचते बचाते लड़ना। मेरे को तुम्हारी चिंता लगी रहेगी। अगर तुम शहीद हो गये तो तुम्हारे दुश्मन अपने प्रेम पत्र लेकर हाल ही चले आयेंगे। उनका मुकाबला मुझसे नहीं होगा और मुझे भी यह शहर छोड़कर अपने शहर वापस जाना पड़ेगा। वैसे तुम फौज में भर्ती हो गये यह बात मेरे माता पिता को शायद पसंद नहीं आयेगी। जब उनको पता लगेगा तो मुझे यहां से वापस ले जायेंगे। इसलिये कह नहीं सकती कि तुम्हारे आने पर मैं मिलूंगी नहीं।’
उसने कहा-‘मैं सीमा पर होने वाली जंग में नहीं बल्कि सुरों की जंग मे जा रहा हूं। अगर जीतता रहा तो कुछ दिन लग जायेंगे।’

माशुका खुश हो गयी और बोली-अरे यह कहो न कि सिंगिंग कांपटीशन में जा रहा हूं। अरे, तुुम प्रोगाम का नाम बताना तो अपने परिवार वालों को बताऊंगी तो वह भी देखेंगे। हां, पर किसी प्रसिद्ध चैनल पर आना चाहिये। हल्के फुल्के चैनल पर होगा तो फिर बेकार है। हां, पर देखो यह जंग का नाम मत लिया करो। मुझे डर लगता है।’
उसने कहा-‘अरे, आजकल तो गीत संगीत प्रतियोगिता को जंग कहा जाने लगा है। लोग समझते हैं यही जंग है। अगर किसी से कहूं कि प्रतियोगिता में जा रहा हूंे तो बात में वजन नहीं आता इसलिये ‘जंग’ शब्द लगाता हूं। प्रतियोगिता तो ऐसा लगता है जैसे कि कोई पांच वर्ष का बच्चा चित्रकला प्रतियागिता में जा रहा हो। ‘जंग’ से प्रचार में वजन आता है।’
माशुका ने कहा-‘हां, यह बात ठीक लगती है। तुम यह कांपटीशन से जीतकर लौटोगे तो मैं तुम्हारा स्वागत ऐसा ही करूंगी कि जैसे कि जंग से लौटे बहादूरों का होता है। विजयी भव!
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Saturday, December 20, 2008

स्वर्ग में जगह दिलाने के लिए-हास्य कविता

एजेंट ने कहा उस बुजुर्ग आदमी से कि
"अपने जीवन का बीमा कराईये
और अपने मरने की बाद की चिंताओं से
हमेशा मुक्ति पाईये"
आदमी ने खुश होकर कहा
"बाकी चिंताओं से मुक्त हो गया हूँ
अपने सारे बोझ ढो गया हूँ
बस फिक्र मरने के बाद की है
देख रहा हूँ कई बच्चे
अच्छी तरह अपने बाप का
अन्तिम संस्कार नहीं करते
श्राद्ध करने के मामले पर आपस में लड़ते
बाप को स्वर्ग में जगह दिलाने के लिए
कुछ नहीं करते
आपकी इस बारे में क्या योजना है
पहले विस्तार से बताईये"

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Wednesday, December 17, 2008

बाजार में बिक सके वही मोहब्बत करना-व्यंग्य कविता

खूब करो क्योंकि हर जगह
लग रहे हैं मोहब्बत के नारे
बाजार में बिक सकें
उसमें करना ऐसे ही इशारे
उसमें ईमान,बोली,जाति और भाषा के भी
रंग भरे हों सारे
जमाने के जज्बात बनने और बिगड़ने के
अहसास भी उसमें दिखते हांे
ऐसा नाटक भी रचानां
किसी एकता की कहानी लिखते हों
भले ही झूठ पर
देश दुनियां की तरक्की भी दिखाना
परवाह नहीं करना किसी बंधन की
चाहे भले ही किसी के
टूटकर बिखर जायें सपने
रूठ जायें अपने
भले ही किसी के अरमानों को कुचल जाना
चंद पल की हो मोहब्बत कोई बात नहीं
देखने चले आयेंगे लोग सारे
हो सकती है
केवल जिस सर्वशक्तिमान से मोहब्बत
बैठे है सभी उसे बिसारे

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Thursday, December 11, 2008

बन जाए कोई आदमी एक चुटकुला-व्यंग्य कविता

अपने दर्द का बयाँ किससे करें
जबरन सब हँसते को तैयार हैं
ढूंढ रहे हैं सभी अपनी असलियत से
बचने के लिए रास्ते
खोज में हैं सभी कि मिल जाए
अपना दर्द सुनाकर
बन जाए कोई आदमी एक चुटकुला
दिल बहलाने के वास्ते
करते हैं लोग
ज़माने में उसका किस्सा सुनाकर
अपने को खुश दिखाने की कोशिश
इसलिए बेहतर है
खामोशी से देखते जाएँ
अपना दर्द सहते जाएँ
कोई नहीं किसी का हमदर्द
सभी यहाँ मतलब के यार हैं

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Wednesday, December 10, 2008

मोहब्बत है विज्ञापन के लिए-व्यंग्य कविता

जगह-जगह नारे लगेंगे
आज प्यार के नारे
बाहर ढूंढेंगे प्यार घर के दुलारे
प्यार का दिवस वही मनाते
जो प्यार का अर्थ संक्षिप्त ही समझ पाते
एक कोई साथी मिल जाये जो
बस हमारा दिल बहलाए
इसी तलाश में वह चले जाते

बदहवास से दौड़ रहे हैं
पार्क, होटल और सड़क पर
चीख रहे हैं
बधाई हो प्रेम दिवस की
पर लगता नहीं शब्दों का
दिल की जुबान से कोई हो वास्ता
बसता है जो खून में प्यार
भला क्या वह सड़क पर नाचता
अगर करे भी कोई प्यार तो
भला होश खो चुके लोग
क्या उसे समझ पाते
प्यार चाहिऐ और दिलदार चाहिए के
नारे लगा रहे
पर अक्ल हो गयी है भीड़ की साथी
कैसे होगी दोस्त और दुश्मन की पहचान
जब बंद है दिमाग से दिल की तरफ
जाने का रास्ता
अँधेरे में वासना का नृत्य करने के लिए
प्यार का ढोंग रचाते
यह प्यार है बाजार का खेल
शाश्वत प्रेम का मतलब
क्या वाह जानेंगे जो
विज्ञापनों के खेल में बहक जाते

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Monday, December 8, 2008

हर नशा बना देता है बेहया-व्यंग्य शायरी

सुबह का भूला शाम को
घर वापस आ जाता है
पर रात को जो भटका
वह सुबह तक वापस
नहीं आये तो घर में
तूफ़ान मच जाता है
घर में भूख का डेरा
शराब से नशे में चूर
आदमी की आंखों में
मदहोशी का अँधेरा
किसी गटर में गिरकर
या किसी वाहन से कुचलकर
जीवन की जो दे जाता है आहुति
उस पर भला कौन तरस खाता है
शराब मत पियो यारो शराब
उसका नशा तुम्हारी जिन्दगी को
खुद ही पी जाता है
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शराब का नशा आख़िर
दिमाग से उतर जाता है
पर दौलत, शौहरत और सोहबत का नशा
सिर चढ़कर बोले
आदमी को बेहया बना देता है
ज्ञान के अंधे से बुरा है
किसी का अज्ञान में मदांध होना
जो आदमी को शैतान बना देता है
जो निर्धन हैं और
पूंजी जोडे हैं विनम्रता की
उनसे दोस्ती भली
अपनी अमीरी, पहुंच और सोहबत के
नशे में चूर अहंकारी से दूरी भली
पीठ में छुरा घौपने में
उनमें तनिक भय नहीं आता है

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Friday, December 5, 2008

पेट भरा होते भी इंसान रोटी की जुगाड़ में जुट जाता-व्यंग्य शायरी

हमें पूछा था अपने दिल को
बहलाने के लिए किसी जगह का पता
उन्होने बाजार का रास्ता बता दिया
जहां बिकती है दिल की खुशी
दौलत के सिक्कों से
जहाँ पहुंचे तो सौदागरों ने
मोलभाव में उलझा दिया
अगर बाजार में मिलती दिल की खुशी
और दिमाग का चैन
तो इस दुनिया में रहता
हर आदमी क्यों इतना बैचैन
हम घर पहुंचे और सांस ली
आँखें बंद की और सिर तकिये पर रखा
आखिर उस नींद ने ही जिसे हम
ढूढ़ते हुए थक गये थे
उसका पता दिया

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सांप के पास जहर है
पर डसने किसी को खुद नहीं जाता
कुता काट सकता है
पर अकारण नहीं काटने आता
निरीह गाय नुकीले सींग होते
हुए भी खामोश सहती हैं अनाचार
किसी को अनजाने में लग जाये अलग बात
पर उसके मन में किसी को मरने का
विचार में नहीं आता
भूखा न हो तो शेर भी
कभी शिकार पर नहीं जाता
हर इंसान एक दूसरे को
सिखाता हैं इंसानियत का पाठ
भूल जाता हां जब खुद का वक्त आता
एक पल की रोटी अभी पेट में होती है
दूसरी की जुगाड़ में लग जाता
पीछे से वार करते हुए इंसान
जहरीले शिकारी के भेष में होता है जब
किसी और जीव का नाम
उसके साथ शोभा नहीं पाता
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Friday, November 28, 2008

दूसरा सच-हिंदी शायरी


कहीं लगी आग है
कहीं बरसती बहार
कहीं है खुशी खेलती
कहीं गम करते प्रहार
शोक मनाओ
मूंह फेर जाओ
जीवन के पल तो गुजरते जाना है
जो दिल को तकलीफ दें
मत उठाओ उन यादों का भार

धरती बहुत बड़ी है
जबकि जिंदगी छोटी
कभी हादसे होते सामने
कभी लग जाती है हाथ मिल्कियत मोटी
धरती के कुछ टुकडों पर बरसती आग
तो बर्फ बिखेरती शीतलता का राग
जो छोड़ जाते दुनिया
उनका शोक क्यों करते
जो जिंदा है उनकी कद्र करो
कभी कभी आसमान से बरसा कहर
शब्दों को सहमा देता है
पर फिर भी समझना नहीं उनकी हार

दिखलाते है बहुत लोग तस्वीरें बनाकर
सभी को सच समझना नहीं
उनके पीछे छिपा होता है
दूसरा सच कहीं
कदम कदम पर बिखरा है प्रायोजित झूठ
तस्वीरें के पीछे देखे बिना
अपनी राय कायम करना नहीं
बिकते हैं बाजार में जज्बात
इसलिये जोड़ी जाती है उनसे हर बात
गुलाम बनाने के लिये
आदमी को पकड़ने की बजाय
उसके दिमाग पर किया जाता है घात
रची जाती है हर पल यहां
दर्द की नयी दास्तान
गिराया जाता है कोई न कोई छोटा आदमी
किसी को बनाने के लिये महान
कई हकीकतें हमेशा कहानियां नहीं बनतीं
पर कहानियां कई बार हकीकत हो जाती
जज्बात के सौदागरों का क्या
कभी दर्द तो कभी खुशी
उनके लिये बेचने की शय बन जाती
आखों से देखा
कानों से सुना
हाथों से छुआ भी झूठ हो सकता है
अगर अपनी सोच में नहीं गहराई तो
वाद और नारों का जाल में
किसी का दिमाग भी उलझ सकता है
जितना बड़ा है विज्ञान
उतना ही भ्रमित हुआ ज्ञान
इस जहां में हो गये हैं धोखे अपार

अपनी आंखों से सुनना
कानों से भी खूब सुनना
छूकर हाथ से देख लेना
पर अपने जज्बातों पर रखना काबू
नहीं आये किसी के बहकावे में
तो कुछ लोग अभिमानी कहेंगे कहेंगे
सवाल पूछोगे तो
शोर मचाने वाली कहानी कहेंगे
पल भर में टूटते और बनते लोगों के ख्याल
किसी की सोच को आगे नहीं बढ़ाते
तस्वीरों की सच्चाई में वह खुद ही बहक जाते
दुनियां इतनी बड़ी है पर
थोड़ी दुर्गंध में घबड़ाते
और मामूली सुंगंध में लोग महक जाते
कभी हादसों से गुजरती तो
कभी खुशियों के साथ बहती यह जिंदगी
बहती हुई धारा है
आदमी बनते बिगड़ते हैं हर पल
वह रंग बदलती है बारबार
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Monday, November 24, 2008

धड़कनों और जज्बातों का अहसास न था-हिंदी शायरी

चले थे हम अपने इस अनजान पथ पर
न मंजिल का पता था
न मकसद का
लोगों ने किये कई सवाल
जिनका जवाब नहीं था

क्योंकि जहां जिंदगी चलती है
दौलत कमाने के वास्ते
वहां बिकते है सभी रास्ते
जहां चाहता है इंसान शौहरत अपने लिये
वहां तैयार हो जाता है समझौतों के लिये
जहां ख्वाहिश है महल पाने की
वहां भला कौन करता है फिक्र करता जमाने की
जिसके दिल में ख्याल है
खुली आंखों से देखना जिंदगी को
वह जमाने से अलग हो जाते
चलते लगते हैं सबके साथ रास्ते पर
पर जमीन की हर चीज में अपन ख्याल नहीं लगाते
पत्थर और पैसों में जज्बात ढूंढने वाले
भला कब खुश रह पाते
हमने भी देख लिया
छूकर हर शय को
जिन पर मर मिटता है जमाना
कोशिश करता है हर चीज में खुद ही समाना
चमकती लगी हर शय
जिसमें दिल लगा लिया लोगों ने
हम दूर होकर चलते रहे अपने रास्ते पर
क्योंकि उनमें धड़कनों और जज्बातों का अहसास न था

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Saturday, November 15, 2008

फिर किनारों ने सुध नहीं ली-व्यंग्य शायरी

तालाब के चारों और किनारे थे
पर पानी में नहाने की लालच मेंं
नयनों के उनसे आंखें फेर लीं
पर जब डूबने लगे तो हाथ उठाकर
मांगने लगे मदद
पर किनारों ने फिर सुध नहीं ली
.....................................
दिल तो चाहे जहां जाने को
मचलता है
बंद हो जातीं हैं आंखें तब
अक्ल पर परदा हो जाता है
पर जब डगमगाते हैं पांव
जब किसी अनजानी राह पर
तब दुबक जाता है दिल किसी एक कोने में
दिमाग की तरफ जब डालते हैं निगाहें
तो वहां भी खालीपन पलता है

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Sunday, November 2, 2008

देवताओं की कृपा है इसलिये अमीरी भी बसती है-आलेख

भारत की गरीबी पूरे विश्व में हमेशा चर्चित रही है। यही कारण है कि भारत के जब आर्थिक विकास की चर्चा होती है तो यहां की गरीबी पर भी दृष्टिपात किया जाता है। अभी तक विश्व के अनेक लोग यह तय नहीं कर पा रहे कि भारत एक गरीब देश है या अमीर।
स्विस बैंक एसोसिएशन में विभिन्न देशों के लोगों द्वारा जमा के आंकड़े देकर यह सवाल पूछा गया है कि ‘कौन कहता है कि भारत एक गरीब देश है’। इसमें क्रमवार पहले पांच देशों का नाम दिया गया है। ताज्जुब की बात है कि भारत का पहला नंबर है और शायद इसी कारण यह प्रश्न किया गया है।
कुछ लोग हैरान है! हर कोई अपने दृष्टिकोण से टिप्पणी कर रहा है। इस लेखक ने भी इसे पढ़ा पर उसकी दिलचस्पी केवल स्विस बैंक द्वारा दिये गये आंकड़े और ऊपर ब्लाग में लिखे गये शीर्षक में थी।
पहले तो यह बात है कि हम कतई नहीं कहते कि भारत एक गरीब देश है। हां, दुनियां के सबसे अधिक गरीब यहां रहते हैं और औसत आंकड़े भी अन्य देशों से अधिक है इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता। यही गरीब एक शोपीस बन गया है। उसके नाम पर जितनी सहायता देश और विदेशों से आती है वह अगर उसके पास पहुंच जाये तो शायद वह अपनी गरीबी भूल जाये। ऐसा होना नहीं है क्योंकि फिर दुनियां भर के अमीर क्या करेंगे? यहां की गरीबी मिटती नहीं तो केवल इसलिये कि वह विश्व की दर्शनीय वस्तु बनकर रह गयी है जिसके आधार पर अनेक फिल्में और उपन्यास बिक जाते हैं। कुछ लोग यहां भी उनके नाम पर नारे और वाद चलाकर अपना काम चला लेते हैं इस आशा में शायद उनको विदेश में कोई पुरस्कार मिल जाये। अनेक फिल्में बनीं और उपन्यास लिखे गये और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनको पुरस्कार मिला। कथित रूप से सम्मानित फिल्मकार और उपन्यासकार उसके परिणाम स्वरूप यहां अपने जलवे पेलते रहे। कई लोग मूंह बनाकर गरीबों को दर्द का बयां करते हैं तो कुछ विदेश से सम्मानित होकर यहां अनर्गल बातें करते हैं और उनको अखबार में जगह मिल जाती है।

एक उपन्यासकारा हैं जिनका उपन्यास विदेश में सम्मानित हो गया उसके बाद ही उनको इस देश में पहचाना गया। आजकल उनके अनेक विषयों पर विचार प्रकाशित होते हैं और यकीन मानिये वह एकदक अनर्गल प्रलाप लगते हैं। अंतर्जाल पर मित्र लोग उसके विचार प्रकाशित कर अपने आपको धन्य समझते हैं। कई बार विचार आता है कि यहां जवाब दें पर एक तो यहां पाठक कम है दूसरे यह लेखक कोई प्रसिद्ध नहीं कि कोई उसकी सुनेगा। इसलिये ऊर्जा बेकार करना ठीक नहीं लगता है । बहरहाल भारत की गरीबी और कथित सामाजिक दुर्दशा पर अंग्रेजी में लिखने वाले बहुत लोकप्रिय होते हैं पर हिंदी में उनका कोई सम्मान नहीं होता। हिंदी वाले वैसे ही गरीब हैं भला वह क्यों ऐसी बोरिंग रचनाऐं पढ़ेंगे। वैसे भी कहा जाता है कि आदमी के मन को अपनी विपरीत परिस्थितियों का देख और पढ़कर ही मनोरंजन प्राप्त होता है और अंग्रेजी वालों के पास धन और वैभव इसलिये उनको ही ऐसी रचनायें पसंद आती हैं।

बहरहाल हम देश की अमीरी और यहां गरीबों की स्थिति पर नजर डालें। यह देश अमीर है क्योंकि यहां देवताओं का वास है। इंद्र,वायु और अग्नि देवता यहां वास करते हैं और उनकी कृपा से अमीर और गरीब दोनों ही पल जाते हैं। यह कोई अंधविश्वास की स्थापना का प्रयास नहीं है। यह तो पश्चिम के भूवैज्ञानिक द्वारा दी गयी यह जानकारी है कि जितना भूजल भारत में उपलब्ध है उतना अन्य किसी देश में नहीं है। इस मामले में वह भारत को भाग्यशाली मानते हैं। अब यह तो सभी जानते हैं कि इस प्रथ्वी पर जीवन का आधार तो जल ही है। जल की वजह से यहां वायु और अग्नि देवता की भी कृपा है। यही कारण लोग उनको पूजते हैं और वह उनकी रक्षा करते हैं। ब्रह्मा जी ने देवताओं की उत्पति कर यही कहा था कि देवता प्रथ्वी पर जीवन का सृजन कर उसका पालन करें और मनुष्य उनकी पूजा करें। यही तो सब सदियों से चल रहा है। ब्रह्मा जी ने धन धान्य से इस देश को संपन्न किया और फिर लोगों को मानसिक शांति दिलाने के लिये भक्ति अध्यात्म ज्ञान के लिये भी यहां अपने विचार भी रखे। याद रखिये भारत को विश्व में अध्यात्म गुरु भी माना जाता है और सोने की चिडि़या तो पहले भी कहा जाता था पर बीच में छोड़ दिया था अब फिर सवाल उठा है तो जवाब देना पड़ता है कि हां भई यहां लक्ष्मीजी का भी वास है।

इस देश का आकर्षण सदियों से विश्व की दृष्टि में रहा है क्योंकि यहां का अध्यात्मिक ज्ञान और धन धान्य से संपन्नता सभी को लुभाती है। यही कारण है कि इस पर आक्रमण होते रहे। लोग यहां से लूटकर सामान अपने देश में पहुंचाते रहे, मगर फिर भी यह देश गरीब नहीं हुआ क्योकि यहां प्राकृतिक साधनों में की स्थिति यथावत रही। अन्य हमलावार तो यहां की संस्कृति नहीं मिटा सके पर अंग्रेजों ने यह काम भी कर दिया। देश के विभिन्न राजाओं और अन्य शीर्षस्थ लोगों में व्याप्त अहंकार का लाभ उठाकर उनको ही आपस में लड़ाया। आये थे ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से व्यापार करने और देश के शासक बन गये। इस देश में हमेशा शासन रहे इसलिये ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया जो केवल गुलाम पैदा करती है। वह चले गये पर अपना तंत्र ऐसा बना गये कि आज भी देश का छोटा बड़ा आदमी उनको ही पदचिन्हों पर चल रहा है। आपस में ही एक दूसरे पर विश्वास नहीं है।

पैसा तो गरीब का ही है क्योंकि उसके पसीने से ही बनता है आर्थिक सम्राज्य। किसान जमीन में जो फसल उगाते हैं उसी से ही सारे देश का काम चलता है। मजदूर और किसान को अपने श्रम का जो प्रतिफल मिलना चाहिये वह पूरा नहीं मिलता। उसको प्रतिफल में हुई कमी बनाते हैं किसी को अमीर और वहीं पैसा आज स्विस बैंक में जमा है।
भारतीय अध्यात्म में दान की महिमा बहुत है पर गरीबों के मसीहाओं को वह रास नहीं आता क्योंकि उसमें हक जैसा आभास नहीं आता। गरीबों को हक दिलाने का नारा यहां के लोगों को आज भी प्रिय लगता है और जो जितनी जोर से यह नारा लगाता है वह उनका दिल जीत लेता है। यही कारण है कि जन कल्याण एक फैशन और व्यापार की तरह हो गया है। जो जन कल्याण समाज के शक्तिशाली लोग स्वेच्छा करते थे वह भी इस कारण पीछे हट गये। अब जल कल्याण केवल राज्य के अधीन है और सभी समाजों और समुदायों के शीर्षस्थ लोग केवल उन पर नियंत्रण करने के लिये कल्याण का दिखावा करते हैं।

इस देश से पैसा ले जायेंगे फिर भी यह देश हारेगा नहीं-यह बात अंग्रेजों ने देख ली थी। वह यहां के लोगों के मन मस्तिष्क से भारतीय अध्यात्म और दर्शन की स्मृतियां मिटाना चाहते थे। इसलिये उन्होंने ऐसी विचारधाराओं को आगे बढ़ाया जो उसे नष्ट कर सकते है।
मूर्तिपूजा अंध विश्वास है। सभी भगवान के स्वरूप मिथक हैं। सभी साधु सन्यासी भ्रष्ट हैं। यज्ञ हवन से कुछ नहीं होता। आदि आदि ऐसी बातें कही गयीं। आज भारत में उनके अग्रज भी यही कहते हैं। वैसे कहने वाले कुछ भी कहते रहें पर यह वास्तविकता यह है कि अनेक लोग उनकी परवाह नहीं करते। मंदिर जाकर पत्थर की प्रतिमा पर माला या जल चढ़ाने वाले सुखी नहीं है तो वह भी कौन सुखी हैं जो नहंी जाते। आस्तिक दुखी है तो नास्तिक कौन यहां स्वर्ग भोग रहे हैं। इसके विपरीत जो मंदिरों पर जाकर माला या जल चढ़ाकर अपने आस्तिक भाव से जुड़े है उनके चेहरे पर फिर भी रौनक लगती है और अवसर पर पड़े तो वही किसी गरीब की सहायता कर देते हैं। जो अपने नास्तिक होने के अहंकार में हैं वह तो बस गरीबों की तरफ देखकर अपनी बातें बोल और लिखकर प्रसिद्ध जरूर पा लेते हैं पर किसी गरीब के लिये व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं करते। इसके लिये वह राज्य की तरफ देखते हैं और उसे ही कोसते है।

पहले अनेक लोग ऐेसे होते थे जो थोड़ा पैसा होने पर कहीं तीर्थ वगैरह करने चले जाते थे। वहां अनेक सेठ साहुकारों द्वारा बनी गयी धर्मशालायें होती थीं पर अब तो सभी जगह फाइव स्टार होटल हो गये हैं और यकीनन उनको उनमे सामान्य आदमी के रहने की शक्ति नहीं होती। इसके बावजूद लोग जाते हैं क्योंकि देवताओं की कृपा से खाना और पानी तो मिल ही जाता है। अमीर और गरीब आज भी अपने देवताओं को पूजते है और अभी भी यह पश्चिम के लिये यह असहनीय है। इसलिये वह ऐसा सवाल उठाते हैं कि ‘कौन कहता है कि भारत गरीब है‘। मगर उनसे यह कहा किसने था? कार्ल माक्र्स ने अपनी विचारधारा को पश्चिम में बैठकर लिखा था। उनका मित्र भी एक पूंजीपति था। मजे की बात यह है कि पश्चिम और पूंजीपति ही उनकी विचारधारा के विरोधी रहे पर पूर्व के लोगों ने उसे हाथों हाथ लिया क्योंकि उसमें थे केवल गरीबों के नारे जिसमें गरीब आसानी से बहल जाये।

पूर्व में समाज स्वसंचालित थे पर धीरे धीरे समाज को सरकार से नियंत्रित बना कर उनको समाप्त कर दिया गया । अब अमीर लोग समाज के गरीब लोगों के लिये स्वयं कल्याण करने का काम नहीं करते बल्कि यह राज्य की जिम्मेदारी मानते हैं। धन तो धन है वह उनके पास बढ़ता ही जाता है और वह उनको पश्चिम में भेज देते हैं। पश्चिम की मौज है और यहां चलती रहते हैं बस खालीपीली बहसें। समाज,भाषा और क्षेत्रों को लेकर लोग आपस में झगडे करते है। चीन अपने समाज को मिटा चुका है अब वह दूसरी जगह यही करने का काम कर रहा है। वह अपनी प्रगति का प्रचार कर रहा है पर उसकी वास्तविकता बताने के लिये वहां कोई स्वतंत्र माध्यम नहीं है। भारत में कम से कम यह तो है कि सब सामने आ जाता है। जैसे यह बात आ गयी कि स्विस बैंकों में सबसे अधिक भारतीयों का पैसा जमा है। बहरहाल यह बात तो है कि भारत में देवताओं की कृपा के कारण प्राकृतिक साधनों का बाहुल्य है इसलिये यहां गरीबी के साथ अमीरों की भी बस्ती है। यह अलग बात है कि अमीर अपना अतिरिक्त धन गरीबों के साथ नहीं बांटते बल्कि पश्चिम वालों पर भरोसा कर उनको सौंप देते हैं।
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Thursday, October 30, 2008

धमाकों से शब्द उदास हो जाते हैं-हिन्दी कविता

जब बमों की आवाज से
शहर काँप जाते हैं
बाज़ार में सड़कों पर
फैले खून के दृश्य
आखों के सामने आते हैं
तब बैठने लगता है दिल
लड़खडाने लगती है जुबान
हाथ रुक जाते हैं
तब अपने शब्द लडखडाते नजर आते हैं

लगता है कि कोई
मुस्करा रहा है यह बेबसी देखकर
क्योंकि बुलंद आवाज और
बोलते शब्द उसे पसंद नहीं आते हैं
उसके चेहरे पर है कुटिलता का भाव
लगता है उसी ने दिया है घाव
आजादी देने के बहाने
अपने पास बुलाकर
मन में खौफ भरकर
लोगों को गुलाम बनाने के बहाने उसे खूब आते हैं

क्या बाँटें दर्द अपना
किससे कहें हाल दिल का
लोगों के खून के साथ होली खेलने वाले
चुपके से निकल जाते हैं
अपना उदास चेहरा किसे दिखाएँ
कही अपने कदम न लडखडायें
यहाँ खंजर लिए है कौन
पता नहीं चलता
पीठ में घोंपने के लिए सब तैयार नजर आते हैं

ज़माने में अमन और चैन बेचने का भी
व्यापार होता है
भले ही मिल नहीं पाते हैं
पर दहशत के सौदागर फलते हैं इसलिए
क्योंकि दाम लेकर खून का
सौदा हाथों हाथ किये जाते हैं
इंसानी रिश्तों को वह क्या समझेंगे
जो इसका मोल नहीं जान पाते हैं
बुलंद आवाज़ और शब्दों की ताकत क्या समझेंगे
वह बम धमाकों में ही
अपने को कामयाब समझ पाते हैं
उनकी आवाज से खून बहता है सड़क पर
तकलीफों के कारवाँ
लोगों के घर पहुँच जाते हैं
पर सहमा शब्द
लडखडाते हुए चलते हुए भी
लम्बी दूरी तय कर जाते हैं
मिटते नहीं कभी
समय की मार से मरने वाले बचे ही कहाँ
पर मारने वाले भी कब बच पाते हैं
दहशत से शब्द कभी न कभी तो उबार आते हैं
भले ही धमाको से शब्द उदास हो जाते हैं

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Wednesday, October 29, 2008

आम और खास आदमी-व्यंग्य कविता

समाज को केक की तरह बांट कर
वह खा जाते
मतलब निकाल गया
कुछ इसने खाया तो कुछ उसने
खास आदमी के दरबारी खेल को
आम आदमी भला कहां समझ पाते
हर बार उनकी दरबार में
समूह में केक की तरह सज जाते
इशारा मिलते ही खुद ही
छूरी बनकर अपने टुकड़े किये जाते
.........................

खास आदमी के
पद,पैसे और वैभव को देखकर
आम आदमी उनकी
अक्ल की तारीफ के पुल बांधे जाते
न हो जिनके पास वह
अक्ल होते हुए भी
अपने घर में ही बैल माने जाते
इसलिये अक्लमंद आम आदमी
खामोशी में अपने लिये अमन और चैन पाते

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Monday, October 27, 2008

दीपावली पर जमकर मिठाई खायी लोगों को बतायेंगे-हास्य कविता

दीपावली मेले में दुकान से
घर सजाने के लिये मिट्टी के बने
कुछ खिलौने खरीदने पर
उनका मिठाई का ध्यान आया तो बोले
‘भईया, तुम्हारे मिट्टी के फल तो
असली लगते हैं
हम इसे अपने ड्रांइग रूम में सजायेंगे
ऐसे ही मिठाई के भी दिखाओ
आजकल विषैले खोये की वजह
से मिठाई खरीदने की हिम्मत नहीं होती
अगर मिल जायें मिठाई के खिलौने तो बहुत अच्छा
उसे भी इनके साथ सजायेंगे
हमने भी दीपावली पर जमकर
मिठाई खाई लोगों को बतायेंगे

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Saturday, October 25, 2008

अपने हाथ मलते रहे-हिन्दी शायरी

उनकी निगाहों पर ही
हमेशा मरते रहे
जो देखा उन्होंने एक नज़र
हम हर बार आहें भरते रहे
कभी कोशिश नहीं की
उनके दिल को पढने की
जो आँखों में हैं वही होगा उसमें भी
यही सोचकर उनकी संगत करते रहे
जब उन्होंने खोला दिल का राज़ तो
किसी और का नाम लिखा था
हमें कुछ फिर नहीं दिखा था
आँखे बंद कर बस अपने हाथ मलते रहे

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Tuesday, October 21, 2008

अपने शहर पर इतना न इतराओ-व्यंग्य कविता

अपने शहर पर इतना नहीं इतराओ
कि फिर पराये लगने लगें लोग सभी
कभी यह गांव जितना छोटा था
तब न तुम थे यहां
न कोई बाजार था वहां
बाजार बनते बड़ा हुआ
सौदागर आये तो खरीददार भी
गांव से शहर बना तभी

आज शहर की चमकती सड़कों
पर तुम इतना मत इतराओ
बनी हैं यह मजदूरों के पसीने से
लगा है पैसा उन लोगों का
जो लगते हैं तुमको अजनबी
‘मेरा शहर सिर्फ मेरा है’
यह नारा तुम न लगाओ
तुम्हारे यहां होने के प्रमाण भी
मांगे गये तो
अपने पूर्वजों को इतिहास देखकर
अपने बाहरी होने का अहसास करने लगोगे अभी

अपने शहर की इमारतों और चौराहों पर
लगी रौशनी पर इतना मत इतराओ
इसमें जल रहा है पसीना
गांवों से आये किसानों का तेल बनकर
घूमने आये लोगों की जेब से
पैसा निकालकर खरीदे गये बल्ब
मांगा गया इस रौशनी का हिसाब तो
कमजोर पड़ जायेंगे तर्क तुम्हारे सभी

यह शहर धरती का एक टुकड़ा है
जो घूमती है अपनी धुरी पर
घूम रहे हैं सभी
कोई यहां तो कोई वहां
घुमा रहा है मन इंसान का
अपने चलने का अहसास भ्रम में करते बस सभी
जिस आग को तुम जला रहे हो
कुछ इंसानों को खदेड़ने के लिये
जब प्रज्जवलित हो उठेगी दंड देने के लिये
तो पूरा शहर जलेगा
तुम कैसे बचोगे जब जल जायेगा सभी

अपने शहर की ऊंची इमारतों और
होटलों पर इतना न इतराओ
दूसरों को बैचेन कर
अपने लोगों को अमन और रोटी दिलाने का
वादा करने वालों
बरसों से पका रहे हो धोखे की रोटी
दूसरों की देह से काटकर बोटी
अधिक दूर तक नहीं चलेगा यह सभी
दूसरों की भूख पर अपने घर चलाने का रास्ता
बहुत दूर तक नहीं जाता
क्योंकि तुम हो छीनने की कला में माहिर
रोटी पकाना तुमको नहीं आता
जान जायेगें लोग कुछ दिनों में सभी

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Sunday, October 19, 2008

महापुरुषों में जादूगर कहलायेगा-हास्य कविता

अपने नवजात पोते को लेकर
दादाजी पहुंचे भविष्यवक्ता के पास
और बोले
''महाराज मेरा बेटा तो एक
क्लर्क बनकर रह गया
उसका दर्द किसी तरह सह गया
मेरे खानदान का नाम आकाश में चमकेगा
ऐसा कोई चिराग मेरे घर आएगा
इन्तजार करते हुए बरसों बीत गए
आप देखो इस बालक को क्या
अपनी जिन्दगी में यह तरक्की कर पायेगा"

उसका हाथ देख भविष्वक्ता ने कहा
"नहीं, यह ऐसा कुछ नहीं कर पायेगा"

यह सुन दादाजी का हो गया मूंह उदास
भविष्य वक्ता आये उसके कुछ और पास
बोले-
'पर विचलित क्यों होते हो
फिर भी तुम्हारा काम पूरा कर पायेगा
ज़माने भर को देगा आश्वासन
जो कभी पूरी नहीं करेगा
अनेक करेगा घोषणाएं
पर उस पर कभी अमल नहीं करेगा
चिंता मत करो
बस किसी भी तरह अपना घर भरेगा
नित करेगा नए स्वांग
सभी जादूगर करेंगे इसके हुनर की मांग
बहुत दूर तक पैदल चलता दिखेगा पर
कार से बाहर नहीं निकालेगा टांग
अपनी मोहनी विधा से सबका दिल जीत लेगा
नित नए नए नारे लगायेगा
अनेक वाद चलाएगा
ऐसे भ्रम जाल रचेगा
लोग भुला देंगे पुराने सपनों को
इसके नए दिखाए से हर कोई प्रीत करेगा
जादूगरों में महापुरुष और
महापुरुषों में जादूगर कहलायेगा
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Monday, October 13, 2008

जिन्दे को खाए, पर मरे से डरता आदमी-हास्य व्यंग्य कविता

बरसात का दिन, रात थी अंधियारी
गांव से दूर ऐक झौंपडी में
गरीब का चूल्हा नही जल पाया
घर में थी गरीबी की बीमारी
भूख से बिलबिलाते बच्चे और
पत्नी भी परेशानी से हारी
देख नही पा रहा था
आखिर चल पडा वह उसी साहूकार के घर
जिसने हमेशा भारी सूद के साथ
जोर जबरदस्ती वसूल की रकम सारी
जिसकी वजह से छोडा था गांव
और उसके परिवार सहित मरने की
झूठी खबर सुनकर
भूल गयी थी जनता सारी


बरसात में भीगे सफ़ेद कपडे उस पर
जमी थी धूल ढेर सारी
आंखें थीं पथराईं गाल पर बह्ते आंसू
साहूकार के घर तक पहुचते-पहुंचते
चेहरा हो गया ऐकदम भूत जैसा
रात के अंधियारे में देखकर उसे
सब घबडा गये वहां के नौकर
भागते-भागते मालिक को देते गये खबर सारी


जब तक वह संभलता पहुंच गया उसके पास
ताकतवर बना गरीब अपने भूत की बलिहारी
जिसकी आवाज थी बंद, मन था भारी
उसने मांगने के लिये हाथ एसे उठाये
जैसे हो कोई भिखारी
साहूकार कांप रहा था
भागा अंदर और अल्मारी से
निकाल लाया नोटों की गड्ढी
और आकर उसके हाथ में दी
कागज पर अंगूठा लगाने के
इंतजार में वह खडा रहा
कांपते हुए साहूकार ने कहा
''और भी दूं'
तेज बरसात की आवाज में उसने नहीं सुना
बस स्वीकरोक्ति में अपना सिर हिलाया
साहुकार फ़िर अंदर गया और गड्ढी ले आया
और उसके हाथ में दी
उसने हाथ में लेते हुए
अंगूठे के निशान के लिये किया इशारा
साहूकार था डर का मारा बोला
'महाराज उसकी कोई जरूरत नहीं है
आप मेरी जान बख्श दो, चाहे ले लो दौलत सारी'
वह लौट पडा वापस यह सोचकर कि
मेरी परेशानी से साहूकार द्रवित है
इसलिये दिखाई है कृपा ढेर सारी


साहूकार का ऐक समझदार नौकर
पूरा दृश्य देख रहा था
वह उस गरीब के पीछे आया
और उससे कहा
'मैं जानता हूं तुम भूत नहीं हो
बरसात की वजह से तुम्हें काम
नहीं मिलता होगा इसलिये कर्जा मांगने आये हो
अपने हाल की वजह से भूत की तरह छाये हो
कभी तुमने सोचा भी नहीं होगा
आज इतने पैसे पाये हो
कल तुम छोड् देना अपना घर
वरना टूट पडेगा साहूकार का कहर्
कल फ़ैल जायेगी पूरे गांवों में खबर सारी
मैं भी तुम्हारी तरह गरीब हूं
इसलिये करता हूं तरफ़दारी'
उस गरीब के समझ में आयी पूरी बात
और भूल गया वह अपनी भूख और प्यास
और नोटों की गड्ढी की तरफ़ देखते हुए बोला
'कितनी अजीब बात है
भूखे को रोटी नहीं देते और
भूत के लिये तिजोरी खोल देते
जिंदे को जीवन भर सताएं
मरों से मांगें जान की बख्शीश्
गरीब से करें सूद पर सूद वसूल
उसके भूत के आगे भूल जायें पहले
अंगूठे लगवाने का उसूल
कल छोड जाउंगा अपना घर
भूतों पर यकीन नही था मेरा
पर अपने इंसान होने की बात भी जाउंगा भूल
नहीं करूंगा फ़िर याद जिंदगी सारी
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Friday, October 10, 2008

जैसा ज्ञान, वैसा बखान-हास्य व्यंग्य

सिनेमा या टीवी के पर्दे पर चुंबन का दृश्य देखकर लोगों के मन में हलचल पैदा होती है। अगर ऐसे में कहीं किसी प्रसिद्ध हस्ती ने किसी दूसरी हस्ती का सार्वजनिक रूप से चंुबन लिया और उसकी खबर उड़ी तो हाहाकार भी मच जाता है। कुछ लोग मनमसोस कर रह जाते हैं कि उनको ऐसा अवसर नहंी मिला पर कुछ लोग समाज और संस्कार विरोधी बताते हुए सड़क पर कूद पड़ते हैं। चुंबन विरोधी चीखते हैं कि‘यह समाज और संस्कार विरोधी कृत्य है और इसके लिये चुंबन लेने और देने वाले को माफी मांगनी चाहिये।’

अब यह समझ में नहीं आता कि सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना समाज और संस्कारों के खिलाफ है या अकेले में भी। अगर ऐसा है तो फिर यह कहना कठिन है कि कौन ऐसा व्यक्ति है जो कभी किसी का चुंबन नहीं लेता। अरे, मां बाप बच्चे का माथा चूमते हैं कि नहीं। फिर अकेले में कौन किसका कैसे चुंबन लेता है यह कौन देखता है और कौन बताता है?

सार्वजनिक रूप से चुंबन लेने पर लोग ऐसे ही हाहाकार मचा देते हैं भले ही लेने और देने वाले आपस में सहमत हों। अगर किसी विदेशी होंठ ने किसी देशी गाल को चुम लिया तो बस राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए खतरा और समाज और संस्कार विरोधी और भी न जाने कितनी नकारात्मक संज्ञाओं से उसे नवाजा जाता है। कहीं कहीं तो जाति,धर्म और भाषा का लफड़ा भी खड़ा हो जाता है। पश्चिमी देशों में सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना शिष्टाचार माना जाता है जबकि भारत में इसे अभी तक अशिष्टता की परिधि में रखा जाता है। यह किसने रखा पता नहीं पर जो रखते हैं उनसे बहस करने का साहस किसी में नहीं होता क्योंकि वह सारे फैसले ताकत से करते हैं और फिर समूह में होते हैं।

इतना तय है कि विरोध करने वाले भी केवल चुंबन का विरोध इसलिये करते हैं कि वह जिस सुंदर चेहरे का चुंबन लेता हुआ देखते हैं वह उनके ख्वाबों में ही बसा होता है और उनका मन आहत होता है कि हमें इसका अवसर क्यों नहीं मिला? वरना एक चुंबन से समाज,संस्कृति और संस्कार खतरे में पड़ने का नारा क्यों लगाया जाता है।
दूसरे संदर्भ में इन विरोधियों को यह यकीन है कि समाज में कच्चे दिमाग के लोग रहते हैं और अगर इस तरह सार्वजनिक रूप से चुंबन लिया जाता रहा तो सभी यही करने लगेंगे। ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस आता है जो पूरे समाज को कच्ची बुद्धि का समझते हैं।

फिल्मों में भी नायिका के आधे अधूरे चुंबन दृश्य दिखाये जाते हैं। नायक अपना होंठ नायिका के गाल के पास लेकर जाता है और लगता कि अब उसने चुुंबन लिया पर अचानक दोनों में से कोई एक या दोनों ही पीछे हट जाते हैं। इसके साथ ही सिनेमाहाल में बैठे लड़के -जो इस आस में हो हो मचा रहे होते हैं कि अब नायक ने नायिका का चुंबन लिया-हताश होकर बैठ जाते हैं। चुम्मा चुम्मा ले ले और देदे के गाने जरूर बनते हैं नायक और नायिक एक दूसरे के पास मूंह भी ले जाते हैं पर चुंबन का दृश्य फिर भी नहीं दिखाई देता।

आखिर ऐसा क्यों? क्या वाकई ऐसा समाज और संस्कार के ढहने की वजह से है। नहीं! अगर ऐसा होता तो फिल्म वाले कई ऐसे दृश्य दिखाते हैं जो तब तक समाज में नहीं हुए होते पर जब फिल्म में आ जाते हैं तो फिर लोग भी वैसा ही करने लगते हैं। फिल्म से सीख कर अनेक अपराध हुए हैं ऐसे मेंं अपराध के नये तरीके दिखाने में फिल्म वाले गुरेज नहीं करते पर चुंबन के दृश्य दिखाने में उनके हाथ पांव फूल जाते हैंं। सच तो यह है कि चूंबन जब तक लिया न जाये तभी तक ही आकर्षण है उसके बाद तो फिर सभी खत्म है। यही कारण है कि काल्पनिक प्यार बाजार में बिकता रहे इसलिये होंठ और गाल पास तो लाये जाते हैं पर चुंबन का दृश्य अधिकतर दूर ही रखा जाता है।

यह बाजार का खेल है। अगर एक बार फिल्मों से लोगों ने चुंबन लेना शुरू किया तो फिर सभी जगह सौंदर्य सामग्री की पोल खुलना शुरू हो जायेगी। महिला हो या पुरुष सभी सुंदर चेहरे सौंदर्य सामग्री से पुते होते हैं और जब चुंबन लेंगे तो उसका स्पर्श होठों से होगा। तब आदमी चुंबन लेकर खुश क्या होगा अपने होंठ ही साफ करता फिरेगा। सौंदर्य प्रसाधनों में केाई ऐसी चीज नहीं हेाती जिससे जीभ को स्वाद मिले। कुछ लोगों को तो सौदर्य सामग्री से एलर्जी होती और उसकी खुशबू से चक्कर आने लगते हैं। अगर युवा वर्ग चुंबन लेने और देने के लिये तत्पर होगा तो उसे इस सौंदर्य सामग्री से विरक्त होना होगा ऐसे में बाजार में सौंदर्य सामग्री के प्रति पागलपन भी कम हो जायेगा। कहने का मतलब है कि गाल का मेकअप उतरा तो समझ लो कि बाजार का कचड़ा हुआ। याद रखने वाली बात यह है कि सौदर्य की सामग्री बनाने वाले ही ऐसी फिल्में के पीछे भी होते हैं और उनका पता है कि उसमें ऐसी कोई चीज नहीं है जो जीभ तक पहुंचकर उसे स्वाद दे सके।

कई बार तो सौंदर्य सामग्री से किसी खाने की वस्तु का धोखे से स्पर्श हो जाये तो जीभ पर उसके कसैले स्वाद की अनुभूति भी करनी पड़ती है। यही कारण है कि चुंबन को केवल होंठ और गाल के पास आने तक ही सीमित रखा जाता है। संभवतः इसलिये गाहे बगाहे प्रसिद्ध हस्तियों के चुंबन पर बवाल भी मचाया जाता है कि लोग इसे गलत समझें और दूर रहें। समाज और संस्कार तो केवल एक बहाना है।

एक आशिक और माशुका पार्क में बैठकर बातें कर रहे थे। आसपास के अनेक लोग उन पर दृष्टि लगाये बैठै थे। उस जोड़े को भला कब इसकी परवाह थी? अचानक आशिक अपने होंठ माशुका के गाल पर ले गया और चुंबन लिया। माशुका खुश हो गयी पर आशिक के होंठों से क्रीम या पाउडर का स्पर्श हो गया और उसे कसैलापन लगा। उसने माशुका से कहा‘यह कौनसी गंदी क्रीम लगायी है कि मूंह कसैला हो गया।’

माशुका क्रोध में आ गयी और उसने एक जोरदार थप्पड़ आशिक के गाल पर रसीद कर दिया। आशिक के गाल और माशुका के हाथ की बीचों बीच टक्कर हुई थी इसलिये आवाज भी जोरदार हुई। उधर दर्शक तो जैसे तैयार बैठे ही थे। वह आशिक पर पिल पड़े। अब माशुका उसे बचाते हुए लोगों से कह रही थी कि‘अरे, छोड़ो यह हमारा आपसी मामला है।’

एक दर्शक बोला-‘अरे, छोड़ें कैसे? समाज और संस्कृति को खतरा पैदा करता है। चुंबन लेता है। वैसे तुम्हारा चुंबन लिया और तुमने इसको थप्पड़ मारा। इसलिये तो हम भी इसको पीट रहे हैं।’

माशुका बोली‘-मैंने चुंबन लेने पर थप्पड़ थोड़े ही मारा। इसने चुंबन लेने पर जब मेरी क्रीम को खराब बताया। कहता है कि क्रीम से मेरा मूंह कसैला हो गया। इसको नहीं मालुम कि चुंबन कोई नमकीन या मीठा तो होता नहीं है। तभी इसको मारा। अरे, वह क्रीम मेरी प्यारी क्रीम है।’

तब एक दर्शक फिर आशिक पर अपने हाथ साफ करने लगा और बोला-‘मैं भी उस क्रीम कंपनी का ‘समाज और संस्कार’रक्षक विभाग का हूं। मुझे इसलिये ही रखा गया है कि ताकि सार्वजनिक स्थानों पर कोई किसी का चुंबन न ले भले ही लगाने वाला केाई भी क्रीम लगाता हो। अगर इस तरह का सिस्टम शुरु हो जायेगा तो फिर हमारी क्रीम बदनाम हो जायेगी।’

बहरहाल माशुका ने जैसे तैसे अपने आशिक को बचा लिया। आशिक ने फिर कभी सार्वजनिक रूप से ऐसा न करने की कसम खाइ्र्र।

हमारा देश ही नहीं बल्कि हमारे पड़ौसी देशों में भी कई चुंबन दृश्य हाहाकर मचा चुके हैं। पहले टीवी चैनल वाले प्रसिद्ध लोगों के चुंबन दृश्य दिखाते हैं फिर उन पर उनके विरोधियों की प्रतिक्रियायें बताना नहीं भूलते। कहीं से समाज और संस्कारों की रक्षा के ठेकेदार उनको मिल ही जाते हैं।

वैसे पश्चिम के स्वास्थ्य वैज्ञानिक चुंबन को सेहत के लिये अच्छा नहीं मानते। यह अलग बात है कि वहां चुंबन खुलेआम लेने का शिष्टाचार है। भारतीय उपमहाद्वीप में इसे बुरा समझा जाता है। चुंबन लेना स्वास्थ्य के लिये बुरा है-यह जानकर समाज और संस्कारों के रक्षकों का सीना फूल सकता है पर उनको यह जानकर निराशा होगी कि अमेरिकन आज भी आम भारतीयों से अधिक आयु जीते हैं और उनका स्वास्थ हम भारतीयों के मुकाबले कई गुना अच्छा है।

वैसे सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना अशिष्टता या अश्लीलता कैसे होती है इसका वर्णन पुराने ग्रंथों में कही नहीं है। यह सब अंग्रेजों के समय में गढ़ा गया है। जिसे कुछ सामाजिक संगठन अश्लीलता कहकर रोकने की मांग करते हैं,कुछ लोग कहते हैं कि वह सब अंग्रेजों ने भारतीयों को दबाने के लिये रचा था। अपना दर्शन तो साफ कहता है कि जैसी तुम्हारी अंतदृष्टि है वैसे ही तुम्हारी दुनियां होती है। अपना मन साफ करो, पर भारतीय संस्कृति के रक्षकों देखिये वह कहते हैं कि नहीं दृश्य साफ रखो ताकि हमारे मन साफ रहें। अपना अपना ज्ञान है और अलग अलग बखान है।
जहां तक चंबन के स्वाद का सवाल है तो वह नमकीन या मीठा तभी हो सकता है जब सौंदर्य सामग्री में नमक या शक्कर पड़ी हो-जाहिर है या दोनों वस्तुऐं उसमें नहीं होती।
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Monday, October 6, 2008

अपनी गल्तियाँ छिपाना सिखा रहे हो-हिन्दी शायरी

यूं तुम अपने दोनों हाथों में
तुन कुछ छिपा रहे हों
क्या यह वही खंजर है
जो घौंपा था किसी के विश्वास में
या किसी के धोखे से उठाया सामान है
जो नहीं दिखा रहे हो

तुम्हारे चेहरे पर पसीने की
बहती लकीरें
जुबान में कंपन
आँखों में घबडाहट
क्या वह टूटी कलम है
जिससे लिखने चले थे दूसरे की तकदीरें
मिटा बैठे पहले लिखी लकीरें
नया लिखने से लाचार रहे तुम
अब अपनी खिसियाहट मिटा रहे हो

तुम हंसते दिखना चाहते हो
अपने भय से स्वयं को ही डराते हो
बिखर गया है तुम्हारा कोई इरादा
ज़माना चला नहीं तुम्हारे बताई राह पर
अपने कहे को तुम खुद ही समझे नहीं
जो खुलती देखी अपनी पोल तो
अब मासूम शक्ल बना कर
जमाने को दिखा रहे हो
हारने पर अपनी गल्तियाँ
छिपाना सिखा रहे हो

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Wednesday, October 1, 2008

वाद और नारों पर चले थे, इसलिये हाथ मलते रहे-व्यंग्य कविता

वाद और नारों पर ताउम्र चलते रहे
उधार के तेल पर घर के चिराग जलते रहे
अक्ल भी उधार की थी सो रौशनी अपनी समझी
जब हुआ अंधेरा तो हाथ मलते रहे

जब मांगा साहूकारों ने अपने सामान का हिसाब
तो लगाने लगे नारे
वाद में ही ढूंढने लगे अपना जवाब
भीड़ में भेड़ की तरह चले
पर अकेले हुए तो
अपनी हालातों पर आंखें से आंसू ढलते रहे
जिन्होंने किये थे वादे हमेशा
रौशनी दिलाने का
वह तो पा गये सिंहासन
भूल गये अंधेर घरों को
उनके घर पर चमक बिखरी थी
अंधेरे उनसे दूर डरे लगते रहे
वाद पर चले थे जितने कदम
उनके निशान नहीं मिले
अपने ही लगाये नारों को ही भूल गये
भलाई के सौदागर तो कर गये अपना काम
बिके थे बाजार में सौदे की तरह
वह इंसान अपने हाथ मलते रहे
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Wednesday, September 24, 2008

हादसे के बाद ही क्यों आते हैं मोहब्बत के पैगाम-व्यंग्य कविता

हादसों के बाद ही क्यों आते हैं
मोहब्बत के सभी जगह पैगाम
दिल में बसे अल्फाजों को
चाहे जब भेज दो
इंतजार का क्या काम

कहीं शैतानों की वारदात होते ही
फरिश्ते करने लगते हैं
अमन लाने का काम
एक हादसें का असर खत्म होते ही
फिर नजर नहीं आते
शायद दूसरे के इंतजार में सो जाते
और शैतान कर जाते अपना काम
वारदात से दे जाते फरिश्तों को
अपने करने का नाम

ढेर सारे मोहब्बत और अमन के संदेश और कहानियां
चलकर आ जाती हैं सामने
पढ़ने और देखने के लिये
वह वह पहले क्यों नहीं आती
जब होता है जहां में आम इंसान मोहब्बत और अमन लिये
हादसे से हैरान लोग
शैतानों के सुनते हैं नाम
शायद आम इंसानों के कान खुले देखकर
फरिश्ते लेकर पहुंचते हैं अपना मोहब्बत और अमन का पैगाम
वारदात की कटु ध्वनि का असर अभी खत्म नहीं होता
कि शोर के साथ आ जाता अमन का पैगाम

कहें महाकवि दीपक बापू
दायें तरफ दिखती शैतान की प्रेम दास्तान
बायें छपते फरिश्तों के अमन के बयान
दोनों के बीच कैसा है रिश्ता
फूल और कांटे जैसा दिखता
दुनियां बनाने वाले ने
फरिश्तों की परीक्षा के लिये
शैतान बनाया
या शैतान को कभी कभार फुरसत
देने के लिये
फरिश्तों को बनाया
हम तो ठहरे आम इंसान
यह कभी समझ में नहीं आया
एक तरफ हादसों का किनारा है
दूसरी तरफ अमन का नारा
बीच में खड़े सभी लोग
इधर देखते तो
उधर से आवाज आती
उधर देखते तो
इधर से हादसे की खबर आती
कहीं धमाकों की जोरदार आवाज
तो कही अमन की कहानियां
ऐसी जंग चलती दिख रही है
जिसका कब होगा अंजाम
जुबान होते हुए भी गूंगे
कान होते हुए भी बहरे
आंख होते हुए ही प्रकाश विहीन
हो गये है हम इंसान आम
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Saturday, September 20, 2008

कदम कदम पर बिकती है भलाई यहाँ-हिन्दी शायरी

हर जगह सर्वशक्तिमान के दरबार में
बैठा कोई एक सिद्ध

आरजू लिए कोई वहां
उसे देखता है जैसे शिकार देखता गिद्द
लगाते हैं नारा
"आओ शरण में दरबार के
अपने दु:ख दर्द से मुक्ति पाओ
कुछ चढ़ावा चढ़ाओ
मत्था न टेको भले ही सर्वशक्तिमान के आगे
पर सिद्धों के गुणगान करते जाओ
जो हैं सबके भला करने के लिए प्रसिद्ध

इस किनारे से उस किनारे तक
सिद्धो के दरबार में लगते हैं मेले
भीड़ लगती है लोगों की
पर फिर भी अपना दर्द लिए होते सब अकेले
कदम कदम पर बिकती है भलाई
कहीं सिद्ध चाट जाते मलाई
तो कहीं बटोरते माल उनके चेले
फिर भी ख़त्म नहीं होते जमाने से दर्द के रेले
नाम तो रखे हैं फरिश्तों के नाम पर
फकीरी ओढे बैठे हैं गिद्द
उनके आगे मत्था टेकने से
अगर होता जमाने का दर्द दूर
तो क्यों लगते वहां मेले
ओ! अपने लिए चमत्कार ढूँढने वालों
अपने अन्दर झाँक कर
दिल में बसा लो सर्वशक्तिमान को
बन जाओ अपने लिए खुद ही सिद्ध

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Friday, September 12, 2008

सास पर लिखी दो कवितायें-व्यंग्य कविता

नयी बहू कवियित्री है
जब सास को पता लगी
तो उसकी परीक्षा लेने की बात दिमाग में आयी
उसने उससे अपने ऊपर कविता लिखने को कहा
तो बहू ने बड़ी खुशी से सुनाई
‘मेरी सास दुनियां में सबसे अच्छी
जैसे मैंने अपनी मां पायी
बोलना है कोयल की तरह
चेहरा है लगता है किसी देवी जैसा
क्यों न सराहूं अपना भाग्य ऐसा
चरण धोकर पीयूं
ऐसी सास मैंने पायी’

सास खुश होकर बोली
‘अच्छी कविता करती हो
लिखती रहना
मेरी भाग्य जो ऐसी बहू पाई’

दो साल बाद जब वह
कवि सम्मेलन जाने को थी तैयार
सास जोर से चिल्लाई
‘क्या समझ रखा है
घर या धर्मशाला
मुझसे इजाजत लिये बिना
जब जाती और आती हो
भूल जाओं कवि सम्मेलन में जाना
हमें तुम्हारी यह आदत नहीं समझ मंें आयी’

गुस्से में बहू ने अपनी यह कविता सुनाई
‘कौन कहता है कि सास भी
मां की तरह होती है
चाहे कितनी भी शुरू में प्यारी लगे
बाद में कसाई जैसी होती है
हर बात में कांव कांव करेगी
खलनायिका जैसा रूप धरेगी
समझ लो यह मेरी आखिरी कविता
जो पहली सुनाई थी उसके ठीक उलट
अब मत रोकना कभी
वरना कैसिट बनाकर रोज
सुनाऊंगी सभी लोगों को
तुम भूल जाओ अपना रुतवा
मैं नहीं छोड़ सकती कविताई’

सास सिर पीटकर पछताई
‘वह कौनसा मुहूर्त था जो
इससे कविता सुनी थी
और आगे लिखने को कहा था
अब तो मेरी मुसीबत बन आई
अब कहना है इससे बेकार
कहीं सभी को न सुनाने लगे
क्या कहेगा जब सुनेगा जमाई
वैसे ही नाराज रहता है
करने न लगे कहीं वह ऐसी कविताई

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Thursday, September 11, 2008

टूट गये कामयाब होने के सपने-हास्य कविता

फंदेबाज ने रखा कंधे पर हाथ
और बोला
‘क्या बात है दीपक बापू
अपनी घर से दूर इस
घर में तांकझांक किये जा रहे हो
कभी सिर आगे कर
अंदर देखते हो
कभी पीछे कर लेते हो
यह क्या राज है
कहीं किसी को लाईन तो नहीं मार रहे
कुछ माल पार करने के लिये तो नहीं ताड़ रहे
चक्कर में मत पड़ो अपने हिट के
चलो अब तुम घर अपने


अपनी टोपी को संभालते हुए
कुछ नाराज होकर बोले महाकवि दीपक बापू
‘कमबख्त! जब भी हम कुछ खास कर रहे होते
कहीं हास्य कविता तलाशने के लिये
विषय की आस कर रहे होते
तुम चले आते हो
पानी फेर जाते हो
यहां हम देखने आये थे काका और काकी की जंग
शायद जम जाये किसी हिट कविता का रंग
दोनों लड़ते हैं
काका देते काकी को ताना
काकी भी गाती है धमकी का गाना
इस जंग में मिल सकता है
कोई बात लिखने लायक
खड़े थे इसी इंतजार में
शायद कुछ जोरदार विषय मिल जाये
लिखकर हम भी हो जायें हास्य नायक
आजकल लोगों को
भला गंभीर कवितायें कहां भातीं हैं
बेतुकी हों भले ही
हास्य कवितायें भी सभी के दिल में छातीं हैं
या तो लिखो प्यार पर
जिसमेेंं जिस्म के अंग फड़फड़ायें
या दर्द उबारो इंसानों का सरे राह
ताकि बदनामी के डर से
उनके पांव अधिक लड़खड़ायें
दोनों काम हम नहीं कर पाते
लिखते कोई गंभीर आलेख
तो पड़ने वाले ही मजाक उड़ाते
दो लोगों की जंग को देखना
और पढ़ना सभी को अच्छा लगता है
चुपचाप दर्द बांटे उसकी चर्चा
किसी को नहीं सुहाती
करे खुलेआम कत्ल उसकी ख्याति
अखबारों में सुर्खियां पाती
ऐसे में देख रहे थे इस घर में
शायद क्लेश हो जाये
हमारे लिये कोई जोरदार दृश्य
सामने आकर पेश हो जाये
पर तुमने किया आकर खाना खराब
अब तो फ्लाप से हिट होना है बस ख्वाब
चलो हम भी अब चलते हैं घर
टूट गये कामयाब होने के सपने

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Monday, September 1, 2008

मुफ्त में स्वयं को खलनायक बनाया-हास्य व्यंग्य कविता


उदास होकर फंदेबाज घर आया
और बोला
‘दीपक बापू, बहुत मुश्किल हो गयी है
तुम्हारे भतीजे ने मेरे भानजे को
दी गालियां और घूंसा जमाया
वह बिचारा तुम्हारी और मेरी दोस्ती का
लिहाज कर पिटकर घर आया
दुःखी था बहुत तब एक लड़की ने
उसे अपनी कार से बिठाकर अपने घर पहुंचाया
तुम अपने भतीजे को कभी समझा देना
आइंदा ऐसा नहीं करे
फिर मुझे यह न कहना कि
पहले कुछ न बताया’

सुनकर क्रोध में उठ खड़े हुए
और कंप्यूटर बंद कर
अपनी टोपी को पहनने के लिये लहराया
फिर बोले महाकवि दीपक बापू
‘कभी क्या अभी जाते हैं
अपने भाई के घर
सुनाते हैं भतीजे को दस बीस गालियां
भले ही लोग बजायें मुफ्त में तालियां
उसने बिना लिये दिये कैसे तुम्हारे भानजे को दी
गालियां और घूंसा बरसाया
बदल में उसने क्या पाया
वह तो रोज देखता है रीयल्टी शो
कैसे गालियां और घूंसे खाने और
लगाने के लिये लेते हैं रकम
पब्लिक की मिल जाती है गालियां और
घूसे खाने से सिम्पथी
इसलिये पिटने को तैयार होते हैं
छोटे पर्दे के कई महारथी
तुम्हारा भानजा भी भला क्या कम चालाक है
बरसों पढ़ाया है उसे
सीदा क्या वह खाक है
लड़की उसे अपनी कार में बैठाकर लाई
जरूर उसने सलीके से शुरू की होगी लड़ाई
सीदा तो मेरा भतीजा है
जो मुफ्त में लड़की की नजरों में
अपनी इमेज विलेन की बनाई
तुम्हारे भानजे के प्यार की राह
एकदम करीने से सजाई
उस आवारा का हिला तो लग गया
हमारे भतीजा तो अब शहर भर की
लड़कियों के लिये विलेन हो गया
दे रहे हो ताना जबकि
लानी थी साथ मिठाई
जमाना बदल गया है सारा
पीटने वाले की नहीं पिटने वाले पर मरता है
गालियां और घूंसा खाने के लिये आदमी
दोस्त को ही दुश्मन बनने के लिये राजी करता है
यह तो तुम्हारे खानदान ने
हमारे खानदान पर एक तरह से विजय पाई
हमारे भतीजे ने मुफ्त में स्वयं को खलनायक बनाया

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Friday, August 29, 2008

कोई-कोई होता जो कामयाबी पचा पाता है-हिन्दी शायरी

कामयाबी का नशा होता है बुरा

सपने में भी देख ले तो

आदमी अपनी राह से भटक जाता है

सच में मिल जाये तो

और अधिक चाह में मन अटक जाता है

रातों रात सितारे की तरह

आकाश में चमकने की चाहत

होती है

बन जाये तो इंसान का पांव

भला कब जमीन पर आता है

विरला ही कोई होता है जो

कामयाबी के नशे को पचा जाता है

वरना तो इंसान अपनी ही नजरों में

सितारा बन जाता है

फिर हमेशा इतराता है

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Thursday, August 28, 2008

असली शैतानों को नकली देवता नहीं हरा सकते-हिंदी शायरी

प्रचार माध्यमों में अपराधियों की
चर्चा कुछ इस तरह ऐसे आती है
कि उनके चेहरे पर चमक छा जाती है
कौन कहां गया
और क्या किया
इसका जिक्र होता है इस तरह कि
असली शैतान का दर्जा पाकर भी
अपराधी खुश हो जाता है

पर्दे के नकली हीरो का नाम
देवताओं की तरह सुनाया जाता है
उसकी अप्सरा है कौन नायिका
भक्त है कौन गायिका
इस पर ही हो जाता है टाइम पास
असली देवताओं को देखने की किसे है आस
दहाड़ के स्वर सुनने
और धमाकों दृश्य देखने के आदी होते लोग
क्यों नहीं फैलेगा आतंक का रोग
पर्दे पर भले ही हरा लें
असली शैतानों को नकली देवता नहीं हरा सकते
रोने का स्वर गूंजता है
पर दर्द किसे आता है

कविता हंसने की हो या रोने की
बस वाह-वाह किया जाता है
दर्द का व्यापार जब तक चलता रहेगा
तब तक जमाना यही सहेगा
ओ! अमन चाहने वाले
मत कर अपनी शिकायतें
न दे शांति का संदेश
यहां उसका केवल मजाक उड़ाया जाता है

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Wednesday, August 27, 2008

भटकाव तो सभी की जिंदगी में होते-हिंदी शायरी

हमख्याल हो कोई
पर सभी हमसफर नहीं होते
हमसफर हों बहुत
पर सभी हमदम दोस्त नहीं होते
जमाने भर में पहचान बन जाये
यह ख्वाहिश तो सभी की होती
पर अपने से सब अनजान होते
रास्ते का नाम नहीं पता
मंजिल की शक्ल का अंदाज नहीं
ऐसे भटकाव तो सभी की जिंदगी में होते

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Monday, August 25, 2008

खराब सड़कों के कारण प्यार को गुडबाई-हास्य व्यंग्य कविता

बहुत दिन बाद प्रेमी आया
अपने शहर
और उसने अपनी प्रेमिका से की भेंट
मोटर साइकिल पर बैठाकर किक लगाई
चल पड़े दोनों सैर सपाटे पर
फिर बरसात के मौसम में सड़क
अपनी जगह से नदारत पाई

कभी ऊपर तो कभी नीचे
बल खाती हुई चल रही गाड़ी ने
दोनों से खूब ठुमके लगवाये
प्रेमिका की कमर में पीड़ा उभर आई
परेशान होते ही उसने
आगे चलने में असमर्थता अपने प्रेमी को जताई

कई दिन तक ऐसा होता रहा
रोज वह उसे ले जाता
कमर दर्द के कारण वापस ले आता
प्रेमिका की मां ने कहा दोनों से
‘क्यों परेशान होते हो
बहुत हो गया बहुत रोमांस
अब करो शादी की तैयारी
पहले कर लो सगाई
फिर एक ही घर में बैठकर
खूब प्रेम करना
बेटी के रोज के कमर दर्द से
मैं तो बाज आई’

प्रेमिका ने कहा
‘रहने दो अभी शादी की बात
पहले शहर की सड़के बन जायें
फिर सोचेंगे
इस शहर की नहीं सारे शहरों में यही हाल है
टीवी पर देखती हूं सब जगह सड़कें बदहाल हैं
शादी के हनीमून भी कहां मनायेंगे
सभी जगह कमर दर्द को सहलायेंगे
फिर शादी के बाद सड़क के खराब होने के बहाने
यह कहीं मुझे बाहर नहीं ले जायेगा
घर में ही बैठाकर बना देगा बाई
इसलिये पहले सड़कें बन जाने तो
फिर सोचना
अभी तो प्यार से करती हूं गुडबाई’

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Sunday, August 24, 2008

कविता का भ्रुण तो भूख और प्यास की कोख में पलता है-व्यंग्य हिंदी शायरी

एक कवि पहुंचा हलवाई की दुकान
पर और बोला
‘‘जल्दी जलेबी बना दो
कुछ कचौड़ी या पकौड़ी भी खिला दो
भूख लगी है
पानी भी पिला देना
पेट भर लूं तो दिमाग शांत हो जायेगा
उसके बाद ही लिखूंगा कविता
भूखे पेट और प्यासे दिल से
मैं कुछ भी नहीं लिख पाता’’

हलवाई बोला
‘‘कमाल है
अभी यहां एक कवि बैठा लिख रहा था
भूखा प्यासा दिख रहा था
मेरी पुरानी जान पहचान वाला था
इसलिये दया आयी
मैंने उसके पास कचैड़ी और जलेबी भिजवाई
उसने मुझे वापस लौटाई
और बोला
‘चाचा, भरे पेट और खुश दिल से भला
कभी कविता लिखी जाती है
वह तो भावविहीन शब्दों की
गठरी बनकर रह जाती है
कविता का भ्रुण तो भूख प्यास की कोख में पलता है
तभी दिल कहने के लिये मचलता है
अगर पेट भर जायेगा
तो काव्य एक अर्थहीन शब्दों का
पिटारा नजर आयेगा
आज तो सारा दिन भूख रहना है
लिखने की प्यास बुझाने के लिये यह सहना है
कविता में दर्द तभी आता’
वह तो चला गया कहकर
मुझे उसका एक एक शब्द याद आता
देर इसलिये हो रही यह सब बनाने में
क्योंकि मेरा हाथ इधर से उधर चला जाता’’

उसकी बात सुनकर घबड़ा गया कवि
‘भूल जाओ यह सब बातें
घबड़ाओगे दिन में तो डरायेंगी रातें
बिना दर्द की कविताओं का ही जमाना है
भूख से भला किसे रिश्ता निभाना है
यह सही है कि
भूख और प्यास की कोख में जो भ्रुण पलता है
वही कविता के रूप में चलता है
अगर रह सकते हो ऐसे तो
तुम भी कर लो कविताई
फिर नहीं रहोगे हलवाई
पर पहले मेरा पेट भर दो
कैसी भी बनती है लिखूंगा कविता
मुझसे ऐसे नहीं लिखा जाता

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Friday, August 22, 2008

वफादारी कोई मुफ्त में नहीं मिलती जो लोगे-व्यंग्य क्षणिकाएँ


सेठ ने मजदूर से कहा
‘तुम्हें अच्छा मेहनताना दूंगा
अगर वफादारी से काम करोगे‘
मजदूर ने कहा
‘काम का तो पैसा मै लूंगा ही
पर वफादारी का अलग से क्या दोगे
वह कोई मुफ्त की नहीं है जो लोगे
..................................

एक आदमी ने दूसरे आदमी से
‘श्वान’ कह दिया
पास ही खड़े एक
श्वान ने सुन लिया तब
उसने पास ही ऊंघ रहे दूसरे श्वान से कहा
‘चल दोनों अपने घर लौट चलें
मालिकों ने जितना घूमने का
समय दिया था पूरा हो गया
कहीं ऐसा न हो वह नाराज हो जायें
तुमने सुना नहीं,
पर सुनकर मेरा दिल बैठा जा रहा है
कहीं हमारी जगह लेने कोई
दूसरा प्राणी तो नहीं आ रहा है
ऊपर वाले ने इंसान को वफादार जो बना दिया

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Thursday, August 21, 2008

आम इंसान से अलग सजाओ, भले ही बुत बनाओ-हास्य व्यंग्य कविता

कुर्सियां सजा दी और
भेज दिया संदेश लोगों में
बुतों की तरह उस पर बैठ जाओ
इस महफिल को सजाओ
अपना मूंह बंद रखना
हमारे इशारों को समझना
तब तक बैठे रहना जब तक
कहें नहीं खड़े हो जाओ
हम जो कहें उसकी सहमति में
बस अपना सिर हिलाओ’

इंसानों की भीड़ दौड़ पड़ी
उन कुर्सियों पर बैठने के लिये
सबका यही कहना था कि
‘आम इंसानों से अलग सजाओ
चाहे भले ही हमें एक बुत बनाओ’
..........................................................

ख्वाहिशों ने इंसानों को
हांड़मांस का बुत बना दिया
इससे तो पत्थर, लोहे और लकड़ी के बुत ही भले
आशाओं को जिंदा रखने के लिये
पुजने के लिये तो मिल जाते हैं
इंसान ने तो आशाओं का दीप ही बुझा दिया
......................................

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Wednesday, August 20, 2008

इश्क का नतीजा तकदीर भी नहीं लिख पाती है-हिंदी शायरी

तन्हाई तब बोझ बन जाती है
जब यादें किसी की रोज आती है
अपनी शिकायतों से क्या उनके मन का
बोझ बढायें
अपने गम से पहले तो वह निजात पायें
दिल में रखी बात भले ही
हमारे लिये बोझ बन जाती है
जिनको भरोसा है हमारी चाहत का
वह अपनी अदायें भी दिखाते हैं
हमारी परवाह वह भी करते हैं
इस बात को छिपाते हैं
पर हम भी हैं कायल अपने जज्बातों के
छिपा लेते हैं उनसे दर्द अपना
कम्बख्त इश्क चीज ही ऐसी है
जिसका नतीजा तकदीर भी नहीं लिख पाती है
...........................................
दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, August 16, 2008

उल्टा झंडा, सीधा झंडा-लघुकथा

सुबह सुबह वह घर के बाहर अखबार पढ़ते हुए बाहर लोगों के सामने चिल्ला रहे थे-‘अरे, मैंने अभी टीवी पर सुना वहां पर उल्टा झंडा फहरा दिया। आज लोगों की हालत कितनी खराब हो गयी है। जरा, भी समझ नहीं है। सब जगह पढ़े लिखे लोग हैं पर अपनी मस्ती में इतने मस्त हैं कि उल्टे और सीधे झंडे को ही नहीं देख पाते। जिसे देखो अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगा पड़ा है। सब जगह भ्रष्टाचार है। किसी को देश की परवाह नहीं है तभी तो उल्टा झंडा लगाते हैं।’

वहां से उनकी जानपहचान का ही एक आदमी निकल रहा था जो अपने साथ लिफाफे में स्कूल में पंद्रह अगस्त को झंडा फहराने के लिये ले जा रहा था। वह रुका और उनकी बात सुन रहा था। अचानक उसने अपने लिफाफे से झंडा निकाला और बोला-महाशय, अच्छा हुआ आप मिल गये वरना मुझे भी पता नहीं उल्टा और सीधा झंडा कैसे होता है। जरा आप बता दीजिये।’

अब उनके चैंकने की बारी थी। वह थोड़ा सकपकाये पर तब तक उस आदमी ने अपने हाथ मेंं पकड़े लिफाफे से नये कपड़े के बने अपने झंडे को निकालकर पूरा का पूरा खोलकर उनके सामने खड़ा कर दिया। उसने भी झंडा उल्टा ही खडा+ किया था। तब वह सज्जन बोले-हां, ऐसे ही होता है सीधा झंडा।
तब तब उनका पुत्र भी निकलकर बाहर आया और बोला-‘पापा, यह आपका मजाक उड़ा रहा है इसने भी उल्टा झंडा पकड़ रखा है।’
फिर उनके पुत्र ने उस आदमी से कहा-‘मास्टर साहब, अपनी जंचाओ मत। तुम्हें पता है कि उल्टा और सीधा झंडा कैसे होता है और नहीं पता तो मैं चलकर तुम्हारे स्कूल में बता देता हूं कि उल्टा और सीधा झंडा कैसे होता है।’
दोनों का मूंह उतर गया। वह आदमी अपना झंडे का कपड़ा लिफाफे में पैक फिर अपने झोले में डालकर ले गया। उन महाशय ने भी अपने वहां मौजूद किसी आदमी से अपनी आंख नहीं मिलाई और अंदर चले गये।
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Thursday, August 14, 2008

शैतान खड़ा करना भी जरूरी है-हास्य व्यंग्य

शैतान कभी इस जहां में मर ही नहीं सकता। वजह! उसके मरने से फरिश्तों की कदर कम हो जायेगी। इसलिये जिसे अपने के फरिश्ता साबित करना होता है वह अपने लिये पहले एक शैतान जुटाता है। अगर कोई कालोनी का फरिश्ता बनना चाहता है तो पहले वह दूसरी कालोनी की जांच करेगा। वहां किसी व्यक्ति का-जिससे लोग डरते हैं- उसका भय अपनी कालोनी में पैदा करेगा। साथ ही बतायेगा कि वह उस पर नियंत्रण रख सकता है। शहर का फरिश्ता बनने वाला दूसरे शहर का और प्रदेश का है तो दूसरे प्रदेश का शैतान अपने लिये चुनता है। यह मजाक नहीं है। आप और हम सब यही करते हैं।

घर में किसी चीज की कमी है और अपने पास उसके लिये लाने का कोई उपाय नहीं है तो परिवार के सदस्यों को समझाने के लिये यह भी एक रास्ता है कि किसी ऐसे शैतान को खड़ा कर दो जिससे वह डर जायें। सबसे बड़ा शैतान हो सकता है वह जो हमारा रोजगार छीन सकता है। परिवार के लोग अधिक कमाने का दबाव डालें तो उनको बताओं कि उधर एक एसा आदमी है जिससे मूंह फेरा तो वह वर्तमान रोजगार भी तबाह कर देगा। नौकरी कर रहे हो तो बास का और निजी व्यवसाय कर रहे हों तो पड़ौसी व्यवसायी का भय पैदा करो। उनको समझाओं कि ‘अगर अधिक कमाने के चक्कर में पड़े तो इधर उधर दौड़ना पड़ा तो इस रोजी से भी जायेंगे। यह काल्पनिक शैतान हमको बचाता है।
नौकरी करने वालों के लिये तो आजकल वैसे भी बहुत तनाव हैं। एक तो लोग अब अपने काम के लिये झगड़ने लगे हैं दूसरी तरफ मीडिया स्टिंग आपरेशन करता है ऐसे में उपरी कमाई सोच समझ कर करनी पड़ती है। फिर सभी जगह उपरी कमाई नहीं होती। ऐसे में परिवार के लोग कहते हैं‘देखो वह भी नौकरी कर रहा है और तुम भी! उसके पास घर में सारा सामान है। तुम हो कि पूरा घर ही फटीचर घूम रहा है।
ऐसे में जबरदस्ती ईमानदारी का जीवन गुजार रहे नौकरपेशा आदमी को अपनी सफाई में यह बताना पड़ता है कि उससे कोई शैतान नाराज चल रहा है जो उसको ईमानदारी वाली जगह पर काम करना पड़ रहा है। जब कोई फरिश्ता आयेगा तब हो सकता है कि कमाई वाली जगह पर उसकी पोस्टिंग हो जायेगी।’
खिलाड़ी हारते हैं तो कभी मैदान को तो कभी मौसम को शैतान बताते हैं। किसी की फिल्म पिटती है तो वह दर्शकों की कम बुद्धि को शैताना मानता है जिसकी वजह से फिल्म उनको समझ में नहीं आयी। टीवी वालों को तो आजकल हर दिन किसी शैतान की जरूरत पड़ती है। पहले बाप को बेटी का कत्ल करने वाला शैतान बताते हैं। महीने भर बाद वह जब निर्दोष बाहर आता है तब उसे फरिश्ता बताते हैं। यानि अगर उसे पहले शैतान नहीं बनाते तो फिर दिखाने के लिये फरिश्ता आता कहां से? जादू, तंत्र और मंत्र वाले तो शैतान का रूप दिखाकर ही अपना धंध चलाते हैं। ‘अरे, अमुक व्यक्ति बीमारी में मर गया उस पर किसी शैतान का साया पड़ा था। किसी ने उस पर जादू कर दिया था।’‘उसका कोई काम नहीं बनता उस पर किसी ने जादू कर दिया है!’यही हाल सभी का है। अगर आपको कहीं अपने समूह में इमेज बनानी है तो किसी दूसरे समूह का भय पैदा कर दो और ऐसी हालत पैदा कर दो कि आपकी अनुपस्थिति बहुत खले और लोग भयभीत हो कि दूसरा समूह पूरा का पूरा या उसके लोग उन पर हमला न कर दें।’
अगर कहीं पेड़ लगाने के लिये चार लोग एकत्रित करना चाहो तो नहीं आयेंगे पर उनको सूचना दो कि अमुक संकट है और अगर नहीं मिले भविष्य में विकट हो जायेगता तो चार क्या चालीस चले आयेंगे। अपनी नाकामी और नकारापन छिपाने के लिये शैतान एक चादर का काम करता है। आप भले ही किसी व्यक्ति को प्यार करते हैं। उसके साथ उठते बैैठते हैं। पेैसे का लेनदेन करते हैं पर अगर वह आपके परिवार में आता जाता नहीं है मगर समय आने पर आप उसे अपने परिवार में शैतान बना सकते हैं कि उसने मेरा काम बिगाड़ दिया। इतिहास उठाकर देख लीजिये जितने भी पूज्यनीय लोग हुए हैं सबके सामने कोई शैतान था। अगर वह शैतान नहीं होता तो क्या वह पूज्यनीय बनते। वैसे इतिहास में सब सच है इस पर यकीन नहीं होता क्योंकि आज के आधुनिक युग में जब सब कुछ पास ही दिखता है तब भी लिखने वाले कुछ का कुछ लिख जाते हैं और उनकी समझ पर तरस आता है तब लगता है कि पहले भी लिखने वाले तो ऐसे ही रहे होंगे।
एक कवि लगातार फ्लाप हो रहा था। जब वह कविता करता तो कोई ताली नहीं बजाता। कई बार तो उसे कवि सम्मेलनों में बुलाया तक नहीं जाता। तब उसने चार चेले तैयार किये और एक कवि सम्मेलन में अपने काव्य पाठ के दौरान उसने अपने ऊपर ही सड़े अंडे और टमाटर फिंकवा दिये। बाद में उसने यह खबर अखबार में छपवाई जिसमें उसके द्वारा शरीर में खून का आखिरी कतरा होने तक कविता लिखने की शपथ भी शामिल थी । हो गया वह हिट। उसके वही चेले चपाटे भी उससे पुरस्कृत होते रहे।
जिन लड़कों को जुआ आदि खेलने की आदत होती है वह इस मामले में बहुत उस्ताद होते हैं। पैसे घर से चोरी कर सट्टा और जुआ में बरबाद करते हैं पर जब उसका अवसर नहीं मिलता या घर वाले चैकस हो जाते हैं तब वह घर पर आकर वह बताते हैं कि अमुक आदमी से कर्ज लिया है अगर नहीं चुकाया तो वह मार डालेंगे। उससे भी काम न बने तो चार मित्र ही कर्जदार बनाकर घर बुलवा लेंगे जो जान से मारने की धमकी दे जायेंगे। ऐसे में मां तो एक लाचार औरत होती है जो अपने लाल को पैसे निकाल कर देती है। जुआरी लोग तो एक तरह से हमेशा ही भले बने रहते हैं। उनका व्यवहार भी इतना अच्छा होता है कि लोग कहते हैं‘आदमी ठीक है एक तरह से फरिश्ता है, बस जुआ की आदत है।’
जुआरी हमेशा अपने लिये पैसे जुटाने के लिये शैतान का इंतजाम किये रहते हैं पर दिखाई देते हैं। उनका शैतान भी दिखाई देता है पर वह होता नहीं उनके अपने ही फरिश्ते मित्र होते हैं। वह अपने परिवार के लोगों से यह कहकर पैसा एंठते हैं कि उन पर ऐसे लोगों का कर्जा है जिनको वापस नहीं लौटाया तो मार डालेंगे। परिवार के लोगो को यकीन नहीं हो तो अपने मित्रों को ही वह शैतान बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है। आशय यह है कि शैतान अस्तित्व में होता नहीं है पर दिखाना पड़ता है। अगर आपको परिवार, समाज या अपने समूह में शासन करना है तो हमेशा कोई शैतान उसके सामने खड़ा करो। यह समस्या के रूप में भी हो सकता है और व्यक्ति के रूप में भी। समस्या न हो तो खड़ी करो और उसे ही शैतान जैसा ताकतवर बना दो। शैतान तो बिना देह का जीव है कहीं भी प्रकट कर लो। किसी भी भेष में शैतान हो वह आपके काम का है पर याद रखो कोई और खड़ा करे तो उसकी बातों में न आओ। यकीन करो इस दुनियां में शैतान है ही नहीं बल्कि वह आदमी के अंदर ही है जिसे शातिर लोग समय के हिसाब से बनाते और बिगाड़ते रहते हैं।
एक आदमी ने अपने सोफे के किनारे ही चाय का कप पीकर रखा और वह उसके हाथ से गिर गया। वह उठ कर दूसरी जगह बैठ गया पत्नी आयी तो उसने पूछा-‘यह कप कैसे टूटा?’उसी समय उस आदमी को एक चूहा दिखाई दिया।
उसने उसकी तरफ इशारा करते हुए कहा-‘उसने तोड़ा!
’पत्नी ने कहा-‘आजकल चूहे भी बहुत परेशान करने लगे हैं। देखो कितना ताकतवर है उसकी टक्कर से इतना बड़ा कप गिर गया। चूहा है कि उसके रूप में शेतान?"
वह चूहा बहुत मोटा था इसलिये उसकी पत्नी को लगा कि हो सकता है कि उसने गिराया हो और आदमी अपने मन में सर्वशक्तिमान का शुक्रिया अदा कर रहा कि उसने समय पर एक शैतान-भले ही चूहे के रूप में-भेज दिया।
’याद रखो कोई दूसरा व्यक्ति भी आपको शैतान बना सकता है। इसलिये सतर्क रहो। किसी प्रकार के वाद-विवाद में मत पड़ो। कम से कम ऐसी हरकत मत करो जिससे दूसरा आपको शैतान साबित करे। वैसे जीवन में दृढ़निश्चयी और स्पष्टवादी लोगों को कोई शैतान नहीं गढ़ना चाहिए, पर कोई अवसर दे तो उसे छोड़ना भी नहीं चाहिए। जैसे कोई आपको अनावश्यक रूप से अपमानित करे या काम बिगाड़े और आपको व्यापक जनसमर्थन मिल रहा हो तो उस आदमी के विरुद्ध अभियान छेड़ दो ताकि लोगों की दृष्टि में आपकी फरिश्ते की छबि बन जाये। सर्वतशक्तिमान की कृपा से फरिश्ते तो यहां कई मनुष्य बन ही जाते हैं पर शैतान इंसान का ही ईजाद किया हुआ है इसलिये वह बहुत चमकदार या भयावह हो सकता है पर ताकतवर नहीं। जो लोग नकारा, मतलबी और धोखेबाज हैं वही शैतान को खड़ा करते हैं क्योंकि अच्छे काम कर लोगों के दिल जीतने की उनकी औकात नहीं होती।
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Friday, August 8, 2008

बेहतर है खुद अपने पीर बन जायें-हिंदी शायरी

जिनको माना था सरताज
वह असलियत में सियार निकल आये
भरोसा किया था जिन पर
वह मतलब निकालकर होशियार कहलाये
उनके लिये लड़ते हुए थकेहारे
सब कुछ गंवा दिया
इसलिये हम कसूरवार कहलाये
...............................................

अपनी जिंदगी के राज किसको बतायें
अपने गमों से बचने के लिये सब मजाक बनायें
टूटे बिखरे मन के लोगों का समूह है चारों तरफ
किसके आसरे अपना जहां टिकायें
बेहतर है खुद ही अपने पीर बन जायें
आकाश में बैठे सर्वशक्तिमान को किसने देखा
और कौन समझ पाया
फिर जब दूसरे बन जाते है पहुंचे हुए
तो हम खुद क्यों पीछे रह जायें

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Tuesday, August 5, 2008

यही है जिंदगी का फिलासफा-हिन्दी शायरी

हम तो कातिल कहलाये

हो गयी थी उनको पल भर देखने की खता

उन्हें इंतजार था किसी और का

हमारी नजरे मिलने से इसलिये हो गये वह खफा

कैसे दें हम सफाई कि

रुक गयी थी दिल की धड़कनें

देखकर उनकी आखों के देखने की अदा

जुबान से निकला तो जाता रहेगा मजा

प्यार में राज को राज रहने दो

यही है जिंदगी का फिलासफा
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Saturday, August 2, 2008

फिर शुरू होता है सुबह से छलावा-हिंदी शायरी

चिल्ला चिल्ला कर वह

करते हैं एक साथ होने का दावा

यह केवल है छलावा

मन में हैं ढेर सारे सवाल

जिनका जवाब ढूंढने से वह कतराते

आपस में ही एक दूसरे के लिये तमाम शक

जो न हो सामने

उसी पर ही शुबहा जताते

महफिलों में वह कितना भी शोर मचालें

अपने आपसे ही छिपालें

पर आदमी अपने अकेलेपन से घबड़ाकर

जाता है वहां अपने दिल का दर्द कम करने

पर लौटता है नये जख्म साथ लेकर

फिर होता है उसे पछतावा

रात होते उदास होता है मन सबका

फिर शुरू होता है सुबह से छलावा
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Monday, July 28, 2008

वेदना बेचने और संवेदना खरीदने का व्यापार-हिंदी शायरी

कुछ लोग होते हैं पर
कुछ दिखाने के लिये बन जाते लाचार
अपनी वेदना का प्रदर्शन करते हैं सरेआम
लुटते हैं लोगों की संवेदना और प्प्यार
छद्म आंसू बहाते
कभी कभी दर्द से दिखते मुस्कराते
डाल दे झोली में कोई तोहफा
तो पलट कर फिर नहीं देखते
उनके लिये जज्बात ही होते व्यापार

घर हो या बाहर
अपनी ताकत और पराक्रम पर
इस जहां में जीने से कतराते
सजा लेते हैं आंखों में आंसु
और चेहरे पर झूठी उदासी
जैसे अपनी जिंदगी से आती हो उबासी
खाली झोला लेकर आते हैं बाजार
लौटते लेकर घर दानों भरा अनार

गम तो यहां सभी को होते हैं
पर बाजार में बेचकर खुशी खरीद लें
इस फन में होता नहीं हर कोई माहिर
कामयाबी आती है उनके चेहरे पर
जो दिल में गम न हो फिर भी कर लेते हैं
सबके सामने खुद को गमगीन जाहिर
कदम पर झेलते हैं लोग वेदना
पर बाहर कहने की सोच नहीं पाते
जिनको चाहिए लोगों से संवेदना
वह नाम की ही वेदना पैदा कर जाते
कोई वास्ता नहीं किसी के दर्द से जिनका
वही बाजार में करते वेदना बेचने और
संवेदना खरीदने का व्यापार
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Saturday, July 26, 2008

जब तक बाजार में बिकेगी सनसनी-हिंदी शायरी

खबर केवल खबर हो तो
कौन लिखता और कौन पढ़ता है
देखते और पढ़ते हैं सभी खबर वही
जिससे फैलती हो सनसनी
लिखने से खबर नहीं बनती
बेअसर रहते हैं शब्द तब
नहीं फैलती जब सनसनी

खबरफरोश ढूंढते खबर ऐसी
जो हिला दे पढ़ने वालों को
तोड़ दे जज्बातों के तालों को
भूखे का भूखा रहना
प्यासे का पानी के लिये तरसना
कोई खबर नहीं होती
मिलती है उनको भी जगह
जब कहीं नहीं फैली हो सनसनी

घायल आदमी अस्पताल में चिल्लाता
पर कोई उसका हमदर्द नहीं आता
भीड़ लग जाती है दर्द सहलाने वालों की
अगर उसके जख्मों में से
बहती हो खून के साथ सनसनी
लोगों के दिल और दिमाग में
भर गया है शोर चारों तरफ
पर कोई नहीं देता उसकी तरफ कान
उसमें नहीं होता किसी को सनसनी का भान
जब तक तड़प कर मर न जाये आदमी
नहीं फैलती जमाने में सनसनी

ढूंढते हुए खबर जब
पहुंचते हैं अपने मुकान पर खबरफरोश
तब उसमें न भी हो तो
पैदा कर देते सनसनी
कभी कभी उनको बैठे बिठाये
दहशत के सौदागर
जो फैले हैं चारों तरफ
कभी-कभी भिजवा देते उनके पास
बमों के धमाके कर सनसनी
सड़कों पर जलती बस
बिखरा हुआ निर्दोषों का खून
कांपते हुए चेहरों का देखकर
फैलती है दहशत
बिकती है तब सनसनी
तब तक जारी रहेगा यह सिलसिला
जब तक बाजार में बिकेगी सनसनी
.......................................................................
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Friday, July 25, 2008

मिट्टी और मांस की मूर्ति-लघुकथा

मूर्तिकार फुटपाथ पर अपने हाथ से बनी मिट्टी की भगवान के विभिन्न रूपों वाली छोटी बड़ी मूर्तियां बेच रहा था तो एक प्रेमी युगल उसके पास अपना समय पास करने के लिये पहुंच गया।
लड़के ने तमाम तरह की मूर्तियां देखने के बाद कहा-‘अच्छा यह बताओ। मैं तुम्हारी महंगी से महंगी मूर्ति खरीद लेता हूं तो क्या उसका फल मुझे उतना ही महंगा मिल जायेगा। क्या मुझे भगवान उतनी ही आसानी से मिल जायेंगे।’

ऐसा कहकर वह अपनी प्रेमिका की तरफ देखकर हंसने लगा तो मूर्तिकार ने कहा-‘मैं मूर्तियां बेचता हूं फल की गारंटी नहीं। वैसे खरीदना क्या बाबूजी! तस्वीरें देखने से आंखों में बस नहीं जाती और बस जायें तो दिल तक नहीं पहुंच पाती। अगर आपके मन में सच्चाई है तो खरीदने की जरूरत नहीं कुछ देर देखकर ही दिल में ही बसा लो। बिना पैसे खर्च किये ही फल मिल जायेगा, पर इसके लिये आपके दिल में कोई कूड़ा कड़कट बसा हो उसे बाहर निकालना पड़ेगा। किसी बाहर रखी मांस की मूर्ति को अगर आपने दिल में रखा है तो फिर इसे अपने दिल में नहीं बसा सकेंगे क्योंकि मांस तो कचड़ा हो जाता है पर मिट्टी नहीं।’
लड़के का मूंह उतर गया और वह अपनी प्रेमिका को लेकर वहां से हट गया

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Thursday, July 24, 2008

जैसे भेड़ों का झुंड जा रहा हो-व्यंग्य कविता

रास्ते के किनारे खड़ा वह
लोगों की भीड़ को भागते देख रहा है
पूछता है एक एक से उसकी मंजिल का पता
हर मुख से अलग अलग जवाब आ रहा है

कोई इंजीनियर बनने जा रहा है
कोई डाक्टर बनने जा रहा है
कोई एक्टर बनने जा रहा है
जो खुद नहीं बन सका वह आदमी
अपने बच्चों का हाथ पकड़े उसे
खींचता ले जा रहा है

ढूंढता है वह जो इंसानों की तरह
जीने की कोशिश करना सीख रहा हो
कोई जो दूसरों का हमदर्द
बनना सीख रहा हो
वह जो किसी के पीछे न भागना
सीख रहा हो
वह निराश हो जाता है यह देखकर
क्योंकि इंसानों की भीड़ नहीं
जैसे भेड़ों का झुंड जा रहा हो
.........................
यह कविता मूल रूप से इस ब्लाग दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका पर ही प्रकाशित है। इसकी अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, July 23, 2008

कोई बिकाऊ है तो कोई खरीददार-हिंदी शायरी

दिन के उजाले में

लगता है बाजार

कहीं शय तो कहीं आदमी

बिक जाता है

पैसा हो जेब में तो

आदमी ही खरीददार हो जाता है

चारों तरफ फैला शोर

कोई किसकी सुन पाता है

कोई खड़ा बाजार में खरीददार बनकर

कोई बिकने के इंतजार में बेसब्र हो जाता है

भीड़ में आदमी ढूंढता है सुख

सौदे में अपना देखता अपना अस्त्तिव

भ्रम से भला कौन मुक्त हो पाता है

रात की खामोशी में भी डरता है

वह आदमी जो

दिन में बिकता है

या खरीदकर आता है सौदे में किसी का ईमान

दिन के दृश्य रात को भी सताते हैं

अपने पाप से रंगे हाथ

अंधेरे में भी चमकते नजर आते है

मयस्सर होती है जिंदगी उन्हीं को

जो न खरीददार हैं न बिकाऊ

सौदे से पर आजाद होकर जीना

जिसके नसीब में है

वह जिंदगी का मतलब समझ पाता है
................................
दीपक भारतदीप

Monday, July 21, 2008

अपने अहसास अपने से छिपाते हो-हिंदी शायरी

इस भीड़ में तुम क्यों

अपनी आवाज जोड़ कर

शोर मचाते हो

लोगों के कान खुले लगते हैं

पर बंद पर्दे उनके तुम

अपनी आंखों से भला कहां देख पाते हो

कौन सुनेगा तुम्हारी कहानी

किसे तुम अपना दर्द सुनाते हो

सड़क पर जमा हों या महफिल में

लोग बोलने पर हैं आमादा

अपनी असलियत सब छिपा रहे हैं

भल तुम क्यों छिपाते हो

तुम्हें लगता है कोई देख रहा है

कोई तुम्हारी सुन रहा है

पर क्या तुम वही कर रहे हो

जिसकी उम्मीद दूसरों से कर रहे हो

भला क्यों अपने अहसास अपने से छिपाते हो
.........................................

दीपक भारतदीप लेखक संपादक

Sunday, July 20, 2008

कतरा कतरा रौशनी हम ढूंढते रहे-हिंदी शायरी

उनसे दूरी कुछ यूं बढ़ती गयी
जैसे बरसात का पानी किनारे से
नीचे उतर रहा हो
वह रौशनी के पहाड़ की तरफ
बढ़ते गये और
अपने छोटे चिराग हाथ में हम लिये
कतरा कतरा रौशनी ढूंढते रहेे
वह हमसे ऐसे दूर होते गये
जैसे सूरज डूब रहा हो

उन्होंने जश्न के लिये लगाये मजमे
घर पर उनके महफिल लगी रोज सजने
अपने आशियाना बनाने के लिये
हम तिनके जोड़ते रहे
उनके दिल से हमारा नाम गायब हो गया
कोई लेता है उनके सामने अब तो
ऐसा लगता है उनके चेहरे पर
जैसे वह ऊब रहा हो
..................................

दीपक भारतदीप

Friday, July 18, 2008

कभी फिर अँधेरे में टकराएंगे-हिन्दी शायरी


बरसात की अंधेरी रात में
वह मिले और बिछड़े
तब सोचा था कि
चंद्रमा की रौशनी होने पर
हम उनको जरूर ढूंढ पायेंगे
देखा नहीं था उनका चेहरा
इसलिये जब भी चांद निकलता है
उसमें उनका चेहरा नजर आता है
इंतजार है अब इसका
कभी अंधरे में फिर टकरायेंगे
तभी कोई रिश्ता जोड़ पायेंगे

..................................
दीपक भारतदीप

Wednesday, July 16, 2008

प्यार में भी भला कभी वादे किये जाते हैं-हिंदी शायरी

जन्नत में बिताने के लिये सुहानी रात
आसमान से चांद सितारे तोड़कर लाने की बात
प्यार के संदेश देने वाले ऐसे ही
किये जाते हैं
बातों पर कर ले भरोसा
शिकार यूं ही फंसाये जाते हैं
प्यार किस चिडिया का नाम
कोई नहीं जान पाया
रोया वह भी जिसने प्यार का फल चखा
तरसा वह भी जिसने नहीं खाया
प्यार का जो गीत गाते
कोई ऊपर वाले का तो
कोई जमीन पर बसी सूरतों के नाम
अपनी जुबान पर लाते
कोई नाम को योगी
तो कोई दिल का रोगी
धोखे को प्यार की तरह तोहफे में देते सभी
जो भला दिल में बसता है
किसी को कैसे दिया जा सकता है
सर्वशक्तिमान से ही किया जा सकता है
उस प्यार के में भी भला
कभी वादे किये जाते हैं
....................................
दीपक भारतदीप

Sunday, July 13, 2008

जिंदगी में असहज हो जाओगे-हिन्दी शायरी



जितना चाहोगे

उतना असहज हो जाओगे

दौड़ते हुए बहुत कुछ जुटा लोगे

अपने जीने का सामान

पर फिर उसका बोझ नहीं

उठा पाओगे

जिंदगी की गति चलती है

अपनी गति से

उसे ज्यादा तेज दौड़ने की कोशिश न करो

असहजता में जो पाया है

उसको भी नहीं भोग पाओगे
........................
दीपक भारतदीप

Saturday, July 12, 2008

प्यार की डील दिल में कील की तरह लगती हो-हास्य कविता

लड़के ने लड़की को
प्रेम का प्रस्ताव देते हुए कहा
‘तुम अमेरिका की तरह सौंदर्य में अमीर
अदाओं में ब्रिटेन की तरह चतुर
और दिखने में फ्रांस जैसी आकर्षक लगती हो
तुम मुझसे प्यार की डील कर लो
तुम मुझे कनाडा की तरह फबती हो’

लड़की ने दिया जवाब
‘तुम मुझे चीन की तरह धूर्त,
पाकिस्तान की तरह बेईमान और
नेपाल की तरह डांवाडोल लगते हो
अगर भारत की तरह होते भरोसेमंद
और दिखने में मजबूत तो कुछ सोचती
तुंम तो ईरान की तरह दंभी लगते हो
तुम से प्यार की डील करने की बात
मुझे जैसे दिल में कील की तरह चुभती हो
...............................

Thursday, July 10, 2008

रिश्तों के कभी नाम नहीं बदलते-हिन्दी ग़ज़ल


दुनियां में रिश्तों के तो बदलते नहीं कभी नाम
ठहराव का समय आता है जब, हो जाते अनाम
कुछ दिल में बसते हैं, पर कभी जुबां पर नहीं आते
उनके गीत गाते हैं, जिनसे निकलता है अपना काम
जो प्यार के होते हैं, उनको कभी गाकर नहीं सुनाते
ख्यालों मे घूमते रहते हैं, वह तो हमेशा सुबह शाम
रूह के रिश्ते हैं, वह भला लफ्जों में कब बयां होते
घी के ‘दीपक’ जलाकर, दिखाने का नहीं होता काम

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दीपक भारतदीप

Monday, July 7, 2008

दूसरे के दर्द में ढूंढते सुगंध-हिंदी शायरी

शहर-दर-शहर घूमता रहा

इंसानों में इंसान का रूप ढूंढता रहा

चेहरे और पहनावे एक जैसे

पर करते हैं फर्क करते दिखते

आपस में ही एक दूसरे से

अपने बदन को रबड़ की तरह खींचते

हर पल अपनी मुट्ठियां भींचते

अपने फायदे के लिये सब जागते मिले

नहीं तो हर शख्स ऊंघता रहा

अपनी दौलत और शौहरत का

नशा है

इतराते भी उस बहुत

पर भी अपने चैन और अमने के लिये

दूसरे के दर्द से मिले सुगंध

हर इंसान इसलिये अपनी

नाक इधर उधर घुमाकर सूंघता रहा
.................................
दीपक भारतदीप

Sunday, July 6, 2008

यूं तो जमाना दोस्त बन जाता है-हिन्दी शायरी

दूर भी हों पर उनके होने के
अहसास जब पास ही होते
वही दोस्त कहलाते हैं
यूं तो पास रहते हैं बहुत लोग
बहुत सारी बातें बतियाते
पर सभी दोस्त नहीं हो जाते हैं
जिनकी आवाज न पहुंचती हो
पर शब्द कागज की नाव पर
चलकर पास आते हैं
और दिल को छू जाते हैं
ऐसे दोस्त दिल में ही जगह पाते हैं

यूं तो जमाना दोस्त बन जाता है
पर परेशान हाल में छोड़ जाता है
जिनके दो शब्द भी देते हों
इस जिंदगी की जंग में लड़ने का हौंसला
वही दोस्त दूर होते भी
पास हो जाते हैं

Friday, July 4, 2008

चिराग की रौशनी और उम्मीद-हिंदी शायरी

शाम होते ही
सूरज के डूबने के बाद
काली घटा घिर आयी
चारों तरफ अंधेरे की चादर फैलने लगी थी
मन उदास था बहुत
घर पहुंचते हुए
छोटे चिराग ने दिया
थोड़ी रौशनी देकर दिल को तसल्ली का अहसास
जिंदगी से लड़ने की उम्मीद अब जगने लगी थी
.........................................
दीपक भारतदीप

Wednesday, July 2, 2008

अपने अंदर ढूंढे, मिलता तभी चैन है-हिंदी शायरी

घर भरा है समंदर की तरह
दुनियां भर की चीजों से
नहीं है घर मे पांव रखने की जगह
फिर भी इंसान बेचैन है

चारों तरफ नाम फैला है
जिस सम्मान को भूखा है हर कोई
उनके कदमों मे पड़ा है
फिर भी इंसान बेचैन है

लोग तरसते हैं पर
उनको तो हजारों सलाम करने वाले
रोज मिल जाते हैं
फिर भी इंसान बेचैन है

दरअसल बाजार में कभी मिलता नहीं
कभी कोई तोहफे में दे सकता नहीं
अपने अंदर ढूंढे तभी मिलता चैन है
---------------------

Monday, June 30, 2008

बांट लेते हैं रौशनी भी-हिंदी शायरी


कभी तृष्णा तो कभी वितृष्णा
मन चला जाता है वहीं इंसान जाता
जब सिमटता है दायरों में ख्याल
अपनों पर ही होता है मन निहाल
इतनी बड़ी दुनिया के होने बोध नहीं रह जाता
किसी नये की तरह नजर नहीं जाती
पुरानों के आसपास घूमते ही
छोटी कैद में ही रह जाता

अपने पास आते लोगों में
प्यार पाने के ख्वाब देखता
वक्त और काम निकलते ही
सब छोड़ जाते हैं
उम्मीदों का चिराग ऐसे ही बुझ जाता

कई बार जुड़कर फिर टूटकर
अपने अरमानों को यूं हमने बिखरते देखा
चलते है रास्ते पर
मिल जाता है जो
उसे सलाम कहे जाते
बन पड़ता है तो काम करे जाते
अपनी उम्मीदों का चिराग
अपने ही आसरे जलाते हैं जब से
तब से जिंदगी में रौशनी देखी है
बांट लेते हैं उसे भी
कोई अंधेरे से भटकते अगर पास आ जाता
....................................

दीपक भारतदीप

Saturday, June 28, 2008

दर्द की खबर देते, अपने वास्ते बेदर्द होते-हिन्दी शायरी



खबरों की खबर वह रखते हैं
अपनी खबर हमेशा ढंकते हैं
दुनियां भर के दर्द को अपनी
खबर बनाने वाले
अपने वास्ते बेदर्द होते हैं

आखों पर चख्मा चढ़ाये
कमीज की जेब पर पेन लटकाये
कभी कभी हाथों में माइक थमाये
चहूं ओर देखते हैं अपने लिये खबर
स्वयं से होते बेखबर
कभी खाने को तो कभी पानी को तरसे
कभी जलाती धूप तो कभी पानी बरसे
दूसरों की खबर पर फिर लपक जाते हैं
मुश्किल से अपना छिपाते दर्द होते हैं

लाख चाहे कहो
आदमी से जमाना होता है
खबरची भी होता है आदमी
जिसे पेट के लिये कमाना होता है
दूसरों के दर्द की खबर देने के लिये
खुद का पी जाना होता है
भले ही वह एक क्यों न हो
उसका पिया दर्द भी
जमाने के लिए गरल होता
खबरों से अपने महल सजाने वाले
बादशाह चाहे
अपनी खबरों से जमाने को
जगाने की बात भले ही करते हों
पर बेखबर अपने मातहतों के दर्द से होते हैं

कभी कभी अपना खून पसीना बहाने वाले खबरची
खोलते हैं धीमी आवाज में अपने बादशाहों की पोल
पर फिर भी नहीं देते खबर
अपने प्रति वह बेदर्द होते हैं
----------------------------
दीपक भारतदीप

Thursday, June 26, 2008

वह तुम ही होते-हिंदी शायरी

बेजान पत्थरों में ढूंढते हैं आसरा
फिर भी नहीं जिंदगी में मसले हल नहीं होते
कोई हमसफर नहीं होता इस जिंदगी में
अपने दिल की तसल्ली के लिये
हमदर्दों की टोली होने का भ्रम ढोते
सभी जानते हैं यह सच कि
अकेले ही चलना है सभी जगह
पर रिश्तों के साथ होने का
जबरन दिल को अहसास करा रहे होते
कहें महाकवि दीपक बापू
क्यों नहीं कर लेते अपने अंदर बैठे
शख्स से दोस्ती
जिससे हमेशा दूर होते
वह तुम ही होते
........................................

दीपक भारतदीप

Monday, June 23, 2008

इश्क में भी अब आ गया है इंकलाब-हिन्दी शायरी

इश्क में भी अब आ गया है इंकलाब
हसीनाएं ढूंढती है अपने लिए कोई
बड़ी नौकरी वाला साहब
छोटे काम वाले देखते रहते हैं
बस माशुका पाने का ख्वाब

वह दिन गये जब
बगीचों में आशिक और हसीना
चले जाते थे
अपने घर की छत पर ही
इशारों ही इशारों में प्यार जताते थे
अब तो मोबाइल और इंटरनेट चाट
पर ही चलता है इश्क का काम
कौन कहता है
इश्क और मुश्क छिपाये नहीं छिपते
मुश्क वाले तो वैसे हुए लापता
इश्क हवा में उडता है अदृश्य जनाब
जाकर कौन देख सकता है
जब करने वाले ही नहीं देख पाते
चालीस का छोकरा अटठारह की छोकरी को
फंसा लेता है अपने जाल में
किसी दूसरे की फोटो दिखाकर
सुनाता है माशुका को दूसरे से गीत लिखाकर
मोहब्बत तो बस नाम है
नाम दिल का है
सवाल तो बाजार से खरीदे उपहार और
होटल में खाने के बिल का है
बेमेल रिश्ते पर पहले माता पिता
होते थे बदनाम
अब तो लडकियां खुद ही फंस रही सरेआम
लड़कों को तो कुछ नहीं बिगड़ता
कई लड़कियों की हो गयी है जिंदगी खराब
------------------------------
दीपक भारतदीप

Sunday, June 22, 2008

हमारी जिन्दगी में आये वह हवा बनकर-हिन्दी शायरी



हमारी जिंदगी में आये वह हवा बनकर
इसलिये छोड़ जायेंगे कभी
इसका तो अनुमान था
पर छोड़ जायेंगे अपने पीछे
एक बहुत बड़ा तूफान
हमारे लड़ने के लिये
इसका गुमान न था

आये थे तो वह आहिस्ता आहिस्ता
कदम अपने बढ़ाते हुए
अपनी कमर मटकाते हुए
हमें देख रहे थे आंखें नचाते हुए
कुछ पल के साथ में लगा कि
कि वह उम्र भर नहीं जायेंगे
सदा पास रह जायेंगे
पर अपना काम निकलते ही
जो उन्होंने अपना मूंह फेरा
जिंदगी घिर गयी झंझावतों में
जिसका कभी पूर्वानुमान न था
..................................................
दीपक भारतदीप

Saturday, June 21, 2008

आता कहर भी टल जाता है-हिन्दी शायरी


यूं तो हम भी दोस्तों के लिये
अपनी जान देने के लिये खड़े थे
पर दोस्त भी हमें बचाने के लिये
कुर्बान होने पर अड़े थे

‘पहले मै’ ‘पहले मैं’ के झगड़े में
मुसीबत का काफिला गुजर गया
पता ही नहीं चला
एक दूसरे को कृतार्थ करने का वक्त यूं ही टला
जज्बात हों कुर्बानी के लिये दिल में तो
आता कहर भी टल जाता है
जिंदगी बहती है हवा में
झौंका भी आ जाये दिल में
दोस्त का साथ निभाने का
तो दुश्मन हो शहर तब भी डर जाता है
बुरे वक्त में तकलीफ का दर्द भी कम जाता है
इसी सोच के साथ दोस्त और हम वहां खड़े थे
...............................


एक सपना लेकर
सभी लोग आते हैं सामने
दूर कहीं दिखाते हैं सोने-चांदी से बना सिंहासन

कहते हैं
‘तुम उस पर बैठ सकते हो
और कर सकते हो दुनियां पर शासन

उठाकर देखता हूं दृष्टि
दिखती है सुनसान सारी सृष्टि
न कहीं सिंहासन दिखता है
न शासन होने के आसार
कहने वाले का कहना ही है व्यापार
वह दिखाते हैंे एक सपना
‘तुम हमारी बात मान लो
हमार उद्देश्य पूरा करने का ठान लो
देखो वह जगह जहां हम तुम्हें बिठायेंगे
वह बना है सोने चांदी का सिंहासन’

उनको देता हूं अपने पसीने का दान
उनके दिखाये भ्रमों का नहीं
रहने देता अपने मन में निशान
मतलब निकल जाने के बाद
वह मुझसे नजरें फेरें
मैं पहले ही पीठ दिखा देता हूं
मुझे पता है
अब नहीं दिखाई देगा भ्रम का सिंहासन
जिस पर बैठा हूं वही रहेगा मेरा आसन
..........................
दीपक भारतदीप

Friday, June 20, 2008

सनसनी गद्दारी से फैलती है वफादारी से नहीं-व्यंग्य

जब शाम को घर पहुंचने के बाद आराम कर रहा था तो पत्नी ने कहा-‘आज इंटरनेट का बिल भर आये कि नहीं!
मैंने कहा-‘तुम बाजार चली जाती तो वहीं भर जाता। मेरे को काम की वजह से ध्यान नहीं रहता।’
पत्नी ने कहा-‘घर पर क्या कम काम है? बाजार जाने का समय ही कहां मिलता है? अब यह बिल भरने का जिम्मा मुझ पर मत डालो।’
मैंने कहा-‘तुम घर के काम के लिये कोई नौकर या बाई क्यों नहीें रख लेती।’
मेरी पत्नी ने कहा-‘क्या कत्ल होने या करने का इरादा है। वैसे भी तुम जिस तरह कंप्यूटर से रात के 11 बजे चिपकने के बाद सोते हो तो तुम्हें होश नहीं रहता। कहीं मेरा कत्ल हो जाये तो सफाई देते परेशान हो जाओगे। अभी मीडिया वाले पूछते फिर रहे हैं कि आठ फुट की दूरी से किसी को अपने बेटी की हत्या पर कोई चिल्लाने की आवाज कैसे नहीं आ सकती। अगर मेरा कत्ल हो जाये तो तुम तो आठ इंच की दूरी पर आवाज न सुन पाने की सफाई कैसे दोगे? मीडिया वाले कैसे तुम पर यकीन करेंगे? यही सोचकर चिंतित हो जाती हूं। ऐसे में तुम नौकर या बाई रखने की बात सोचना भी नहीं। वैसे अगर स्वयं काम करने की आदत छोड़ दी तो फिर हाथ नहीं आयेगा। समय से पहले बुढ़ापा बुलाना भी ठीक नहीं है।
मैंने कहा-‘इतने सारे नौकर काम कर रहे हैं सभी के घर कत्ल थोड़े ही होते हैं। तुम कोई देख लो। मैं फिर उसकी जांच कर लूंगा।’
मेरी पत्नी ने हंसते हुए कहा-‘कहां जांच कर लोगे? अपनी जिंदगी में कभी कोई नौकर रखा है जो इसका अभ्यास हो।’

मैंने कहा-‘तुम तो रख लो। हम तो बड़े न सही छोटे सेठ के परिवार में पैदा हुए इसलिये जानते हैं कि नौकर को किस तरह रखा जाता है।’

मेरी पत्नी ने कहा-‘दुकान पर नौकर रखना अलग बात है और घर में अलग। टीवी पर समाचार देखो ऐसे नौकरों के कारनामे आते हैं जिनको घर के परिवार के सदस्य की तरह रखा गया और वह मालिक का कत्ल कर चले गये।’
मैंने कहा-‘क्या आज कोई इस बारे में टीवी पर कोई कार्यक्रम देखा है?’
उसने कहा-‘हां, तभी तो कह रही हूं।’
मैंने कहा-‘तब तो तुम्हें समझाना कठिन है। अगर तुम कोई टीवी पर बात देख लेती हो तो उसका तुम पर असर ऐसा होता है कि फिर उसे मिटा पाना मेरे लिये संभव नहीं है।’

बहरहाल हम खामोश हो गये। वैसे घर में काम के लिये किसी को न रखने का यही कारण रहा है कि हमने जितने भी अपराध देखे हैं ऐसे लोगों द्वारा करते हुए देखे हैं जिनको घर में घुस कर काम करने की इजाजत दी गयी । सात वर्ष पहले एक बार हमारे बराबर वाले मकान में लूट हो गयी। उस समय मैं घर से दूर था पर जिन सज्जन के घर लूट हुई वह मेरे से अधिक दूरी पर नहीं थी। कोई बिजली के बिल के बहाने पड़ौसी के घर में गया और उनकी पत्नी चाकू की नौक पर धमका कर हाथ बांध लिये और सामान लूट कर अपराधी चले गये। मेरी पत्नी अपनी छत पर गयी तो उसे कहीं से घुटी हुई आवाज में चीखने की आवाज आई। वह पड़ौसी की छत पर गयी और लोहे के टट्र से झांक कर देख तो दंग रह गयी। वह ऊपर से चिल्लाती हुई नीचे आयी। उसकी आवाज कर हमारे पड़ौस में रहने वाली एक अन्य औरत भी आ गयी। दोनो पड़ौसी के घर गयी और उस महिला को मुक्त किया। उनके टेलीफोन का कनेक्शन काट दिया गया था सो मेरी पत्नी ने मुझे फोन कर उस पड़ौसी को भी साथ लाने को कहा।
मैं एक अन्य मित्र को लेकर उन पड़ौसी के कार्यालय में उनके पास गया। सबसे पहले उन्होंने अपनी पत्नी का हाल पूछा तो मैने अपनी पत्नी से बात करायी। तब वह बोले-‘यार, अगर पत्नी ठीक है तो मैं तो पुलिस में रपट नहीं करवाऊंगा।’
वह अपने एक मित्र को लेकर स्कूटर पर घर की तरफ रवाना हुए और मैं अपनी साइकिल से घर रवाना हुआ। चलते समय मेरे मित्र ने कहा-‘ अगर यह पुलिस में रिपोर्ट नहीं लिखवाते तो ठीक ही है वरना तुम्हारी पत्नी से भी पूछताछ होगी।’
हम भी घर रवाना हुए। वहां पहुंचे तो पुलिस वहां आ चुकी थी। मेरी पत्नी ने पड़ौसी के भाई को भी फोन किया था और उन्होंने वहीं से पुलिस का सूचना दी। अधिक सामान की लूट नहीं हुई पर सब दहशत में तो आ ही गये थे।

एक दो माह बीता होगा। उस समय घर में किसी को काम पर रखने का विचार कर रहे थे तो पता लगा कि पड़ौसी के यहां लूट के आरोपी पकड़े गये और उनमें एक ऐसा व्यक्ति शामिल था जो उनके यहां मकान बनते समय ही फर्नीचर का काम कर गया था। इससे हमारी पत्नी डर गयी और कहने लगी तब तो हम कभी भी किसी ऐसे व्यक्ति को घुसने ही न दें जिसे हम नहीं जानते। यही हमारे लिये अच्छा रहेगा।’
यह घटना हमारे निकट हुई थी उसका प्रभाव मेरी पत्नी पर ऐसा पड़ा कि फिर घर में किसी बाई या नौकर को घुसने देने की बात सोचने से ही उसका रक्तचाप बढ़ जाता है। फिर उसके बाद जब भी कभी वह काम अधिक होने की बात करती हैं मैं किसी को काम पर रखने के लिये कहता हूं पर टीवी पर अक्सर ऐसी खबरें आती हैं कि अपना विचार स्थगित कर देती हैं।’

उस दिन कहने लगी-‘पता नहीं लोग अपना काम स्वयं क्यों नहीं करते। नौकर रख लेते हैं।
मैंने कहा-‘तुम भी रख सकती हो। अगर यह टीवी चैनल देखना बंद कर दो। कभी सोचती हो कि ग्यारह सौ वर्ग फुट के भूखंड पर बने मकान की सफाई में ही जब तुम्हारा यह हाल है तो पांच-पांच हजार वर्ग फुट पर बने मकान वाले कैसे उसकी सफाई कर सकते हैं? मुझसे बार बार कहती हो कि छोटा प्लाट लेते। क्या जरूरी था कि इतना बड़ा पोर्च और आंगन भी होता। तब उन बड़े लोगों की क्या हालत होगी जो जमाने को दिखाने के लिये इतने बड़े मकान बनाते हैं। वह अपनी पत्नियों के तानों का कैसे सामना कर सकते हैं जब मेरे लिये ही मुश्किल हो जाता है।’
हमारी पत्नी सोच में पड़ गयी। इधर सास-बहू के धारावाहिकों का समय भी हो रहा था। वह टीवी खोलते हुए बोली-‘इन धारावाहिकों में तो नौकर वफादार दिखाते हैं।
मैंने हंसते हुुए कहा-‘तो रख लो।’
फिर वह बोली-‘पर वह न्यूज चैनल तो कुछ और दिखा रहे है।
मैंने कहा-‘तो फिर इंतजार करो। जब दोनों में एक जैसा ‘नौकर पुराण दिखाने लगें तब रखना। वैसे समाचार हमेशा सनसनी से ही बनते हैं और गद्दारी से ही वह बनती है वफदारी से नहीं। इसलिये दोनों ही जगह एक जैसा ‘नौकर पुराण’ दिखे यह संभव नहीं है। इसलिये मुझे नहीं लगता कि तुम किसी को घर पर काम पर रख पाओगी।’
मेरी पत्नी ने मुस्कराते हुए पूछा-‘तुम्हारे ब्लाग पर क्या दिखाते हैं?’

मैंने कहा-‘अब यह तो देखना पड़ेगा कि किसने टीवी पर क्या देखा है? बहरहाल मैंने तो कुछ नहीं देखा सो कुछ भी नहीं लिख सकता। सिवाय इसके कि वफदारी से नहीं गद्दारी से फैलती है सनसनी।’
मेरी पत्नी ने पूछा-‘इसका क्या मतलब?’
मैंने कहा-‘मुझे स्वयं ही नहीं मालुम

दीपक भारतदीप

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