सब जगह मेला है लगा,
मगर इंसान अकेला कोई ना है सगा।
कहें दीपकबापू डरे है सब
संग भीड़ में साथ होने का दगा है।
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मन में माया मुंह में राम,
भक्ति में ढूंढ रहे फल दाम।
कहें दीपकबापू पाखंड की चमक है
दे रहे उसे संस्कार नाम।
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पानी की तरह पैसा पाया,
तिजोरी को बांध बनाया।
‘दीपकबापू’ मद तो आना ही था
सुख की चिंता हुई बाज़ार में बहाया।।
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अपने में सब आशा जगाते हैं,
यहां तो अजनबी भी निभाते हैं।
कहें दीपकबापू चाहत के बाज़ार में
रिश्तों के भाव भी लगाते हैं।
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लोकतंत्र के मुख पर नारे जड़े हैं,
जिनके जितने महंगे उतने बड़े हैं।
कहें दीपक बापू हम आदमी
अब भी भगवान भरोसे खड़े हैं।
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गर्मी में तख्त की जंग लड़े हैं,
वाणी में अग्निबाण पड़े हैं।
कहें दीपकबापू ताप में मरती मति
जलाभुना दिखने पर सब अड़े हैं।
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जब चेहरे पर बने झुर्रियों का घर
आईना देखने से लगता है डर।
जिंदगी में मजे लेने का एक तरीका
‘दीपकबापू’ दिल में उमंग भर।।
सुविधाओं के भंडार लगे हैं,
हर देह में राजरोग जगे हैं।
कहें दीपकबापू लाचारी के शिकार
साथ देने का वादा कर ठगे हैं।
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रूठे यारों को कब तक मनायें,
दिल के घाव कब तक सहलायें।
‘दीपकबापू’ आओ चलें बाहर
कहीं नया चमन बसायें।
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विचारों का युद्ध है कहते रहिये,
स्वयं बोलें तो अभद्र शब्द भी सहिये।
कहें दीपकबापू मजा लेना आये तो
अपनी मस्त धारा में बहिये।
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