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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, April 3, 2009

लेखक और आचरण-आलेख

हिंदी और उर्दू दो अलग भाषायें हैं पर बोली होने की वजह से एक जैसी लगती हैं। यह भाषायें इस तरह आपस में मिली हुईं है कि कोई उर्दू बोलता है तो लगता है कि हिंदी बोल रहा है और उसी तरह हिंदी बोलने वाला उर्दू बोलता नजर आता है। दोनों के बीच शब्दों का विनिमय हुआ है और हिंदी में उर्दू शब्दों के प्रयोग करते वक्त नुक्ता लगाने पर विवाद भी चलता रहा है। बोली की साम्यता के बावजूद दोनों की प्रवृत्ति अलग अलग है। इस बात को अधिकतर लोगों ने नजरअंदाज किया है पर उस विचार किया जाना जरूरी है।
उर्दू की महिमा बहुत सारे हिंदी लेखक भी गाते रहे हैं पर उसकी मूल प्रवृत्ति देखना भी जरूरी है। उर्दू की लिपि अरबी है और हिंदी की देवनागरी। देवनागरी बायें से दायें लिखी जाती है और अरेबिक दायें से बायें लिखी जाती है। वैज्ञानिक मानते हैं कि लिखने के अंदाज से व्यक्ति के स्वभाव और विचारों में अंतर पड़ता है। कुछ मनोविशेषज्ञ कहते हैं कि बायें से दायें लिखने के कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं जो दायें से बायें में नहीं पाये जाते।

इससे अलग भी एक महत्वपूर्ण बात है। वह यह है कि उर्दू भाषा किसी लेखक या रचनाकार की रचनाओं पर ही अपना ध्यान केंद्रित करती नजर आती है जबकि हिंदी में इसके विपरीत साहित्य के साथ उसके रचयिता के आचरण पर भी दृष्टि रखने की प्रवृत्ति है। इस पर विचार करते हुए हम पहले हिंदी उसकी सहायक भाषाओं के प्रसिद्ध रचनाकारों के आचरण और विचारों पर दृष्टिपात करें। पहले हम संस्कृत के प्रसिद्ध रचनाकारों पर दृष्टि डालें लो हिंदी की जननी भाषा है। उसमें महर्षि बाल्मीकि, वेदव्यास और शुकदेव का नाम आता है। आप देखिये लोग उनका नाम ऐसे ही लेते हैं जैसे भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण का। इसका कारण उनका महान आचरण, त्याग और तपस्या है। उसके बाद हम देखते हैं हिंदी के भक्तिकाल के महान कवि और संत कबीर,रहीम,मीरा,तुलसी आदि के चरित्र और जीवन निश्चित रूप से ऊंचे दर्जे का था। आधुनिक हिंदी में भी सर्व श्री प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद आदि का चरित्र भी उज्जवल था। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक की व्यक्तिगत धवल छबि हो तभी हिंदी भाषा वाले उसकी रचनाओं के महत्व को स्वीकार करते हैं-यह हिंदी की प्रवृत्ति है।

अब उर्दू भाषा की प्रवृत्तियों पर दृष्टिपात करें। हम यहां उनके किसी लेखक का नाम नहीं लेंगे क्योंकि उससे विवाद बढ़ता है। भारत के एक प्रसिद्ध शायद हुए जिनको मुगल काल में बहुत सम्मान मिला। एक तरह से भारत के उर्दू शायरी को उन्होंने प्राणवायु प्रदान की। उनके शेर निश्चित रूप से बहुत प्रभावी हैं उन जैसा प्रसिद्ध होना तो किसी किसी के भाग्य में बदा होता है मगर वह फिर भी वह हिंदी भाषा के कवियों जैसे आदरणीय इस देश में नहीं है। वजह! वह शराब खूब पीते थे। उनके कोठों पर जाने की चर्चा भी कई जगह पढ़ने को मिलती है। उनकी शायरियेां का अंदाज तो उनके बाद के शायरों में शायद ही दिख पाया पर हां, इससे निजी आचरण की अनदेखी उर्दू की एक सामान्य प्रवृत्ति लगती है।

एक अन्य शायर जो बाद में पाकिस्तान चले गये। उनका एक देशभक्ति से भरा गीत तो हमेशा ही रेडियो और टीवी पर सुनने को मिलता है। इतना ही नहीं उन्होंने भगवान श्रीराम और शिव जी पर भी अपनी शायरी लिखी। उन्होंने भारतीय संदर्भों को पूरी तरह अपनाया पर आखिर हुआ क्या? वह पाकिस्तान चले गये। भारत उनको पराया लगने लगा। उनके जाने के बाद भी बहुत समय तक उनके यहां के हिंदी और उर्दू के लेखक और पाठक इस बात की प्रतीक्षा करते रहे कि वह वापस आयें पर ऐसा हुआ नहीं। आज भी अनेक हिंदी और उदू्र्र के लेखक उनकी रचनाओं को अपनी कलम से संजोये रख कर पाठकों के समक्ष रखते हैं। इतने बड़े शायर को इस देश ने भुला दिया। कारण यही है कि आम पाठक उनके पाक्रिस्तान चले जाने का बात को पचा नहीं पाया।

कुछ लोगों को यह बात अजीब लगे पर जरा विचार करें। जब हम मन में भगवान श्रीराम का स्मरण करते हैं तो हमारा ध्यान बाल्मीकि कृत रामायण और तुलसीकृत रामचरित मानस की तरफ जाता है। हम थोड़ा आगे विचार करते हैं तो वह पुस्तकें उठा लेते हैं और फिर उसके अध्ययन से हमारे अंदर भगवान श्रीराम का एक विशाल रूप स्वतः दृष्टिगोचर होता है। यही स्थिति भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करने पर हो सकती है। उनका नाम मन में आते ही हमारा श्रीगीता, या मद्भागवत, सुखसागर, और प्रेमसागर की किताब की तरफ चला जाता है। यही स्थिति कबीर और रहीम जी का स्मरण करने पर होती है। यहां हम नाम की महिमा और उसके बाद उसके विस्तार स्वरूप प्रकट होने पर विचार करते हुए यह कह सकते हैं कि जिस शब्द का सार्वभौमिक महत्व हैं उसका विस्तृत रूप मनुष्य के पूरे मन पर नियंत्रण कर लेता हैं। एक शब्द से उसकी पूरी सोच का रास्ता बन जाता है।

यही स्थिति भाषा की है। जब हम हिंदी में सोचेंगे तक हमारी प्रवृत्ति उसकी मूल प्रवृत्ति की तरह हो जायेगी। यही स्थिति उर्दू की भी होगी। तब ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर इसका निष्कर्ष क्या है? दरअसल हिंदी के प्रसिद्ध लेखक जानबूझकर उर्दू लेखकों की प्रशंसा करते हैं ताकि हिंदी में जो लेखक की आचरण पर दृष्टि डालने की प्रवृत्ति है उससे बचा जाये। इधर फिल्मों में भी उर्दू भाषी गीतकारों और कहानीकारेां का प्रभाव अधिक रहा है। इन फिल्मों में ं आचरण तो नाम का भी नहीं होता। इनका वर्चस्व इतना रहा है कि हिंदी फिल्म उद्योग को कभी बालीवुड तो कभी मुबईया फिल्म उद्योग कहा जाता है। फिल्मी पर्दे पर नायक का काम करने वाले भले ही निजी जीवन में खराब आचरण करते हों पर उनकी छबि फिर भी आम आदमी में खराब न हो इसके लिये फिल्म उद्योग में उनके प्रचारक सक्रिय रहते हैं। बोली की समानता के कारण उर्दू भाषियों के अस्तित्व को हिंदी फिल्मों में अलग करना मुश्किल है पर यह सच है कि उनका प्रभाव अधिक है और इसी कारण वहां आचरण की महिमा भी वैसी है।
उर्दू अदब की भाषा है। निश्चित रूप से मानना चाहिये क्योंकि शायरों की शायरियां वाकई दार्शनिक भाव से भरी हुईं हैं पर हिंदी अध्यात्म की भाषा है। शराब और शवाब पर खुलकर लिखने की प्रवृत्ति उर्दू ने ही हिंदी को दी है हालांकि सभी लेखक ऐसा नहीं करते। ऐसा नहीं है कि नारी सौंदर्य पर हिंदी में नहीं लिखा जाता पर उसमें जिस तरह की व्यंजना विद्या उपयोग की जाती है वह उर्दू में नहीं देखी जाती। हमारे प्राचीन ग्रंथों में नारी पात्रों के सौंदर्य पात्रों का वर्णन जिस तरह किया गया है उसे पढ़ा जाये तो आज के लेखकों पर तरस ही आ सकता है।

वैसे आजकल हिंदी और उर्दू शायरों में अधिक अंतर नहीं रहा है। इसका कारण यह है कि जो उर्दू में लिखने वाले हैं वह हिंदी में ही पढ़े लिखे हैं इसलिये उसके अध्यात्म का उन पर प्रभाव है और वह इसे छिपाते भी नहीं है। वैसे अनेक उर्दू लेखक और शायरी है जिन्होंने अपने पूर्वज शायरों के निजी जीवन को नहीं अपनाया जो आचरण की दृष्टि से उतने ही उज्जवल है जितने हिंदी वाले, पर यह उनके हिंदी से जुड़े होने के कारण ही है। हिंदी वालों ने उर्दू वालों की संगत की है तो उनमें भी आचरण के प्रति उपेक्षा का भाव दिखने लगा है। वैसे हिंदी में अनेक ऐसे प्रसिद्ध लेखक हुए हैं जिन्होंने उर्दू में भी खूब लिखा। सच बात तो यह है कि आजकल हिंदी और उर्दू का अंतर केवल लिपि को लेकर है और उसका प्रभाव फिर भी नहीं नकारा जा सकता। इस धरती पर कोई सर्वज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता इसलिये किसी पर यह आक्षेप करना ठीक नहीं है पर जिस तरह की प्रवृत्तियां देखी गयी हैं उन पर नजर डालना भी जरूरी है। हो सकता है कि यह नजरिया पूरी तरह से गलत हो और नहीं भी।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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1 comment:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

जब हम हिंदी और उर्दू की बात करते है तो यह भ्रम पालते हैं कि वे अलग भाषाएं है, इसलिए कि एक में संस्कृत के शब्द आ गए हैं तो दूसरे में अरबी व फारसी के। लेकिन जब कोई हिंदी या उर्दू में बोलता है तो सभी समझ लेते है- अर्थात वह एक ही भाषा है जिसमें देशज शब्दों का प्रयोग है। इसी सोच ने हमें इन भाषाओं के साहित्य को भी अलग दृष्टि से देखने की मानसिकता बना दी है। एक और विडम्बना यह है कि लिपि के कारण इन्हें किसी धर्म विशेष से जोडा जाता है। अभी हाल ही में एक और मुद्दा उठा है कि दक्खनी इन दो भाषाओं को जोडने वाली कडी है। यदि इस भाषा की दीवार को तोड दिया जाय तो हिंदी संसार की एक समृद्ध भाषा के रूप में उभर कर सामने आएगी।

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