तो बाद में आती पतझड़ भी
जीवन के सत्य से परिचय कराती है
जो खिल हैं पत्ते और फूल
एक दिन झड़ जाने हैं
बिताना है टहनियों को कुछ महीने
जेठ माह की आग में अकेले जलते हुए
फिर बरसात में संगी साथी आने हैं
बनना और बिगड़ना प्रकृति की नियति हैं
कभी ठंडी तो कभी गर्म होकर
बहती हवाएं यही अनुभूति कराती हैं
कितना मुश्किल है
जीवन में पतझड़ का सामना करना
जब अपने से विश्वास उठ जाता है
कहीं उम्र तो कही अभावों से
कहीं अपने स्वभावों से
हारे आदमी से उसका मन ही रूठ जाता है
दिल में उमंग हो तो बसंत हर पल है
मौसमों के आने जाने के आभासों को समझें
तो पतझड़ भी एक छल है
दृश्य वैसे ही आते हैं सामने
जैसी जिंदगी में अपनी नज़र बन जाती है
वही बसंत और पतझड़ लाती है
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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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