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Saturday, August 8, 2015

धर्म की पेशेवर कला से चिढ़ते हैं प्रचार और समाचार व्यवसायी-हिन्दी लेख(profeshnal art of busniness in religion and indian media-hindi new post in nindi article)


                    सामाजिक दृष्टि से भारत में माता की चौकी एक व्यवसाय के रूप में स्वीकार की गयी है तो उसे धर्म का धंधा कहना ठीक नहीं। शादी तथा अन्य घरेलू कार्यक्रमों पर अनेक जगह माता की चौकी का आयोजन होता है। इसे धर्म का व्यवसाय कहें तो गलत होगा। अगर कहते भी हैं तो बताना पड़ेगा कि उसमें बुराई क्या है? बार बार किसी पर माता की चौकी के नाम पर पैसे लेने पर उसे खलनायक कहना लोगों की आस्था से खिलवाड़ करना है। ऐसा लग रहा है कि प्रचार व्यवसाय के लोग चाहते हैं कि भारत में भक्ति के रूप में भजन और अन्य कार्यक्रम होते हैं वह मुफ्त में हों ताकि उसका पैसा उनकी फिल्मों को देखने या उनके विज्ञापनों में प्रचारित वस्तंुओं पर खर्च हो।
                                   हम भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की बात करें तो उसमें किसी भी कर्म, रहन सहन, आचरण तथा विचारा को बुरा नहीं बताया गया।  उसमें तो मनुष्य को उसके कर्म, रहन सहन, खान पान, आचरण तथा विचार का परिणाम बताया गया हैं।  किसी के अनिष्ट की सोचना  बुरा नहीं है पर उसका स्वयं पर जो विपरीत प्रभाव होगा यह बताया गया है।   उपभोग की वस्तुओं के त्याग से अधिक उसके साथ संपर्क होने पर लिप्तता का भाव न रखने के लिये कहा गया है। संकल्प त्याग के भाव के आधार पर देखा जाये तो कोई संत अगर सोने के आभूषण पहनता है तो उस पर आपत्ति उठाना बेकार है जब तक यह पता न चले कि उसका भाव उसके प्रति लिप्तता का है या नहीं।  कोई संत भक्तों को दिखाने के लिये अच्छे कपड़े और  गहने पहनता है तो बुरी बात नहीं है। उसकी भाव लिप्तता  जाने बिना  प्रतिकूल टिप्पणी करना ठीक नहीं। प्रचार और समाचार के व्यवसायी संतों की सौंदर्य लीला में अश्लीलता और अपने फिल्म नायकों की अश्लील लीला में सौंदर्य का बोध जताते हैं। एक महिला संत बिकनी पहने तो धर्म विरोधी और उनकी फिल्मी नायिकायें पहिने तो सौंदर्य की मूर्ति हो जाती हैं।
                                   हम यहां पेशवर धार्मिक लोगों के कृत्यों का समर्थन नहीं कर रहे पर यह समझ लेना चाहिये भारतीय अध्यात्म मे भक्त चार प्रकार के भक्त होते हैं। अर्थार्थी, आर्ती, जिज्ञासु और ज्ञानी।  ज्ञानी भक्त भगवत् नाम  में अपना आसरा ढूंढ लेते हैं पर शेष तीनों वर्ग के भक्त इन्हीं भक्ति के व्यवसायियों में पास मन की शांति ढूंढते हैं। एक योग और ज्ञान साधक के रूप में हम इनकी निंदा करने की बजाय इस बात की प्रशंसा करते हैं कि वह अर्थार्थी और आर्ती भाव के भक्तों का समूह संभालते हैं। याद रखें भक्ति मन के भटकाव को रोकती है इससे समाज में हिंसक मनुष्यों की संख्या सीमित रहती है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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Saturday, August 16, 2008

उल्टा झंडा, सीधा झंडा-लघुकथा

सुबह सुबह वह घर के बाहर अखबार पढ़ते हुए बाहर लोगों के सामने चिल्ला रहे थे-‘अरे, मैंने अभी टीवी पर सुना वहां पर उल्टा झंडा फहरा दिया। आज लोगों की हालत कितनी खराब हो गयी है। जरा, भी समझ नहीं है। सब जगह पढ़े लिखे लोग हैं पर अपनी मस्ती में इतने मस्त हैं कि उल्टे और सीधे झंडे को ही नहीं देख पाते। जिसे देखो अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगा पड़ा है। सब जगह भ्रष्टाचार है। किसी को देश की परवाह नहीं है तभी तो उल्टा झंडा लगाते हैं।’

वहां से उनकी जानपहचान का ही एक आदमी निकल रहा था जो अपने साथ लिफाफे में स्कूल में पंद्रह अगस्त को झंडा फहराने के लिये ले जा रहा था। वह रुका और उनकी बात सुन रहा था। अचानक उसने अपने लिफाफे से झंडा निकाला और बोला-महाशय, अच्छा हुआ आप मिल गये वरना मुझे भी पता नहीं उल्टा और सीधा झंडा कैसे होता है। जरा आप बता दीजिये।’

अब उनके चैंकने की बारी थी। वह थोड़ा सकपकाये पर तब तक उस आदमी ने अपने हाथ मेंं पकड़े लिफाफे से नये कपड़े के बने अपने झंडे को निकालकर पूरा का पूरा खोलकर उनके सामने खड़ा कर दिया। उसने भी झंडा उल्टा ही खडा+ किया था। तब वह सज्जन बोले-हां, ऐसे ही होता है सीधा झंडा।
तब तब उनका पुत्र भी निकलकर बाहर आया और बोला-‘पापा, यह आपका मजाक उड़ा रहा है इसने भी उल्टा झंडा पकड़ रखा है।’
फिर उनके पुत्र ने उस आदमी से कहा-‘मास्टर साहब, अपनी जंचाओ मत। तुम्हें पता है कि उल्टा और सीधा झंडा कैसे होता है और नहीं पता तो मैं चलकर तुम्हारे स्कूल में बता देता हूं कि उल्टा और सीधा झंडा कैसे होता है।’
दोनों का मूंह उतर गया। वह आदमी अपना झंडे का कपड़ा लिफाफे में पैक फिर अपने झोले में डालकर ले गया। उन महाशय ने भी अपने वहां मौजूद किसी आदमी से अपनी आंख नहीं मिलाई और अंदर चले गये।
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