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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Tuesday, January 6, 2009

हंसी की फुहार-हास्य कविता

फंदेबाज लेकर अपने भतीजे को
पहुंचा और बोला
‘‘दीपक बापू, मेरा यह भतीजा
खूब लिखता है श्रृंगार रस से सराबोर कवितायें
पर नहीं सुनते पुरुष और महिलायें
आप तो इसे अब
हंसी का कार्यक्रम बतायें
ताकि हम लोग भी कुछ जमाने में इज्जत बनायें’’

उसके भतीजे को ऊपर से नीचे देखा
फिर गला खंखार कर
अपनी टोपी घुमाते बोले दीपक बापू
’’कमबख्त जब भी घर आते हो
साथ में होती बेहूदी समस्यायें
जिनके बारे में हम नहीं जानते
तुम्हें क्या बतायें
रसहीन शब्द पहले सजाओ
लोगों को सुनाते हुए कभी हाथ
तो कभी अपनी कमर मटकाओ
कर सको अभिनय तो मूंह भी बनाओ
चुटकुला हो या कविता सब चलेगा
जीवन के आचरण और चरित्र पर
कहने से अच्छा होगा
अपनी देह के विसर्जन करने वाले अंगों का
इशारे में प्रदर्शन करना
तभी हंसी का माहौन बनेगा
कामेडी बनकर चमकेगा
अपने साथ स्त्री रूप के मेकअप में
कोई पुरुष भी साथ ले जाना
उसकी सुंदरता के पर
अश्लील टिप्पणी शालीनता से करना
जिससे दर्शक बहक जायें
वाह वाह करने के अलावा
कुछ न बोल पायें
किसी के समझ में आये या नहीं
तुम तो अपनी बात कहते जाना
यौवन से अधिक यौन का विषय रखना
चुंबन का स्वाद न मीठा होता है न नमकीन
पर लोगों को फिर भी पंसद है देखना
हंसी की फुहार में भीगने का मन तो
हमारा भी होता है
दिल को नहला सकें हंसी से
पर सूखे शब्द और निरर्थक अदाओं से
कभी दिल खुश नहीं होता
फ़िर भी खुश दिखता है पता नहीं कैसे जमाना
इससे अधिक तुम्हें हम और क्या बताये"

..................................................
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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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