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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, March 22, 2009

सूरज अगर डूबता नहीं-व्यंग्य क्षणिकाएँ

पानी से लहराती नदियों
उठते कहीं गिरते पहाड़ों
और हरियाली की चादर ओढ़े
चैन से खड़ा यह चमन था।
बन गया उजाड तब
जब आ गये वह गिद्ध
दिखते थे बहुत बड़े सिद्ध
नीयत थी जिनकी काली
पर जुबां पर पैगाम-ए-अमन था।
............................
इस जमीन पर औरत की
औरत तब तक ही सलमात थी
जब नहीं आये बेआबरू होने से
बचाने वाले पहरेदार
बातें करते थे जो रखवाली की
पर अदाओं में जिनके कयामत थी।
............................
हमने नहीं जाना तब तक
धोखा और गद्दारी क्या होती है
इश्क और यारी क्या होती है
जब तक दिल लगाया नहीं।
अब जाना कि वादे हमसे दोस्त करते हैं
इरादे कहीं और बसते हैं
वफा करते हैं हमेशा
मौका पड़ते ही गद्दारी से चूकते नहीं।
......................
सूरज अगर डूबता नहीं
उसकी कदर कौन करता।
यह अंधेरा ही है जो
उसके होने का अहसास दिलाता है
वरना उसकी इबादत कौन करता।

..................
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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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