आदमी का मन अपनी इंद्रियों के वश में है। हाथ खाली है तो मन काम करने की सोचता है। पांव बैठे बैठे थक गये हों तो वह चलना चाहता है। आंखे हमेशा कुछ देखना चाहती हैं। सबसे ज्यादा परेशान करती है
तो वह है मनुष्य की जीभ। खाते खाते थक जाये तो बोलने के लिये उतावली हो उठती है। उस समय न मन बुद्धि में विषय सोचता है न कोई उसे विषय सूझता है। इसलिये चार लोगों में जो विषय उठ जाये उसी पर ही आदमी बोलने लगता है। टीवी पर या अखबार में कोई विषय बोलने के लिये ढूंढ लेता है। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य कोई अपना विषय नहीं चुनता बल्कि बाहर से कोई सूझाये तभी बोल पाता है। ऐसे में आदमी बोलने के लिये बोलता है। जो मन में आये वह तत्कला बोलता है और बुद्धि से काम लेना उसके लिये तब संभव नहीं होता। यही कारण है कि हमारे समाज में सभी एक दूसरे को पीठ पीछ मूर्ख कहते हैं।
अगर कोई मौन होकर सामूहिक वार्तालापों में बैठे तो उसकी चिंतन ग्रंथियां जाग्रत हो उठती हैं। ऐसे में वह अनुभव कर सकता है कि आजकल लोग निरर्थक विषयों पर चर्चा कर समय नष्ट करते हैं। मौन होकर यही अनुभव किया जा सकता है कि किस तरह लोग अहंकार वश आत्मप्रवंचना करने के साथ ही अपनी झूठी शक्ति का बखान करते हैं। सभी मोह में फंसे हैं और दूसरे को भी वैसे ही जाल में फंसाते हैं।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
----------------
स्वायत्तमेकांतगुणं विधात्रा विनिर्मितम् छादनज्ञतायाः।
विशेषतः सर्वविदं समाजे विभूषणं मौनपण्डितानाम्।।
----------------
स्वायत्तमेकांतगुणं विधात्रा विनिर्मितम् छादनज्ञतायाः।
विशेषतः सर्वविदं समाजे विभूषणं मौनपण्डितानाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-विधाता ने स्वतंत्र रहने के लिये एक गुण मौन रहने का सृजन विधाता ने किया है जिसका चाहे जब प्रयोग किया जा सकता है। खासतौर से जब विद्वान समाज में उपस्थित होने का अवसर मिल तब मौन रहने का गुण एक तरह आभूषण का काम करता है। लोग समझते हैं कि यह भी ज्ञानी है।
अज्ञः सुखमाराध्य सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः।
ज्ञानलावदुर्विदग्धं ब्रह्माऽप तं नरं न रञ्जयति।।
ज्ञानलावदुर्विदग्धं ब्रह्माऽप तं नरं न रञ्जयति।।
हिन्दी में भावार्थ-अज्ञानियों के पास अगर थोड़ी बुद्धि हो तो उसे समझाया जा सकता है पर जिसके पास उसका लेशमात्र अंश भी नहीं है उसे समझाना ब्रह्मा के बस का भी नहीं है।
जिन लोगों के पास थोड़ी बहुत बुद्धि है पर ज्ञान नहीं तो उसे समझाया जा सकता है, पर जिन्होंने तय कर लिया है कि वह सबसे बड़े बुद्धिमान है उन्हें समझाना एकदम कठिन है। बुद्धिहीनता अहंकार को जन्म देती है। उस आदमी के पास स्वार्थों से इतर विषयों में जिज्ञासा में कतई नहीं रहती। यही बुद्धिहीनता दैहिक और मानसिक व्याधियों का शिकार बनाती है, ऐसे में कोई मनुष्य अध्यात्मिक दर्शन की तरफ झांकने की सोच भी नहीं सकता। अध्यात्मिक ज्ञान के बिना कोई मनुष्य जीवन में प्रसन्न नहीं रह सकता यह भी सच है। मुश्किल यह है कि आदमी मौन नहीं रहना चाहता। वह हर बार अभिव्यक्त होने के लिये लालायित रहता है। चुप बैठना मौन नहीं होता। मौन का मतलब है समस्त इंद्रियां निष्क्रिय हों और मनुष्य अपनी आत्मा से संपर्क रखे। सरल दिखने वाला यह काम उन लोगों के लिये कठिन है जिनके पास बुद्धि नहीं है। ज्ञानियों के लिये एक सहज कार्य है, जिनके पास बुद्धि है उनको कोई समझा भी सकता हैं पर जिनके मन में अहंकार, काम, क्रोध लोभ, लालच और प्रतिष्ठा पाने का मोह ही संसार का सबसे बड़ा विषय है उनसे ज्ञान चर्चा करना ही व्यर्थ है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
http://deepkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका
No comments:
Post a Comment