गीताप्रेस के बारे में हमने कल लिखा था कि हमें उसके बंद होने के कारणो का
पता नहीं है पर टीवी चैनलों के समाचारों से तमाम जानकारी मिल गयी। गीताप्रेस
ट्रस्ट और वहां के कर्मचारियों के बीच विवाद चल रहा है। वहां
बरसों से कार्यरत कर्मचारियों की दयनीय हालत ने हमें विचलित किया। जहां तक हमारी जानकारी है गीता प्रेस एक ट्रस्ट
से संचालित है। वहां के कर्मचारियों की हड़ताल के बारे में हमने बहुत दिन पहले पढ़ा
था तब लगा कि मामला हल हो जायेगा। अब
प्रकाशन बंद होने की खबर आयी तो हमें लगा कि शायद आर्थिक तंगी के कारण ऐसा हो रहा
है पर स्थिति वह नहीं निकली।
हड़ताली कर्मचारियों की बातें सुनी। उनका कहना था कि आठ हजार प्राप्त करने
के हस्ताक्षर कराकर राशि कम यह कहकर दी जाती कि बाकी ठेकेदार को दी गयी है। ठेकेदार का नाम उनको नहीं बताया जाता। यह शोषण
वाली बात सुनकर धक्का लगा।
बहलहाल हमें ऐसा लगा कि भारतीय अध्यात्मिक के इस प्राचीन मंदिर की तरह
स्थापित गीता प्रेस के स्वामियों में कहीं न कहंी अहंकार के साथ पुरानी यह
रूढ़िवादिता भी है जिसमें अकुशल श्रम को हेय समझा जाता है-श्रीमद्भागवत गीता ऐसा
करना आसुरी प्रवृत्ति का मानती है।
दूसरी बात यह कि गीताप्रेस के स्वामियों को चाणक्य का यह सिद्धांत ध्यान
रखना चाहिये कि धर्म से मनुष्य और अर्थ से धर्म की रक्षा होती है। यहां अर्थ के
साथ न स्वार्थ जोड़ें न परमार्थ का नारा लगायें।
एक बात तय रही है कि आपके धर्म की रक्षा हो तो सबसे पहले इस बात का प्रयास
करें कि लोगों के पास अपनी तथा परिवार की रक्षा के लिये अर्थ की उपलब्धि पर्याप्त
मात्रा में होती रहे। स्वामी का अहंकार तभी
तक ठीक है जबतब श्रमिक प्रसन्न है। हमारे अनुमान से गीता प्रेस के पास संपत्ति और आय की कमी नहीं
है और श्रमिक चाहे ठेके के हों या नियमित उन्हें प्रसन्न करना पहला धर्म होना
चाहिये। एक श्रमिक ने ‘कहा कि हम कोई पच्चीस या पचास हजार नहीं मांग रहे। अपना हक मांग रहे हैं।’
उसका हक से आशय शायद जितनी राशि की प्राप्ति ली जाती है उतनी ही देने से भी
है। हम स्वामियों से कह रहे हैं कि पच्चीस पचास हजार भी दे दिये तो कौनसा तूफान
आने वाला है। वह श्रमिक धर्म के सैनिक हैं
और गीता प्रेस के अंदरूनी लोग हैं। विश्व में जिस तरह गीता प्रेस का भव्य नाम है
उसे देखते हुए अगर उन्हें अगर पच्चीस हजार भी दे दिये तो कौन वह भारी अमीर हो
जायेंगे।
याद रहे जिसके सैनिक प्रसन्न नहीं होते वह राजा लड़ाई हार जाता है, यह कौटिल्य ने कहा
है। अगर यह धर्म सैनिक अप्रसन्न है तो फिर
गीता प्रेस का प्रतिष्ठित नहीं रह पायेगा। फिर बंद हो या नहीं। अकुशल श्रम के प्रति हेयता का यह भाव अगर गीता
प्रेस में है तो उसके बंद होने या खुले रहने के प्रति हमारी रुचि समाप्त हो जाती
है। इसलिये हमारी बात अगर गीता प्रेस के संचालकों तक कोई पहुंचा सके ठीक वरना हम
तो यह आग्रह कर ही रहे हैं कि श्रमिकों के साथ सद्भावना से मामला निपटाये। हम जैसे
स्वतंत्र अध्यात्मिक लेखक और पाठक यही चाहते हैं।
--------------------------------------
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
http://deepkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
No comments:
Post a Comment