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Thursday, August 21, 2008

आम इंसान से अलग सजाओ, भले ही बुत बनाओ-हास्य व्यंग्य कविता

कुर्सियां सजा दी और
भेज दिया संदेश लोगों में
बुतों की तरह उस पर बैठ जाओ
इस महफिल को सजाओ
अपना मूंह बंद रखना
हमारे इशारों को समझना
तब तक बैठे रहना जब तक
कहें नहीं खड़े हो जाओ
हम जो कहें उसकी सहमति में
बस अपना सिर हिलाओ’

इंसानों की भीड़ दौड़ पड़ी
उन कुर्सियों पर बैठने के लिये
सबका यही कहना था कि
‘आम इंसानों से अलग सजाओ
चाहे भले ही हमें एक बुत बनाओ’
..........................................................

ख्वाहिशों ने इंसानों को
हांड़मांस का बुत बना दिया
इससे तो पत्थर, लोहे और लकड़ी के बुत ही भले
आशाओं को जिंदा रखने के लिये
पुजने के लिये तो मिल जाते हैं
इंसान ने तो आशाओं का दीप ही बुझा दिया
......................................

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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