तो जमीन पर ही जन्नत होती।
जहन्नुम नहीं बनाया होता धरती पर
तो भला जज़्बातों के ठेकेदारों के दरवाजे पर
किसकी और किसके लिये मन्नत होती।
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ऊपर से लेकर नीचे तक
अपनी अक्ल गुलाम रखकर
आजादी की चाहत में इंसान घूम रहा है।
पहचान की तमीज नहीं है
अपनी जिंदगी बचाने के लिये
दिल का इलाज हमदर्दी की
दवा से करने की बजाय
दूसरे के लिये दर्द पैदा कर
अपनी जीभ से जहर चूम रहा है
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उजाड़ दिया चमन
फिर भी जिंदगी में नहीं रहता अमन
दूसरे इंसानों को रौंदते रौंदते
धरती को खोदते खोदते
जहन्नुम बना दिया।
दूसरों के खून से सना है
या अपने पसीने से
वह खुद भी नहीं जानता
पूछने पर बताता है इंसान
‘मेरे उस्तादों ने जन्नत का यही पता दिया’।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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1 comment:
बहुत खूब लिखा है आपने ...सच बयां करती रचना
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
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