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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Wednesday, March 10, 2010

बौद्धिक शोध-हिन्दी व्यंग्य चिंतन (Intellectual research - Hindi satirical article)

अगर आप लेखक या चित्रकार हैं और केवल अभिव्यक्ति के लिय ही रचनाकर्म करते हुए उससे आय की आशा नहीं करते तो फिर अपने पुजने का अहंकार भी छोड़ देना चाहिये। पता नहीं भारतीय समाज की यह पुरानी आदत है या फिर अंग्रेज इसे छोड़ गये कि यहां लेखक या चित्रकार की कामयाबी का पैमाना उसकी इन पेशों से कमाई या सम्मान ही माना जाता है। दरअसल हम यह विषय एक चित्रकार के भारत छोड़कर खाड़ी के ही एक देश में स्थाई रूप से बसने के संदर्भ में उठा रहे हैं। वह एक चित्रकार है और कथित रूप विश्व प्रसिद्ध होने के बावजूद भारतीय जनमानस में उसकी कोई छबि नहीं है। पिछले कई बरसों से देश के बुद्धिजीवी और प्रचार माध्यम लगे हुए हैं उसका प्रचार करने में! इसके बावजूद आम जनमानस में कोई उसका स्थान नहीं है।
अनेक लोग तो आज तक यही समझ नहीं पाये कि आखिर उस चित्रकार को इतना महत्व क्यों दिया जा रहा है? कागज पर आड़ी तिरछी रेखायें-एक आम आदमी के लिये यही स्थिति है-खींचने को आधुनिक चित्रकला कहा जाता है। ऐसे चित्रों की भारत के बाहर बहुत मांग होती है और जिसने बाजार प्रबंधन अपने साथ कर लिया वह स्थापित चित्रकार हो सकता है। वह भी अमेरिका और ब्रिटेन जैसे मुल्कों में अपनी जगह बना सकता है जहां चित्रकला नयी है-दूसरे शब्दों में कहें कि जहां के लोग चित्रों के बारे में अधिक नहीं जानते। भारत, इटली और मिस्त्र जैसे देश जहां प्राचीन काल से ही चित्रकला संपन्न रही है वहां आधुनिक चित्रकला सिवाय आड़ी तिरछी रेखाओं के अलावा कुछ नहीं समझी जाती। जिस तरह कहा जाता है कि चाहे कोई कितना भी अच्छा लिख ले पर तुलसीदास जी की तरह रामचरितमानस नहीं लिख सकता वही स्थिति चित्रकला की है। चाहे कोई कितना भी अच्छा चित्रकार हो वह खजुराहो और अजन्ता एलोरा जैसी कलाकृतियां नहीं बना सकता। हम कहते हैं कि हमारे देश में अशिक्षित और निरक्षर लोगों की भरमार है पर सच तो यह है कि असली कला के असली पारखी वही हैं। बात दूसरी भी है कि यहां भगवान राम, कृष्ण, ब्रह्मा, शिवजी तथा माताओं के ऐसे चित्र कलाकार बनाते हैं कि लोग उनको ही पसंद कर अपने घरों में लगाते हैं। मजे की बात यह है कि दीवार पर लगे चित्र पुराने हो जायें तो फिर उनकी जगह दूसरे आ जाते हैं पर मन का चित्र तो हमेशा ही ताजा रहता है और हर कोई अपने इष्ट का नया चित्र लगाये पर वह उसे बदलता नहीं है।
इससे अलग भी फिल्मी हीरो और हीरोईनों के चित्र भी लोग रखते हैं। भारत का शिवाकाशी कैलेंडर चित्रों के लिये मशहूर है और वहां से अनेक प्रकार की तस्वीरें बाजार में आती है। एक भारतीय गहरे रंगों में स्पष्ट तस्वीर को देखने का आदी है इसलिये उसे आधुनिक चित्रकला से अधिक सरोकार नहीं है।
भारत मेें ऐसे अनेक कलाकार देखे गये हैं जो आदमी को सामने बैठाकर या फोटो से उसकी तस्वीर बनाते हैं। इनको काम अधिक नहीं मिलता इसलिये वह बोर्ड़ आदि रंगने का काम भी करते हैं। ऐसे ही एक पेंटर का चित्र इस लेखक ने देखा था जो उसने एक सज्जन का फोटो देखकर हाथ से बनाया था जिसे देखकर ऐसा लगता था कि कैमरे से हुबहु खींचा गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि चित्रकार तो यहां गली मोहल्ले में रहे हैं पर रोजी रोटी के कारण उनको स्वतंत्र रूप से अपनी चित्रकला से काम करने का अवसर नहीं मिला।
इधर नया समाज बनाने का सपना देखने वालों ने विदेशों से विचाराधारायें उठायीं तो वहां के कुछ रिवाज भी उठा लिये। फिर इधर प्रचार माध्यम भी बाजार से प्रतिबद्ध रहा है सो कुछ चित्रकार आड़ी तिरछी रेखाओं के कारण लोकप्रिय बनाये गये हैं। ऐसे ही वह चित्रकार है जिन्होंने भारतीय देवी देवताओं के बारे में मजाक उड़ाने वाले चित्र बनाये। इन चित्रों के बारे में शायद किसी को पता ही नहीं चलता अगर कथित रूप से उनके विरोधियों ने उसका प्रचार नहीं किया होता। फिर विरोधियों के विरोधी उनके समर्थक नहीं हो गये होते। कभी कभी तो लगता है कि यह एक प्रायोजित विवाद है जिसे लोगों को मानसिक रूप से व्यस्त रखने के लिये ही समय समय पर उठाया जाता है। वह चित्रकार खाड़ी के एक देश में गये हैं जो बहुत छोटा है पर जहां माया बरसती है।
एक मजे की बात यह है कि हमें उनके चित्र उनके विरोधियों ने ही दिखाये हैं इसका मतलब यह कि अगर वह नहीं दिखाते तो हम देख ही नहीं पाते। दूसरी बात यह कि वह ऐसे देश में गये हैं जहां अगर उन्होंने वहां के महापुरुषों पर कहीं ऐसे चित्र बनाये तो फिर उनका क्या हश्र होगा, यह कहना कठिन है।
अब अनेक बुद्धिजीवी उनके वापस आने की बात कह रहे हैं। अनेक बुद्धिजीवी स्यापा कर परंपरवादी लोगों को कोस रहे हैं। इधर परंपरावादी लोग भी उनकी वापसी पर नाराज न होने की बात कह रहे हैं। सवाल यह है कि एक मामूली चित्रकार-कहने को स्वतंत्र है पर यकीनन वह दूसरों के कहने पर ही चित्र बनाते हैं ऐसा भी पता लगा-पर इतना बवाल क्यों? यह समझ में परे है। हम न तो उनके समर्थक न विरोधी क्योंकि हमने देखा है कि अनेक चित्रकार और लेखक अपनी कुंठाओं के साथ जीते हैं और उनकी रचनाओं में कलुषिता का भाव दिखाई देता है। अपनी रचना या चित्र के साथ आनंद उठाने वाले बहुत कम हैं क्योंकि वह उसे बेच कर दूसरों को आनंदित करने के लिये परिश्रम करते हैं।
आखिरी बात उनके समर्थक और विरोधी दोनों के लिये। हमने अध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन करते हैं तो उससे पता चलता है कि भले ही देवताओं को न माने पर उनका न तो अपमान करें और न ही मजाक उड़ायें वरना वह कुपित होकर दंड देते हैं। याद रखिये विश्व के भूगर्भशास्त्री कहते हैं कि भारत में जलस्तर सबसे ऊंचा है और ऐसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। यह जल ही जीवन है जो प्राणवायु का संचार भी करता है। अपने देश में इंद्र, वायु, अग्नि तथा अन्य देवताओं की पूजा होती है इसलिये प्रकृति की कृपा भी यहीं है जिसकी वजह से अपने यहां भगवान अवतार लेकर यहां का उद्धार करते हुए अध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार भी करते हैं। इस कारण भारत विश्व में अध्यात्म गुरु भी माना जाता है। ऐसा देश छोड़कर एक ऐसे देश में रहना जहां अकेले तेल देवता की-अब भारत में पेट्रोल की खपत बढ़ गयी है इसलिये कभी कमी न हो इसलिये उनको भी ऐसी मान्यता देते हैं-कृपा हो, वहां उनका बसना हमें दंड से कम नहीं लगता। यह तेल देवता बेजान गाड़ियां कुछ देर खींच सकता है पर जल एवं वायु की तरह हमेशा सहजता से सभी जगह उपलब्ध नहंी रहता। फिर सुनने में आया है कि उन्होंने मां सरस्वती का भी विकृत चित्र बनाया था जो कि मनुष्य की बुद्धि की स्वामिनी है। ऐसे में अगर अब उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी जो इतना हरा भरा विशाल देश छोड़कर एक छोटे देश में बसाहट कर ली तो कहना चाहिये कि देवताओं ने एक तरह से उनको सजा दी है। ऐसे में उनके समर्थक या विरोधी उनका नाम ले लेकर खाली पीली बहसें कर रहे हैं। उनका नाम लेने की बजाय बुद्धिमान लोग देवताओं का नाम लें तो अच्छा है क्योंकि इधर पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है और देवताओं को प्रसन्न किये बिना उसमें सुधार नहीं आने वाला। वैसे चिंता की बात नहीं है। आम भारतीय देवताओं की आराधना करता रहता है और इसलिये आशा है कि देवता अधिक प्रसन्नता दिखाते हुए यहां जल और वायु की प्रचुरता बनाये रखेंगे। आम आदमी की आड़ में बुद्धिजीवी सुरक्षित हैं इसलिये उनको इसका आभास नहीं है कि देवताओं का प्रकोप कैसा होता है? जिसकी दुर्गति करनी हो उसकी पहले ऐसे ही बुद्धि हर लेते हैं और फिर आदमी स्वयं ही ऐसा कदम उठाता है कि उसे शत्रु के रूप में इंसान की आवश्यकता ही नहीं होती। कमबख्त इतना लिख लिया पर उस चित्रकार का नाम हमें याद नहीं आया। इसकी जरूरत भी क्या है? अपने देश के बुद्धिजीवी कोई दूसरा खड़ा कर लेंगे। ऐसी कहानियां    तो बनती रहेंगी। उसके नायकों और खलनायकों पर भी यह लेख फिट हो जायेगा। पता नहीं हम गलत हैं या सही पर अपने बौद्धिक शोध से हमें ऐसा ही लगता है कि अपने कर्म आदमी का पीछा करते हैं और बुरे होने पर दंड से कोई बचा नहीं सकता।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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