टीवी पर प्रसारित एक समाचार को देख सुनकर यह विचार नहीं बन पाया कि उस पर व्यंग्य लिखें कि चिंतन! खबर यह थी कि झारखंड में राष्ट्रीय खेलों में भाग लेने वाले तैराकों को जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण दिया जा रहा है क्योंकि पानी का प्रबंध नहीं हो पाया। समाचार के साथ प्रसारित दृश्यों में बाकायदा खिलाड़ियों को जमीन पर तैराकी जैसे हाथ पांव मारते दिखाया गया। उसे देखकर तो यही लगा कि जैसे कि वह योग साधना जैसा कुछ कर रहे हैं। अब हम सोच रहे थे कि इस पर हंसे कि रोऐं! हंसें तो व्यंग्य लिखना पड़ता और रोऐं तो चिंतन! मगर यह खबर तो ऐसा स्तब्ध किये दे रही थी कि लगने लगा कि इस पर तो हिन्दी में कोई विद्या लिखने लायक तो है ही नहीं-कम से कम अपनी बुद्धि में तो नहीं।
यह समाचार हास्य कविता जैसा भी नहीं था क्योंकि उस पर हंसी नहीं आती। व्यंग्य जैसा लिखें तो लगता है कि प्रस्तुति दर्दनाक बन जायेगी। मित्र लोग हास्य कविता लिखना पसंद नहीं करते। शायरियां लिखना हमें आता नहीं। हास्य व्यंग्य देखकर लोग कह देते हैं कि यह तो चिंतन जैसा बन गया। लोग गंभीर चिंतन लिखने के लिये कहते हैं पर जब दर्द असहनीय हो जाये तो एक ही रास्ता है कि हास्यासन किया जाये।
जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण अपने आपमें एक अजूबा है जो शायद अपने ही देश में संभव है। युवा पीढ़ी को आगे लाने के दावे रोज सुनते हैं पर इस सवाल का जवाब कौन देगा कि घर में ही जब पानी का अकाल हो तो बाहर कौन जाकर शेर जैसी तैराकी करेगा। मगरमच्छ कागज का बांध बनाकर पानी को रोक लें तो आम आदमी मछली जैसे भी कहां तैर पायेगा।
बहुत हास्य व्यंग्य लिखे और पढ़े पर लगता है कि बेकार रहा। शरद जोशी, हरिशंकर परसाईं और श्रीलाल शुक्ल हिन्दी भाषा में हास्य व्यंग्य लिखने के लिये जाने जाते हैं। उन जैसे रचनाकारों का हिन्दी साहित्य में बहुत बड़ा स्थान है। श्री शरद जोशी का एक वाक्य तो भूलाये नहीं भूलता कि ‘हम इसलिये अब तक जिंदा हैं क्योंकि हमें मारने के लिये किसी के पास फुर्सत नहीं है।’
उनका आशय यही था कि चूंकि लुटने पिटने के लिये बहुत सारे धनी मानी लोग हैं पर लूटने वाले कम हैं। इसलिये अपना नंबर तो आने से रहा। बहरहाल अब तो देश में ऐसी ऐसी घटनायें होने लगी हैं कि कहना पड़ता है कि बड़े बड़े व्यंग्यकार भी ऐसी कल्पना क्या कर पायें? जब कोई रचनाकार व्यंग्य लिखता है तो समाज में व्याप्त अंर्तविरोधों में अपनी कुछ कल्पना शक्ति का भी सहारा लेता है। ऐसी रचना कोई शायद कोई नहीं कर पाया कि नयी पीढ़ी को जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण देकर उनसे पदक लाने की आशा की जायेगी। कागजी बांध इतने शक्तिशाली हो जायेंगे कि पानी की एक बूंद का निकलकर जमीन पर आना भी संभव नहीं होगा।
हां कई व्यंग्य पढ़ने को मिले पर ऐसा नहीं! कुंऐं कागज पर खुद जमीन पर लापता हो गये। सार्वजनिक उद्यान फाईलों में हरियाली से लहलहाते रहे पर वहां कचड़ा घर दिखता रहा। सड़कें किसी फिल्मी हीरोईन के गाल की तरह चिकनी बनकर कागज पर चमकती रहीं पर उन पर पैदल चलना भी दूभर रहा है। ऐसा कई बार पढ़ा और सुना। संभव है कि कहंीं तैराकी का तालाब बनाकर वहां प्रशिक्षण भी कागजों पर दिया गया हो। मगर यहां तो सचमुच प्रशिक्षण दिया जा रहा है। मतलब आधा हास्य और आधा व्यंग्य! अवाक खड़े होकर देखने के बाद चिंतन क्या काम करेगा?
नयी पीढ़ी के लड़के लड़कियों के साथ किया गया यह क्रूर मजाक इराक की याद दिलाता है। जहां सद्दाम के बेटे पर आरोप लगाया कि अपनी फुटबाल टीम के हारने पर उसने उसके सदस्यों की हत्या कर दी थी। यहां दैहिक हत्या नहीं की गयी पर जवान पीढ़ी के उत्साह की हत्या का पाप मौजूद है। आदमी की देह हत्या और उसके सपने की हत्या एक समान ही है क्योंकि सपना टूटने पर आदमी मृतक समान ही हो जाता है।
हैरानी की बात यह है किसी को खौफ नहीं है। इस बात की चिंता नहीं है कि कहीं प्रचार माध्यमों की नज़र इस पर न पड़ जाये। बच्चों को जमीन पर छाती रगड़ने के लिये कहना वह भी तैराकी के खेल के प्रशिक्षण के नाम पर! यह भारत है जहां खेलों के विकास के नाम पर करोड़ों फूंके जा रहे हैं और खिलाड़ियों को फालतू की चीज माना जा रहा है। वैसे हमारे अनेक खिलाड़ी खेलोें के विकास की बात करते हैं पर बताईये उनका भी कहीं विकास होता है। खेलों से तो आदमी का विकास होता है वह भी तब जब अपने खिलाड़ियों को सुविधायें दें। क्रिकेट के एक महान धुरंधर उस दिन कह रहे थे कि ‘आईपीएल से भारत में क्रिकेट का विकास हुआ है!’
क्रिकेट का विकास चाहिये या क्रिकेट से देश की युवा पीढ़ी का! जहां तक देश की युवा पीढ़ी का क्रिकेट से विकास करने की बात है तो उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि यह खेल बच्चे बच्चे में अपनी जड़ें जमा चुका है। ऐसे में जब कोई क्रिकेट खेल के विकास की बात कर रहा है तो वह ढोंगी है और अपने धंधे का जुगाड़ कर रहा है। अभी कॉमनवेल्थ हुए। एक दो दिन तक प्रचार माध्यम उसकी कमियों का रोना रोते रहे पर जैसे ही अपना मतलब बना सभी उसे देश में खेलों के विकास से उसे जोड़ने लगे। दिल्ली में हुए इन खेलों से देश के खिलाड़ियों में क्या सुधार आया पता नहीं पर चीन में हुए एशियाड में असलियत उजागर हो गयी। दिल्ली में खेल सुविधायें बनने से देश में खेल का स्तर नहीं सुधर सकता। अगर भारत को खेल में अपना नाम ऊंचा करना है तो उसे शहरों की बजाय गांवों में अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। खासतौर से आदिवासी इलाकों में। शहर वाले केवल क्रिकेट खेलने की कुब्बत रखते हैं क्योंकि उसमें फिटनेस अधिक जरूरी नहीं है। झारखंड आदिवासी इलाका है और वहां अच्छे खिलाड़ियों के मिलने की पूरी संभावना है पर वहां सुविधाओं का यह हाल है तब अंतर्राष्ट्रीय खेलों में हमें ज्यादा आशा नहींे करना चाहिए। सच बात तो यह है कि हमारे यहां के आर्थिक सामाजिक तथा प्रतिष्ठित शिखरों पर बैठ महापुरुषों को खेल चाहिये नाम और नामा कमाने के लिये न कि खिलाड़ी। खेलों के आयोजन से उनका कमीशन बनता है और अखबारों में प्रचार होता है सो अलग! खिलाड़ी तो खाना मांगता है और वह भी अच्छा!
खाने पर याद आयी उतरांचल की एक खबर! वहां बर्फ पर खेले जाने वाले खेल के लिये विदेश से खिलाड़ी आये जिसमें पाकिस्तानी भी शामिल थे। सभी को जमीन पर बैठकर हल्का खाना खिलाया गया और आयोजन से जुड़े पदाधिकारी टेबलों पर बैठकर ऊंचा खाना खाते रहे। मतलब यह कि जिन पर खेलों का जिम्मा है उनको खाने से मतलब है खिलाड़ी से नहीं इसलिये ही वह खेलों के विकास की बात करते हैं जो कभी हो ही नहीं सकता क्योकि खेलों से एक स्वस्थ और उत्साही मनुष्य का निर्माण होता और यही इनके आयोजन का मतलब होता है। खेलों के नाम जो भी शीर्ष पुरुष सक्रिय हैं उनको खेल चाहिये न खिलाड़ी! उनको स्वस्थ समाज नहीं चाहिये क्योंकि उसमें चेतना होती है और वहां ज़मीन पर तैराकी का प्रशिक्षण देना संभव नहीं है। इसलिये उन्होंनें जड़ समाज की सरंचना को ही महत्व दिया है कहने को दावे कुछ भी करते रहें।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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