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Monday, August 20, 2012

तोहफे का जाल-हिंदी कविता (tohfe ka jaal-hindi poem or kavita)



तोहफे देने वालों की
नीयत पर भला कौन शक करता है,
बंद हो जाते हैं अक्ल के दरवाजे
इंसान हाथ में लेते हुए आहें भरता है।
कहें दीपक बापू
आम आदमी के दिल से खेलने का
तरीका है तोहफे देना
जिसे पाने की करता है वह जद्दोजेहद
खोने की बात सोचने से भी डरता है।
--------
तोहफों का जाल बुनते हैं वह लोग
जिनके दिल मतलबी ओर तंग हैं,
कहें दीपक बापू
नीयत है जिनकी काली
बाहर दिखाते  वह तरह तरह के रंग हैं
------------------
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’’,
ग्वालियर, मध्यप्रदेश

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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Sunday, March 6, 2011

हाथ मुफ्त में घिस जायेगा-हिन्दी व्यंग्य कविता (hath mufta mein ghis jayega-hindi vyangya kavita)

पद का नशा ही ऐसा है कि
जो बैठता है कुर्सी पर
खास आदमी बन जाता है,
राह चलते हुए उसके साथ
रहता है आम आदमी का अहसास
दर्द झेलते हुए भी उसका
इलाज नहीं कर पाता
कलम के शेर, कागज पर ही दहाडेंगे
ज़मीन से उनका भला क्या नाता है।
--------------
समाज में समस्याओं का अंबार है
उसे कौन निपटायेगा,
हर कोई करेगा शिकायत
फिर मौन हो जायेगा।
हल करने के लिये हाथ
कोई नहीं चलाता
मुफ्त में घिस जायेगा।
‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Saturday, January 22, 2011

ज़मीन पर तैराकी-हिन्दी व्यंग्य (zamih par tairaki-hindi vyangya-hindi vyangya)

टीवी पर प्रसारित एक समाचार को देख सुनकर यह विचार नहीं बन पाया कि उस पर व्यंग्य लिखें कि चिंतन! खबर यह थी कि झारखंड में राष्ट्रीय खेलों में भाग लेने वाले तैराकों को जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण दिया जा रहा है क्योंकि पानी का प्रबंध नहीं हो पाया। समाचार के साथ प्रसारित दृश्यों में बाकायदा खिलाड़ियों को जमीन पर तैराकी जैसे हाथ पांव मारते दिखाया गया। उसे देखकर तो यही लगा कि जैसे कि वह योग साधना जैसा कुछ कर रहे हैं। अब हम सोच रहे थे कि इस पर हंसे कि रोऐं! हंसें तो व्यंग्य लिखना पड़ता और रोऐं तो चिंतन! मगर यह खबर तो ऐसा स्तब्ध किये दे रही थी कि लगने लगा कि इस पर तो हिन्दी में कोई विद्या लिखने लायक तो है ही नहीं-कम से कम अपनी बुद्धि में तो नहीं।
यह समाचार हास्य कविता जैसा भी नहीं था क्योंकि उस पर हंसी नहीं आती। व्यंग्य जैसा लिखें तो लगता है कि प्रस्तुति दर्दनाक बन जायेगी। मित्र लोग हास्य कविता लिखना पसंद नहीं करते। शायरियां लिखना हमें आता नहीं। हास्य व्यंग्य देखकर लोग कह देते हैं कि यह तो चिंतन जैसा बन गया। लोग गंभीर चिंतन लिखने के लिये कहते हैं पर जब दर्द असहनीय हो जाये तो एक ही रास्ता है कि हास्यासन किया जाये।
जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण अपने आपमें एक अजूबा है जो शायद अपने ही देश में संभव है। युवा पीढ़ी को आगे लाने के दावे रोज सुनते हैं पर इस सवाल का जवाब कौन देगा कि घर में ही जब पानी का अकाल हो तो बाहर कौन जाकर शेर जैसी तैराकी करेगा। मगरमच्छ कागज का बांध बनाकर पानी को रोक लें तो आम आदमी मछली जैसे भी कहां तैर पायेगा।
बहुत हास्य व्यंग्य लिखे और पढ़े पर लगता है कि बेकार रहा। शरद जोशी, हरिशंकर परसाईं और श्रीलाल शुक्ल हिन्दी भाषा में हास्य व्यंग्य लिखने के लिये जाने जाते हैं। उन जैसे रचनाकारों का हिन्दी साहित्य में बहुत बड़ा स्थान है। श्री शरद जोशी का एक वाक्य तो भूलाये नहीं भूलता कि ‘हम इसलिये अब तक जिंदा हैं क्योंकि हमें मारने के लिये किसी के पास फुर्सत नहीं है।’
उनका आशय यही था कि चूंकि लुटने पिटने के लिये बहुत सारे धनी मानी लोग हैं पर लूटने वाले कम हैं। इसलिये अपना नंबर तो आने से रहा। बहरहाल अब तो देश में ऐसी ऐसी घटनायें होने लगी हैं कि कहना पड़ता है कि बड़े बड़े व्यंग्यकार भी ऐसी कल्पना क्या कर पायें? जब कोई रचनाकार व्यंग्य लिखता है तो समाज में व्याप्त अंर्तविरोधों में अपनी कुछ कल्पना शक्ति का भी सहारा लेता है। ऐसी रचना कोई शायद कोई नहीं कर पाया कि नयी पीढ़ी को जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण देकर उनसे पदक लाने की आशा की जायेगी। कागजी बांध इतने शक्तिशाली हो जायेंगे कि पानी की एक बूंद का निकलकर जमीन पर आना भी संभव नहीं होगा।
हां कई व्यंग्य पढ़ने को मिले पर ऐसा नहीं! कुंऐं कागज पर खुद जमीन पर लापता हो गये। सार्वजनिक उद्यान फाईलों में हरियाली से लहलहाते रहे पर वहां कचड़ा घर दिखता रहा। सड़कें किसी फिल्मी हीरोईन के गाल की तरह चिकनी बनकर कागज पर चमकती रहीं पर उन पर पैदल चलना भी दूभर रहा है। ऐसा कई बार पढ़ा और सुना। संभव है कि कहंीं तैराकी का तालाब बनाकर वहां प्रशिक्षण भी कागजों पर दिया गया हो। मगर यहां तो सचमुच प्रशिक्षण दिया जा रहा है। मतलब आधा हास्य और आधा व्यंग्य! अवाक खड़े होकर देखने के बाद चिंतन क्या काम करेगा?
नयी पीढ़ी के लड़के लड़कियों के साथ किया गया यह क्रूर मजाक इराक की याद दिलाता है। जहां सद्दाम के बेटे पर आरोप लगाया कि अपनी फुटबाल टीम के हारने पर उसने उसके सदस्यों की हत्या कर दी थी। यहां दैहिक हत्या नहीं की गयी पर जवान पीढ़ी के उत्साह की हत्या का पाप मौजूद है। आदमी की देह हत्या और उसके सपने की हत्या एक समान ही है क्योंकि सपना टूटने पर आदमी मृतक समान ही हो जाता है।
हैरानी की बात यह है किसी को खौफ नहीं है। इस बात की चिंता नहीं है कि कहीं प्रचार माध्यमों की नज़र इस पर न पड़ जाये। बच्चों को जमीन पर छाती रगड़ने के लिये कहना वह भी तैराकी के खेल के प्रशिक्षण के नाम पर! यह भारत है जहां खेलों के विकास के नाम पर करोड़ों फूंके जा रहे हैं और खिलाड़ियों को फालतू की चीज माना जा रहा है। वैसे हमारे अनेक खिलाड़ी खेलोें के विकास की बात करते हैं पर बताईये उनका भी कहीं विकास होता है। खेलों से तो आदमी का विकास होता है वह भी तब जब अपने खिलाड़ियों को सुविधायें दें। क्रिकेट के एक महान धुरंधर उस दिन कह रहे थे कि ‘आईपीएल से भारत में क्रिकेट का विकास हुआ है!’
क्रिकेट का विकास चाहिये या क्रिकेट से देश की युवा पीढ़ी का! जहां तक देश की युवा पीढ़ी का क्रिकेट से विकास करने की बात है तो उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि यह खेल बच्चे बच्चे में अपनी जड़ें जमा चुका है। ऐसे में जब कोई क्रिकेट खेल के विकास की बात कर रहा है तो वह ढोंगी है और अपने धंधे का जुगाड़ कर रहा है। अभी कॉमनवेल्थ हुए। एक दो दिन तक प्रचार माध्यम उसकी कमियों का रोना रोते रहे पर जैसे ही अपना मतलब बना सभी उसे देश में खेलों के विकास से उसे जोड़ने लगे। दिल्ली में हुए इन खेलों से देश के खिलाड़ियों में क्या सुधार आया पता नहीं पर चीन में हुए एशियाड में असलियत उजागर हो गयी। दिल्ली में खेल सुविधायें बनने से देश में खेल का स्तर नहीं सुधर सकता। अगर भारत को खेल में अपना नाम ऊंचा करना है तो उसे शहरों की बजाय गांवों में अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। खासतौर से आदिवासी इलाकों में। शहर वाले केवल क्रिकेट खेलने की कुब्बत रखते हैं क्योंकि उसमें फिटनेस अधिक जरूरी नहीं है। झारखंड आदिवासी इलाका है और वहां अच्छे खिलाड़ियों के मिलने की पूरी संभावना है पर वहां सुविधाओं का यह हाल है तब अंतर्राष्ट्रीय खेलों में हमें ज्यादा आशा नहींे करना चाहिए। सच बात तो यह है कि हमारे यहां के आर्थिक सामाजिक तथा प्रतिष्ठित शिखरों पर बैठ महापुरुषों को खेल चाहिये नाम और नामा कमाने के लिये न कि खिलाड़ी। खेलों के आयोजन से उनका कमीशन बनता है और अखबारों में प्रचार होता है सो अलग! खिलाड़ी तो खाना मांगता है और वह भी अच्छा!
खाने पर याद आयी उतरांचल की एक खबर! वहां बर्फ पर खेले जाने वाले खेल के लिये विदेश से खिलाड़ी आये जिसमें पाकिस्तानी भी शामिल थे। सभी को जमीन पर बैठकर हल्का खाना खिलाया गया और आयोजन से जुड़े पदाधिकारी टेबलों पर बैठकर ऊंचा खाना खाते रहे। मतलब यह कि जिन पर खेलों का जिम्मा है उनको खाने से मतलब है खिलाड़ी से नहीं इसलिये ही वह खेलों के विकास की बात करते हैं जो कभी हो ही नहीं सकता क्योकि खेलों से एक स्वस्थ और उत्साही मनुष्य का निर्माण होता और यही इनके आयोजन का मतलब होता है। खेलों के नाम जो भी शीर्ष पुरुष सक्रिय हैं उनको खेल चाहिये न खिलाड़ी! उनको स्वस्थ समाज नहीं चाहिये क्योंकि उसमें चेतना होती है और वहां ज़मीन पर तैराकी का प्रशिक्षण देना संभव नहीं है। इसलिये उन्होंनें जड़ समाज की सरंचना को ही महत्व दिया है कहने को दावे कुछ भी करते रहें।
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Monday, November 1, 2010

लिपस्टिक और पति पत्नी-हिन्दी हास्य कविता (lipistic and pati patni-hindi hasya kavita)

टीवी पर चल रही थी खबर
एक इंजीनियरिंग महाविद्यालय में
छात्रों द्वारा छात्राओं को होठों पर
लिपस्टिक लगाने की
तब पति जाकर उसकी बत्ती बुझाई।
इस पर पत्नी को गुस्सा आई।
वह बोली,
‘क्यों बंद कर दिया टीवी,
डर है कहीं टोके न बीवी,
तुम भी महाविद्यालय में मेरे साथ पढ़े
पर ऐसा कभी रोमांटिक सीन नहीं दिया,
बस, एक प्र्रेम पत्र में फांस लिया,
उस समय अक्ल से काम नहीं किया,
एक रुखे इंसान का हाथ थाम लिया,
कैसा होता अगर यह काम हमारे समय में होता,
तब मन न ऐसा रोता,
तुम्हारे अंदर कुंठा थी
इसलिये बंद कर दिया टीवी,
चालू करो इसमें नहीं कोई बुराई।’’

सुनकर पति ने कहा
‘देखना है तो
अपनी अपनी आठ वर्षीय मेरे साथ बाहर भेज दो,
फिर चाहे जैसे टीवी चलाओ
चाहे जितनी आवाज तेज हो,
अभी तीसरी में पढ़ रही है
लिपस्टिक को नहीं जानती,
अपने साथियों को भाई की तरह मानती,
अगर अधिक इसने देखा तो
बहुत जल्दी बड़ी हो जायेगी,
तब तुम्हारी लिपस्टिक
रोज कहीं खो जायेगी,
पुरुष हूं अपना अहंकार छोड़ नहीं सकता,
दूसरे की बेटी कुछ भी करे,
अपनी को उधर नहीं मोड़ सकता,
ऐसा कचड़ा मैं नहीं फैलने दे सकता
अपने ही घर में
जिसकी न मैं और न तुम कर सको धुलाई।’’
पत्नी हो गयी गंभीर
खामोशी उसके होठों पर उग आई।
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Friday, July 23, 2010

खुश करने वाली सूरतें कम नज़र आती-हिन्दी शायरी (khush karne vali suhten-hindi shayri)

ख्वाहिशों का यह हाल है
कि एक पूरी होती
दूसरी चली आती है,
यह जिंदगी यूं ही उनको पूरा करते हुए की
जंग में बीत जाती है।
हंसी जो दिल से आये,
खुशी वह जो दूर तक भाये,
ग़मों में भी हैरान हो इंसान
सभी को खुश कर दे
ऐसी सूरतें कम हीं नज़र आती है।
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Monday, February 22, 2010

साइकिल, क्रिकेट और फिल्म-हिन्दी हास्य व्यंग्य (cycle,cricket and film-hindi haysa vyangya)

भारत में आयोजित एक निजी क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में पाकिस्तानियों को नहीं खरीदा गया। पाकिस्तान इसका बदला लेने की फिराक में था और उसने लिया भी, भारत की साइकिलिंग टीम को अपने यहां न बुलाकर। एक अखबार में कोने में छपी इस खबर ने दिल को हैरान कर दिया। न देशभक्ति के जज़्बात जागे न अपने साइकिल चलाने को लेकर अफसोस हुआ। भारत में इसकी कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी। अनेक्र लोगों को तो यह खबर ही समझ में नहीं आयी होगी कि साइकिल की भी प्रतियोगिता होती है और इसे ओलम्पिक में एक खेल का दर्जा प्राप्त है। मामला साइकिल से जुड़ा तो अनेक बुद्धिजीवियों को इस टिप्पणी करते हुए शर्म भी आयेगी यह सोचकर कि ‘साइकिल वालों का क्या पक्ष लेना?’
हमारी नज़र और दिमाग में यह खबर फंस गयी और अपने भाव व्यंग्य के रूप में ही अभिव्यक्त होने थे। सच तो यह है कि जिसे चिंतन और व्यंग्य में महारत हासिल करना है उसे साइकिल जरूर चलाना चाहिये। जहां तक हमारी जानकारी है हिन्दी में उन्हीं आधुनिक काल के लेखकों ने जोरदार लिखा जिन्होंने रिक्शा, पैदल या साइकिल की सवारी की। पाकिस्तान द्वारा साइकिलिंग टीम को रोकने पर ऐसी हंसी आयी जिसे हम खुद भी नहीं समझ पाये कि वह दुःख की थी या व्यंग्य से उपजी थी। ऐसे में तय किया इस पर शाम को लिखेंगे।
शाम को लिखने का विचार आया तो लगा कि पहले साइकिल चला कर आयें। इसलिये दस दिन बाद फिर साइकिल निकाली-ब्लाग लिखने के बाद साइकिल चलाना कम हो गयी है पर जारी फिर भी है। हमें पता था कि केवल कोई साइकिल चालक ही इस पर अच्छा सोच सकता है। जहां तक रही देशभक्ति की बात तो एक किस्सा हम लिख चुके हैं, उसका संक्षिप्त में वर्णन कर देते हैं।
एक बार स्कूटर पा जा रहे थे कि रेल की वजह से फाटक बंद हो गया। हम एक तरफ स्कूटर खड़ा कर उस पर ही विराजमान थे। उसी समय एक कार आकर रुकी। कार के पीछे एक गैस मैकनिक साइकिल पर आ रहा था। उसने बहुत कोशिश की पर वह कार को छू गयी।
वह गरीब मैकनिक चुपचाप हमारे आगे साइकिल खड़ी कर वहीं ठहर गया। उधर कार से एक सज्जन निकले-जो वस्त्रों से नेता लग रहे थे-और उस कार वाले को बुलाया। वह उनके पास गया और उन्होंने बड़े आराम से उसके गाल पर जोरदार थप्पड़ दिया। वह मासूम सहम गया। फिर वह उससे बोले-‘भाग साले यहां से!’
जब से स्कूटरों, कारों और मोटर साइकिलों का प्रचलन बढ़ा है साइकिल चालकों के लिये रास्ते पर चलना दुर्घटना से ज्यादा अपमान की आशंकाओं से ग्र्रसित रहता है। हमने भी अनेक बार झेला है। इसलिये जब साइकिल पर होते हैं तो हर तरह का अपमान सहने को तैयार रहते हैं। ऐसे में पाकिस्तान के द्वारा किया गया यह व्यवहार अपमाजनकर हमें अधिक दुःखदायी नहीं लगा। हमारे लिये उसके खिलाड़ियों को नहीं खिलाना साइकिल द्वारा कार को छूने जैसी घटना है और उसके व्यवहार थप्पड़ मारने जैसा तो नहीं चिकोटी काटने जैसा है। दरअसल दोस्ती और दुश्मनी अब दोनों देशों के खास वर्ग के लिये एक फैशन बन गया है। यह खास वर्ग अपने हिसाब से दोनों तरफ के आम इंसानों को कभी आपस में प्रेम रखना तो कभी दुश्मनी करने का संदेश देता है।
पाकिस्तान खिसिया गया है और खिसियाया गया आदमी कुछ भी कर सकता है। ऐसे में वह दूसरे को थप्पड़ मारते हुए अपना हाथ ही कटवा बैठता है। भारत के धनपतियों ने तो उससे गुलाम नहीं खरीदे थे पर उसने तो खिलाड़ियों को रोका है। याद रहे क्रिकेट को ओलम्पिक में खेल ही नहीं माना जाता। फिर इधर क्रिकेट और फिल्म तो संयुक्त व्यवसाय हो गये हैं। क्रिकेट खिलाड़ी रैम्प पर अभिनेत्रियों के साथ नाचते हैं तो फिल्म अभिनेत्रियां और अभिनेता उनकी टीमों के मालिक बन गये हैं। ऐसे ही एक अभिनेता मालिक ने पाकिस्तान से गुलाम न खरीदने पर अफसोस जताया! इस पर देश में एक सीमित वर्ग ने बेकार बावेला मचाया! दरअसल उसके प्रचार प्रबंधक चाहते यही थे इसलिये एक अभिनेत्री मालकिन से कहलवाया गया कि ‘चंद लोगों की धमकी के चलते ऐसा हुआ।’

जहां तक हमारी जानकारी पाकिस्तान के गुलामों को खरीदने को लेकर बयान से पहले कुछ कहा नहीं था। मगर अभिनेता मालिक ने जब बयान दिया तो उस पर हल्ला मचा। आखिर प्रचार प्रबंधकों ने ऐसा क्यों किया? अभिनेता की वह फिल्म पाकिस्तान के दर्शकों के बीच भी जानी थी। दूसरी बात यह कि उसमें उस जाति सूचक शब्द को शीर्षक में शामिल किया गया जो पाकिस्तानियों का सिर गर्व से ऊंचा कर देता है। सच तो यह है कि क्रिकेट के उस बयान को भारत में अनदेखा कर देना चाहिये था क्योंकि यह फिल्म के पाकिस्तानी प्रसारण को रोकने से बचाने के लिये दिया गया था। शायद भारत में कम ही लोग जानते हैं कि पाकिस्तान में अब भारतीय फिल्मों का प्रसारण सार्वजनिक रूप से किया जाने लगा है। कहीं पाकिस्तान के लोग चिढ़कर फिल्म का बहिष्कार न कर दें इसलिये उसे यहां रोकने का अभियान चलाया गया जिससे वहां के आम आदमी को यह अनुभव हो कि भारत के लोग इसे देखने पर चिढेंगे। इधर भारत में फिल्म रोकने के प्रयास को अभिव्यक्ति से जोड़ा गया।
होना तो यह चाहिये था कि पाकिस्तान उस अभिनेता की फिल्म को रोकता मगर विवाद इस तरह फंस गया कि उसके प्रसारण में वहां के प्रबंधकों ने अपना हित देखा। ऐसे में वह बदला कैसे ले! साइकिल वालों को रोक लो!
उसने सही पहचाना! दरअसल साइकिल वाले ऐसे सतही विवादों में नहीं पड़ते। यह कार, स्कूटर, और मोटर साइकिल वाले क्या लड़ेंगे! एक मील पैदल चलने में हंफनी आ जाती है। मामला दूसरा भी है। साइकिल वाले पेट्रोल के दुश्मन हैं यह अलग बात है कि भारत में अभी भी इस देश में कुछ लोग इस पर चल ही रहे हैं। पेट्रोल बेचने वाले देश पाकिस्तान के खैरख्वाह हैं। इस तरह उसने उनको भी बताया कि देखो कैसे भारत के साइकिल वालों को आने से रोका। कहीं यह प्रतियोगिता भारत के खिलाड़ी जीतते तो संभव है कि जिस तरह 1983 की विजय के बाद क्रिकेट का खेल यहां लेाकप्रिय हुआ था, अब कहीं साइकिल भी वहां लोकप्रिय न हो जाये।
एक टीवी पर विज्ञापन आता है। जिसमें स्वयं बच्चा साइकिल पंचर की दुकान खोलकर बाप को पेट्रोल बचाने का उपदेश देते हुए कहता है कि ‘इस तरह तो आपको साइकिल चलानी पड़ेगी, तब पंचर कौन जोड़ेगा।’
तब हंसी आती है क्योंकि पेट्रोल खत्म होने पर न बाप साइकिल चलाने वाला लगता है न लड़का ही कभी पंचर जोड़ने वाला बनते नज़र आता है। वैसे बड़े शहरों का पता नहीं पर छोटे शहरों में साइकिल पंचर जोड़ने वालों की कमी हमें नज़र नहीं आती। पेट्रोल कल खत्म हो जाता है, आज खत्म हो जाये, हमारी बला से! यह देश पानी से चल रहा है पेट्रोल से नहीं। यह भी विचित्र है कि जो पानी हमारे यहां बिखरा पड़ा है उसे बचाने का संदेश कोई नहीं देता बल्कि उस पेट्रोल को बचाने की बात है जिसका अपने देश में उत्पादन बहुत कम है।
हमें तो ऐसा लगता है कि जैसे जैसे साइकिल लोगों ने चलाना कम कर दिया वैसे ही उनकी विचार शक्ति भी क्षीण होती गयी है। कथित सभ्रांत वर्ग के युवाओं के लिये तो साइकिल अब एक अजूबा है। उनके पास समय पास करने के लिये पर्दे पर फिल्में देखना या क्रिकेट में आंखें झौंकने के अलावा अन्य कोई साधन नहीं है। जहां पहुंचना है फट से पहुंच जाते हैं। साइकिल पर जायें तो थोड़ा समय अधिक पास हो। हमारा तो यह अनुभव है कि घुटने घूमते हैं तो दिमाग भी घूमता है। उसमें नित नये विचार आते हैं। कल्पनाशक्ति तीव्र होती है। जब दिमाग विकार रहित होता है तो दूसरा उसका दोहन नहीं कर सकता। आजकल का बाजार जिन लोगों का दोहन कर रहा है उनके पास पैसा है और दिमाग के जड़ होने के कारण वह मनोरंजन का इंतजार करते रहते हैं। बाजार घर में उठाकर उठकार मनोरंजन फैंक रहा है। साइकिल पर चलते फिरते मनोरंजन करने वाले उसके दायरे से बाहर हैं। यही बाजार पूरे विश्व में फैल रहा है और पाकिस्तान ने भारत की साइकिलिंग टीम को रोककर साबित किया कि वह भी उसके दबाव में है। वह फिल्म अभिनेताओं और क्रिकेट खिलाड़ियों का आगमन तो रोक हीं नहीं सकता न!


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Thursday, February 18, 2010

दरअसल-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (darasal-hindi vyangya adaen-hindi vyangya kavitaen)

न हार है, न जीत है,
न क्रोध है,न प्रीत है।
पर्दे के दृश्यों में मत बहो
सभी इंसानों से अभिनीत हैं।
-------
उनकी अदायें देखकर
हम भी हैरान थे,
दरअसल पुतलों के भेष में
वह चलते फिरते इंसान थे।
पर उनका कदम बढ़ता था
दूसरे के इशारे पर,
जुबां से निकलते तभी शब्द
लिख कर देता कोई कागज पर,
लुटाये लोगों ने उन पर पैसे
अपनी झोली में समेट कर, वह चल पड़े
किसी को जानते न हों जैसे,
चेहरा सजाया था फरिश्तों की तरह
दरअसल वह खरीदे हुए शैतान थे।

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Wednesday, February 10, 2010

इंसाफ का दरबार-हिन्दी व्यंग्य कविता (insaf ka darbar-hindi comic poem)

होते हथियार में तो हम भी

अमन के पहरेदारों की तरह

अपनी अदायें दिखाते।

लूट की दौलत होती तो

ईमानदारों की सूची में

अपना नाम लिखाते।

इस जमाने में भलमानसियत के

मायने अब पहले जैसे नहीं रहे,

लुटेरों और हमलावरों को

हर इंसान सलाम कहे,

बेकसूरों का खून बहाने की ताकत जिनमें है

वही अपने घर पर इंसाफ का दरबार बनाकर

हवाओं को सजा दिलाते।

रंगे हैं हाथ जिनके बेईमानी और खून से

उनसे दोस्ती का रिश्ता भी निभाते।

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Monday, January 25, 2010

असंगठित लेखक के लिये पुरस्कार कहां होते हैं-आलेख (hindi writer and prize-hindi article)

कोई साहित्य अकादमी अगर अपने द्वारा प्रदत्त पुरस्कारों के लिये किसी देशी या विदेशी कंपनी को प्रायोजित करने के लिये बुलाती है तो उसमें बुराई देखना या न देखना हम जैसे असंगठित आम लेखकों के विषय के बाहर की बात है। सुनने में आ रहा है कि एक विचाराधारा विशेष के लेखक समूह उसका विरोध कर रहे हैं। तय बात है जब कोई संगठन अपनी तरफ से कोई अभियान प्रारंभ करता है तो वह आमजन का हवाला देता है वही संगठित विचाराधारा के समूह बद्ध लेखकों ने भी किया।
उनका तर्क बड़ा जोरदार है कि इस देश के लेखकों की एक बहुत बड़ी आबादी इस देश के समाज में चल रहे संघर्षों पर रचनायें कर रही हैं और इस तरह किसी बहुराष्ट्रीय को यहां बुलाकर उनका मजाक उड़ाना है।

उस साहित्य अकादमी के लोकतांत्रिक और स्वायत्त स्वरूप को क्षति पहुंचने की संभावना भी व्यक्त की जा रही है। चाहे देश में कोई भी भाषा हो, कम से कम एक आम लेखक तब तक कहीं से पुरस्कार मिलने की आशा नहीं करता जब तक वह संस्थागत होकर किसी को अपना शीर्ष पुरुष नहीं बनाता-हिन्दी का तो मामला कुछ अधिक ही विचित्र है। जब भी गणतंत्र दिवस आता है अनेक संस्थायें हिन्दी तथा अन्य भाषाओं के लेखकों को पुरस्कृत करती हैं पर यह पुरस्कार किसी आम लेखक या कवि के पास जाते हुए नहीं दिखता। अनेक पाठकों को यह पढ़कर आश्चर्य होगा कि इस देश में आजादी के बाद अनेक ऐसे शायर, कवि और लेखक हुए हैं जिन्होंने गज़ब का लिखा पर उनका नाम कभी राष्ट्रीय मानचित्र पर नहीं दिखा क्योंकि वह अपनी रोजरोटी के लिये जूझते रहे और उनके पास किसी संस्था से जुड़ने का अवसर नहीं रहा-यह लेखक कम से कम चार गज़ब के शायर और कवियों के बारे में जानता है। पता नहीं बाकी लोगों का इसमें क्या अनुभव है पर इस लेखक ने देखा है कि संस्थागत लेखन में पुरस्कार खूब बंटे पर उसे हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी भले ही उसे येनकेन प्रकरेण पाठ्य पुस्तकों में स्थान दिया गया। यही कारण है कि हिन्दी में नाटक, कहानियां और उत्कृष्ट पद्य की कमी की बात हमेशा कही जाती है।
इस बहस में मुख्य प्रश्न यह है कि जब फिल्म, क्रिकेट, व्यापार तथा अन्य क्षेत्रों में देशी तथा विदेशी कंपनियों का निवेश आ रहा है और उसका यहां के धनपति तथा अन्य लोग लाभ उठा रहे हैं तो फिर लेखकों को उससे दूर क्यों रहना चाहिये? एक बात सभी को समझना चाहिये कि भारत में हिन्दी तथा अन्य भाषाओं का आम लेखक कभी अपने लेखन की वजह से फलदायी स्थिति में नहीं रहा। संस्थागत लेखक भले ही उसका नाम लेते हों पर असंगठित लेखक इस बात को जानते हैं कि वह अपने लेखन की दम पर कभी बड़े पुरस्कार प्राप्त नहीं कर सकते। अभी जिस अभियान की बात हम कर रहे हैं उसे आम लेखक का समर्थन मिल रहा होगा यह आशा करना व्यर्थ ही है क्योंकि आम लेखक को न तो बहुराष्ट्रीय कंपनी की अनुपस्थिति में पुरस्कार मिलना था और न अब मिलना है? फिर जब हम देख रहे हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कई जगह अपने पांव फैलाये हैं तो साहित्य उससे कैसे बच सकता है? यहां राष्ट्रप्रेम की बात भी नहीं चल सकती क्योंकि यह पुरस्कार मिलना तो भारत के ही लोगों को है। दूसरी बात यह है कि पुरस्कार देने वाली सभी संस्थायें किसी न किसी विचारधारा के प्रभाव में रहती हैं और संबद्ध लेखक ही पुरस्कृत होते हैं ऐसे में एकता की बात बेमानी लगती है। दूसरा यह भी कि इन पुरस्कारों में हिन्दी के अनेक प्रदेश उपेक्षित रहे हैं और वहां के लेखकों के लिये ऐसे पुरस्कार एक अजूबा ही हैं। फिर क्षेत्र, भाषा और वैचारिक विभाजन की वजह से देश का बहुत बड़ा हिस्सा यह अनुभव कर सकता है कि संभवतः एक संस्था के लेखक पुरस्कार पायेंगे और दूसरे अपनी उपेक्षा की आशंका से पुरस्कारों के बहुराष्ट्रीय कंपनी के प्रायोजन का विरोध कर रहे हैं।
दूसरी बात यह है कि जो लेखक हैं उनको इस तरह के विरोध के लिये सड़क पर क्यों आना चाहिये? जब आम लेखक को लिखने के लिये प्रेरित करने की बात आती है तो संस्थागत लेखक कहते हैं कि पुरस्कार आदि की बात भूल जाओ क्योंकि यह स्वांत सुखाय है पर जब अपने सम्मानित होने का अवसर उपस्थित हो अपने पक्ष में ढेर सारे तर्क देते हैं। फिर सभी प्रकार के संस्थागत लेखक अपने ही निबंधों में बड़ा लेखक उसी को मानते हैं कि जिसे पुरस्कृत किया गया हो या जिसकी किताब छपी हो। ऐसे में उनको याद रखना चाहिये कि इस देश में लाखों लेखक हैं और सभी को न तो पुरस्कृत किया जा सकता है और न ही सभी किताबें छपवा सकते हैं। ऐसे में किसी अकादमी द्वारा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी से अपने पुरस्कारों का प्रायोजन बुरा हो तो भी आम लेखक उसके विरोध से परे दिखता है। संस्थागत लोग चाहे कितना भी शोर करें वह संपूर्ण भाषा साहित्य के प्रतिनिधि होने का दावा नहीं कर सकते क्योंकि उनके साथ जुड़े लोग भी सीमित क्षेत्र से होते हैं। इसके विपरीत अभी तक पुरस्कारों से वंचित कुछ उपेक्षित संगठित लेखकों का समूह इस आशा से इसका समर्थन भी कर सकता है कि कहीं उनको पुरस्कार मिल जाये। अलबत्ता हम जैसे आम लेखक के लिये ऐसे विषय केवल किनारे बैठकर देखने जैसे दिखते हैं। असंगठित क्षेत्र का लेखक चाहे कितना भी लिख ले पुरस्कार या किताब छपे बिना छोटा ही माना जाता है और देश में ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Sunday, January 24, 2010

श्रीमद्भागवत गीता और ज्योतिष विज्ञान-आलेख (shri madbhagvat geeta and jyotish vigyan-hindi lekh)

भारतीय ज्योतिष विज्ञान का विरोध किसलिये हो रहा है। चंद ज्योतिषी इस आड़ में यहां के लोगों को मूर्ख बना रहे हैं और हम यह जानते हैं। इसे बार बार दोहराने से क्या मतलब है? यहां के लोगों को बेवकूफ समझते हैं और अंग्रेजी शिक्षा पाने के बाद कुछ कथित विद्वान समझते हैं कि यह देश मूर्खों का है। कुछ लोग तो पाश्चात्य सभ्यता में ऐसे रम गये लगते हैं और उनको यह लगता है कि ‘हमारे अलावा यह सब मूर्ख बसते हैं।’
सूर्य ग्रहण या चंद्रग्रहण क्या आता है भारतीय टीवी चैनल चंद ज्योतिषियों को लेकर बैठ जाते हैं। फिर शुरु होती है बहस। ज्योतिष पर ही बहस हो तो ठीक, पर वहां तो श्रीगीता मद्भागवत का विषय भी छा जाता है। श्रीमद्भागवत गीता वास्तव में अद्भुत ग्रंथ है। आप रोज पढ़िये समझ में तब तक नहीं आयेगा जब तक भक्ति भाव के साथ ही ज्ञान प्राप्ति की प्यास मन में नहीं होगी। जब समझ में आयेगा तो फिर आप किसी से बहस नहीं करेंगे। कोई अन्य एक बार करेगा पर फिर दूसरी बार सोचेगा भी नहीं। अगर आप श्रीगीता से लेकर बोल रहे हैं और अगले को चुप नहीं करा पाये तो समझ लीजिये कि आपको अभी सिद्धि नहीं मिली। मगर यह ज्योतिषी अपने व्यवसायिक हितों के लिये अनावश्यक रूप से श्रीमद्भागवत गीता को बीच में लाते हैं।
दरअसल भारतीय अध्यात्म पर हमले करने के लिये विरोधी लोगों को केवल तोते से ज्योतिष बताकर पैसे एैंठने वाले ही दिखते हैं। उस दिन तो हद ही हो गयी। एक साथ दो चैनलों पर सूर्य ग्रहण के बाद बहस चल रही थी। एक दक्षिण का तर्कशास्त्री एक ही समय दो चैनलों पर दिखाई दे रहा था। नाम से गैर हिन्दू धर्म का प्रतीत होने वाला वह शख्स तर्कशास्त्री कैसे था यह तो नहीं मालुम-वह अपने को नास्तिक बता रहा था- पर वह एक जगह भविष्यवक्ता और दूसरी जगह तंत्र मंत्र वाले से जूझता दिखा-दोनों बहसें पहले से ही कैमरे में दर्ज की गयी थी।
भविष्यवक्ता से उस कथित तर्कशास्त्री बहस पहले सीधे हुई थी। उसमें उसने अपनी जन्मतिथि बताई तो भविष्यवक्ता ने उससे कहा कि ‘तुम्हारा घरेलू जीवन तनाव से भरा है।’
उसने इंकार किया और तब उसकी पत्नी से फोन पर पूछा गया तो वह भी ज्योतिषी की बात से असहमत हुई। बात आयी गयी खत्म होना चाहिये थी पर नहीं! अगले दिन फिर वह तर्कशास्त्री आया और आरोप लगाया कि ज्योतिषी उसकी जन्मतिथि पूछने के बाद फोन करने गया था, और वहीं से किसी से पूछकर भविष्य बताया। चैनल में काम करने वाली एक महिला तकनीशियन ने उसे बताया था कि ज्योतिषी का एक एस. एम. एस आया था। ज्योतिषी अब फोन पर बात करते हुए बता रहा था कि ‘उस समय तो मेरा फोन ही बंद था।’
चैनल की महिला तकनीशियन ने बताया कि यह संदेश बहस समाप्ति के बाद ही आया था। बहस का ओर छोर नहीं मिल रहा था।
यही तर्कशास्त्री उसी समय एक दूसरे चैनल पर एक तांत्रिक से उलझा हुआ था। तांत्रिक कह रहा था कि मैं तीन मिनट में तुम्हें बेहोश कर दूंगा। तांत्रिक को अवसर दिया गया पर वह ऐसा नहीं कर सका। इस दौरान वह संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण करता रहा। अब कौन कहे कि कहां ज्योतिष और कहां यह तंत्र मंत्र! मगर चूंकि भारतीय अध्यात्म को निशाना बनाना है तो ऐसे अनेक विषय मिल ही जाते हैं।
इस पूरी बहस में हमें हंसी आयी। ऐसा लगता है कि श्रीमद्भागवत गीता की तरह ज्योतिष भी एक ऐसा विषय है जो चाहे जितना पढ़ लो समझ में नहीं आ सकता जब तक अपने रक्त में समझदार तत्व प्रवाहित न हो रहे हों। इसी बहस में एक ज्योतिष पढ़ चुकी महिला कह रही थी कि मुझे ज्योतिष में विश्वास नहीं है। यहां तक कि मैं अपना भविष्यफल जानने की कोशिश नहीं करती।’
इसलिये हमें यह लगा कि ज्योतिष भी श्रीगीता की तरह सभी के समझ में न आने वाला विषय हो सकता है। आखिरी ज्योतिष पढ़ चुकी एक महिला कह रही है तो यही समझा जा सकता है।
बहरहाल हमें यह लगा कि इस आड़ के भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का मजाक उड़ाने का प्रयास हो रहा है। ज्योतिष विषय पर टीवी पर ही एक विद्वान द्वारा दी गयी जानकारी हमें अच्छी लगी। उसने बताया कि ज्योतिष के छह भाग हैं जिनमें एक ही भाग ऐसा है जिसमें समय समय पर पूछने पर भविष्य बताया जाता है। उन्होंने बताया कि गणितीय गणना भी ज्योतिष का भाग है जिसके आधार पर हमारे पुराने विद्वानों ने सूरज, चंद्रमा तथा अन्य ग्रहों का पता लगाया था।
वैसे पता नहीं कैसे लोग कहते हैं कि ग्रहों का असर नहीं होता? इस विषय पर हमारा आधुनिक तर्कशास्त्रियों से मतभेद है। सूर्य जब दक्षिणायन होता है तो ठंड पड़ती है। यह ठंड आदमी को शरीर को कंपकंपा देती है और यकीनन उसकी मनस्थिति बिगड़ती है। आधुनिक विज्ञानी एक तरफ कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग रहता है तब यह कैसे संभव है कि गर्मी फैला रहे सूर्य में जल रहा शरीर अपना ठंडा दिमाग रख सके। श्रीगीता के ‘गुण ही गुण बरतते हैं’ के सिद्धांत को हमने अपनी देह पर लागू होते देखा है। जब परेशान होते हैं तब सूर्य, चंद्रमा और आकाश की स्थिति को देखकर लगता है कि यह सभी ग्रहों का असर है। जब यह बदलेंगे तो हमारी मानसिकता भी बदलेगी। एक सम्मानित वैज्ञानिक भी वहां आये थे-यकीनन वह बहुत महान हैं पर उनको ग्रहण के अवसर पर ही लाया जाता है। हमने कभी किसी ग्रहण के अवसर पर एक कार्यक्रम में उनको कहते सुना था कि ‘हम यह तो पता नहीं लगा सके कि धरती से बाहर जीवन है कि नहीं, पर यह तय है कि जीवन के आधार वहां ऐसे ही होंगे।’
उन्होंने शायद यह भी कहा था कि जिस तरह धरती और सूर्य के बीच अन्य ग्रह हैं वह दूसरी सृष्टि में भी होंगेे तभी वहां जीवन होगा। तात्पर्य यह है कि कहीं जीवन होगा तो वहां ऐसी प्रथ्वी होगी जिसके पास अपना सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति, शुक्र, बुध, शनि, मंगल तथा अन्य ग्र्रह भी होंगे। हम इसे यह भी कह सकते हैं कि यह ग्रह सभी प्रकार के जीवन का आधार हैं तो फिर यह कैसे संभव है कि वह मनुष्य जीवन को प्रभावित न करें।
हमने अपने अनुभव से एक बात यह देखी है कि एक ही नाम के दो व्यक्ति में कई बार स्वभावगत, परिवार तथा वैचारिक स्तर पर समानता होती है। यह सही है कि सभी का जीवन स्तर समान नहीं होता पर उनकी आदतें और विचार एक ही तरह के दिखते हैं। संभव है कुछ ज्योतिषी इसका दुरुपयोग करते हों पर सभी को इसके लिये गलत नहीं ठहराया जा सकता।
दूसरी बात यह है कि ज्योतिष में ही हमारा खगोल शास्त्र भी जुड़ा हुआ है। हमारे यहां अनेक पंचांग छपते हैं जिनमें सूर्य और चंद्रग्रहण की तारीख और समय छपा होता है और जो पश्चिमी विज्ञान की भविष्यवाणी से मेल खाता है। भारत में अनेक लोगों को पता होता है कि अमुक तारीख को सूर्य या चंद्रग्रहण होगा। अखबार और टीवी में तो बहुत बाद में पढ़ते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय ज्योतिष एक विज्ञान है मगर इस विषय पर वही लोग बोल और लिख रहे हैं जिनको इसका ज्ञान नहीं है-इनमें वह लोग भी हैं जो पढ़े पर समझ नहीं पाये। वैसे इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस तरह की बहसें प्रायोजित हैं ताकि भारतीय अध्यात्म को विस्मृत किया जा सके। एक तर्कशास्त्री की दो जगह उपस्थित यही प्रमाणित करती है।
आखिरी सलाह ज्योतिषियों को भी है कि हो सके तो वह श्रीमद्भागवत गीता से दूर ही रहें क्योंकि वह समझना भी हरेक के बूते का नहीं है। उसमें जो योग और ध्यान के अभ्यास का संदेश दिया गया है उसमें इतनी शक्ति है कि उससे न यहां आदमी इहलोक बल्कि परलोक भी सुधार लेता है। सूर्य इस देह को जला सकता है पर उस आत्मा को नहीं जो न जल सकती है न मर सकती है। किसी भी प्रकार के विज्ञान से परिपूर्ण होने की बात तो उसमें कही गयी है पर इसका मतलब यह नहीं है कि ज्योतिष विज्ञान में पारंगत होने का आशय श्रीगीता सिद्ध हो जाना है। वैसे ज्योतिषियों को यह पता होना चाहिये कि इस तरह अपने ज्ञान का प्रदर्शन अज्ञानियों के सामने प्रदर्शन तामसी प्रवृत्ति का परिचायक है और उनके सामने श्रीगीता का ज्ञान देने की मनाही तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी की है।
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Tuesday, January 19, 2010

मूक और बधिर हैं सभी नरमुंड-हिन्दी व्यंग्य कविता (mook aur badhir-hindy vyangya kavita)

रोज नैतिकता की बात

हर बार आदर्श पर चर्चा

सिद्धांतों की दुहाई देते लोग थकते नहीं हैं।

फिर भी समाज के बिगड़ते जाने की चिंता

सभी को सता रही है,

हर जगह से

भ्रष्टाचार की बू आ रही है,

धर्म की राह के सभी राहगीर,

अपने पाप से बना रहे अपने लिये खीर,

प्रवचनों में ढेर सारे लोगों का जमा है झुंड,

शायद मूक और बधिर हैं सभी नरमुंड,

चक्षुओं से देखते आसमान में

देवताओं के जमीन पर आने की राह,

अपने को छोड़कर सभी इंसानों को

ईमानदारी का बोझ ढोते देखने की चाह,

वह उम्मीदें करते हैं जमाने से

जो खुद पूरी कर सकते नहीं हैं।

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Wednesday, January 13, 2010

वफा और यकीन बेचने आते हैं-हिन्दी शायरी (vafa aur yakin ka sauda-hindi shayri)

गरीब और भूखे के लिये

रोटी एक सपना होती है,

मगर भरे हैं जिनके पेट

भूख भी भूत बनकर

उनके पीछे होती है।

इंसान की जिंदगी

कुछ सपने देखती

कुछ डरों के साथ बीत रही होती है।

.......................



चाहे इंसान कितने भी

बड़े हो जायें

फरिश्ते नहीं बन पाते हैं।

यकीन बेचने वाले

अपने अंदाज-ए-बयां से

चाहे दिलासा दिलायें

यकीन नहीं करना

सर्वशक्तिमान बनने के लिये

सभी मुखौटा लगाकर आते हैं।

काला हो या गोरा

जो चेहरे पर मुस्कराहट ओढ़े हैं

वही वफा और यकीन बेचने आते हैं।


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Friday, January 8, 2010

संवेदनायें मौन हैं-हिन्दी शायरी (sanvednaen-hindi shayri)

अपने अपने शिखर

सभी ने बना लिये

जमीन पर चलता कौन है,

बोल रहे हैं सभी अपनी जुबान से बेकार शब्द

पर सभी के अर्थ मौन हैं।



ऊंचाई पर बैठे हैं जो लोग,

अनदेखा करने का सभी को है रोग,

किसी ने दौलत पर चढ़कर

अपना आशियाना सजाया,

किसी ने शौहरत को मुकाम बनाया,

दिखा रहे हैं सभी एक दूसरे को ताकत

पर अनुभूति करता कौन है,

सभी की संवेदनायें मौन हैं।

-----------------

टूट कर बिखरने से पहले

जो जिंदगी से लड़े हैं,

इतिहास में उनके ही नाम

वीरों की पंक्ति में खड़े हैं।

मतलब की जिंदगी जीने वाले

चमकते हैं खूब, हीरे की तरह

जब तक ताज में जड़े हैं,

गिरे है जमीन पर जब

पत्थरों की तरह पड़े हैं।

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Saturday, January 2, 2010

किस्सा कहानी चोरी का-व्यंग्य आलेख (theft story-hindi satire)

यह पेज
पता नहीं उस लेखक के उपन्यास पर फिल्म बनी हैं या नहीं-जैसा कि वह दावा कर रहा है। बहरहाल फिल्म के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निर्माता-कई जगह नायक का अभिनय करने वाले अभिनेता भी फिल्म में पैसा लगाते हैं पर जाहिर नहीं करते-इससे इंकार कर रहे हैं। फिल्म निर्माता ने तो एक पत्रकार को इस विषय पर प्रश्न करने पर कह दिया-‘शटअप’।
इस विवाद में एक बात निश्चित है कि मुंबईया फिल्म बनाने वालों के पास कल्पनाशक्ति का अभाव है और उससे देखकर यह मजाकिया निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अगर फिल्म की कहानी कुंभ मेले से बिछड़े भाईयो बहिनों के मिलन, किसी मजबूर आदमी के भईया से भाई या बहिन जी बनने या किसी विदेशी फिल्म की देशी नकल न हो तो यकीनन वह किसी देशी लेखक की नकल है।
ऐसा ही एक किस्सा हमारे एक ग्वालियर मित्र लेखक का है जो शायद बीस वर्ष से अधिक पुराना है। उन्होंने एक कहानी संग्रह बड़ी मेहनत से पैसा खर्च कर प्रकाशित कराया था। कहानियां ठीकठाक थी। किताब कोई अधिक प्रसिद्ध नहीं थी पर उनमें से एक कहानी राष्ट्रीय स्तर की साहित्यक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। कुछ दिन बाद बनी एक फिल्म की कथा देखकर उन्होंने दावा किया कि वह उनकी कहानी की नकल है। उन्होंने इसके बारे में तथ्य देकर एक लेख स्थानीय समाचार पत्रों में लिखा था। बाद मेें क्या हुआ पता नहीं पर वह मित्र आज भी हमसे अक्सर मिलते रहते हैं। हम इस बारे में कोई प्रश्न नहीं करते कहीं उनको यह न लगे कि यह व्यंग्यकार जरूर कुछ हमारे बारे में अंटसंट लिखेगा-वह उस पत्रिका के संपादक भी रहे हैं जिसमें हमारे व्यंग्य प्रकाशित होते रहे हैं। सच बात कहें तो उस समय उनकी यह बात अतिश्योक्ति से भरी लगी थी कि कोई बड़ा कलात्मक फिल्मों का निर्माता-आम धारा से हटकर बनी फिल्मों को कलात्मक भी माना जाता है-ऐसी हरकत कर सकता है। व्यवसायिक फिल्मों में उस समय कहानी के नाम पर तो कुछ होता ही नहीं था इसलिये यह आरोप तो कोई उन पर लगाता ही नहीं था।
बहरहाल समय के साथ हमें लगने लगा कि चाहे व्यवसायिक फिल्मकार हों या कलात्मक उनके पास कहानियों का नितांत अकाल है। फिल्मी दृश्यों के तकनीकी पक्ष में उनकी कल्पना शक्ति कितनी भी जोरदार हो कहानी और पटकथा में वह अत्यंत कमजोर हैं।
यह सुंदर, चमकते और ठुमकते हुए चेहरे चिंतन से शून्य हैं और जब कहीं साक्षात्कार होते हैं तब इनकी असलियत वहां दिखाई दे जाती है। अंग्रेजी में बोलेंगे ताकि हिन्दी भाषा का दर्शक औकात न भांप लें और सवालों पर ऐसे भड़केंगे कि जैसे वह हर जगह नायक या निर्देशक हों।
इसलिये हमें उस लेखक की बात पर अधिक यकीन है कि उसके उपन्यास से कहानी चुराकर अपनी पटकथा के साथ फिल्म वालों ने अपनी प्रस्तुति की हो। हालांकि वह लेखक अंग्रेजी का है पर है तो भारतीय। भारतीय लेखकों की कल्पनाशीलता लाजवाब है इस बात को शायद अंग्रेजी के साथ अंग्रेजों के भक्त स्वीकार नहीं करेंगे। यही कारण है कि अंतर्जाल के कुछ लेखक वैश्विक काल में हिन्दी के उद्भव की कामना करते हैं क्योंकि इसमें नया लिखे जाने की पूरी संभावना है। बहरहाल उस लेखक ने अपनी बात टीवी पर हिन्दी में रखी और ऐसा लगा कि उसका कहना सच भी हो सकता है। वैसे वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर का अंग्रेजी का लेखक है इसलिये उसकी बात सुनी जायेगी पर बात यहीं खत्म नहीं होती। इससे पहले भी देश के कुछ हिन्दी लेखकों ने ऐसी शिकायतें की यह अलग बात है कि वह छोटे शहरों के थे और देश के प्रचार माध्यम केवल बड़े शहरों के लेखकों की बातों को ही अधिक महत्व देते हैं। टीवी वालों से इसे महत्व भी इसलिये दिया क्योंकि लेखक एक तो अंग्रेजी का है फिर वैसे ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर है और वह भारतीय प्रचार माध्यमों का मोहताज नहीं है-हिन्दी वाला होता तो शायद उसे वह महत्व नहीं देते क्योंकि उससे उसके प्रसिद्ध होने का भय पैदा हो जाता। यह काम प्रचार माध्यम कभी नहीं कर सकते कि वह किसी हिन्दी भाषी लेखक को स्वयं लेखक बनायें। बन जाये तो फिर उसका उपयोग वह कर सकते हैं।
मुद्दे की बात यह है कि मुंबईया फिल्म वाले हिन्दी के मूल लेखकों का महत्व नहीं समझते-हमने सुना है कि प्रेमचंद फिल्म क्षेत्र छोड़कर अपनी साहित्य दुनियां में लौट गये। कवि नीरज भी वहां के रवैये से संतुष्ट नहीं थे। सच तो यह है कि आजतक एक भी हिन्दी का स्थापित लेखक फिल्म से नहीं जुड़ा है। यह हिन्दी लेखकों की कमी नहीं बल्कि फिल्म वालों की कमजोरी का प्रमाण है। वह अपनी दुनियां को चमकदार बनाये रखना चाहते हैं पर कहानियों के पक्ष को समझते नहीं। कुंभ मेले में बिछड़े बच्चों के मिलन या मजबूरी से भाई बने कहानी में उनको अच्छे और आकर्षक सैट दिखाने का अवसर मिलता है और वह ऐसी कहानियां अपने लिपिक नुमा लेखकों से लिखा लेते हैं। जिसे कहानी कहा जाता है उसे कभी फाइव स्टार होटल में या किसी इमारत में बैठकर केवल कल्पना से नहीं लिखा जा सकता है। उसके लिये जरूरी है कि सत्यता के पुट के लिये आदमी सड़क पर स्वयं निकले। अंधेरी गलियों में घूमे और ऊबड़ खाबड़ सड़कों में धूल फांके। यह उनके व्यवसायिक लेखकों के बूते का नहीं है। अब देखना यह है कि उस अंग्रेजी के अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्ध लेखक के साथ फिल्म वालों का विवाद किस जगह पहुंचता है।
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Wednesday, December 23, 2009

इतिहास और विश्वास-हास्य व्यंग्य (ithas aur vishvas-hasya vyangya)

इस देश में कई ऐसे लोग मिल जायेंगे जो इतिहास विषय को बहुत कोसते हैं क्योंकि उनको प्रश्नपत्रों को हल करते समय अनेक घटनाओं की तारीखें और सन् याद नहीं रहते और गलत सलत उत्तर हो जाने पर परीक्षा में उनके अंक कम हो जाते हैं। वैसे इतिहास पढ़ते समय हमें भी मजा नहीं आता था पर नंबर पाने के लिये रटना तो पढ़ता ही था। सन आदि की गलतियां कभी नहीं हुई पर उनकी आशंका हमेशा बनी रहती थी। उत्तर लिखने के बाद जब घर पहुंचते तो पहले इसकी पुष्टि अवश्य करते थे कि कहीं सन गलत तो नहीं लिख दिया।
उस समय इस बात पर यकीन नहीं होता था कि हम जो इतिहास पढ़ रहे हैं वह झूठ भी हो सकता है। मगर जैसे जैसे अखबार वगैरह पढ़ने लगे तक लगने लगा कि किसी भी इतिहासकार ने एक लेखक के रूप में अगर कुछ अनुमान कर लिखा होगा तो कल्पना भी सच बनाकर प्रस्तुत हो सकती है। जैसे जैसे समय बीता फिर हमने ऐसे लोगों को अपने सामने इतिहास बनते देखा जिनके बारे में हमें यकीन नहीं था कि इनका नाम भी कभी इतिहास में एक श्रेष्ठ मनुष्य में रूप में लिखा जा सकता है। एक दो घटनायें ऐसी भी देखी जिससे लगा कि अगर हम अपने घर में कहीं किसी पत्थर पर राज्य का राजा होने का जानकारी खुदवाकर गाढ़ दें तो कई वर्षों बाद उसकी खुदाई होने पर वह इतिहास हो जायेगा जो कि सच नहीं बल्कि कल्पना होगी। फिर कई ऐसे लोगों की भी अच्छी चर्चायें सुनी जिनके बारे में हमें यकीन था कि वह इतने उत्कृष्ट नहीं थे जितना अपने देहावसान के बाद बताये जा रहे हैं। इससे भी आगे बढ़े तो यह भी पाया कि कुछ लोगों की कभी खूब आलोचना हुआ करती थी जो कि सही भी थी पर समय के अनुसार जनमत ऐसा बदला लगा कि लोग उनको याद करते हुए कहते हैं कि ‘अगर वह होते तो ऐसा नहीं होता।’

कहने का तात्पर्य यह है कि लोग एक व्यक्ति के बारे में अपनी राय भी बदल सकते हैं और इस तरह इतिहास बदल जाता है। पूरी बात कहें तो यह कि एक झूठ हजार बार बोला जाये तो वह सच बन जाता है। इसी कारण इतिहास की अनेक बातें यकीन पर आधारित हो सकती हैं।
इधर अंतर्जाल पर सक्रिय हुए तो उसने तो हमारे एतिहासिक ज्ञान की न केवल धज्जियां उड़ा दी है कि बल्कि अनेक तरह के शक शुबहे भी पैदा कर दिये हैं। पहला शक तो हमें अपने इतिहास लिखने वालों की विश्वसनीयता और समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को ही लेकरहोता है पर उससे ज्यादा उनको अपनी राय के अनुसार प्रस्तुत करनें वाले प्रचार माध्यमों पर होता है। परस्पर विरोधाभासी तर्क देख सुनकर एक बार तो ऐसा लगता है कि दोनों में से कोई एक झूठ या भ्रमवश बोल रहा है पर फिर अपना सोचते हैं तो लगता है कि दोनों ही एक जैसे हैं। इधर कुछ लोग यह लिख रहे हैं कि ताज महल शाहजहां से अपनी बेगम मुम्ताज की याद में नहीं बनवाया बल्कि वहां पहले एक ‘शिव मंदिर’ था जिसे ‘तेजोमहालय’ कहा जाता था। किन्हीं इतिहासकार श्री ओक की खोज पर आधारित इस विचार ने हमें इतना दिग्भ्रमित कर दिया कि हमे लगने लगा कि हो सकता है वह सही हो। उनके तर्क वजनदार दिखे पर जब अपना सोचना शुरु किया तो लगने लगा कि शायद न तो यह ताजमहल होगा न यह तेजोमहालय बल्कि ताजा मोहल्ला भी हो सकता है जो शायद उस समय के साहूकार लोगों ने शायद अपनी विलासिता के लिये बनवाया हो। उनका इरादा से सामूहिक मनोरंजनालय बनाने का रहा हो जहां अनेक लोग बैठकर शतरंज या च ौपड़ खेले सकें। शायद इसमें सर्वशक्तिमान की मूर्ति भी लगवा सकते थे। उसमें जिस तरह परिक्रमा के लिये जगह बनी है उससे यह विश्वास होता है कि वह वहां कोई कलाकृति वगैरह लगाने वाले होंगे कि किसी राज कर्मचारी या अधिकारी ने बादशाह को खबर कर दी होगी कि अमुक जगह अपने नाम से करवाना बेहतर होगा।
हमें सबसे पहले ताजमहल पर हमारे मामा ले गये थे। दरअसल हमारी वहां जाने की इच्छा नहीं थी। इस अनिच्छा के पीछे इतिहास के ही पढ़ी यह बात जिम्मेदार थी कि ‘ताज महल बनाने वाले मजदूरों के हाथ इसलिये काट दिये गये थे ताकि वह दूसरी जगह ऐसी इमारत न बना सकें।’
जब पहली बार ताजमहल पर गये तब उसे देखकर अच्छा जरूर लगा पर यही बात हमारे मन में ऐसी रही कि उसका आकर्षण हमें बुरा लगा। हम न तो प्रगतिशील हैं न ही परंपरावादी पर श्रम की अवमानना करने वालों को कभी हम श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में नहीं स्वीकारते। इसके बाद भी अनेक बार ताजमहल गये पर वहां हमारे हृदय में कोई स्पंदन नहीं होता। फिर भी उसकी बनावट का अवलोकन तो हमेशा ही किया। हमें लगता है कि ताजमहल कभी एक काल खंड या राजा के राज्य में नहीं बना होगा। इसके बहुत से कारण है। सबसे बड़ी चीज यह कि हमें परिक्रमापथ कभी समझ में नहीं आया। वहां बताने वाले सारी बातें शाहजहां से जोड़कर बताते हैं कि वह अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते थे इसलिये चारों तरफ घूमने के लिये उन्होंने बनवाया।
इतिहास में यह बात नहीं पढ़ाई गयी कि मुम्ताज की प्राणविहीन देह एक वर्ष तक बुरहानपुर शहर की एक कब्र में रही। यह हमें कई वर्षों बाद पता लगा। ताजमहल को आधुनिक प्रेम का प्रतीक बताकर जिस तरह फिल्में बनकर सफल रहीं और गीतों को जैसे लोकप्रियता मिली उससे भी यही लगा कि वाकई ऐसा हुआ होगा। इतना ही नहीं ताजमहल छाप साबुन, साड़ियां, बीड़ी तथा अन्य सामान भी बाजार में खूब बिकता देखा। इस पर उस समय विचार नहीं किया मगर अब जैसे बाजार और उसके सहायक प्रचार माध्यम जिस तरह इतिहास के महानायकों को गढ़ रहे हैं तब अपना ही पढ़ा इतिहास संदिग्ध लगता है।
कुछ उदाहरण तो सामने दिखते ही हैं। एक क्रिकेटर जिसने कभी इस देश को विश्वकप नहीं जितवाया उसे सर्वकालीन महान खिलाड़ी का दर्जा देते हुए यहां के प्रचार माध्यम थकते ही नहीं हैं। फिल्मों में काल्पनिक पात्रों का अभिनय करने वाले अभिनेता को देवपुरुष बना देते हैं। अगर इसी तरह चलता रहा तो यकीनन वह किसी समय इतिहास में ऐसे लोग महापुरुष की तरह अपना नाम दर्ज करवायेंगे जिन्होंने जमीनी तौर से कोई बड़ा काम नहीं किया हो।
अपनी इस हल्की सोच के साथ जीना आसान नहीं है। फिर इतिहास को समझें कैसे? क्योंकि उसके बिना आप आगे की व्याख्या भी तो नहीं कर सकते। ऐसे में हमने अपना ही सूत्र ढूंढ लिया है कि ‘‘पीछे देख आगे बढ़, आगे का देखकर पीछे का गढ़।’’
हमारे अपने तर्क हैं जो हल्के भी हो सकते हैं। हमारे महानपुरुषों ने अच्छे काम
करने को इसलिये कहा होगा क्योंकि उन्होंने अपने समय में ऐसे बुरे काम देखे होंगे। कहने का आशय यह है कि इस धरती पर धर्म और अधर्म दोनों ही रहते हैं और कम ज्यादा का कोई पैमाना नहीं है। अगर कबीर और तुलसी को पढ़ें तो यह साफ समझ में आता है कि दुष्ट प्रकृत्ति के लोग उनके समय में भी कम नहीं थे। ऐसे में बाजार और प्रचार की प्रकृत्तियां भी इसी तरह की रही होंगी। सामान्य ज्ञान की किताब में विश्व के जो सात आश्चर्य बताये गये थे उनमें ताजमहल नहीं आता था मगर पिछले साले एक प्रचार अभियान में इसे जबरदस्ती सातवें नंबर का बनाया गया। इतना ही नहीं अभियान के साथ देशप्रेम जैसे भाव भी जोड़ने के प्रयास हुए। उस समय बाजार का खेल देखकर तो ऐसा लगा था कि जैसे कि ताजमहल कोई नयी इमारत बन रही है। लोगों ने जमकर उस समय टेलीफोन पर संदेश भेजे जिसमें उनका पैसा खर्च हुआ और बाजार ने कमाया। हमने आज के बाजार और प्रचार को देखा तो लगा कि पहले भी ऐसा हो सकता है।

कहते हैैं कि ताजमहल का प्रेम प्रतीक है पर हम इसे विकट भ्रम का प्रतीक मानने लगे हैं। भारतीय अध्यात्म के अनुसार मृत्यु के कार्यक्रमों का विस्तार नहीं होना चाहिये। जिस तरह यह बताया गया कि मुम्ताज को एक साल बाद कब्र से निकालकर यहां दोबारा दफनाया गया, उस पर यकीन करना कठिन लगता है। संभव है बादशाह को इसके लिये रोकने का साहस किसी में नहीं था या लोग भी चाहते थे कि इस राजा का नाम अपने राज्य की वजह से तो लोकप्रिय नहीं होगा इसलिये इसे ताजमहल जैसी इमारत के सहारे बढ़ाया जाये। बादशाह को गद्दी पर बनाये रखना उस समय के पूंजीपतियों, जमीदारों और सेठों की बाध्यता रही होगी। इतना ही नहीं आगरा को विश्व के मानचित्र पर लाने के लिये ताजमहल के साथ प्रेम को जोड़ना आवश्यक लगा होगा इसलिये ऐसा किया गया। वरना सभी जानते हैं कि पंचतत्वों से बनी यह देह धीरे धीरे स्वतः मिट्टी होती जाती है। एक वर्ष कब्र में पड़ी देह में क्या बचा होगा यह देखने की कोशिश शायद इसलिये नहीं की गयी। जहां तक हमारी जानकारी है दुनियां में किसी भी धर्म के मतावलंबी मौत के शोक के विस्तार के रूप में इस तरह के नाटक मे नहीं करते ।

शाहजहां को इस देश का कोई अच्छा शासक नहीं माना जाता। ऐसे में लगता है कि उस समय के बाजार और प्रचार विशेषज्ञों ने उसे प्रेम का उपासक बताकर लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया होगा। उस समय आज जैसे शक्तिशाली प्रचार माध्यम नहीं थे इसलिये आपसी बातचीत के जरिये या फिर ढोल वालों से ऐसा प्रचार कराया होगा। हम किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हैं और न ही कोई ऐसी कसम खाई है कि दोबारा वहां नहीं जायेंगे-नहीं हमारा किसी के निष्कर्ष से सहमति या असहमति जताने का इरादा है। हम तो अपनी सोच को इधर उधर घुमाते ऐसे ही हैं। अलबत्ता इस बार जब जायेंगे तो उसके ताजमहल, तेजोमहालय या ताजा मोहल्ला होने के नजरिये से विचार जरूर करेंगे। इसका कारण यह है कि आजकल हम अपने सामने वर्तमान को इतिहास बनता देख रहे हैं उसने हमारे मन में ढेर सारे संशय खड़े कर दिये हैं।
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Saturday, December 12, 2009

खुदा और बंदे-हिन्दी साहित्य क्षणिकायें (khuda aur bande-hindi short poem)

धरती  का खुदा

नहीं है बंदों से जुदा।

फिर भी धरती को बचाने के लिये

चंद लोग एकत्रित हो जाते हैं

कभी कोपेनहेगन तो कभी

रियो-डि-जेनेरियों में

महंगी महफिलें सजाते हैं

बिगाड़ दिया है दुनियां का नक्शा

अब फिर तय करने लगे है नया चेहरा

बन रहे  नये खुदा

सोचते ऐसे हैं जैसे

दुनियां के बंदों से हैं जुदा।

---------

गोरों का राज्य मिट गया

पर फिर भी संसार पर हुक्म चलता है।

उसे बजाने के लिये हर

काला और सांवला मचलता है।

कुछ चेहरा है उनका गजब,

तो चालें भी कम नहीं अजब,

काला अंधेरा कर दिया

अपने विज्ञान से,

बीमार बना दिया सारा जमाना

अपने ज्ञान से,

बिछा दी चहुं ओर अपनी शिक्षा,

पढ़लिखकर साहुकार भी मांगे भिक्षा,

बिगाड़ दी हवा सारी दुनियां की

अब ताजी हवा को गोरे तरस रहे हैं,

सारे संसार पर अपने शब्दों से बरस रहे हैं,

विष  लिये पहुंचते हैं सभी जगह

अमृत की तलाश में

फिर भी दान नहीं मांगते

लूट का अंदाज है

फिर भी लोग उन्हें देखकर बहलते हैं।

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Monday, December 7, 2009

उम्मीद और विकास-हिन्दी क्षणिकायें (ummid aur vikas-hindi short poem)

 विकास के वादों का

मौसम जब आता

तब भी अब दिल नहीं मचलता

मालुम है कि

वादा भूलने के लिये ही किया जाता है।

कुछ हो जायेगा जमाने का भी भला

भर जायेगा  जब

वादे करने वालों का घर

विकास से,

तब टपक कर सड़क पर भी

कुछ बूंदें आ ही जायेगा

भले ही बरसात में बह जाता है।

-------

उम्मीद होने पर

तमाम वादे किये जाते हैं।

पूरी होने पर निभाये कोई

इस पर गौर मत करना

झोली भर गयी जिनकी विकास से

दूसरों का दर्द वह भूल जाते हैं।
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Friday, December 4, 2009

पर्यावरण पर नाटकबाजी से काम नहीं चलेगा-आलेख (Environmental drama will not work -hindi Articles)

यह आश्चर्य की बात है कि सारे संसार में आधुनिक साधनों से पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले देश ही उसकी सुरक्षा की बात कर रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस समय विश्व में जिस तरह तापमान बढ़ रहा है उससे मौसम में आया परिवर्तन इस धरती के जीवों के लिये खतरनाक है पर इसको लेकर किसी भी व्यक्ति या देश द्वारा अपनी यह कहकर अपनी शक्ति का यह प्रदर्शन करना ठीक नहीं है कि वह इसके लिये चिंतित है। केवल चिंता करना ही उनकी योग्यता का प्रमाण नहीं हो सकता। अगर किसी को अपनी चिंता की वास्तविकता सािबत करनी है तो उसे पहले अपने कृत्य से साबित करना भी होगा वरना उसे धूर्त ही समझा जायेगा। इस समय विश्व के कुछ विकसित देश अपने आपको दुनियां का सबसे बड़ा खैर ख्वाह समझ रहे हैं पर सच तो यह है कि वही इस देश का पर्यावरण बिगाड़ने के लिये जिम्मेदार हैं। सब जानते हैं कि ओजोन परत में छेद के बढ़ते जाने की वजह से हो रहा है और उसके लिये प्रथ्वी पर उपयोग में आने वाली गैस जिम्मेदार है।
यह प्रदूषण एक दिन में नहीं हुआ और न ही किसी एक गैस से हुआ है। कभी कहा जाता है कि एशिया के देश खाने की गैस का उपयोग करते हैं इसलिये यह गर्मी बढ़ रही है तो कभी अमेरिका की कंपनियों पर भी ऐसे ही आरोप लगते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि गैसों का अधिक उपयोग खतरनाक है पर इसके लिये किसी एक देश या महाद्वीप का जिम्मेदारी ठहराना ठीक नहीं है।
इस चर्चा में परमाणु ऊर्जा के उपयोग तथा उसके बमों का परीक्षण करने की चर्चा बिल्कुल नहीं आती जबकि अमेरिका और चीन ऐसे पता नहीं कितने प्रयोग समंदर और जमीन में कर चुके हैं। उससे जमीन को कितनी क्षति पहुंची और उससे कितनी गैस का विसर्जन हुआ इसका अनुमान कोई नहीं देता। इन दोनों देशों की मानसिकता ही साम्राज्यवादी है। इतना ही नहीं दोनों ही हथियारों के लिये अपना बाजार भी ढूंढते हैं। चीन ने ही पाकिस्तान को परमाणु संपन्न राष्ट्र बनने के लिये मदद की है। इन दोनों ने देशों ने परमाणु विस्फोटों से धरती को कितनी क्षति पहुुंचाई है इसका आंकलन जरूर किया जाना चाहिये। गैसों का उत्सर्जन कोई होने से कोई एक दिन में में पर्यावरण प्रदूषित नहीं हुआ। गैस कोई प्रकाश की गति से नहीं फैलती बल्कि इसके लिये पिछले कई वर्षों से मानवीय लापरवाही का यह नतीजा है। भारत जहां इस मामले में पूरी तरह ईमानदारी दिखा रहा है वहीं चीन और अमेरिका इसके लिये दिखावा अधिक करते हैं। भारत ने परमाणु परीक्षण भी इतने नहीं किये जितने इन देशों ने किये हैं। हालांकि चीन और रूस ने भारत द्वारा 25 प्रतिशत गैस उत्सर्जन कम किये जाने के प्रयास को सराहा है पर सवाल यह है कि यह दोनों देश स्वयं क्या करने जा रहे हैं और जो वादा कर रहे हैं उसे क्या निभायेंगे?
हमारे कहने का केवल यही आशय यह है कि पर्यावरण को राजनीतिक विषय न समझें बल्कि इस पर ईमानदारी से काम करें। विश्व भर में विकास के दावे तो बहुत किये जाते हैं पर साथ ही चल रहे विनाश की अनदेखी नहीं की जा सकती। इस पर अमेरिका तथा अन्य राष्ट्र ईमानदारी से सोचें। खाली नाटकबाजी से कुछ नहीं होने वाला है।
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Thursday, November 26, 2009

जिंदगी का अहसास-हिंन्दी चिंतन और कविता(zindagi ka ahsas-hindi chintan aur kavita)

आदमी अपनी जिंदगी को अपने नज़रिये से जीना चाहता है पर जिंदगी का अपना फलासफा है। आदमी अपनी सोच के अनुसार अपनी जिंदगी के कार्यक्रम बनाता है कुछ उसकी योजनानुसार पूर्ण होते हैं कुछ नहीं। वह अनेक लोगों से समय समय पर अपेक्षायें करता है उनमें कुछ उसकी कसौटी पर खरे उतरते हैं कुछ नहीं। कभी कभी तो ऐसा भी होता है कि संकट पर ऐसा आदमी काम आता है जिससे अपेक्षा तक नहीं की जाती। कहने का तात्पर्य यह है कि जिंदगी भी अनिश्तताओं का से भरी पड़ी है पर आदमी इसे निश्चिंतता से जीना चाहता है। बस यहीं से शुरु होता है उसका मानसिक द्वंद्व जो कालांतर में उसके संताप का कारण बनता है। अगर आदमी यह समझ ले कि उसका जीवन एक बहता दरिया की तरह चलेगा तो उसका तनाव कम हो सकता है। जीवन में हर पल संघर्ष करना ही है यही भाव केवल मानसिक शक्ति दे सकता है। इस पर प्रस्तुत हैं कुछ काव्यात्मक पंक्तियां-
खुद तरसे हैं
जो दौलत और इज्जत पाने के लिये
उनसे उम्मीद करना है बेकार।
तय कोई नहीं पैमाना किया
उन्होंने अपनी ख्वाहिशों
और कामयाबी का
भर जाये कितना भी घर
दिल कभी नहीं भरता
इसलिये रहते हैं वह बेकरार।
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समंदर की लहरों जैसे
दिल उठता और गिरता है।
पर इंसान तो आकाश में
उड़ती जिंदगी में ही
मस्त दिखता है।
पांव तले जमीन खिसक भी सकती है
सपने सभी पूरे नहीं होते
जिंदगी का फलासफा
अपने अहसास कुछ अलग ही लिखता है।
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Wednesday, November 25, 2009

हिंदी समाचार-हास्य व्यंग्य कविता (samachar in hindi-hasya kavita)

समाचार भी अब फिल्म की तरह

टीवी पर चलते हैं।

हास्य पैदा करने वाले विज्ञापनों के बीच

दृश्यों में हिंसा के शिकार लोगों की याद में

करुणामय चिराग जलते हैं।

--------

समाचार भी खिचड़ी की तरह

परदे पर सजाये जाते हैं।

ध्यान रखते हैं कि 

हर रस वाला समाचार

लोगों को सुनाया जाये

किसी को हास्य तो किसी को वीर रस

अच्छा लगता है

कुछ लोग करुणारस पर

मंत्र मुग्ध हो जाते हैं।

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