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Friday, November 12, 2010

वीर जवानों का देश-हिन्दी व्यंग्य क्षणिका (vir javonao ka desh-hindi vyangya kavita

पहले एक बयान
फिर दूसरा बयान
कहीं शब्द भी युद्ध का रूप ले जाते हैं,
कहीं पत्थर भी एक दूसरे पर
उड़ाये जाते हैं,
कभी यह देश था वीर जवानों का
अब तो कुछ लोग बादलों की तरह गरज कर दिखाते हैं,
कुछ अपनों पर गुबार निकालकर
अपनी ताकत जताते हैं।
वीर और जवानों के  नाम
बस, इतिहास में पाये जाते हैं।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Friday, February 26, 2010

'आई लव यू' चलेगा पर रंगीन वेबसाईटें नहीं-हिन्दी लेख (I LOVE YOU AND BLUE WEBSITE--hindi article)

यह कहना कठिन है कि ताइवान में आखिर इस लेखक के दो ब्लाग स्पाट पर बने हिन्दी ब्लाग आखिर कैसे पढ़े जा रहे हैं? वैसे यह पता नहीं कि इन दो ब्लाग पर गूगल सर्च इंजिन की क्यों कृपा हुई है कि वह ब्लाग स्पाट के इन दो ब्लाग को कुछ अधिक ही समर्थन दे रहा है। वैसे तो यह कहा जाये कि सर्च इंजिनों में कोई भी ब्लाग कहीं भी पहुंच सकता है और जरूर नहीं कि उसे खोलने वाला पाठक उसे पढ़े। मगर जब निरंतर टिप्पणियां आती हैं तब यह सवाल उठता है कि आखिर उनका उद्देश्य क्या है?
पहले दिन तो इन दोनों ब्लाग पर करीब तीस करीब टिप्पणियां एकसाथ आईं। चीनी भाषा में टिप्पणियां थीं पर उनके अक्षरों पर कर्सर ले जाने पर यह आभास होता था कि उनके पीछे वेबसाईटें हैं। इस लेखक ने उनको खोलकर देखा तो रंगीन किस्म की वेबसाईटें दिखाईं दी। यह दोनों ब्लाग माडरेशन से मुक्त थे इसलिये सभी तीस टिप्पणियों को हटाने के लिये मेहनत करनी पड़ी। टिप्पणियां एक क्रम में नहंी थी जिसका आशय यह था कि टिप्पणीकर्ता ने पाठों के चयन के आधार पर टिप्पणियां की है। वेबसाईटों की संख्या बहुत थी। उनका रंगीन विषय देखकर उन्हें हटा देने के साथ ही ब्लाग पर माडरेशन लगा दिया गया। इसके बावजूद टिप्पणियों के आने का क्रम जारी रहा। यह टिप्पणियां इस ब्लाग लेखक को प्रेरणा देने या पाठकों को पाठ के विषय में अतिरिक्त सामग्री देने की बजाय अपनी वेबसाईटों के प्रचार के लिये लिखी गयी लगती हैं। इसके बाद अनेक टिप्पणियों को हटाया जाता रहा। मगर लिखने वाला बाज नहीं आ रहा है। टिप्पणीकर्ता ने सोचा होगा कि हिन्दी का ब्लाग लेखक है और चीनी भाषा नहीं समझता तो उसने सबसे पहले अंग्रेजी शब्द लिखे ‘आई लव यू’। उसके बाद चीनी भाषा में कुछ शब्द थे। कर्सर रखते ही यह पता तो लगा कि इनके पीछे भी रंगीन विषय वाले फोटो हैं पर यह जानने के लिये आखिर उनका हिंदी अनुवाद क्या है, अनुवाद टूलों में उनको लिया गया।
चीनी भाषा में शब्द इस प्रकार थे।

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गूगल के अनुवाद टूल से इस तरह हिन्दी में दिखा।
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दरअसल आई लव यू शब्द ने इस लेखक को आकर्षित किया था। अंग्रेजी के इस शब्द के उपयोग की अपनी महिमा है। वैसे चीन और ताईवान के लोग अपनी भाषा के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं। भारत में हम लोग लापरवाही दिखाते हुए अंग्रेजी पर लट्टू होते हैं पर इसका एक लाभ है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क करने में कठिनाई कम आती है। पूर्व के लोगों को इस समस्या से दो चार होना पड़ता होगा। हालांकि अनुवाद टूलों ने ब्लाग जगत को एक ही मंच बना दिया है। जिस तरह चीनी भाषा से हिन्दी में अनुवाद हुआ अगर ऐसा ही हिन्दी से चीनी में हो रहा होगा तो यकीनन उसे पढ़कर समझा तो जा सकता है। टिप्पणियों का क्रम पाठों के क्रम में न होने का कारण यह है कि उस ताईवानी टिप्पणीकर्ता ने केवल कविताओं पर ही अपनी बात रखी है। अनुवाद टूलों से यह तो लग रहा है कि गद्य की बजाय पद्य रचनाओं का अनुवाद कुछ अधिक सहज और शुद्ध होता है-यह भी संभव है छोटी होने के कारण उनको सहजता से पढ़ा जा सकता है।
टिप्पणीकर्ता पाठ पढ़कर कुछ भी टिप्पणी कर अनुग्रहीत करना चाहता है या उसका उद्देश्य ही अपनी वेबसाईटों का प्रचार करना है। कहीं ताईवान या चीन में ऐसा रिवाज तो नहीं है कि टिप्पणी लिखते हुए कुछ रंगीन वेबसाईटें पते के रूप में लिखा जाती हों-यह कहना कठिन है। ताईवान के उस टिप्पणीकर्ता ने कम से कम डेढ़ सौ टिप्पणियां की होंगी मगर उसकी वेबसाईटों की वजह से उसको जगह नहीं मिली। यह दोनों ब्लाग स्पाट के हैं जहां पाठक और टिप्पणियां कम ही आती हैं इसलिये उन पर ध्यान देना आसान रहता है। जबकि वर्डप्रेस के ब्लाग पर पाठकों की संख्या इतनी अधिक रहती है कि इस तरफ ध्यान से देखना कठिन है। वहां अन्य भाषाओं में टिप्पणियां आती हैं पर चीनी भाषा में कभी नहीं मिली।
दरअसल विश्व के पूर्वी हिस्से से हमारा भाषाई संपर्क सतत इसलिये भी कठिन है क्योंकि वहां अंग्रेजी को इतनी तवज्जो नहंी दी जाती। विदेशों में पश्चिम में जितने हिन्दी ब्लाग पढ़ते देखे हैं उतने पूर्व दिशा में नहीं। ऐसे में इंटरनेट पर अनुवाद टूलों से ही विचार और संवाद की प्रक्रिया प्रारंभ हो सकती है। अलबत्ता कम से कम अंग्रेजी की वैश्किता शायद ‘आई लव यू’ के कारण ही बनी हुई है। ताईवानी टिप्पणीकर्ता ने शायद इसलिये ही उसका इस्तेमाल किया कि इस ब्लाग लेखक को यह तो समझ में जरूर आयेगा। मगर उसके साथ दोस्ताना संपर्क में उनकी वेबसाईटें ही बाधक होंगी। अब यह कहना कठिन है कि वह कोई महिला ब्लाग लेखक है या पुरुष! एक ही आदमी टिप्पणी कर रहा है या अनेक लोग हैं। पर यह दिलचस्प है कि विश्व में भाषा और लिपि की दीवारें टूट रही हैं-अंग्रेजी ब्लाग के एक हिन्दी लेखक के एक पाठ पर यह टिप्पणी बहुत पहले की थी जो धीमी गति से ही सही साबित होती जा रही है।


कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Monday, June 1, 2009

गिरेबां में झांकने की कोशिश-आलेख(gireban men jhankne ki koshish-hindi alekh)

आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले की घटना कोई नई बात नहीं है-कम से कम भारत लौटे एक युवक और युवती का टीवी साक्षात्कार में तो यही कहना था। सच बात तो यह है कि भारतीयों पर पश्चिमी देशों में भी हमले होते रहे हैं जिनके समाचार अक्सर समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर आते हैं। यह हमले निंदनीय है पर जिस तरह हमारे यहां के बुद्धिमान लोग इसमें नस्लवाद तथा राष्ट्रवाद की भावनायें उभारते हुए अपनी अभिव्यक्ति करते हैं उसका समर्थन भी नहीं किया जा सकता। आस्ट्रेलिया से लौटे जिस युवक और युवती ने साक्षात्कार दिया उन्होंने इसे नस्ल या राष्ट्र से जोड़ने इंकार करते हुए बताया कि
1.अक्सर यह घटनायें रात को घटती हैं जब आफिस या क्लब से लौटते हुए शराबी और बेकार नवयुवकों द्वारा ही इस तरह का आक्रमण किया जाता है। कई बार तो पैसा लेकर छोड़ा जाता है।
2.आस्ट्रे्रलिया के किसी संस्थान, विश्वविद्यालय, पुलिस तथा सरकार द्वारा ऐसी घटनाओं को समर्थन नहीं दिया जाता। आम जनता में भी कोई ऐसा विरोध नहीं है। यह हमले केवल भारतीयों पर ही नहीं बल्कि अन्य देशों के लोगों पर भी होते हैं। इतना ही नहीं आस्ट्रेलिया में पहले बसे कुछ लोग भी नये लोगों के प्रति कम दुर्भाव नहीं दिखाते। सीधे पहले भारतीय बसे लोगों का नाम नहीं लिया गया पर इशारों में इस तरफ संकेत किया गया।
भारत में जिस तरह समाचार पत्रों, टीवी चैनलों तथा अंतर्जाल पर लेखकों ने शुरुआत में जो इस विषय पर लिखा उससे उस युवक और युवती के बयान मेल नहीं खाते। यह हैरानी की बात है कि मुख्यधारा को चुनौती देने का दावा करने वाले हिंदी ब्लाग लेखक ने उसी के साथ मिलकर आस्ट्रेलिया को चरित्र को ही चुनौती दे डाली। अनेक हिंदी ब्लाग लेखकों के आक्रामक पाठ देखकर ऐसा लगा कि वह मुख्यधारा की तरह सतही वैचारिक धारा में बह रहे हैं पर एक आक्रामक पाठ पर एक ब्लाग लेखक की टिप्पणी ने कुछ अलग हटकर सोचने के लिये इस लेखक को बाध्य किया।
उस टिप्पणीकर्ता ने पहले तो आक्रामक पाठ का समर्थन किया पर अंत में भारत में जारी रैगिंग प्रथा का मुद्दा उठाया और उसे रोकने की मांग की। श्री बालासुब्रहण्म-यहां साभारपूर्वक सम्मान के साथ उनका नाम लिखा जा रहा है। अगर उन्हें आपत्ति हो तो यह नाम हटा दिया जायेगा-ने जिस ढंग से यह मुद्दा उठाया उससे एक बात तो लगी कि ब्लाग लेखकों में कुछ लोग अन्य देशों पर सवाल उठाने से पहले अपने समाज के गिरेबां में झांकने का प्रयास भी कर रहे हैं।
टीवी पर आस्ट्रेलिया से लौटे उस युवक युवती ने साफ कहा कि वह दोबारा वहां जाना चाहेंगे। उनका यह भी कहना था कि मंदी के कारण बेरोजगार आस्ट्रेलिय नवयुवक इन हमलों के लिये जिम्मेदार हैं पर उसके लिये समूचे आस्ट्रेलिया पर उंगली उठाना नहीं चाहिए।

मगर इस देश में ऐसे ही प्रचार किया जा रहा है। हम यहां रैगिंग का का मामला उठायें तो लगेगा कि यह एक तरह का सांस्कृतिक नस्लवाद है जिसे इस देश के कथित सभ्रांत वर्ग ने सहज मान लिया है। हां, इसे और क्या कहा जा सकता है? रैगिंग हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है। इतना ही नहीं यहां प्रचलित किसी धर्म या विचार से उसका प्रवर्तन भी नहीं हुआ। जिस तरह वैलंटाईन डे, प्रेम दिवस, मित्र दिवस, पिता दिवस, और माता दिवस मनाने की अपने देश में परंपरा शुरू हुई है पर देश का एक बहुत बड़ा वर्ग इसमें दिलचस्पी नहीं लेता। जब यह दिवस मनाये जाते हें उस दिन देश के अखबार या टीवी पर इनका प्रचार देखें तो लगेगा कि हर आदमी बस इसमें ही लिप्त है। यही स्थिति रैगिंग की है। अधिकतर छात्र छात्रायें इसको पंसद नहीं करते पर विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में धनाढ्य और कथित सभ्रांत वर्ग के छात्र और छात्रायें अपनी शक्ति और सभ्यता दिखाने के लिये इसे अपनाते हुए दूसरों को भी मजबूर करते हैं। कितनी गंदी हरकतें होती हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है। किसी धार्मिक या सामाजिक संगठन ने उठकर कभी रैगिंग के नाम पर अनाचार करने वालों के खिलाफ यह कहते हुए प्रदर्शन नहीं किया कि यह हमारे धर्म या संस्कृति के विरुद्ध है-न ही किसी पीड़ित को सांत्वना दी। सारा समाज एक तरफ बैठा तमाशा देख रहा है और क्या मजाल कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग इसके विरुद्ध को अभियाना छोड़े या सामाजिक या धार्मिक कार्यकर्ता विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में छात्रों से सतत संपर्क कर उन्हें समझायें कि ‘यह रैगिंग प्रथा हमारे धर्म के खिलाफ है‘ या कि ‘यह हमारी संस्कृति के खिलाफ है’।
आस्ट्रेलिया की जितनी जनसंख्या है उतनी तो हमारे देश में हर वर्ष आबादी में बढ़ जाती है। क्षेत्रफल की दृष्टि से आस्ट्रेलिया हमसे बहुत बड़ा है इसलिये इस बात की संभावना है कि आगे चलकर वहां एशियाई देशों के लोगों की संख्या निश्चित रूप से बढ़ेगी। वहां की कानून व्यवस्था भी इतनी खराब नहीं है कि बाहर से आये लोगों को संरक्षण नहीं दिये जाने की शिकायत मिलती हो। क्रिकेट में उसके खिलाड़ियों द्वारा किया गया नस्लवादी व्यवहार पूरे देश का प्रमाण नहीं माना जा सकता। जहां तक कानून व्यवस्था का सवाल है तो अपने देश में ही विदेशी युवतियों के साथ दुर्व्यवहार की अनेक घटनायें हो चुकी हैं पर किसी ने समूचे भारत को इसके लिये दोषी नहीं ठहराया। अगर विदेशी लोग भी अगर इस तरह की टिप्पणियां करते तो क्या हमें बुरा नहीं लगता?
चर्चा करते हुए याद आया कि हमारे हिंदी ब्लाग जगत के एक प्रसिद्ध ब्लाग लेखक भी आस्ट्रेलिया में रहते हैं। उनका कोई पाठ इस संबंध में नहीं दिखा-हो सकता है उन्होंने लिखा हो और इस लेखक की दृष्टि में नहीं आया हो। कहने का तात्पर्य है कि ऐसी घटनाओं की निंदा करते हुए लिखना कोई बुरी बात नहीं है पर पूरे राष्ट्र पर आक्षेप करना ठीक नहीं है। यह ठीक है कि आक्रामक पाठ लिखकर आप दूसरों को प्रभावित करना चाहते हैं पर कहने वाले सच तो कह ही जाते हैं। यह अलग बात है कि कोई पहले आपकी बात का समर्थन कर फिर अपनी बात इस ढंग से कह जाता है कि आप समझते नहीं पर दूसरा यह तसल्ली कर लेता है कि उसने अपनी बात कह दी।
अंतर्जाल पर लिखने-पढ़ने का यही एक मजा भी है। पाठों के साथ उनकी टिप्पणियों में भी कोई ऐसी बात हो सकती है जो आपको अलग से हटकर सोचने के लिये बाध्य कर देती है। बालासुब्रण्यम साहब की टिप्पणी बड़ी थी पर उसमें रैगिंग का मुद्दा उठाना इस बात का प्रमाण था कि हिंदी के ब्लाग लेखक अपने समाज के गिरेबां में झांकते नजर आयेंगे जो कि मुख्यधारा-समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों-में नहीं देखने को मिलता है।
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