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Friday, February 15, 2008

अपने अस्तित्व के निशान-कविता साहित्य

पूरी जिन्दगी जुटाते सामान
पर कितना ले पाते उससे काम
फ़िर भी रुकते नहीं
चले जा रहे अंधेरे रास्ते पर
रौशनी की तलाश में
शायद मिल जाए खुशी का निशान

एक सामान जुटाते
दूसरों के नाम सामने आ जाते
कल जो लिया था उसे आज पुराना पाते
बाजार से लाने की करते कवायद
कुछ फ़िर नया
लोग भी नए नाम सुझाते
चलता जाता है अनवरत यह क्रम
अपने चलने का होता हमें भ्रम
जमीन पर चलते तो कार की चाहत होती
कार में होते, चाहते हवा में उड़ने वाला विमान

समान टूटते और बिखरते जाते
हम उन्हें कबाड़ में भेजते जाते
हर बार नया पाने की चाहत में चले जाते
चलाता है जो मन
नहीं समझते इशारे
कभी-कभी उससे बात करते तो
यह पाते जान
वह चाहता है खामोशी से दुनिया को
एक दृष्टा बनकर देखना
जब जुटाते हम उसके चैन के लिए समान
हम अपने होने के प्रमाण इस
दुनिया में छोड़ना चाहते और
वह चाहता देखना
अपने अस्तित्व के निशान

1 comment:

राजीव तनेजा said...

इच्छाएं कभी मरती नहीं...और ...और फिर और पाने की चाहत पता नहीं कहाँ...किस ओर ले जाएगी....

फिर एक दूसरा ख्याल भी उमड़ता है दिल में कि अगर आगे बढने....और खरीदने की इच्छा ही नहीं होगी तो कहीं आदमी काम करना...मेहनत करना ही बन्द ना कर दे...

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