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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Friday, June 6, 2008
यौन साहित्य में कोई मलाई नहीं होती-व्यंग्य
किसी भी भाषा में यौन शिक्षा इतनी लोकप्रियता नहीं पाता जितनी चर्चा उसकी की जाती है। दरअसल इस साहित्य का प्रचार प्रसार बढ़ा केवल इसलिये कि अब शादी बड़ी आयु में होने लगी है और जब तक शादी नहीं हो युवा वर्ग इसके प्रति आकर्षक रहता है। इसी वर्ग में पाठक और दर्शक अधिक होते है इसलिये फिल्म, टीवी कार्यक्रम और समाचार पत्र अपने ग्राहक ढूंढते हैं और कुछ लेखक-जिनको यौन और यौवन की जानकारी सामान्य आदमी से अधिक नहीं होती- अपनी रचनाओं के पाठक बनाते हैं।
पिछली बार मेरे एक लेख पर एक ब्लाग लेखक ने बड़ी जोरदार टिप्पणी की थी हालांकि उसने वह लेख पूरा पढ़ा नहीं था। मैंने एक आलेख में लिखा था कि ‘पशु-पक्षियों और अन्य जीवों में यौन संबंध बनाये जाते हैं पर उनको किसी यौन शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती।‘ टिप्पणी करने वाले ने लिखा कि ‘कुत्ते बिल्ली भी खाना खाते हैं पर उनको पाक कला की शिक्षा नहीं दी जाती।’
यह टिप्पणी व्यंग्यात्मक थी और उसका जवाब देने का मन होने के बावजूद मैंने नहीं दिया। मेरा वह आलेख मनुष्य की समस्त इंद्रियों के बारे में था। जहां तक आदमी के पाक कला में प्रवीण होने का सवाल है तो यह जरूरी नहीं है कि वह कहीं इसके लिये प्रशिक्षण लेने जाये। लड़कियां अपनी मां को देखते हुए ही सीख लेतीं हैं। अगर पाक कला सिखाने वाले केंद्र न भी हों तो चल जायेगा। कुत्ते बिल्ली इसलिये नहीं बनाते क्योंकि वह अपने मां बाप को ऐसा करते हुए नहीं देखते। मतलब साफ है कि देह में स्थित इंद्रियों के लिऐ किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं है। फिर भी अगर पाक कला सीखने कोई जाता है तो उसमें मूर्खता की गुंजायश कम है। वहां लड़के लड़कियां साथ भी पाक कला सीखें तो कोई बात नहीं है। फिर पाक कला में भोजन और अन्य खाद्य सामग्रियां-जहां तक मेरी जानकारी है-सिखाईं जाती हैं। कम अधिक भोजन बन जाये तो चल जायेगा। नमक मिर्ची कम है तो भी पाक कला केंद्र में चल जायेगा। फिर भोजन तो चाहे जब खाया जा सकता है मगर यौन के लिए रात्रि का समय तय है। भोजन तो आदमी बचपन से लेकर पचपन तक करता है पर यौन संबंध की सीमायें हैं। अगर लोगों के लिए यौन शिक्षा केंद्र खोल दिये जायें और वहां भी भोजन की तरह शिक्षा दी जाये तो क्या हाल होगा? यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
यह तो था उनकी बात का जवाब। यौन साहित्य लिखने वाले मानसिक रूप से बीमार होते हैं। यह इसलिये मै कह रहा हूं कि एक बार मैं खुद लोकप्रियता और पैसा प्राप्त करने के लिऐ यौन साहित्य लिखने का प्रयास कर रहा था। वह तो मेरे अध्यात्मिक संस्कार इतने प्रबल है कि चाहे जिस दुव्र्यसन में पड़ जाऊं निकल आता हूं-हां, आजकल तंबाकू से निकलने का प्रयास कर रहा हूं। उस समय की मुझे याद है कि मेरे मन की क्या हालत हो जाती थी? कुछ लोगों ने भ्रम फैला रखा है कि भारत में यौन शिक्षा का अभाव अनेक तरह की व्याधियों का जन्म दे रहा है। सिवाय मूर्खता के यह बातें और कुछ नहीं है। मैं पहले भी कह चुका हूं कि दक्षिण एशिया को उष्णकटिबंधीय क्षेत्र माना जाता है-तेज गर्मी से यहां लोगों में आलस अधिक रहता है और इसलिये उनके आर्थिक विकास पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। गरीबी से जूझते लोगो के लिये लंबे समय तक यौन संबंध ही एक मनोरंजन का साधन रहा है। वैसे पश्चिम में कोई कामदेव नहीं हुआ है इसलिये यौन शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है पर अपने देश में तो कामदेव पूजे जाते हैं और उनकी कृपा से लोगों की शक्ति अधिक होती है। इसके बावजूद यहां यौन साहित्य इसलिये अधिक प्रचलित हो गया है क्योंकि हमारा सभ्य समाज पश्चिमी शैली अपनाने लगा है। पहले छोटी ही आयु में शादी हो जाती थी और परिवार के लोग ही यौन शिक्षक की भूमिका बखूबी निभा लेते थे। अब बढ़ती शिक्षा के साथ बड़ी आयु में विवाह हो रहा है। फिर उस पर पश्चिम में अविष्कार की गयी चीजें यहां लोगों के लिये दहेज का सामान बन गयी हैं इसलिये चालीस तक की आयु के लड़के-विवाह न होने के कारण वह लड़के ही कहलाते है- उचित मूल्य न मिलने के कारण कुंवारे बैठे रहते हैं तो लड़कियों के पालक भी किसी राजकुमार की तलाश में रहते है और उनकी उमर भी बढ़ती जाती है। अपनी इंद्रियों पर जब बड़े-बड़े ऋषि मुनि नियंत्रण नहीं रख पाते तो आम आदमी की स्थिति ही क्या कही जा सकती है।
ऐसे मे यौन साहित्य वालों की बन आती है। मैंने एक ऐसे नाम को अपने सभी ब्लाग/पत्रिकाओं पर पाठों का पुंछल्ला बनाया जहां लोग यौन साहित्य की तलाश में जाते हैं और एक दो ब्लाग@पत्रिका का मुख ही बना दिया-बाद में नारद और चिट्ठाजगत की वजह से दो जगह से हटा लिया। आजकल मै देख रहा हूं वहां से पाठक आते हैं। उन ब्लाग/पत्रिकाओं पर भी आते हैं जो ब्लागवाणी पर नहीं है। मुझे प्रयोग करने होते हैं तो मैं अपने ब्लाग पर ही करता हूं इसलिये मैंने अनुभव किया कि लोगों की यौन साहित्य की भूख कम नहीं है। शरीर के अंगों के नाम पढ़कर कितने खुश होते है जैसे कोई मलाई खा रहे हों। वह अंग जो चोबीस घंटे उनके साथ हैं फिर भी उनको पढ़कर अपना विवेक खोते हुए भ्रमित होकर ऐसे साहित्य की तरफ जाते हैं। इसका कारण यह है कि बड़ी आयु के युवा वर्ग के लिऐ यौन क्रीड़ा एक रहस्यमय चीज होती है-केवल उन लोगों के लिए जो अनैतिक कामों में नही लगे रहते-और मनोरंजन के नाम पर उसे उनको पढ़ना अच्छा लगता है।
यौन साहित्य भी नंबर एक का कचड़ा है। अकल है नहीं और अंगों के नाम लिखकर अपने आपको श्रेष्ठ समझते हैं। एक दिलचस्प बात यह है कि सभी छद्म नाम से लिख रहे हैं। जो असली नाम से लिख रहे हैं उसमें ऐसा कुछ नहीं होता जिसे यौन साहित्य कहा जाये? ब्लागस्पाट के ब्लाग पर गलती से व्यस्क सामग्री दिखाने की सूचना पर हां लिख देते हैं फिर कहते हैं कि किसी ने चेतावनी लगा दी है। उस दिन एक चर्चा पढ़ी थी। सारे ब्लागर लगे थे उसे सहानुभूति जताने के लिये कि उसके ब्लाग पर तो कोई ऐसी सामग्री नहीं है जो आपत्तिजनक है। सैक्स शब्द ही ऐसा है कि आदमी की अकल पर ताला लगा देता है। जब मैंने पढ़ा तो लिख कर आया कि भाई जरा अपना ब्लाग चेक करो। सैटिंग में जाओ और व्यस्क सामगी पर नहीं लिखो। एक दिन लिख कर आया फिर दूसरे दिल वही चर्चा । भगवान ही जानता है कि इस बहाने प्रचार कर रहे है या भ्रमित है। किसी ने कहा डोमेन ले लो। वह ब्लाग लेखक डोमेन भी ले आया मगर चेतावनी नहीं हटी। अब बताओं जब ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर ही डोमेन है तो वह काम तो अपने नियम से करेगा। हो सकता है कि यह डोमेन और ब्लाग का प्रचार हो क्योंकि यह चर्चा केवल ब्लाग लेखकों के पास ही जाती है और वहीं डोमेन के ग्राहक हो सकते हैं। मुझे तो लगा कि सैक्स के नाम से ऐसे ही प्रचार हो रहा है जैसे कभी ब्लाग लिखवाने के लिये ऐसे कथित सैक्स संबंधी ब्लाग लिखे गये। सच क्या है यह मैं नहीं जानता। सैक्स शब्द ही ऐसा है कि अच्छे भले आदमी का दिमाग काम करना बंद कर देता है।
आशय यह है कि जिनके लिये वास्तविक यौन संबंध कठिन है वही ऐसे यौन साहित्य के चक्कर में पड़कर अपना समय और बुद्धि नष्ट करते हैं। मगर किया क्या जाये? लोगों ने स्वयं अपनी यूवावस्था में जो आनंद उठाया पर एक उमर के बाद भूल गये और अपने बच्चों की मन की स्थिति पर दृष्टिपात नहीं करते। अपनी सामाजिक स्थिति बनाये रखने के लिए दहेज की रकम कम करने के लिए तैयार नहीं होता। सो समाज में ऐसे युवाओं का प्रतिशत बढ़ रहा है जो भ्रामक साहित्य का शिकार हो जाता है। हैरान तो तब होती है जहां यौन साहित्य की भनक हो वहां लोग ऐसे दौड़े जाते है जैसे कि मलाई मिल रही हो। वही हाल लेखकों और प्रकाशकों का भी है। वह सामग्री प्रचार भी ऐसे धीमे और प्रभावी स्वर में करते है जैसे मलाई बेच रहे हों। यौन साहित्य हो यौवन साहित्य इसकी आवश्यकता इतनी नहीं है जितनी बताई जाती है। फिर अंतर्जाल पर लिखने से क्या फायदा यहां तो ऐसी तस्वीरें वैसे ही खुलेआम उपलब्ध हैं जिनको कोई हिंदी ब्लाग लेखक शायद अपने ब्लाग पर दिखाना चाहे। मैंने जब से अपने ब्लाग/पत्रिकाओं के लिए फोटो छांटने का काम शुरू किया है तब से ऐसी तस्वीरे देखकर मेरा मन भी विचलित हो जाता है कि आंखें बंद कर अगले पृष्ठ के लिए क्लिक कर देता हूं। वह लोग अगर सोचते हैं कि अगर इस तरह गंदी गालियां लिखकर हिट हो रहे हैं तो सोचते रहें। वैसे हिट होने या धन कमाने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनके पाठक अधिक है क्योंकि यहां दस पाठक भी इतने ताकतवार है कि वह हजार का आंकड़ा पार लगा सकते है-ऐसा अनेक ब्लाग लेखक अपने पाठों में लिख चुके हैं। बहरहाल जिस नाम के सहारे यहा यौन साहित्य अंतर्जाल चल रहा है वहां अपना बोर्ड भी लगा रखा है और वहां मेरे सारे ब्लाग सत्साहित्य के साथ मौजूद हैं। इसमें संदेह नहीं है कि वहां पाठक् अधिक आते हैं पर संभव है कि जब उनको उत्कृष्ट साहित्य-मेरे कुछ ब्लाग लेखक मेरे साहित्य को भी इसी श्रेणी में रखते हैं इसलिये लिख रहा हूं-पढ़ने को मिल जाये तो वह उसकी तरफ मुड़ जायें। मेरा मानना है कि यौन साहित्य से अधिक सत्साहित्य पढ़ने वालों की संख्या अधिक है।
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2 comments:
आपके लेख को पढकर लगा कि आप अपने आलेख में तय नहीं कर पाये हैं कि आप यौन साहित्य पर लिख रहे हैं अथवा यौन शिक्षा पर । कहीं कहीं आपने इन दोनों विषयों को एक ही समझ कर लिखने का प्रयास किया है ।
आपका लेख यौन साहित्य के सन्दर्भ में ठीक मालूम होता है परन्तु यौन शिक्षा के सन्दर्भ में भटका हुआ और पूर्वाग्रह से युक्त ।
साभार,
malai nahi makhkhan hota hai. proof ki galati hai.
shashibhuddin thanedar
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