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Friday, July 25, 2008

मिट्टी और मांस की मूर्ति-लघुकथा

मूर्तिकार फुटपाथ पर अपने हाथ से बनी मिट्टी की भगवान के विभिन्न रूपों वाली छोटी बड़ी मूर्तियां बेच रहा था तो एक प्रेमी युगल उसके पास अपना समय पास करने के लिये पहुंच गया।
लड़के ने तमाम तरह की मूर्तियां देखने के बाद कहा-‘अच्छा यह बताओ। मैं तुम्हारी महंगी से महंगी मूर्ति खरीद लेता हूं तो क्या उसका फल मुझे उतना ही महंगा मिल जायेगा। क्या मुझे भगवान उतनी ही आसानी से मिल जायेंगे।’

ऐसा कहकर वह अपनी प्रेमिका की तरफ देखकर हंसने लगा तो मूर्तिकार ने कहा-‘मैं मूर्तियां बेचता हूं फल की गारंटी नहीं। वैसे खरीदना क्या बाबूजी! तस्वीरें देखने से आंखों में बस नहीं जाती और बस जायें तो दिल तक नहीं पहुंच पाती। अगर आपके मन में सच्चाई है तो खरीदने की जरूरत नहीं कुछ देर देखकर ही दिल में ही बसा लो। बिना पैसे खर्च किये ही फल मिल जायेगा, पर इसके लिये आपके दिल में कोई कूड़ा कड़कट बसा हो उसे बाहर निकालना पड़ेगा। किसी बाहर रखी मांस की मूर्ति को अगर आपने दिल में रखा है तो फिर इसे अपने दिल में नहीं बसा सकेंगे क्योंकि मांस तो कचड़ा हो जाता है पर मिट्टी नहीं।’
लड़के का मूंह उतर गया और वह अपनी प्रेमिका को लेकर वहां से हट गया

यह लघु कथा मूल रूप से ‘दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका’ पर लिखा गया है। इसके प्रकाशन की कहीं अनुमति नहीं है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, July 20, 2008

कतरा कतरा रौशनी हम ढूंढते रहे-हिंदी शायरी

उनसे दूरी कुछ यूं बढ़ती गयी
जैसे बरसात का पानी किनारे से
नीचे उतर रहा हो
वह रौशनी के पहाड़ की तरफ
बढ़ते गये और
अपने छोटे चिराग हाथ में हम लिये
कतरा कतरा रौशनी ढूंढते रहेे
वह हमसे ऐसे दूर होते गये
जैसे सूरज डूब रहा हो

उन्होंने जश्न के लिये लगाये मजमे
घर पर उनके महफिल लगी रोज सजने
अपने आशियाना बनाने के लिये
हम तिनके जोड़ते रहे
उनके दिल से हमारा नाम गायब हो गया
कोई लेता है उनके सामने अब तो
ऐसा लगता है उनके चेहरे पर
जैसे वह ऊब रहा हो
..................................

दीपक भारतदीप

Friday, July 18, 2008

कभी फिर अँधेरे में टकराएंगे-हिन्दी शायरी


बरसात की अंधेरी रात में
वह मिले और बिछड़े
तब सोचा था कि
चंद्रमा की रौशनी होने पर
हम उनको जरूर ढूंढ पायेंगे
देखा नहीं था उनका चेहरा
इसलिये जब भी चांद निकलता है
उसमें उनका चेहरा नजर आता है
इंतजार है अब इसका
कभी अंधरे में फिर टकरायेंगे
तभी कोई रिश्ता जोड़ पायेंगे

..................................
दीपक भारतदीप

Sunday, July 6, 2008

यूं तो जमाना दोस्त बन जाता है-हिन्दी शायरी

दूर भी हों पर उनके होने के
अहसास जब पास ही होते
वही दोस्त कहलाते हैं
यूं तो पास रहते हैं बहुत लोग
बहुत सारी बातें बतियाते
पर सभी दोस्त नहीं हो जाते हैं
जिनकी आवाज न पहुंचती हो
पर शब्द कागज की नाव पर
चलकर पास आते हैं
और दिल को छू जाते हैं
ऐसे दोस्त दिल में ही जगह पाते हैं

यूं तो जमाना दोस्त बन जाता है
पर परेशान हाल में छोड़ जाता है
जिनके दो शब्द भी देते हों
इस जिंदगी की जंग में लड़ने का हौंसला
वही दोस्त दूर होते भी
पास हो जाते हैं

Wednesday, July 2, 2008

अपने अंदर ढूंढे, मिलता तभी चैन है-हिंदी शायरी

घर भरा है समंदर की तरह
दुनियां भर की चीजों से
नहीं है घर मे पांव रखने की जगह
फिर भी इंसान बेचैन है

चारों तरफ नाम फैला है
जिस सम्मान को भूखा है हर कोई
उनके कदमों मे पड़ा है
फिर भी इंसान बेचैन है

लोग तरसते हैं पर
उनको तो हजारों सलाम करने वाले
रोज मिल जाते हैं
फिर भी इंसान बेचैन है

दरअसल बाजार में कभी मिलता नहीं
कभी कोई तोहफे में दे सकता नहीं
अपने अंदर ढूंढे तभी मिलता चैन है
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Thursday, June 19, 2008

अपनी ही कहानियां मस्तिष्क से निकल जातीं-हिन्दी शायरी

यूं तो वक्त गुजरता चला जाता
पर आदमी साथ चलते पलों को ही
अपना जीवन समझ पाता
गुजरे पल हो जाते विस्मृत
नहीं हिसाब वह रख पाता

कभी दुःख तो कभी होता सुख
कभी कमाना तो कभी लुट जाना
अपनी ही कहानियां मस्तिष्क से
निकल जातीं
जिसमें जी रहा है
वही केवल सत्य नजर आती
जो गुजरा आदमी को याद नहीं रहता
अपनी वर्तमान हकीकतों से ही
अपने को लड़ता पाता

हमेशा हानि-लाभ का भय साथ लिये
अपनों के पराये हो जाने के दर्द के साथ जिये
प्रकाश में रहते हुए अंधेरे के हो जाने की आशंका
मिल जाता है कहीं चांदी का ढेर
तो मन में आती पाने की ख्वाहिश सोने की लंका
कभी आदमी का मन अपने ही बोझ से टूटता
तो कभी कुछ पाकर बहकता
कभी स्वतंत्र होकर चल नहीं पाता

तन से आजाद तो सभी दिखाई देते हैं
पर मन की गुलामी से कोई कोई ही
मुक्त नजर आता
सत्य से परे पकड़े हुए है गर्दन भौतिक माया
चलाती है वह चारों तरफ
आदमी स्वयं के चलने के भ्रम में फंसा नजर आता
.....................................

दीपक भारतदीप

Friday, June 6, 2008

यौन साहित्य में कोई मलाई नहीं होती-व्यंग्य



किसी भी भाषा में यौन शिक्षा इतनी लोकप्रियता नहीं पाता जितनी चर्चा उसकी की जाती है। दरअसल इस साहित्य का प्रचार प्रसार बढ़ा केवल इसलिये कि अब शादी बड़ी आयु में होने लगी है और जब तक शादी नहीं हो युवा वर्ग इसके प्रति आकर्षक रहता है। इसी वर्ग में पाठक और दर्शक अधिक होते है इसलिये फिल्म, टीवी कार्यक्रम और समाचार पत्र अपने ग्राहक ढूंढते हैं और कुछ लेखक-जिनको यौन और यौवन की जानकारी सामान्य आदमी से अधिक नहीं होती- अपनी रचनाओं के पाठक बनाते हैं।

पिछली बार मेरे एक लेख पर एक ब्लाग लेखक ने बड़ी जोरदार टिप्पणी की थी हालांकि उसने वह लेख पूरा पढ़ा नहीं था। मैंने एक आलेख में लिखा था कि ‘पशु-पक्षियों और अन्य जीवों में यौन संबंध बनाये जाते हैं पर उनको किसी यौन शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती।‘ टिप्पणी करने वाले ने लिखा कि ‘कुत्ते बिल्ली भी खाना खाते हैं पर उनको पाक कला की शिक्षा नहीं दी जाती।’
यह टिप्पणी व्यंग्यात्मक थी और उसका जवाब देने का मन होने के बावजूद मैंने नहीं दिया। मेरा वह आलेख मनुष्य की समस्त इंद्रियों के बारे में था। जहां तक आदमी के पाक कला में प्रवीण होने का सवाल है तो यह जरूरी नहीं है कि वह कहीं इसके लिये प्रशिक्षण लेने जाये। लड़कियां अपनी मां को देखते हुए ही सीख लेतीं हैं। अगर पाक कला सिखाने वाले केंद्र न भी हों तो चल जायेगा। कुत्ते बिल्ली इसलिये नहीं बनाते क्योंकि वह अपने मां बाप को ऐसा करते हुए नहीं देखते। मतलब साफ है कि देह में स्थित इंद्रियों के लिऐ किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं है। फिर भी अगर पाक कला सीखने कोई जाता है तो उसमें मूर्खता की गुंजायश कम है। वहां लड़के लड़कियां साथ भी पाक कला सीखें तो कोई बात नहीं है। फिर पाक कला में भोजन और अन्य खाद्य सामग्रियां-जहां तक मेरी जानकारी है-सिखाईं जाती हैं। कम अधिक भोजन बन जाये तो चल जायेगा। नमक मिर्ची कम है तो भी पाक कला केंद्र में चल जायेगा। फिर भोजन तो चाहे जब खाया जा सकता है मगर यौन के लिए रात्रि का समय तय है। भोजन तो आदमी बचपन से लेकर पचपन तक करता है पर यौन संबंध की सीमायें हैं। अगर लोगों के लिए यौन शिक्षा केंद्र खोल दिये जायें और वहां भी भोजन की तरह शिक्षा दी जाये तो क्या हाल होगा? यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
यह तो था उनकी बात का जवाब। यौन साहित्य लिखने वाले मानसिक रूप से बीमार होते हैं। यह इसलिये मै कह रहा हूं कि एक बार मैं खुद लोकप्रियता और पैसा प्राप्त करने के लिऐ यौन साहित्य लिखने का प्रयास कर रहा था। वह तो मेरे अध्यात्मिक संस्कार इतने प्रबल है कि चाहे जिस दुव्र्यसन में पड़ जाऊं निकल आता हूं-हां, आजकल तंबाकू से निकलने का प्रयास कर रहा हूं। उस समय की मुझे याद है कि मेरे मन की क्या हालत हो जाती थी? कुछ लोगों ने भ्रम फैला रखा है कि भारत में यौन शिक्षा का अभाव अनेक तरह की व्याधियों का जन्म दे रहा है। सिवाय मूर्खता के यह बातें और कुछ नहीं है। मैं पहले भी कह चुका हूं कि दक्षिण एशिया को उष्णकटिबंधीय क्षेत्र माना जाता है-तेज गर्मी से यहां लोगों में आलस अधिक रहता है और इसलिये उनके आर्थिक विकास पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। गरीबी से जूझते लोगो के लिये लंबे समय तक यौन संबंध ही एक मनोरंजन का साधन रहा है। वैसे पश्चिम में कोई कामदेव नहीं हुआ है इसलिये यौन शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है पर अपने देश में तो कामदेव पूजे जाते हैं और उनकी कृपा से लोगों की शक्ति अधिक होती है। इसके बावजूद यहां यौन साहित्य इसलिये अधिक प्रचलित हो गया है क्योंकि हमारा सभ्य समाज पश्चिमी शैली अपनाने लगा है। पहले छोटी ही आयु में शादी हो जाती थी और परिवार के लोग ही यौन शिक्षक की भूमिका बखूबी निभा लेते थे। अब बढ़ती शिक्षा के साथ बड़ी आयु में विवाह हो रहा है। फिर उस पर पश्चिम में अविष्कार की गयी चीजें यहां लोगों के लिये दहेज का सामान बन गयी हैं इसलिये चालीस तक की आयु के लड़के-विवाह न होने के कारण वह लड़के ही कहलाते है- उचित मूल्य न मिलने के कारण कुंवारे बैठे रहते हैं तो लड़कियों के पालक भी किसी राजकुमार की तलाश में रहते है और उनकी उमर भी बढ़ती जाती है। अपनी इंद्रियों पर जब बड़े-बड़े ऋषि मुनि नियंत्रण नहीं रख पाते तो आम आदमी की स्थिति ही क्या कही जा सकती है।

ऐसे मे यौन साहित्य वालों की बन आती है। मैंने एक ऐसे नाम को अपने सभी ब्लाग/पत्रिकाओं पर पाठों का पुंछल्ला बनाया जहां लोग यौन साहित्य की तलाश में जाते हैं और एक दो ब्लाग@पत्रिका का मुख ही बना दिया-बाद में नारद और चिट्ठाजगत की वजह से दो जगह से हटा लिया। आजकल मै देख रहा हूं वहां से पाठक आते हैं। उन ब्लाग/पत्रिकाओं पर भी आते हैं जो ब्लागवाणी पर नहीं है। मुझे प्रयोग करने होते हैं तो मैं अपने ब्लाग पर ही करता हूं इसलिये मैंने अनुभव किया कि लोगों की यौन साहित्य की भूख कम नहीं है। शरीर के अंगों के नाम पढ़कर कितने खुश होते है जैसे कोई मलाई खा रहे हों। वह अंग जो चोबीस घंटे उनके साथ हैं फिर भी उनको पढ़कर अपना विवेक खोते हुए भ्रमित होकर ऐसे साहित्य की तरफ जाते हैं। इसका कारण यह है कि बड़ी आयु के युवा वर्ग के लिऐ यौन क्रीड़ा एक रहस्यमय चीज होती है-केवल उन लोगों के लिए जो अनैतिक कामों में नही लगे रहते-और मनोरंजन के नाम पर उसे उनको पढ़ना अच्छा लगता है।

यौन साहित्य भी नंबर एक का कचड़ा है। अकल है नहीं और अंगों के नाम लिखकर अपने आपको श्रेष्ठ समझते हैं। एक दिलचस्प बात यह है कि सभी छद्म नाम से लिख रहे हैं। जो असली नाम से लिख रहे हैं उसमें ऐसा कुछ नहीं होता जिसे यौन साहित्य कहा जाये? ब्लागस्पाट के ब्लाग पर गलती से व्यस्क सामग्री दिखाने की सूचना पर हां लिख देते हैं फिर कहते हैं कि किसी ने चेतावनी लगा दी है। उस दिन एक चर्चा पढ़ी थी। सारे ब्लागर लगे थे उसे सहानुभूति जताने के लिये कि उसके ब्लाग पर तो कोई ऐसी सामग्री नहीं है जो आपत्तिजनक है। सैक्स शब्द ही ऐसा है कि आदमी की अकल पर ताला लगा देता है। जब मैंने पढ़ा तो लिख कर आया कि भाई जरा अपना ब्लाग चेक करो। सैटिंग में जाओ और व्यस्क सामगी पर नहीं लिखो। एक दिन लिख कर आया फिर दूसरे दिल वही चर्चा । भगवान ही जानता है कि इस बहाने प्रचार कर रहे है या भ्रमित है। किसी ने कहा डोमेन ले लो। वह ब्लाग लेखक डोमेन भी ले आया मगर चेतावनी नहीं हटी। अब बताओं जब ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर ही डोमेन है तो वह काम तो अपने नियम से करेगा। हो सकता है कि यह डोमेन और ब्लाग का प्रचार हो क्योंकि यह चर्चा केवल ब्लाग लेखकों के पास ही जाती है और वहीं डोमेन के ग्राहक हो सकते हैं। मुझे तो लगा कि सैक्स के नाम से ऐसे ही प्रचार हो रहा है जैसे कभी ब्लाग लिखवाने के लिये ऐसे कथित सैक्स संबंधी ब्लाग लिखे गये। सच क्या है यह मैं नहीं जानता। सैक्स शब्द ही ऐसा है कि अच्छे भले आदमी का दिमाग काम करना बंद कर देता है।

आशय यह है कि जिनके लिये वास्तविक यौन संबंध कठिन है वही ऐसे यौन साहित्य के चक्कर में पड़कर अपना समय और बुद्धि नष्ट करते हैं। मगर किया क्या जाये? लोगों ने स्वयं अपनी यूवावस्था में जो आनंद उठाया पर एक उमर के बाद भूल गये और अपने बच्चों की मन की स्थिति पर दृष्टिपात नहीं करते। अपनी सामाजिक स्थिति बनाये रखने के लिए दहेज की रकम कम करने के लिए तैयार नहीं होता। सो समाज में ऐसे युवाओं का प्रतिशत बढ़ रहा है जो भ्रामक साहित्य का शिकार हो जाता है। हैरान तो तब होती है जहां यौन साहित्य की भनक हो वहां लोग ऐसे दौड़े जाते है जैसे कि मलाई मिल रही हो। वही हाल लेखकों और प्रकाशकों का भी है। वह सामग्री प्रचार भी ऐसे धीमे और प्रभावी स्वर में करते है जैसे मलाई बेच रहे हों। यौन साहित्य हो यौवन साहित्य इसकी आवश्यकता इतनी नहीं है जितनी बताई जाती है। फिर अंतर्जाल पर लिखने से क्या फायदा यहां तो ऐसी तस्वीरें वैसे ही खुलेआम उपलब्ध हैं जिनको कोई हिंदी ब्लाग लेखक शायद अपने ब्लाग पर दिखाना चाहे। मैंने जब से अपने ब्लाग/पत्रिकाओं के लिए फोटो छांटने का काम शुरू किया है तब से ऐसी तस्वीरे देखकर मेरा मन भी विचलित हो जाता है कि आंखें बंद कर अगले पृष्ठ के लिए क्लिक कर देता हूं। वह लोग अगर सोचते हैं कि अगर इस तरह गंदी गालियां लिखकर हिट हो रहे हैं तो सोचते रहें। वैसे हिट होने या धन कमाने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनके पाठक अधिक है क्योंकि यहां दस पाठक भी इतने ताकतवार है कि वह हजार का आंकड़ा पार लगा सकते है-ऐसा अनेक ब्लाग लेखक अपने पाठों में लिख चुके हैं। बहरहाल जिस नाम के सहारे यहा यौन साहित्य अंतर्जाल चल रहा है वहां अपना बोर्ड भी लगा रखा है और वहां मेरे सारे ब्लाग सत्साहित्य के साथ मौजूद हैं। इसमें संदेह नहीं है कि वहां पाठक् अधिक आते हैं पर संभव है कि जब उनको उत्कृष्ट साहित्य-मेरे कुछ ब्लाग लेखक मेरे साहित्य को भी इसी श्रेणी में रखते हैं इसलिये लिख रहा हूं-पढ़ने को मिल जाये तो वह उसकी तरफ मुड़ जायें। मेरा मानना है कि यौन साहित्य से अधिक सत्साहित्य पढ़ने वालों की संख्या अधिक है।

Monday, May 5, 2008

कुछ लोगों को वाकई हैं यौन शिक्षा की जरूरत-हास्य व्यंग्य

कभी कभी तो लगता है कि वाकई इस देश के लोगों का यौन शिक्षा की आवश्यकता है। खासतौर से उन लोगों को जो यौन पर कहानियां लिखकर कुछ करना चाहते हैं। अगर उन लोगों की कहानियां देखीं जायें तो ऐसा लगता है कि सब कुछ ठीकठाक होते हुए भी उनमें यौन शिक्षा का अभाव है।

जब मैं जेम्स हेडली का उपन्यास पढ़ता था तब मेरे मित्र मुझे ऐसी कहानियां किताबें पढ़ने की सलाह भी देते थे जिनमें कथित रूप से यौन कहानियां होतीं थीं। कुछ ने ऐसी किताबें मुझे दी भी। मैं उनको पढ़ता पर मुझे मजा नहीं आता था। मेरे मित्र इस पर हंसते थे पर उनमें से कोई भी लेखक नहीं बन पाया और आज जब मेरा लिखा कहीं पढ़ते हैं तो उसकी प्रशंसा करते हैं। एक बार मेरे दिमाग में भी ऐसा विचार आया तब सोचा कि ऐसी पत्रिकाओं में अपनी रचना भेज कर अपना नाम कमाने का प्रयास करूं। इसलिये कुछ ऐसी कहानियां लिखने का प्रयास किया जो लिखते समय ही मेरी देह में उत्तेजना भर देतीं थी। कोई रचना पूरी नहीं हुई पर जितनी लिखता फिर उनको नष्ट कर देता। अगर अपनी इन रचनाओं के साथ ऐसा व्यवहार न करता तो उसे रखता कहां? घर में किसी के हाथ लग जाती तो हालत खराब होती। इस विषय में अधिक लिखने का प्रयास नहीं किया पर जिनको लिखते देखता हूं उन पर मुझे दया आती है।

आप जानना चाहेंगे क्यों? उस समय कोई साहित्यक व्यंग्य या कहानी लिखता तो मन प्रफुल्लित होता था पर ऐसी देह हो उत्तेजित करने वाली रचना शरीर को निचोड़ कर रख देतीं थीं। फिर कागज फाड़ कर फैंक देता और जब अपने अंदर अवलोकन करता तो लगता था कि उसमें सारे तत्व मृतप्राय पड़े हुए हैं। इंद्रिय भारी तनाव में हैं और जैसे कोई भारी अपराध कर दिया हो।
हां, यह मजेदार बात है कि मेरी उन रचनाओं में भी शरीर के अंगों का जिक्र नहीं होता बल्कि कुछ ऐसी कहानियां होतीं कि अगर आज भी उनको थोड़ा सात्विक रूप दूं तो मुझसे कोई यह नहीं कहेगा कि वह कोई बेकार रचना है। एक दो व्यंग्य तो ऐसे भी थे जो मैने अपने मित्रों को इस शर्त पर पढ़ने के लिये दिये कि वह किसी को इस बारे में बतायें नहीं, तो उनका कहना था कि मुझे उनको कहीं छपने के लिये भेजना चाहिए क्योंकि उसमें ऐसा वैसा कुछ नहीं है जिसमें अश्लीलता हो पर कहीं न कही वह उत्तेजना पैदा करने वाली थीं, यह भी एक सत्य है।

अंतर्जाल पर मैंने देखा है कि कुछ लोग ऐसे ब्लाग बना कर देह के अंगों की क्रियाओं को खुलेआम लिख रहे हैं। मैं उनको रुकने के लिये नहीं कर रहा क्योंकि जिन यौन कहानियों को वह लिख रहे हैं उनकी आयु अधिक नहीं होती क्योंकि हमारे देह की जितनी भी इंद्रिय उनको एक समय शिथिल होना ही होता है। आंखें देखते-देखते थक जाती हैं, पेट भरा हो तो रोटी और पानी भी विष लगते हैं। हमारा यह मन किसी भी समय एक इंद्रियों के साथ अधिक समय तक नहीं रहता। शायद व्यंजना विधा में कही जा रही बात किसी के समझ में नहीं आये तो स्पष्ट कर दूं कि सुबह का समय भक्ति का, दोपहर का कर्म का, सायंकाल का विश्राम, मनोरंजन और काम का और रात्रि का समय मोक्ष (निद्रा का ) के लिये होता है। मन इंद्रियों से अलग भी बहुत कुछ देखना चाहता है और उसके लिये संगीत, साहित्य और सत्संग आदि जैसे विषय उसे संतुष्ट कर पाते हैं। जो ऐसी वैसी कहानियां लिख रहे हैं उनका लिखा इस मनोरंजक श्रेणी में नहीं आता।

ऐसी ही कहानियों के लेखक की चर्चा मैंने एक दो ब्लाग पर पढ़ी थी जिसे अंतर्जाल के लोग इस बारे में उनको मशहूर बताते हैं। मैने उसका नाम कभी नहीं सुना। दिल्ली के आसपास ऐसे अनेक प्रकाशक और लेखक हैं पर किसी की भारत में ख्याति नहीं है। हमारे बीच के ब्लाग लेखक को पता होना चाहिए कि हिंदी बिहार, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के अलावा मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे विशाल प्रदेशों मे भी ं प्रचलित है-दक्षिण भारत में भी अब हिंदी अपने पैर फैला चुकी है- और वहां तक उनके द्वारा बताये गये लेखकों की कोई पहचान नहीं पहुंची है। हो सकता है कि उत्तरप्रदेश, बिहार और दिल्ली के आसपास के प्रदेशों में कुछ ऐसे लेखक हों जो ऐसी कहानियों के लिये विख्यात हों पर उसका मतलब पूरी देश में प्रसिद्ध होना नहीं है-कुछ ब्लाग लेखकों अपनी यह भ्रम दूर कर लेना चाहिए।
कुल मिलाकर अगर कुछ लोगों को यह गलतफहमी है कि इससे ख्याति प्राप्त करे लेंगे तो अपने भ्रम का निवारण करें। एक मजेदार बात यह है कि यह सब लोग छद्म नामों से लिखते हैं और ख्याति मिलेगी तो भी उनको अपने असली नाम से उपयोग नहीं कर पायेंगे। वैसे मैने पहले ही कहा था कि मेरा इरादा किसी को रोकने या विरोध करने का नहीं है पर अगर मेरी बात से कुछ लोग अगर विचार कर अच्छी कहानियां लिखने के लिये मुड़ते हैं तो इसमें बुराई क्या है? वैसे भी उनकी कहानियां देखकर मुझे लगता है कि उनको यौन शिक्षा के लिये किसी अमेरिकी विशेषज्ञ की किताब पढ़ना चाहिए क्योंकि उनकी रचना फूहड़ लगती हैं। अगर कुछ उनमें रोमांच हो तो हम पढ़ लें, मगर अफसोस उनको पता ही नहीं के यौन पर रोमांचक और दिल को वास्तव में प्रसन्न करने वाली कहानियां कैसे लिखीं जातीं है।

transletin in inglish by googl tool
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Sometimes, it is sure that the people of this country's sex education is needed. Especially those who want some written stories on sex. If those stories be seen, it looks like everything is right, the lack of sex education among them.

When I read the novel of James hadlee was my friend when I read books such stories also give the advice which were allegedly to have sex stories. There has also given me some books. I read them I do not relish coming. My friends laugh at any of them had not become a writer when I wrote today, and found much to admire its read. It is also a time in my mind the thought that the idea of such magazines in the creation of an attempt to send his name to earn them. So some tried to write stories that the time to write all over my body let up in the excitement. Was not completed as the creation of a writing again destroyed them. If his work with such behaviour of these, it does not matter where? In the hands of a house, took the bad condition. The subject did not try to write more of those on whom I am writing to see compassion comes.

You would like to know why? At that time the story or write a satire laugh was on the mind of such a body be created to stimulate the body to let her put the squeezes. The paper gives फैंक and tore the inside of your review when it does, it was all the elements of the dead are lying. And a heavy sense of tension such as a heavy crime has become.
Yes, it is interesting that my work in the body's organs but does not mention that if some of the stories are still give them a little sattvik as the one I will say that he is not a waste created. There was also a two-satire, which I read your friends on the condition that he have for anyone not know about it, he says, was that I should send them elsewhere for Special do so because it is not something which Pornography has not said much of the excitement that was generated, it is also a fact.

I see that some people on a Blog by making the body's organs functioning of the public are writing. I do not stop them doing it because of the sex stories to their age are writing more because of our body does not sense them as it is a time to be lazy. Given the eyes - are tired look, stomach full of food and water, poison even begin. It is our mind at any time one senses with more time does not live up to. Perhaps in the mode vyanjana being said, do not understand a thing clear to me that, come the morning devotional time, the object of the afternoon, the rest of the evening, entertainment and night-time work and salvation (of sleep) is for Is. Different from the mind senses something more for him and wants to see music, literature and Satsang subject etc. are able to satisfy it. That such stories are writing their written does not appear in this entertaining series.

The author of such stories I have discussed a two-Blog, which was read out on the people of about them famous show. I never heard his name. Delhi around a number of publishers and authors are not on anyone's reputation in India. Author of Blog between us should know Hindi in Bihar, Uttar Pradesh, besides Delhi and Madhya Pradesh, Rajasthan and Chhattisgarh, such as California also is prevalent in the vast territories - now in Hindi in south India has already spread his legs - and there until his The authors of the report were not reached any identification. It is possible that Uttar Pradesh, Bihar and Delhi in the vicinity of some authors who are famous for such stories are on the means to be famous in the whole country is not - some of his Blog writers should take away the confusion.
Overall, if some people misunderstood the reputation that it will receive the prevention of their confusion. This is an interesting thing is that all the pseudo names and write them to your reputation will still not be able to use the real name. Although I already said that my intention was to prevent any protest or not to talk to me if some of the people if a good idea to write stories for turning evil, what is it? Even though their stories makes me think that sex education for them, a U.S. expert should read the book, because their creation slovenly appear. If some of them, we read romance, but regret they did not address the sexual adventures of the heart and really pleased with how stories are written.

Thursday, April 24, 2008

ज्ञान का व्यापार कर ले-हास्य कविता



पिता ने कहा अपने पुत्र से
‘बेटा नहीं लग रहा मन तेरा
स्कूल की पढ़ाई में तो
तो कहीं कोई गुरू ढूंढ ले
और जीवन का ज्ञान प्राप्त कर
अपना जीवन सफल कर ले’

पुत्र ने खुश होकर कहा
‘जी पिताजी आपने मेरे मन की बात कही
आज ही कोई गुरू ढूंढता हूं और
जो जीवन का ज्ञान देकर
मेरा जीवन सफल कर दे
चलूंगा उसी मार्ग पर
जहां मेरा मन सत्य के दर्शन कर ले’

सुनकर पिता को आया गुस्सा
और बोले
‘जब भी बात करना
उल्टी करना
मैं तुझे ज्ञान प्राप्त कर
उस मार्ग पर चलने के लिये नहीं कह रहा
मेरा मतलब तो यह है कि
तू भी ‘ज्ञान का व्यापार’ कर ले
अज्ञानियों के झुंड में उसे बेचकर
किसी तरह अपना घर भर ले’
....................................................
ज्ञान का व्यापार भी
अब बहुत फलफूल रहा है
जो बेचता है वह माया के झूले में झूल रहा है
कहने वाले भी कहें छोड़ दो
सुनने वाले भी दोहरायें कि
माया है महाठगिनी
नहीं है किसी की भगिनी
पकड़े हैं अपने हाथ में सभी अज्ञान
पर हर कोई ज्ञानी होने के अहंकार में फूल रहा है
....................................................

फूल और कांटे-हिंदी शायरी

करते है लोग लोग शिकायत
असली फूलों में अब वैसी
सुगंध नहीं आती
नकली फूलों में ही इसलिये
असली खुशबू छिड़की जाती
दौलत के कर रहा है खड़े नकली पहाड़ आदमी
पहाड़ों को रौदता हुआ
नैतिकता के पाताल की तरफ जा रहा आदमी
सुगंध बिखेर कर खुश कर सके उसे
यह सोचते हुए भी फूल को शर्म आती
...............................

नकली रौशनी में मदांध आदमी
नकली फूलों में सुगंध भरता आदमी
अब असली फूलों की परवाह नहीं करता
पर फिर भी उसके मरने पर अर्थी में
हर कोई असली फूल भरता
भला कौन मरने पर उसकी सुगंध का
आनंद उठाना है
यही सोचकर असली फूलों की
आत्मा सुंगध से खिलवाड़ करता
..............................
धूप में खड़े असली फूल ने
कमरे में सजे असली फूल की
तरफ देखकर कहा
‘काश मैं भी नकली फूल होता
दुर्गंधों ने ली मेरी खुशबू
इसलिये कोई कद्र नहीं मेरी
मै भी उसकी तरह आत्मा रहित होता’
फिर उसने डाली
नीचे अपने साथ लगे कांटो पर नजर
और मन ही मन कहा
‘जिन इंसानों ने कर दिया है
मुझे इतना बेबस
फिर भी मेरे साथ है यह दोस्त
क्या मै इनसे दूर नहीं होता
........................................

Thursday, April 17, 2008

यह कौनसी क्रिकेट-हास्य व्यंग्य

कल से क्रिकेट का कोई टूर्नामेंट शुरू हो रहा है अखबारों और टीवी पर उसका धूंआधार प्रचार होते देख एसा लगा कि क्रिकेट अब मुझसे अलविदा कह रही है।

पिछली बार इन्हीं दिनों ं मैने विश्व कप में भारत के हारने पर एक कविता लिखी थी अलविदा किकेट। उस समय सादा हिंदी फोंट में होने के कारण कोई उसे पढ़ नहीं पाया बाद में मैने इसे स्कैन कर एक ब्लाग रखा तो एक साथी ब्लागर ने लिखा कि ‘‘क्रिकेट तो मजे के लिये देखना चाहिए। कोई भी टीम हो हमें तो खेल का आनंद उठाना चाहिए। उन्होंने सभी टीमों के नाम भी गिनाए और उनमें एक भी टीम इसमें नहीं है। अगर मेरा वह यह लेख पढ़ें और उन्हें याद आये तो वह भी मानेंगे कि इस खेल से वह अब अपने को जोड़ नहीं पायेंगे।

एक अरब से अधिक आबादी वाले इस देश में बच्चा-बूढ़ा-जवान, स्त्री-पुरुष, डाक्टर-मरीज, प्रेमी-प्रेमिका, अमीर-गरीब, और सज्जन-दुर्जन सबके लिये यह खेल एक जुनून था तो केवल इसलिये कि कहीं न कहीं इसके साथ खेलने वाली टीमों के साथ उनका भावनात्मक लगाव था पर लगता है कि वह खत्म हो गया है। ऐसा लगता है कि क्रिकेट की यह प्रतियोगिता मेरी हास्य कविता का जवाब हो जैस कह रही हो ‘अलविदा प्यारे अब नहीं हम तुम्हारे’।

कोई आठ टीमें हैं जिनके नाम मैंने पढ़ें। उनमें से किसी के साथ मेरा तो क्या उन शहरों या प्रदेशें लोगों के जज्वात भी नही जुड़ सकते जिनके नाम पर यह टीमें हैं। क्या वहां लोग संवेदनहीन है जो उनको यह आभास नहीं होगा कि देश के क्रिकेट प्रेमियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा इससे अलग हो गया है। कहते हैं कि क्रिकेट ने इस देश को एक किया और विभाजित क्रिकेट को देखकर क्या कहें?

लोगों के पास बहुत सारे संचार और प्रचार माध्यम हैं और सब जानने लगे हैं। लोगों को एक रखने के लिये वैसे भी क्रिकेट की जरूरत नहीं थी पर जिस तरह यह प्रतियोगिता शुरू हो रही है और उसमें जबरन लोगों की दिलचस्पी पैदा करने की जो कोशिश हो रही है वह विचारणीय है। अखबारों ने लिखा है कि इस पर करोड़ों रुपये को खेल होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें वह सब कुछ खुलेआम होगा जो पहले पर्दे के पीछे होता था। अब आम क्रिकेट प्रेमी को किसी प्रकार की शिकायत का अधिकार नहीं है क्योंकि कौन देश के नाम उपयोग कर रहा है? पहले जिसे देखो वही टीम इंडिया की हार को भी शक से देख रहा है तो जीत को भी। तमाम चेहरे जो चमके उन पर लोग कालिख के निशान देखने लगते। अब उनका यह अधिकार नहीं है। शुद्ध रूप से मनोरंजन के लिये यह सब हो रहा है। अब यह फिल्म है या क्रिकेट हमारे पूछने या जानने का हक नहीं है।

इसके बावजूद कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनकी तरफ ध्यान देना जरूरी है। इसके सामान्य क्रिकेट पर क्या प्रभाव होंगे? चाहे कितना भी किया जाये अगर राष्ट्रीय भावनायें नहीं जुड़ने से आम क्रिकेट प्रेमी तो इससे दूर ही होगा तो फिर इसके साथ कौन जुड़ेगा? इसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेले जाने वाले मैचों पर क्या अच्छा या बुरा प्रभाव होगा? कहने को कहते हैं कि निजी क्षेत्र तो जनता की मांग के अनुसार काम करता है पर अब सारी शक्तियां निजी क्षेत्र के हाथ में है तो वह अपने अनुसार लोगों की मांग निर्मित करना चाहता है। देखा जाये तो टीवी चैनलो और अखबारों में इसके प्रचार का लोगों पर कोई अधिक प्रभाव परिलक्षित नहीं हो रहा तो क्या वह इसकी खबरों को प्रमुखता देकर इसके लिये लोग जुटाने के प्रयास में लगे रहेंगे? हर क्रिकेट प्रेमी के दिमाग में एक शब्द था ‘भारत’ जिससे क्रिकेट को भाव का विस्तार होता था तो क्या नयी क्रिकेट के पास ऐसा कोई अन्य शब्द है जो फिर उसे विस्तार दे।

बीस ओवर की प्रतियोगिता में भारत की जीत के बाद मेरा मन कुछ देर के लिये क्रिकेट की तरफ गया था पर अब फिर वही हालत हो गयी। कल शुरू होने वाली प्रतियोगिता के लिये जो टीमों की सूची देखी तो मैं अपने आपसे पूछ रहा था ‘‘यह कौनसी क्रिकेट’’। आखिर कौन लोग इसे देखकर आनंद उठायेंगे। इस देश में आमतौर से लोग कहते है कि‘‘हमारे पास टाईम नहीं है’’पर क्रिकेट के लिए उनके पास टाईम और पैसे आ जाते हैं। मतलब यह कि कुछ लोगों के पास पैसे हैं पर उसके खर्च करने और टाईम पास करने के लिए कोई बहाना नहीं है और उनके लिए यह एक स्वर्णिम अवसर होगा।
जो मैच टीवी पर दिखता है उसको देखने के लिये भूखे प्यासे मैदान पर पहुंच जाते है ऐसे लोगों की इस देश में कमी नहीं है। जहां तक उनकी क्रिकेट में समझ का सवाल है तो अधिकतर टीवी पर अपनी शक्ल दिखाते हुए यह कहते हैं कि हम अपने हीरो को देखने आये थे। अब वहां जाकर कोई पूछ नहीं सकते कि क्या वह तुम को टीवी पर नहीं दिखाई देता।
खैर, कुल मिलाकर क्रिकेट अब खेल नहीं मनोरंजन बन गया है यह अलग बात है कि हम जैसे ब्लागर के लिये तो ऐसे मैचों से अच्छा यही होगा कि कोई फालतू कविता लिखकर मजा ले लें आखिर छहः सो रुपया हम इस पर खर्च कर रहे है।

Wednesday, April 2, 2008

मयखाने से जब निकले थे-हिन्दी शायरी

मयखाने से जब निकले थे
आखिरी बार
तब सोचा न था कि अब
यहां फिर कभी नहीं हम नहीं आयेंगे
अब भी देखते हैं राह पर चलते हुए
मयखानों की तरफ
पर अस्पताल जाने के डर से
मूंह फेर जाते हैं
घर में रखी आधी बोतल देखकर भी
डर जाते हैं
मन में आते ही कब पी जायेंगे
पता नहीं कब मय के डर के मुक्त हो पायेंगे

Monday, March 31, 2008

इसलिए आत्मकथा नहीं लिखते-व्यंग्य

बरसों पहले कृश्न चंदर का उपन्यास देख ‘एक गधे की आत्मकथा’। पूरा नहीं पढ़ा क्योंकि उसमें गधे का बोलना-चालना समझ में नहीं आ रहा था। मैंने अपने जीवन में पढ़ने की शूरूआत पंचतंत्र की कहानियों और रामचरित मानस से की है इसलिये मुझे कई ऐसे उपन्यास भी नहीं समझ में आते जो बहुत प्रसिद्ध हैं। हां, ‘स्वर्णलता’ मेरा प्रिय उपन्यास है। बंगाली भाषा में लिखे गये इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद मैने पढ़ा और मुझे बहुत पंसद आया जिन लोगों ने इसे पढ़ा होगा वह समझ सकते हैं कि वह मुझे क्यों पसंद आया। मुझे संघर्ष करने वाले पात्र पसंद है और वह भी जब कहीं न कहीं विजेता होते हैं। कृश्न चंदर के उस उपन्यास को मैने अपने बचपन में पढ़ने की बहुत कोशिश की पर नहीं पढ़ सका। हां, तब ख्याल आता था कि अगर जिंदगी में अच्छा लेखन नहीं कर पाये तो आत्म कथा जरूर लिखेंगे।

अभी भी कई बार ख्याल आता है कि आत्मकथा लिख डालें पर होता यह कि हमें उस उपन्यास की याद आ जाती है और तब सोचते हैं कि उसमें लिखें क्या? उसका शीर्षक क्या लिखे? कहीं न कहीं तो लिखना पड़ेगा कि आत्मकथा। अपना नाम लिखें या मेरी आत्मकथा लिख ही काम चलाये। मुख्य मुद्दा तो है उसमें लिखने वाली संभावित सामग्री। हम उसमें लिखेंगे तो अपने तन और मन पर जो बोझ उठाते हुए ही दिखेंगे। हमारी जिन्दगी भी मस्खरी से कम नहीं रही। लिखने की दृष्टि से भी अपनी भाषा शैली कृश्न चंदर जैसी नहीं हो सकती। वैसे तो ब्लाग लेखक के रूप में कोई नाम नहीं है और लेखक के रूप में भी कोई पहचान नहीं है पर मान लीजिये कोई थोड़ा बहुत नाम पढ़कर किताब ले भी तो वह कहेगा यह तो आदमी की कम गधे की आत्मकथा अधिक लगती है। अपने तन और मन पर इतना बोझ तो कोई गधा ही उठा सकता है। इतना अपमान सहन करने की ताकत तो केवल गधे में ही होती है। ऐसी बहस तो केवल तो कोई गधा ही कर सकता है। एक के बाद एक गल्तियां तो कोई गधा ही कर सकता है।

हम खुद बदनाम हों तो कोई बात नहीं है पर अगर हमने वाकई उसमें कई सच लिखे तो कई ऐसे लोग बदनाम हो जायेगे जिनके मूंह पर हमने कभी उनकी मूर्खताऐं और बेईमानियां उनके मूंह पर नहीं कही। आदमी दूसरे को धोखा देता है या खुद खाता है इस प्रश्न की खोज अगर हमने अपनी आत्मकथा में दिखाई तो ऐसे लोगों पर कीचड़ के छींटे गिरेंगे जिनको वह हमसे छिपाने की आशा करते हैं। जीवन के सत्य के साथ भी बहूत लोग जीते हैं यह हमने देखा है पर अधिकतर लोग बनावटी जिन्दगी जीते हैं। अपने भ्रम को दूसरे शिक्षा और संस्कार के नाम पर थोपते हैं। चारों तरफ जीवन का ज्ञान देने वाले लोग अपने जीवन में जिस अज्ञान के अंधेरे में रहते हैं उसे देखकर उन पर कभी हंसी तो कभी तरस आता है। हमारे आसपास अपने जीवन के झंझावतों में फंसे लोग यह आशा तो करते हैं कि हम उनकी मदद करें पर उनकी शर्तों के अनुसार। हमने देखा है कि हमने ही दूसरों की शर्तें मानी पर हमारा अवसर आया तो अपनी शर्तें थोपीं फिर भी वैसी मदद भी नहीं की जैसी हमने अपेक्षा की थी।

मतलब यह कि अपनी आत्मकथा लिखने से अच्छा है कि किश्तों में कहानियों और व्यंग्यों में अपनी बात कहते रहें। इतनी बड़ी किताब लिखें और फिर अपने पैसे लेकर प्रकाशक ढूंढें और इस बात की कोई गारंटी नहीं कि कोई उसे पढ़ेगा। हमारे एक मित्र से जब हमने आत्मकथा लिखने की बात की तो वह बोला-‘‘अभी तुम अपने व्यंग्यों में हम पर बहुत फब्तियां कस जाते हो और किताब में भी कोई अपनी गल्तियां थोड़े ही लिखोगे हमारे ऊपर ही सब लिखोगे। मत लिखो क्योंकि अपने को जितना सही साबित करने की करोगे उतना ही झूठे माने जाओगे। अपनी रचनाओं में तुम अपनी चर्चा नहीं करते इसलिये कोई तुम्हारे नाम से अधिक चर्चा नहीं करता पर आत्मकथा में सब तुम्हें झूठा ही समझेंगे।’’

सो तमाम विचार कर हमने आत्मकथा लिखने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया।

Monday, March 24, 2008

यादों में बसते हैं वही-हिन्दी शायरी

यूं तो सभी पल गुजर जाते
पर कुछ दिल में समा जाते
मिलते हैं इस जिन्दगी के सफर में बहुत लोग
अपना मुकाम आते ही बिछड़ जाते
पर कुछ चेहरे
दिल की नजरों में जगह
हमेशा के लिए बना जाते
तारीख तो रोज बदल जाती हैं
पर कुछ तारीखे को हम
कभी नहीं भुला पाते
देखते हैं सब
सुनते और बोलते ढेर सारे शब्द
पर यादों में बसते हैं वही
जो हमारे दिल को छू पाते
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Tuesday, March 18, 2008

पहले इंसान बनकर जीना चाहता हूँ-हिन्दी शायरी

जलकर राख होने से पहले
लोगों के अंधेरों में रौशनी बिखेरना चाहता हूँ
टूटकर बिखर जाने से पहले
बेसहारों का सहारा बनना चाहता हूँ
आसमान में उड़कर चले जाने से पहले
जमीन पर उम्मीद के फूल
बिखेर देना चाहता हूँ
सर्वशक्तिमान की दरबार में जाने से पहले
इंसान बनकर जीना चाहता हूँ
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Monday, March 10, 2008

रहीम के दोहे:गरीब की सच में मदद करे वही होते बडे लोग

जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग


कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।

Sunday, March 9, 2008

संत कबीर वाणी:निन्दकों तुम जुग-जुग जियो

निन्दक हमरा जनि मरो, जीवो आदि जुगादि
कबीर सतगुरु पाइया, निन्दक के परसादि


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि हमारे निंदक तुम कभी मत मरो बल्कि युगों तक जियो क्योंकि तुम्हारे प्रसाद से ही हम सतगुरु को प्राप्त कर सकेंगे।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अक्सर कोई हमारी आलोचना करता है तो हम उत्तेजित हो जाते हैं और इतना तनाव ओढ़ लेते हैं कि अपने काम में गलतिया करते जाते हैं। हमें अपने आलोचकों से सीखना चाहिए। वह जो बात हमसे कहते हैं उसका सामने भले ही प्रतिवाद करें पर अकेले में आत्मचिन्तन अवश्य जरूर करना चाहिऐ। निन्दकों ने हमारा जो दुर्गुण हमें बताया हो उसे अपने अन्दर से हटाने की कोशिश करना चाहिए।

भक्ति मार्ग पर चलते हुए तो ऐसी आलोचना का सामना करना ही पड़ता है कि ''ढोंग कर रहे हो', 'तुम्हें तो और कोई काम ही नहीं है', और 'ऐसे भक्ति नहीं होती, हमारी तरह करो' आदि-आदि। कई बार तो लोग हंसी उडाते हैं। ऐसे में हमें आत्मचिन्त्तन जरूर करना चाहिए कि क्या वाकई उनका कहाँ सही है और क्या हमारा मार्ग गलत है। अगर नहीं तो सतत उस पर चलते हुए और अधिक मन लगाकर करना चाहिए।
इसी तरह अगर हम कोई काम कर रहे हैं और कोई आलोचक उसमें दोष निकालता है हमें उसे सुनना चाहिऐ और अपना दोष दूर करने का प्रयास करना चाहिए। इसके अलावा कोई हमारी कार्य प्रणाली में दोष बताता है हो तो उस पर सोचना चाहिए। हो सकता है कि उसमें बदलाव से अधिक सफलता मिले। कुल मिलाकर निन्दकों से विचलित नहीं होना चाहिए। कम से कम वह उन चाटुकारों से अच्छे होते हैं जो झूठी प्रशंसा कर हमें किसी बदलाव के लिए प्रेरित नहीं करते।

Thursday, February 28, 2008

अंतर्जाल है बहुत बड़ा मायाजाल-हास्य कविता

आया फंदेबाज और बोला
''क्या दीपक बापू लिखते हुए थकते नहीं हो
इस दुनिया में क्या हो रहा है तकते भी नहीं
अरे कहाँ अंतर्जाल पर
ब्लोग लिखते जा रहे हो
लोग नाम, नामा, इनाम और सम्मान
बटोरते हुए मशहूर हो जायेंगे
तुम जैसे तकते रह जायेंगे
हाथ घिसते रहोगे, पर लोगों तक नहीं पहुंच जायेंगे

टोपी पहनते हुए कहैं दीपक बापू
''यह है अंतर्जाल
बहुत बड़ा मायाजाल
और एक इंद्रजाल
यहाँ केवल नाम नहीं चलेंगे
जो जलाएगा शब्दों को दीपक की तरह
उसकी रौशनी में उनके नाम ही चमकेंगे
यहाँ बडे-बडे नाम नहीं चलेंगे
कर सकते हैं जो गागर में सागर की तरह
शब्दों के संजोने का काम
उनके ही डंके यहाँ बजेंगे
इनाम तो आखिर अलमारी में ही सजते
पर यहाँ शब्दों में भर देंगे चमक
उनके नाम ही आकाश में तैरेंगे
नाम तो होगा बहुतों के पास तिजोरी में
पर जिनके शब्दों में होगी सोने की चमक
वही यहाँ साहित्य के साहूकार बनेंगे
लिखीं गईं किताबें पडी रहतीं हैं कबाड़ में
पर यहाँ सभी शब्द अलग-अलग
किताब की तरह खुले में सांस लेते रहेंगे
उनकी सांस तब भी चलेगी
जब हम शवासन में आ जायेंगे
रोज करते हैं नये प्रयोग
तकनीकी श्रेणी के नहीं है तो क्या
कभी इसके भी विशेषज्ञ कहलायेंगे
जो बाजार में सजते
वह शब्दों के खेल नहीं समझते
जो समझते हैं वह सबसे बचते हुए
बस रोज लिखते जायेंगे
उनको नाम, नामा, इनाम और सम्मान
कहीं भी न मिले
पर बाद में उनके नाम पर दिए जायेंगे
यह अंतर्जाल बहुत बड़ा मायाजाल
चंद शब्द लिखकर जो
फंसेंगे माया के चक्कर में
वह यहाँ कभी विजेता नहीं कहलायेंगे
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Thursday, February 21, 2008

संत कबीर वाणी:सत्संग का सुख वैकुण्ठ में कहाँ

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय
जो सुख साधू संग में, सो वैकुण्ठ में न होय


संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं की जब मेरे को लेन हेतु रामजी ने बुलावा भेजा तो रोना आ गया क्योंकि जो सुख साधू और संतों की संगत से जो सुख मिलता है वह भला वैकुण्ठ में कहाँ मिलता है।

लुट सके तो लूट ले, संत नाम की लूट
पीछे फिर पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट


संत कबीरदास जी कहते हैं की भगवान के नाम का स्मरण कर ले नहीं तो समय व्यतीत हो जाने पर पश्चाताप करने से कुछ लाभ नहीं है।

Tuesday, January 15, 2008

स्वेट मार्डेन-अपने मन में शंका को स्थान न दें

आपकी योग्यता के बारे में लोगों का विचार कुछ भी क्यों न हो आप कभी अपने मन में शंका को स्थान न दें की जिस कार्य को करने की आपके मन में इच्छा है या जो कुछ आप बनाना चाहते हैं वह आप नहीं कर सकते । अपने व्यक्तिगत विश्वास को हर संभव ढंग से बढाईये। आप ऐसा कर सकते हैं। अपने मन में बार-बार यह शब्द दोहराते रहे -''मैं आत्मा हूँ सब कुछ कर सकता हूँ। मेरे लिए प्रत्येक कार्य संभव है। असंभव शब्द मूर्खों के शब्दकोष में मिलता है-स्वेट मार्डेन।

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