रिवाजों की अग्नि में नहीं जाना है जल।
इंसान बन गये हैं बुत
उनकी क्या परवाह करना
खुद भटके हुए लोगो के बताये रास्ते पर
चलकर नहीं है मरना
लोगों को अपनी बात कहनी है
अनसुना कर कर दो
वरना बेकार में ही सहनी है
रिश्तों में हक और फर्ज़ के
हिसाब अपने अपने ढंग से बने हैं
हर घर में झगड़े के लिये लोग तने हैं
देख रहे हैं सभी दूसरों के घरों में छेद
बंटा रहे हैं सब ध्यान लोगों को
ताकि नहीं देख सके कोई उनके भेद
बताते हैं लोग अपने अपने रास्ते
पुराने हवालों के देते हैं वास्ते
झूठ और फरेब की चादर ओढ़कर
कर रहे हैं इबादत
सर्वशक्तिमान को नहीं छोड़ा
वह कैसे इंसान को छोड़ देंगे बिना छल।।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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