अच्छा ही हुआ कि हड़ताल समाप्त हो गयी वरना इस ब्लाग/पत्रिका लेखक को अनेक प्रकार के भ्रम घेर लेते। हुआ यूं कि इस लेखक के बाईस ब्लाग ं पर पिछले तीन दिनों से जिस तरह पाठकों का आगमन हुआ वह हैरान करने वाला था। पिछले दो दिनों से यह संख्या हजार के पार गयी और आज भी इसकी संभावना लगती है कि कर ही लेगी। पांच ब्लाग पर यह संख्या आठ सौ के करीब है। आखिर ऐसा क्या हुआ होगा? जिसकी वजह से इस ब्लाग लेखक के ब्लाग पर इतने पाठक आ गये। हिंदी ब्लाग जगत में अनेक तेजस्वी ब्लाग लेखक हैं जिनके लिखे को पढ़ने में मजा आता है। मगर टेलीफोन कंपनी के कर्मचारियेां की हड़ताल हो तो फिर पाठक कहां जायें?
नियमित रूप से जिन ब्लाग लेखकों के पाठ हिंदी ब्लाग जगत को सूर्य की भांति प्रकाशमान करते हैं उनका अभाव पाठकों के लिये बौद्धिक रूप से अंधेरा कर देता है। शायद यही वजह है कि इस ब्लाग लेखक के चिराग की तरह टिमटिमाते पाठों में उन्होंने हल्का सा बौद्धिक प्रकाश पाने का प्रयास किया होगा।
यह एक दिलचस्प अनुभव है कि एक टेलीफोन कंपनी की हड़ताल से दूसरी टेलीफोन कंपनी के प्रयोक्ता ब्लाग लेखकों को पाठक अधिक मिल जाते हैं। दावे से कहना कठिन है कि कितने पाठक बढ़े होंगे और क्या यह संख्या आगे भी जारी रहेगी? वैसे तो इस लेखक के ब्लाग/पत्रिकाओं के करीब साढ़े सात सौ से साढ़े नौ सौ पाठ प्रतिदिन पढ़े जाते हैं। संख्या इसी के आसपास घूमती रहती है। पिछले तीन दिनों से यह संख्या तेरह सौ को पार कर गयी जो कि चैंकाने वाली थी। इसको टेलीफोन कर्मचारियों की हड़ताल का असर कहना इसलिये भी सही लगता है कि आज शाम के बाद पाठक संख्या कम होती नजर आ रही है और अगर यह संख्या एक हजार पार नहीं करती तो माना जाना चाहिये कि यही बात सत्य है।
इस दौरान पाठकों की छटपटाहट ने ही उनको ऐसे ब्लागों पर जाने के लिये बाध्य किया होगा जो उनके पंसदीदा नहीं है। पढ़ने का शौक ऐसा भी होता है कि जब मनपसंद लेखक या पत्रिका नहीं मिल पाती तो निराशा के बावजूद पाठक विकल्प ढूंढता है। यह अच्छा ही हुआ कि हड़ताल समाप्त हो गयी वरना इस लेखक को कितना बड़ा भ्रम घेर लेता? भले ही आदमी कितनी भी ज्ञान की बातें लिखता पढ़ता हो पर सफलता को मोह उसे भ्रम में डाल ही देता है। अब कभी ऐसे तीव्र गति से पाठ पढ़े जायें तो यह देखना पड़ेगा कि उसकी कोई ऐसी वजह तो नहीं है कि जिसकी वजह से पाठक मजबूर होकर आ रहे हों। यह हड़ताल का तिलिस्म था जो इतने सारे पाठक दिखाई दिये। अच्छा ही हुआ जल्दी टूट गया वरना तो भ्रम बना ही रहता।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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