मशहूर नहीं है
यूं हार जाता।
बिचारापन
संवेदना जुटा ले
प्रेम न पाता।
कुछ न किया
इसका खेद कभी
शोभा न पाता।
वह वक्त था
मौका पकड़ने का
अब न आता!
काठ की हांडी
चढ़ती बार बार
सच न आता!
वक्त काम का
बहानों में गुजारा
लौट न आता।
असफलता
पीछे ही चलती हैं
लेकर खाता!
बन बिचारा
भले भीड़ जुटा लें
साथी न पाता।
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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
ठीक बात है.
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