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Tuesday, August 4, 2009

नियंत्रण के कायदे-व्यंग्य कविता (samaj ke kayde-hasya vyangya kavita)

वासनओं पर जितना नियंत्रण करोगे
वह बढ़ती जायेंगी।
तुम उन्हें भगाने की कोशिश मत करो
वह तुम्हें दौड़ायेंगी।

समाज को स्वच्छ रखने का
ख्याल बहुत अच्छा है
पर यहां हर कोई नहीं बच्चा है
वस्त्र पहनने की शर्त
आदमी ने खुद ओढ़ी है
आचरण की तरफ जिंदगी स्वयं मोड़ी है
वस्त्रों के पैमाने शर्म का आधार मत बनाओ
अल्प वस्त्र पहनकर नर नारियां
बटोर रहे हैं तालियां
वस्त्रहीन न घूमने का कायदा
उनको दे रहा है आधुनिक बनने फायदा
परंपराओं का वास्ता देकर
उन्हें मत चमकाओ
तोड़ने की भावनाऐं अधिक बढ़ जायेंगी।

खत्म करो सारे नियंत्रण
भेजो वस्त्र हीनता को आमंत्रण
फिर भी सारा जमाना वस्त्र पहनेगा
वरना गर्मी में जल जायेगा
सर्दी में बर्फ की तरह जम जायेगा
पर अल्प वस्त्रों को दोहरा खेल
नहीं चल पायेगा
जब देंगे वस्त्रहीन उनको ललकारेंगे
अल्प वस्त्र वाले आधुनिकता के भ्रम से
और लोगों की वाह वाह से भागेंगे
समाज के चलने की है अपनी राह
अल्पवस्त्रों को देखकर क्यों भरते आह
सौदागर मनोरंजन के नाम पर खेल रहे हैं
भले लोग हतप्रभ होकर सब झेल रहे हैं
वस्त्रहीनों को भी खुलकर सड़क पर आने दो
कमाई शौहरत जिन्होंने अल्पवस्त्रों से
उनको भी चुनौती मिल जाने दो
मनोरंजन को खेल को बन जाने दो संघर्ष
मत करो अमर्ष
जिनको अपनी इज्जत प्यारी है
वह कोई तमाशा नहीं करेंगे
वस्त्र उतारने के खेल में
जो चढ़ गये है बुलंदियों पर
पर वह भी कोई आशा नहीं करेंगे
पर्दे पर रोज आयेंगे नये वस्त्रहीन नायक नायिकायें
बदल जायेंगी सारी परिभाषायें
कितना भी कोई शौहरत वाला क्यों न हो
वस्त्रहीन दिखने से घबड़ाता है
जब होगी अपने से अधिक बलशाली
वस्त्रहीन आदमी की चुनौती
मांगने लगेंगे पानी
सब जानते हैं कि वस्त्रहीनों से
सर्वशक्तिमान भी डरता है
अभी तक समाज पर हंस कर
उसी से बटोरी है वाह वाही
उसकी फब्तियां उनको दहलायेंगी।
.............................
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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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