मरीज किसी तरह बच पाया।
निकला उसके अस्पताल से
घर पहुंचकर ही सांस ले पाया।
कभी सिर में दर्द रहता
तो कभी पांव से चलते हुए तकलीफ होती
‘जान बच गयी लाखों पाये’
यही सोचकर तसल्ली कर सब सहता
एक दिन उसे वकील से मिलने का ख्याल आया।
उसने जाकर उसे सब हाल बताया।
वकील ने उसे
क्षतिपूर्ति का मुकदमा करने की दी सलाह
साथ में चिकित्सक को भी नोटिस थमाया।
अब तो बढ़ गया झगड़ा
बदले हालत में
मरीज खुशी से हो गया तगड़ा
इधर चिकित्सक को भी समझौते के लिये
लोगों ने समझाया।
दोनों अपने वकीलों के साथ मिले एक जगह
ढूंढने लगे झगड़े की सही वजह
मरीज और चिकित्सक के वकील ने
दोनों को समझौते की लिए राजी कराया।
चिकित्सक ने मरीज की दस हजार फीस में से
पांच हजार उसके वकील और
पांच हजार अपने वाले को थमाया।
दोनों ने अपने पैसे अपनी जेब में रख लिये
यह देखकर
‘मेरे दस हजार कहां है
मुझे वापस दिलवाओ’
मरीज चिल्लाया।
मरीज का वकील बोला-
‘पगला गये हो
तुमने चिकित्सक का कितना नुक्सान कराया
तुम्हारे इलाज पर इतनी दवायेें लगाई
अपने लोगों से मेहनत कराई
फिर भी उनके हाथ कुछ नहीं आया।
तुमने मुफ्त में
उनके फाईव स्टार नुमा अस्पताल में
चार रातों के साथ दिन बिताया।
अब उनकी क्या गलती जो
तुमने आराम न पाया।
मैंने तुम्हें मुकदमें के लिये
भागदौड़ करा कर चंगा कर दिया
यही काम यह चिकित्सक भी करते
तो यह परेशानी नहीं आती
अपनी इसी गलती का
बिल इन्होंने भर दिया
क्या यह कम है
तुम तो अब स्वस्थ हो गये
फिर काहे का गम है
तुम्हें ठीक करने की फीस
हम दोनों वकीलों ने ले ली
तुम तो खर्च कर ही चुके
स्वस्थ होकर हर्जाना नहीं मांग सकते
बिचारे चिकित्ससक साहब का सोचो
जिनके हाथ कुछ न आया।’
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नोट-यह हास्य कविता एकदम काल्पनिक है। किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई लेनादेना नहीं है। अगर संयोग से किसी से इसकी कारिस्तानी मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।
दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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