यह प्रदूषण एक दिन में नहीं हुआ और न ही किसी एक गैस से हुआ है। कभी कहा जाता है कि एशिया के देश खाने की गैस का उपयोग करते हैं इसलिये यह गर्मी बढ़ रही है तो कभी अमेरिका की कंपनियों पर भी ऐसे ही आरोप लगते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि गैसों का अधिक उपयोग खतरनाक है पर इसके लिये किसी एक देश या महाद्वीप का जिम्मेदारी ठहराना ठीक नहीं है।
इस चर्चा में परमाणु ऊर्जा के उपयोग तथा उसके बमों का परीक्षण करने की चर्चा बिल्कुल नहीं आती जबकि अमेरिका और चीन ऐसे पता नहीं कितने प्रयोग समंदर और जमीन में कर चुके हैं। उससे जमीन को कितनी क्षति पहुंची और उससे कितनी गैस का विसर्जन हुआ इसका अनुमान कोई नहीं देता। इन दोनों देशों की मानसिकता ही साम्राज्यवादी है। इतना ही नहीं दोनों ही हथियारों के लिये अपना बाजार भी ढूंढते हैं। चीन ने ही पाकिस्तान को परमाणु संपन्न राष्ट्र बनने के लिये मदद की है। इन दोनों ने देशों ने परमाणु विस्फोटों से धरती को कितनी क्षति पहुुंचाई है इसका आंकलन जरूर किया जाना चाहिये। गैसों का उत्सर्जन कोई होने से कोई एक दिन में में पर्यावरण प्रदूषित नहीं हुआ। गैस कोई प्रकाश की गति से नहीं फैलती बल्कि इसके लिये पिछले कई वर्षों से मानवीय लापरवाही का यह नतीजा है। भारत जहां इस मामले में पूरी तरह ईमानदारी दिखा रहा है वहीं चीन और अमेरिका इसके लिये दिखावा अधिक करते हैं। भारत ने परमाणु परीक्षण भी इतने नहीं किये जितने इन देशों ने किये हैं। हालांकि चीन और रूस ने भारत द्वारा 25 प्रतिशत गैस उत्सर्जन कम किये जाने के प्रयास को सराहा है पर सवाल यह है कि यह दोनों देश स्वयं क्या करने जा रहे हैं और जो वादा कर रहे हैं उसे क्या निभायेंगे?
हमारे कहने का केवल यही आशय यह है कि पर्यावरण को राजनीतिक विषय न समझें बल्कि इस पर ईमानदारी से काम करें। विश्व भर में विकास के दावे तो बहुत किये जाते हैं पर साथ ही चल रहे विनाश की अनदेखी नहीं की जा सकती। इस पर अमेरिका तथा अन्य राष्ट्र ईमानदारी से सोचें। खाली नाटकबाजी से कुछ नहीं होने वाला है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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