आर्थिक वैश्वीकरण तो सुना था पर उसके साथ घूस का भी वैश्वीकरण हो जायेगा यह नहीं सोचा था। दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन हो रहा है। उसके आयोजन को लेकर जिस तरह चर्चायें आ रही हैं वह खेलों से अधिक रहस्य, रोमांच और रोचकता पैदा कर रही हैं। अगर आराम से चुपचाप खेल संपन्न हो जाते तो शायद इतना रोमांच नहीं होता जितना अब हो रहा है। पुल गिर गया कुछ स्टेडियमों की छतों से पानी टपक गया और तमाम तरह की अव्यवस्थाऐं पैदा होने की बात भी सामने आयी तो कुछ राष्ट्रभक्त शार्मिंदगी के साथ चिंतित भी हो गये हैं यह सोचकर कि इससे तो यह तो देश की बदनामी का वैश्वीकरण हो जायेगा।
अभी तक भ्रष्टाचार एक अंदरूनी समस्या थी पर अब उसकी पोल तो विश्व स्तर पर दिखाई दे रही है। अरे, घूसखोरी हमारे देश में ही नहीं है बल्कि बाहर भी है। आस्ट्रेलिया के अखबार ने दावा किया है कि कॉमनवेल्थ खेल आयोजन का प्रस्ताव पास कराने के लिये 72 देशों को रिश्वत दी गयी। इस अखबार ने अपने देश पर भी 55 लाख घूस लगाने के साथ में यह भी जोड़ा है कि आस्ट्रेलिया तो वैसे ही नई दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल के आयोजन का समर्थन करने वाला था। अगर इस खबर को सही माना जाये तो ऐसा लगता है कि कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन का प्रस्ताव पास कराने के लिये कहीं घूसखोरी का मेला लगा था। आस्ट्रेलिया ने भी बहती गंगा में हाथ धो दिया यह सोचकर कि जब हमाम में सब नंगे हैं तो हमीं क्यों नैतिकता की चादर ओढें रहें।
मतलब यह कि घूसखोरी को लेकर अब हमें शार्मिंदा होने की जरूरत नहीं है। घटिया काम के लिये भी काहेको शार्मिंदा हों? नई दिल्ली में प्रस्तावित इन कॉमनवेल्थ खेलों के लिये हुए निर्माण कार्यों में ब्रिटेन की कंपनियां भी शािमल हैंे। अरे, अंग्रेजों की ईमानदारी तो सदा विख्यात रही है ऐसे में अगर वही धोखा दे गये तो क्या करें? एक रोचक तथ्य टीवी पर हमारे सामने आया कि ब्रिटेन के किसी प्रतिनिधि ने खेल की अव्यवस्था पर असंतोष जताया मगर दो दिन में वह खुश हो गया और बोला कि ‘सब ठीक ठाक है।’
यह कंपनी प्रणाली ब्रिटेन की देन है। जब हम वाणिज्य स्नातक की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तब एक किताब में पढ़ा था कि ‘कंपनी एक अदृश्य दैत्य है, जिसके काले कारनामे आम निवेशक नहीं जान पाता।’ तब यह हमें यही पता नहीं था कि कंपनी होती क्या है क्योंकि भारत में तब तब निजी व्यापार की प्रधानता थी, मगर आर्थिक उदारीकरण की वजह से इतनी तेजी अपने देश में कंपनी प्रणाली आ गयी कि बहुत समय बाद हमारे यह समझ में आया कि इस दैत्य का रूप कैसा है जो अक्सर घूसखोरी और घोटालों के रूप में प्रकट होता है। अब तो यह हालत है कि माफिया लोग भी अपने गिरोह का नाम कंपनी रखते हैं। इतना ही नहीं यही माफिया भी कंपनियों में निवेश करते हैं ऐसे समाचार अखबारों में छपते रहते हैं। अब यह कहना कठिन है कि किस कंपनी के नाम के पीछे देवता का या दानव का मुखौटा है। वैसे देवताओं और दानवों में बैर माना जाता है पर समुद्र मंथन के समय दोनों एक हो गये थे और उस समय आम इंसानों को पूछा हो यह कहीं उल्लेख नहीं मिलता। अभिप्राय यह है कि देवताओं का काम भी दानवों के बिना नहंी चलता। वैसे दोनों भाई हैं और किसी भी हालत में उनके सामने एक आम आदमी की कोई भूमिका नहीं है। इसलिये कहीं देवता दानवों से तो कहीं दानव देवताओं के सहारे आजकल काम चला रहे हैं। संभव है कि घूसखोरी के मेले में दोनों ही शािमल हुए हों आखिर वहां धन मंथन होने वाला था। उसके बाद शुरु होने वाला था निर्माण कार्य का दौर जिसमें देवताओं और दानव नाम धारी इन मुखौटों ने खूब धन मंथन किया होगा वरना क्यों यह घूसखोरी का दौर चला? दानवों को मिला तो कमीशन या दलाली कहो और देवताओं को मिला तो चंदा कहो?मुश्किल यह है कि उनके बंधुआ प्रचारक ही कह रहे हैं कि यह सब घूसखोरी है।
ऐसा लगता है कि आजकल के देवता और दानव घूसखोरी से ही खुश हैं। देवताओं का मन चंदे से तो दानवों का दलाली से नहीं भरता। जिन्होंने घुस दी होगी यकीनन उनको निर्माण कार्यों से जोरदार लाभ हुआ होगा और जिन्होंने ली होगी उनको भी आगे अच्छी संभावनाऐं दिखी होंगी-मेहमान बनने पर भी तमाम लाभ होते ही हैं। घूस लेने वाले खेल संगठन और देने वाली कंपनियां रही होंगी। मतलब बात निरंकार रूप की तरफ चली गयी क्योंकि यहां चेहरे बैनरों के पीछे छिप जाते हैं। कंपनी प्रणाली का तो अज़ीब रूप है। कंपनी के शिखर पुरुषों का कोई प्रत्यक्ष आर्थिक दायित्व नहीं होता। लाभ हो तो उनकी पौ बाहर और कंपनी डूब जाये तो उनको आंच भी नहीं आती। इतना ही आम निवेशकों का पैसा उनके खाते में मान लिया जाता है। अक्सर कुछ पत्रिकाऐं अमीरों की सूची जारी करती हैं जो कंपनियों के प्रबंध निदेशक होते हैं। तब अक्सर सवाल हमारे मन में आता है कि उन अमीरों की अपनी अकेले की संपत्ति बताई जा रही है या कंपनियों की जिनमें आम निवेशक भी शािमल है।
अक्सर भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चर्चा होती है। लोग उनको विदेशी कहकर पुकारते हैं पर इस बात की कोई गारंटी नहीं दे सकता कि उनमें भारत के पूंजीपतियों का अप्रत्यक्ष रूप से धन नहीं लगा होगा। भारत में विदेशी निवेश को लेकर कुछ आर्थिक विशेषज्ञ बहुत उत्साहित रहते हैं तब सवाल यह उठता है कि क्या इसके पीछे उनके कुछ निजी स्वार्थ हैं।
क्रिकेट की एक क्लब स्तरीय प्रतियोगिता इंडियन प्रीमियर लीग में एक टीम के मालिकाना हक को लेकर एक दिलचस्प तथ्य सामने आया था। जो कंपनी एक टीम की मालिक है उसकी मालिक चार कंपनियां हैं। फिर उन चार अलग अलग अलग कंपनियों की चार चार अलग कंपनियां मालिक हैं। ऐसे ही कंपनियों के पीछे कपंनी का दौर टीवी चैनल सुना रहा था पर हमारे समझ में आखिर तक यह नहीं आया कि कौन आदमी उसका मालिक है। इतना ही नहीं भारत के एक क्लब की टीम का मालिकाना हक ब्रिटेन और मॉरीशस देशों की कंपनियों तक दिखाई देने लगा था। अब पता नहीं इन मामलों का क्या हुआ? एक कंपनी के आदमी का नाम आया तो पता चला कि वह तो केवल दिखावे ही मालिक है उसके पीछे तो कोई अदृश्य ताकते हैं। क्रिकेट या अन्य खेलों के विकास में यह अदृश्य शक्तिया अगर देवीय हैं तो छिपती हैं क्योंकि यह काम तो दानवों का ही है। क्रिकेट की क्लब स्तरीय प्रतियोगिताओं के फिक्सिंग का मामला जिस तरह सामने आ रहा है उससे तो नहीं लगता कि यह शक्तियां उसके विकास के लिये काम कर रही हैं। वैसे भी कंपनियां आर्थिक उद्देश्यों को चालाकी से प्राप्त करने के लिये बनाई जाती हैं जहां बिना आर्थिक दायित्व के मुनाफा जेब में रखा जाता है और हानि आम निवेशक की तरफ सरका दी जाती है। पैसा आम निवेशक का और सिर उठाकर घूम रहे हैं उससे कर्जा लेकर लोग। पार्टियों में कंपनियों के प्रबंध निदेशक की तरह नहीं मालिक की तरह जाते हैं और प्रचार माध्यमों में उनका जिक्र राजा की तरह होता है।
राष्ट्रमंडल खेलों का स्तर बहुत ऊंचा माना नहीं जाता। अनेक लोगों को यह सुनकर निराशा होगी जनचर्चा में इसमें व्याप्त कमियों की बात आती है पर कोई इसमें होने वाले खेलों में दिलचस्पी लेता हो ऐसा नहीं दिखता। बहरहाल इस तरह की घूसखोरी ने आर्थिक वैश्वीकरण तथा भ्रष्टाचारी के विश्वव्यापी होने की पोल खोलकर रख दी है। इसलिये राष्ट्रभक्तों को शर्मिंदा या चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। यह कंपनी और कमीशन का खेल है जिसका लक्ष्य है विकास करना यानि बैंकों में अपनी जमा राशि बढ़ाना, समाज में अपनी सक्रियता बनाये रखना और प्रचार में प्रभुत्व दिखाना। जी हां, देश और खेलों का विकास इस स्वरूप का नाम है।
------------
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
------------------------
दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।comanwalthe games in New Delhi,sports in india,rashtramandal khel,comanwelthe games in india,राष्ट्रमंडल खेल,new delhi mein rashtramandal khel,hindi blog,bharat mein rashtramandal khel,zero hour in thought market,comanwealth games 2010 in new delhi,bharat mein comanwelth game 2010,bharat men, comanwealth khel,commanwealth games in new delhi,commanwelth games 2010 in india,commonwelth gems in new delhi 2010,commonwelth gems in new delhi 2010, Commonwealth Games 2010 Delhi, Commonwealth Games 2010 in Delhi, कॉमनवेल्थ गेम्स,कामनवेल्थ खेल २०१० नयी दिल्ली
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
No comments:
Post a Comment