समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
Showing posts with label hindi lekh. Show all posts
Showing posts with label hindi lekh. Show all posts

Saturday, September 25, 2010

कॉमनवेल्थ खेलों में घूसखोरी का वैश्वीकृत खेल-हिन्दी व्यंग्य लेख (comanwealth games in india and bribe world system-hindi satire article)

आर्थिक वैश्वीकरण तो सुना था पर उसके साथ घूस का भी वैश्वीकरण हो जायेगा यह नहीं सोचा था। दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन हो रहा है। उसके आयोजन को लेकर जिस तरह चर्चायें आ रही हैं वह खेलों से अधिक रहस्य, रोमांच और रोचकता पैदा कर रही हैं। अगर आराम से चुपचाप खेल संपन्न हो जाते तो शायद इतना रोमांच नहीं होता जितना अब हो रहा है। पुल गिर गया कुछ स्टेडियमों की छतों से पानी टपक गया और तमाम तरह की अव्यवस्थाऐं पैदा होने की बात भी सामने आयी तो कुछ राष्ट्रभक्त शार्मिंदगी के साथ चिंतित भी हो गये हैं यह सोचकर कि इससे तो यह तो देश की बदनामी का वैश्वीकरण हो जायेगा।
अभी तक भ्रष्टाचार एक अंदरूनी समस्या थी पर अब उसकी पोल तो विश्व स्तर पर दिखाई दे रही है। अरे, घूसखोरी हमारे देश में ही नहीं है बल्कि बाहर भी है। आस्ट्रेलिया के अखबार ने दावा किया है कि कॉमनवेल्थ खेल आयोजन का प्रस्ताव पास कराने के लिये 72 देशों को रिश्वत दी गयी। इस अखबार ने अपने देश पर भी 55 लाख घूस लगाने के साथ में यह भी जोड़ा है कि आस्ट्रेलिया तो वैसे ही नई दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेल के आयोजन का समर्थन करने वाला था। अगर इस खबर को सही माना जाये तो ऐसा लगता है कि कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन का प्रस्ताव पास कराने के लिये कहीं घूसखोरी का मेला लगा था। आस्ट्रेलिया ने भी बहती गंगा में हाथ धो दिया यह सोचकर कि जब हमाम में सब नंगे हैं तो हमीं क्यों नैतिकता की चादर ओढें रहें।
मतलब यह कि घूसखोरी को लेकर अब हमें शार्मिंदा होने की जरूरत नहीं है। घटिया काम के लिये भी काहेको शार्मिंदा हों? नई दिल्ली में प्रस्तावित इन कॉमनवेल्थ खेलों के लिये हुए निर्माण कार्यों में ब्रिटेन की कंपनियां भी शािमल हैंे। अरे, अंग्रेजों की ईमानदारी तो सदा विख्यात रही है ऐसे में अगर वही धोखा दे गये तो क्या करें? एक रोचक तथ्य टीवी पर हमारे सामने आया कि ब्रिटेन के किसी प्रतिनिधि ने खेल की अव्यवस्था पर असंतोष जताया मगर दो दिन में वह खुश हो गया और बोला कि ‘सब ठीक ठाक है।’
यह कंपनी प्रणाली ब्रिटेन की देन है। जब हम वाणिज्य स्नातक की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तब एक किताब में पढ़ा था कि ‘कंपनी एक अदृश्य दैत्य है, जिसके काले कारनामे आम निवेशक नहीं जान पाता।’ तब यह हमें यही पता नहीं था कि कंपनी होती क्या है क्योंकि भारत में तब तब निजी व्यापार की प्रधानता थी, मगर आर्थिक उदारीकरण की वजह से इतनी तेजी अपने देश में कंपनी प्रणाली आ गयी कि बहुत समय बाद हमारे यह समझ में आया कि इस दैत्य का रूप कैसा है जो अक्सर घूसखोरी और घोटालों के रूप में प्रकट होता है। अब तो यह हालत है कि माफिया लोग भी अपने गिरोह का नाम कंपनी रखते हैं। इतना ही नहीं यही माफिया भी कंपनियों में निवेश करते हैं ऐसे समाचार अखबारों में छपते रहते हैं। अब यह कहना कठिन है कि किस कंपनी के नाम के पीछे देवता का या दानव का मुखौटा है। वैसे देवताओं और दानवों में बैर माना जाता है पर समुद्र मंथन के समय दोनों एक हो गये थे और उस समय आम इंसानों को पूछा हो यह कहीं उल्लेख नहीं मिलता। अभिप्राय यह है कि देवताओं का काम भी दानवों के बिना नहंी चलता। वैसे दोनों भाई हैं और किसी भी हालत में उनके सामने एक आम आदमी की कोई भूमिका नहीं है। इसलिये कहीं देवता दानवों से तो कहीं दानव देवताओं के सहारे आजकल काम चला रहे हैं। संभव है कि घूसखोरी के मेले में दोनों ही शािमल हुए हों आखिर वहां धन मंथन होने वाला था। उसके बाद शुरु होने वाला था निर्माण कार्य का दौर जिसमें देवताओं और दानव नाम धारी इन मुखौटों ने खूब धन मंथन किया होगा वरना क्यों यह घूसखोरी का दौर चला? दानवों को मिला तो कमीशन या दलाली कहो और देवताओं को मिला तो चंदा कहो?मुश्किल यह है कि उनके बंधुआ प्रचारक ही कह रहे हैं कि यह सब घूसखोरी है।
ऐसा लगता है कि आजकल के देवता और दानव घूसखोरी से ही खुश हैं। देवताओं का मन चंदे से तो दानवों का दलाली से नहीं भरता। जिन्होंने घुस दी होगी यकीनन उनको निर्माण कार्यों से जोरदार लाभ हुआ होगा और जिन्होंने ली होगी उनको भी आगे अच्छी संभावनाऐं दिखी होंगी-मेहमान बनने पर भी तमाम लाभ होते ही हैं। घूस लेने वाले खेल संगठन और देने वाली कंपनियां रही होंगी। मतलब बात निरंकार रूप की तरफ चली गयी क्योंकि यहां चेहरे बैनरों के पीछे छिप जाते हैं। कंपनी प्रणाली का तो अज़ीब रूप है। कंपनी के शिखर पुरुषों का कोई प्रत्यक्ष आर्थिक दायित्व नहीं होता। लाभ हो तो उनकी पौ बाहर और कंपनी डूब जाये तो उनको आंच भी नहीं आती। इतना ही आम निवेशकों का पैसा उनके खाते में मान लिया जाता है। अक्सर कुछ पत्रिकाऐं अमीरों की सूची जारी करती हैं जो कंपनियों के प्रबंध निदेशक होते हैं। तब अक्सर सवाल हमारे मन में आता है कि उन अमीरों की अपनी अकेले की संपत्ति बताई जा रही है या कंपनियों की जिनमें आम निवेशक भी शािमल है।
अक्सर भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चर्चा होती है। लोग उनको विदेशी कहकर पुकारते हैं पर इस बात की कोई गारंटी नहीं दे सकता कि उनमें भारत के पूंजीपतियों का अप्रत्यक्ष रूप से धन नहीं लगा होगा। भारत में विदेशी निवेश को लेकर कुछ आर्थिक विशेषज्ञ बहुत उत्साहित रहते हैं तब सवाल यह उठता है कि क्या इसके पीछे उनके कुछ निजी स्वार्थ हैं।
क्रिकेट की एक क्लब स्तरीय प्रतियोगिता इंडियन प्रीमियर लीग में एक टीम के मालिकाना हक को लेकर एक दिलचस्प तथ्य सामने आया था। जो कंपनी एक टीम की मालिक है उसकी मालिक चार कंपनियां हैं। फिर उन चार अलग अलग अलग कंपनियों की चार चार अलग कंपनियां मालिक हैं। ऐसे ही कंपनियों के पीछे कपंनी का दौर टीवी चैनल सुना रहा था पर हमारे समझ में आखिर तक यह नहीं आया कि कौन आदमी उसका मालिक है। इतना ही नहीं भारत के एक क्लब की टीम का मालिकाना हक ब्रिटेन और मॉरीशस देशों की कंपनियों तक दिखाई देने लगा था। अब पता नहीं इन मामलों का क्या हुआ? एक कंपनी के आदमी का नाम आया तो पता चला कि वह तो केवल दिखावे ही मालिक है उसके पीछे तो कोई अदृश्य ताकते हैं। क्रिकेट या अन्य खेलों के विकास में यह अदृश्य शक्तिया अगर देवीय हैं तो छिपती हैं क्योंकि यह काम तो दानवों का ही है। क्रिकेट की क्लब स्तरीय प्रतियोगिताओं के फिक्सिंग का मामला जिस तरह सामने आ रहा है उससे तो नहीं लगता कि यह शक्तियां उसके विकास के लिये काम कर रही हैं। वैसे भी कंपनियां आर्थिक उद्देश्यों को चालाकी से प्राप्त करने के लिये बनाई जाती हैं जहां बिना आर्थिक दायित्व के मुनाफा जेब में रखा जाता है और हानि आम निवेशक की तरफ सरका दी जाती है। पैसा आम निवेशक का और सिर उठाकर घूम रहे हैं उससे कर्जा लेकर लोग। पार्टियों में कंपनियों के प्रबंध निदेशक की तरह नहीं मालिक की तरह जाते हैं और प्रचार माध्यमों में उनका जिक्र राजा की तरह होता है।
राष्ट्रमंडल खेलों का स्तर बहुत ऊंचा माना नहीं जाता। अनेक लोगों को यह सुनकर निराशा होगी जनचर्चा में इसमें व्याप्त कमियों की बात आती है पर कोई इसमें होने वाले खेलों में दिलचस्पी लेता हो ऐसा नहीं दिखता। बहरहाल इस तरह की घूसखोरी ने आर्थिक वैश्वीकरण तथा भ्रष्टाचारी के विश्वव्यापी होने की पोल खोलकर रख दी है। इसलिये राष्ट्रभक्तों को शर्मिंदा या चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। यह कंपनी और कमीशन का खेल है जिसका लक्ष्य है विकास करना यानि बैंकों में अपनी जमा राशि बढ़ाना, समाज में अपनी सक्रियता बनाये रखना और प्रचार में प्रभुत्व दिखाना। जी हां, देश और खेलों का विकास इस स्वरूप का नाम है।
------------
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
------------------------

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
comanwalthe games in New Delhi,sports in india,rashtramandal khel,comanwelthe games in india,राष्ट्रमंडल खेल,new delhi mein rashtramandal khel,hindi blog,bharat mein rashtramandal khel,zero hour in thought market,comanwealth games 2010 in new delhi,bharat mein comanwelth game 2010,bharat men, comanwealth khel,commanwealth games in new delhi,commanwelth games 2010 in india,commonwelth gems in new delhi 2010,commonwelth gems in new delhi 2010, Commonwealth Games 2010 Delhi, Commonwealth Games 2010 in Delhi, कॉमनवेल्थ गेम्स,कामनवेल्थ खेल २०१० नयी दिल्ली

Friday, December 18, 2009

आखिर मनुष्य एक समझदार प्राणी है-आलेख (men is a social parson-hindi article)

वैश्यावृत्ति और जुआ खेलना ऐसी सामाजिक समस्यायें हैं और इनसे कभी भी मुक्ति नहीं पायी जा सकती। वैश्यावृत्ति पर कानून से नियंत्रण पाना चाहिए या नहीं इस पर अक्सर बहस चलती है। कुछ लोगों को मानना है कि वैश्यावृत्ति को कानून से छूट मिलना चाहिए तो कुछ लोगों को लगता है कि इस पर रोक बनी रहे। वैश्यावृत्ति पर कानूनी रोक का समर्थन करने वालों ने जो तर्क दिये जाते हैं वह हास्याप्रद हैं। कुछ लोग तो यहां तक कह जाते हैं कि तब तो भ्रष्टाचार, शराब तथा अन्य अपराधों को भी कानून से छूट मिलना चाहिए। अभी हाल ही में सुनने में आया कि किन्ही न्यायालय द्वारा भी इसकी वकालत की गयी है कि वैश्यावृत्ति को कानूनी शिकंजे से मुक्त किया जाना चाहिए। इसके पहले भी अनेक सामाजिक विशेषज्ञ इस बात की वकालत करते रहे हैं कि देश की सामाजिक परिस्थतियों में ऐसी रोक ठीक नहीं है।
दरअसल अंग्रेजों के समय ही वैचारिक और सामाजिक कायरता के बीज जो भारत में बो दिये गये वह अब फल और फूल की जगह सभी जगह प्रकट हो रहे हैं। याद रखने की बात यह है कि वैश्यावृत्ति कानून अंग्रजों के समय में ही बनाया गया है। इसका मतलब यह है कि इससे पहले ऐसा कानून यहां प्रचलित नहीं था।
इतना ही नहीं शराब, वैश्यावृत्ति तथा जुआ पर रोक लगाने के किसी भी पुराने कानून की चर्चा हमारे इतिहास में नहीं मिलती। इसका आशय यह है कि समाज को नियंत्रित करने की यह राजकीय प्रवृत्ति अंग्रेजों की देन है जो स्वयं ही इस तरह का कोई कानून नहीं बनाते बल्कि आजादी के नाम पर यहां अनेक अपराध भी मुक्त हैं जिनमें सट्टा भी शामिल हैं। कुछ कानूनी विशेषज्ञ तो यह बताते हैं कि अभी भी इस देश में 95 प्रतिशत कानून उन अंग्रेजों के बनाये हैं जिनके यहां कोई लिखित कानून हैं। मतलब यह है कि वह एक शब्द समूह यहां अपने गुलामों को थमा गये जिससे पढ़कर हम अभी भी चल रहे हैं।
इस मामले में हम एक सती प्रथा पर रोक के कानून का उल्लेख करना चाहेंगे जिसकी वजह से राजा राममोहन राय को भारत का एक बहुत बड़ा समाज सुधारक माना जाता है। उन्होंने ऐसा कानून बनाने के लिये आंदोलन चलाया था पर इतिहास में इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि उस समय देश में सत्ती प्रथा किस हद तक मौजूद थी। अगर उनके आंदोलन की गति को देखें तो लगता है कि उस समय देश में ऐसी बहुत सी घटनायें रोज घटती होंगी पर इसको कोई प्रमाणित नहीं करता। उस समय देश में आजादी के लिये भी आंदोलन चल रहा था। ऐसे में लगता है कि भारत की सती प्रथा के लेकर अंग्रेज कहीं दुष्प्रचार करते होंगे या फिर ऐसी कृत्रिम घटनाओं का समाचार बनता होगा जिससे लगता हो कि यह देश तो भोंदू समाज है। यह कानून बनने से कोई सत्ती प्रथा कम हुई इसका भी प्रमाण नहीं मिलता। संभव है कुछ संपत्ति की लालच में औरतों को जलाकर उसके सत्ती होने का प्रचार करते हों पर ऐसी घटनायें तो देश में इस कानून के बाद भी हुईं। फिर मान लीजिये यह कानून नहीं बनता तो भी इस देश में आत्म हत्या और हत्या दोनों के लिये कानून है तब उसे सत्ती होने वाले मामलों पर लागू किया जा सकता था।
एक बार एक लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब के कानून तो अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ऐसे मामलों में फंसाकर उन्हें बदनाम करने के उद्देश्य से बनाये थे। सच हम नहीं जानते पर इतना जरूर है कि सामाजिक संकटों को राज्य से नियंत्रित करने का प्रयास ठीक नहीं है। समाज को स्वयं ही नियंत्रित होने दीजिये। आखिर इस देश के समाजों के ठेकेदार क्या केवल उनकी भावनाओं का दोहन करने लिये ही बैठे हैं क्या?
वैश्यावृत्ति, जुआ और शराब सामाजिक समस्यायें हैं और इन पर नियंत्रण करने के दुष्परिणाम यह हुए हैं कि जिसके पास धन, बल, और बड़ा पद है पर अपनी शक्ति कानून को तोड़कर दिखाता है। आप भ्रष्टाचार या सार्वजनिक रूप से धुम्रपान करने जैसे अपराधों से इसकी तुलना नहीं कर सकते।
वैश्यावृत्ति कोई अच्छी बात नहीं है। एक समय था जो महिला या पुरुष इसमें संलिप्त होते उनको समाज हेय दृष्टि से देखता था। अनेक बड़े शहरों में वैश्याओं के बाजार हुआ थे जहां से भला आदमी निकलते हुए अपनी आंख बंद कर लेता था। धीरे धीरे वैश्यायें लुप्त हो गयीं पर आजकल कालगर्ल उनकी जगह ले जगह चुकी हैं। पहले जहां अनपढ़ और निम्न परिवारों की लड़कियां जबरन या अपनी इच्छा से इस व्यवसाय में आती थीं पर आजकल पढ़लिखी लड़कियां स्वेच्छा से इस काम में लिप्त होने की बातें समाचारों में में आती है। उसकी वजह कुछ भी हो सकती हैं-घर का खर्चा चलना या अय्याशी करना।
सवाल यह है कि इसका हल समाज को ढूंढना चाहिये या नहीं। इस देश के उच्च वर्ग ने तो अपने बच्चों की शादी को प्रदर्शन करने का एक बहाना बना लिया है। मध्यम वर्ग के परिवार उन जैसे दिखने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। नतीजा यह है कि बड़ी उम्र तक बच्चों के विवाह नहीं हो रहे। इसके अलावा बच्चों के साथ ही उनके अभिभावकों द्वारा उनके जीवन साथी के लिये अत्यंत खूबसूरत काल्पनिक पात्र सृजित कर रिश्ता तलाशा जाता है। लड़की सुंदर हो, काम काज में दक्ष हो, कंप्यूटर जानती हो और कमाना जानती हो-जैसे जुमले तो सुनने में मिलते ही हैं। उस पर दहेज की रकम की समस्या। समाज का यह अंतद्वंद्व सभी जानते हैं पर जिसका समय निकला जाता है वह उसे भुला देता है। जिन्होंने बीस वर्ष की उम्र में शादी कर ली वह अपने पुत्र या पुत्री को तीस वर्ष तक विवाह योग्य नहीं पाते-उनके बारे में क्या कहा जाये? क्या मनुष्य की दैहिक आवश्यकताओं को खुलकर कहने की आवश्यकता है? इंद्रियों को निंयत्रित करना चाहिये पर उनका दमन करना भी संभव नहीं है-क्या यह सच नहीं है।
ऐसा नहीं है कि इस सभी के बावजूद पूरा समाज इसी राह पर चल रहा है। अगर कोई वैश्यावृत्ति में संलिप्त नहीं है तो वह कानून के डर की वजह से नहीं बल्कि पुराने चले आ रहे संस्कारों ने सभी को इसकी प्रेरणा दे रखी है। हमारे संत महापुरुषों ने हमेशा ही व्यसनों से बचने का संदेश दिया है। उसके दुष्परिणाम बताये गए हैं। देश में आज भी नैतिकता को संबल मिला हुआ है क्योंकि वह संस्कारों के सहारे टिकी है। यह भरोसा वह हर विद्वान करता है जो इसे जानता है।
ऐसे में वैचारिक कायरों का वह समूह- जो चाहता है कि रात को टीवी पर खबरें देखते हुए ‘अपने देश की चारित्रिक रक्षा के दृश्य देखकर खुश हों‘-ऐसी बातें कह रहा है जिसको न तो समाज पर विश्वास है न ही अपने पर। पढ़ी लिखी लड़कियां ऐसे मामलों में पकड़े जाने मुंह ढंके दिखती हैं, तब सवाल यह उठता है कि आखिर उनका अपराध क्या है? वह किसको हानि पहुंचा रही थीं? याद रहे अपराध का मुख्य आधार यही है कि कोई व्यक्ति दूसरे को हानि पहुंचाये। अनेक बार अखबार में जुआ खेलते हुए पकड़े जाने वाले समाचार आते हैं। सवाल यह है यह भी शराब जैसे व्यसन है और जिस पर कोई रोक नहीं है।
दरअसल ऐसे कानूनों ने पुरुष समाज को गैर जिम्मेदार बना दिया है। अपने घर की औरतों की देखभाल करने के साथ ही उनपर नज़र रखना अभी तक पुरुषों का ही जिम्मा है। इस कानून ने उनको आश्वस्त कर दिया है कि औरतें डर के बारे में इस राह पर नहीं जायेंगी। समाज के ठेकेदार भी नैतिकता को निजी विषय मानने लगे हैं। इसके अलावा विवाह योग्य पुत्र के माता पिता-पुत्री के भी वही होते हैं उसका रिश्ता तय करते समय भूल जाते हैं-इस विश्वास में अधिक दहेज की मांग करते हैं कि कि कोई न कोई लड़की का बाप मजबूर होकर उनकी शर्ते मानेगा।
इसके अलावा समाज के ठेकेदार उसके नाम पर कार्यक्रम करने के लिये चंदा मांगने और चुनाव के समय उनको अपने हिसाब से मतदान का आव्हान करने के अलावा अन्य कुछ नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि बाकी सुधार के लिये तो राज्य ही जिम्मेदार है। समाज को अंधविश्वासों, रूढ़ियों तथा अनुचित कर्मकांडों से बचने का संदेश इनमें कोई नहीं देता। यही हालत आजकल के व्यवसायिक संतों की है।
एक बात यह भी लगती है कि अंग्रेजों ने इतने सारे कानून शायद इसलिये बनाये ताकि विश्व का बता सकें कि देखिये हम एक पशु सभ्यता को मानवीय बना रहे हैं और आज भी वह इसका दावा करते हैं। इधर अपने देश के वैचारिक कायर चिंतक उन्हीं कानूनों को ढोने की वकालत करते हैं क्योंकि अपने समाज पर विश्वास न रखने की नीति उन्हें अंगे्रजी शिक्षा पद्धति से ही मिलती है। अपने पूरा समाज को कच्ची बुद्धि का समझने की उनकी आदतें बदलने वाली नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि अपराध वह है जिससे दूसरे को हानि पहुंचे। वैश्यावृत्ति, जुआ या सट्टा ऐसे अपराध हैं जिसमें आदमी अपने धन और इज्जत तो गंवाता ही है अपना स्वास्थ्य भी खोता है। किसी स्त्री से जबरन वैश्यावृत्ति कराना अपराध है और इस पर सख्त कार्यवाही होना चाहिये। यही कारण है कि एक विद्वान से यह भी सलाह दी है कि वैश्यावृत्ति में पकड़े गये अपराधियों में इस बात की पहचान करने का प्रावधान हो कि कोई जबरन तो इस कार्य में नहीं लगा हो।
हमारे देश का सामाजिक ढांचा मजबूत है और पूरा विश्व इसे मानता है। हर आदमी घर परिवार से जुड़ा है। अधिकतर पुरुष अपने घरेलू समस्याओं को हल करने के लिये संघर्ष करते हैं। संभव है कुछ घरों में पुरुष सदस्य की बीमारी या आर्थिक परेशानी होने पर कुछ लड़कियां और महिलाऐं इस काम में लगती हों पर सभी एसा नहीं करती बल्कि अधिकतर नौकरी आदि कर अपना काम चलाती है। ऐसे में पूरे समाज को भ्रष्ट होने की आशंका करना बेमानी है। खासतौर से इस देश में जहां रोजगार और संपत्ति मौलिक अधिकार न बना हो। फिर जब समलैंगिकता जैसे मूर्खतापूर्ण कृत्य को छूट मिल रही है तब वैश्यावृत्ति जैसे कानून को बनाये रखने का औचित्य तो बताना ही पड़ेगा न! बुरे काम का बुरा नतीजा सभी जानते हैं और यही कारण है कि मनुष्य की आदतों को नियंत्रित करने का काम उसे ही करने देना चाहिये। आखिर मनुष्य एक समझदार प्राणी है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
------------------------

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

यह रचनाएँ जरूर पढ़ें

Related Posts with Thumbnails

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

यह रचनाएँ जरूर पढ़ें

Related Posts with Thumbnails

विशिष्ट पत्रिकाएँ