समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, September 4, 2010

नक्सली आतंक को युद्ध नहीं कहा जा सकता-हिन्दी लेख (it is terarrism not war by naxlit)

न कोई तर्क से बात करने वाला है और समझने वाला! बहसें होती हैं, चंद नारे उधर से नक्सली लगाते हैं तो चंद नपे तुले वाक्य इधर से सुनाकर इतिश्री कर ली जाती है। कथित नक्सलवादर पढ़े लिखे हैं पर शिक्षा तो उनकी वही है जो उनसे बहस करने वालों की है। एक टीवी चैनल पर एक नक्सली नेता से भेंट कुछ यूं देखी सुनी।
एंकर-‘आप गरीबों के लिए लड़ने का दावा करते हैं पर जो पुलिस वाले अपने अपहृत किये हैं वह सभी गरीब ही तो हैं?’
नक्सली नेता-‘यह तो युद्ध है। जो सामने आता है उसे मारना ही पड़ता है।’
एंकर-‘यह पुलिस वाले तो बिचारे ड्यूटी कर रहे हैं, वह किसी के आदेश पर वहां आये हैं। आपकी लड़ाई तो व्यवस्था से हैं आप उसको बिगाड़ने वालों तक क्यों नहीं पहुंचते।’
नक्सली नेता-हम वहां भी पहुंचेंगे, पर अभी तो युद्ध में जो सामने हैं उसे तो मारेंगे ही। हमारी मांगें पूरी हो जायें तो उनको रिहा कर देंगे।’
नक्सली नेता बड़े शतिराने तरीके से अपने आतंक को युद्ध कह रहा है पर उसे कौन बताने वाला है कि युद्ध के सच्चे योद्धा कुछ नियमों का पालन करते हैं। इनका पालन कैसे होता है हमारे अध्यात्मिक दर्शन में बताया जा चुका है पर उनको मनुवादी, सवर्णवादी तथा पूंजीवादी बताकर कुछ लोग पढ़ना नहीं चाहते।
उसमें स्पष्ट कहा गया है कि
शरण में आये हुए पर
हथियार हाथ में न होने पर
युद्ध में पीठ पीछे होने पर
युद्ध से भागने पर
हथियार डालने वाले
युद्ध न करने या घायल हो जाने पर वहीं बैठे योद्धा पर कभी वार नहीं करना चाहिये।
चलिये भारतीय अध्यात्म दर्शन बुरा ही सही मगर इन नियमों का पालन तो दुनियां में हर जगह होता है। जो पेशेवर योद्धा है वह इसका पालन करते हैं और यही उनकी वीरता का परिचायक होता है। युद्ध में वीरता तभी तक ही सिद्ध मानी जाती है जब तक सामने से लड़ रहे योद्धा को परास्त न किया जाये। उससे इतर तो छल कपट माना जाता है। अब महाभारत युद्ध में कुछ जगह कौरवों से छलकपट हुआ तो इसलिये कि उन्होंने भी अभिमन्यु को छल से मारा था।
मुख्य सवाल यह है कि टीवी चैनलों में बैठे संपादक और एंकरों की भी है जो इन बातों को नहीं जानते। इससे जाहिर होता है कि निजी क्षेत्र में कम से कम संचार माध्यमों में योग्यता और ज्ञान से अधिक चेहरा और आवाज के साथ ही निज प्रबंधन की क्षमता की प्रधानता है जिसके आधार पर वहां काम मिलता है। अब जरा उन बुद्धिजीवियों की भी बात करें जो इन नक्सलियों को वीर मानते हैं।
असावधान, सो रहे तथा खाना खा रहे पुलिस कर्मियों पर जिस तरह नक्सली हमले करते हैं वह उनके कायर और क्रूर होने की निशानी है। दूसरा अभी हाल ही में बिहार में अपहृत पुलिस कर्मियों की घटना जो सामने आयी है उसमें एक तथ्य ऐसा है जो कुछ अलग से हटकर सोचने को मज़बूर करता है। वह है तनाव ग्रस्त क्षेत्र से आदिवासियों के पलायन का जो कि पुलिस की घेराबंदी के चलते वहां से बाहर आ रहे हैं। इधर पुलिस उधर नक्सली ऐसे में उनके लिये जीवन बचाने का यही एक रास्त है क्योंकि वह आम आदमी हैं। ऐसी स्थिति में उनकी हमदर्दी नक्सलियों से होगी इस पर उनके अंध समर्थक ही यकीन कर सकते हैं। कहीं यह नक्सलवाद भी क्रिकेट मैचों की तरह फिक्स तो नहीं है। आदिवासियों का यह पलायन कहीं उनके स्थाई पलायन का पूर्वाभ्यास तो नहीं है। क्योंकि आदिवासी क्षेत्रों में विकास न होने की बात कही जाती है और उसका जो स्वरूप हमारे सामने हैं वह केवल पूंजीपति ही करते हैं। इसके लिये उनको चाहिऐ सस्ती ज़मीन! आदिवासी ऐसे ज़मीन देंगे नहीं मगर उनसे लेनी है। इसलिये वहां तनाव पैदा कर उनको पहले अस्थाई रूप से पलायन करने के लिये विवश किया गया। बाद में विकास करने के नाम पर कोई समझौता किया जाये तो उसमें पूंजीपतियों की भूमिका तो बिना आमंत्रण के होनी ही है तब अशांति से ऊबे आदिवासी जहां अब उनको अस्थाई बसाहट मिले वहां रहने को तैयार कर ज़मीन उनसे औने पौने दामों पर खरीद ली जाये-क्या ऐसी किसी योजना की आशंका से इंकार किया जा सकता है।
जहां तक पुलिस जवानों के मरने का सवाल है तो वह आम लोग हैं और उनसे आमजन की हमदर्दी ही हो सकती है बाकी तो जुबानी जमा खर्च वाले बहुत बड़े लोग हैं। किं्रकेट में खूब फिक्सिंग चलती है किसी को परवाह नहीं क्योंकि उसमें आम इंसान ही ठगा जाता है। जो क्रिकेट में सट्टा चला रहे हैं वही फिल्मों से भी जुड़े हैं तो आतंकवादियों को भी पैसा पहुंचा रहे हैं। यह आतंक भी फिक्सिंग जैसा लगता है जिसमें स्थापित लोगों को कोई अंतर नहीं पड़ता। मरने वाला भी छोटा आदमी और मारने वाला भी।
एक पुलिस वाले को मार दिया है। उसके जवाब में नक्सली नेता कहता है कि‘हमारी कमेटी ने यह निर्णय लिया।’
मतलब कमेटी में बैठे लोग सीधे मारने नहीं आते और जो मारते हैं यह निर्णयकर्ता नहीं है। घालमेल यही से शुरु होता है। इस बात की पूरी गुंजायश है कि जहां अधिक लोग निर्णय करने वाले होते हैं वहां बाहर से आये निर्देंशों का पालन किया जाता है। आखिरी बात यह युद्ध है तो कमेटी ने निर्णय क्यों लिया? क्या कभी सुना है कि युद्ध में कमेटियां निर्णय देती हैं और सैनिक गोलियां चलाते हैं। जो पुलिस वाले बंधक हैं वह निहत्थे हैं और स्पष्टतः एक तरह से कथित नक्सली योद्धाओं के की शरण में है। आधुनिक युग में भी युद्धबंदियों की हत्या एक अपराध ही माना जाता है। इसलिये जो बुद्धिमान लोग इन नक्सलियों में वीरता का गुण देखते हैं वह जरा अपनी राय पर विचार कर लें। जो इन नक्सलियों से असहमत हैं वह भी जरा यह सवाल उनके सामने उठायें। यह बतायें कि यह युद्ध नहीं होता। इसका केवल एक ही नाम है‘आतंक।’
-----------
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
------------------------

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

No comments:

यह रचनाएँ जरूर पढ़ें

Related Posts with Thumbnails

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

यह रचनाएँ जरूर पढ़ें

Related Posts with Thumbnails

विशिष्ट पत्रिकाएँ