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Saturday, September 4, 2010

नक्सली आतंक को युद्ध नहीं कहा जा सकता-हिन्दी लेख (it is terarrism not war by naxlit)

न कोई तर्क से बात करने वाला है और समझने वाला! बहसें होती हैं, चंद नारे उधर से नक्सली लगाते हैं तो चंद नपे तुले वाक्य इधर से सुनाकर इतिश्री कर ली जाती है। कथित नक्सलवादर पढ़े लिखे हैं पर शिक्षा तो उनकी वही है जो उनसे बहस करने वालों की है। एक टीवी चैनल पर एक नक्सली नेता से भेंट कुछ यूं देखी सुनी।
एंकर-‘आप गरीबों के लिए लड़ने का दावा करते हैं पर जो पुलिस वाले अपने अपहृत किये हैं वह सभी गरीब ही तो हैं?’
नक्सली नेता-‘यह तो युद्ध है। जो सामने आता है उसे मारना ही पड़ता है।’
एंकर-‘यह पुलिस वाले तो बिचारे ड्यूटी कर रहे हैं, वह किसी के आदेश पर वहां आये हैं। आपकी लड़ाई तो व्यवस्था से हैं आप उसको बिगाड़ने वालों तक क्यों नहीं पहुंचते।’
नक्सली नेता-हम वहां भी पहुंचेंगे, पर अभी तो युद्ध में जो सामने हैं उसे तो मारेंगे ही। हमारी मांगें पूरी हो जायें तो उनको रिहा कर देंगे।’
नक्सली नेता बड़े शतिराने तरीके से अपने आतंक को युद्ध कह रहा है पर उसे कौन बताने वाला है कि युद्ध के सच्चे योद्धा कुछ नियमों का पालन करते हैं। इनका पालन कैसे होता है हमारे अध्यात्मिक दर्शन में बताया जा चुका है पर उनको मनुवादी, सवर्णवादी तथा पूंजीवादी बताकर कुछ लोग पढ़ना नहीं चाहते।
उसमें स्पष्ट कहा गया है कि
शरण में आये हुए पर
हथियार हाथ में न होने पर
युद्ध में पीठ पीछे होने पर
युद्ध से भागने पर
हथियार डालने वाले
युद्ध न करने या घायल हो जाने पर वहीं बैठे योद्धा पर कभी वार नहीं करना चाहिये।
चलिये भारतीय अध्यात्म दर्शन बुरा ही सही मगर इन नियमों का पालन तो दुनियां में हर जगह होता है। जो पेशेवर योद्धा है वह इसका पालन करते हैं और यही उनकी वीरता का परिचायक होता है। युद्ध में वीरता तभी तक ही सिद्ध मानी जाती है जब तक सामने से लड़ रहे योद्धा को परास्त न किया जाये। उससे इतर तो छल कपट माना जाता है। अब महाभारत युद्ध में कुछ जगह कौरवों से छलकपट हुआ तो इसलिये कि उन्होंने भी अभिमन्यु को छल से मारा था।
मुख्य सवाल यह है कि टीवी चैनलों में बैठे संपादक और एंकरों की भी है जो इन बातों को नहीं जानते। इससे जाहिर होता है कि निजी क्षेत्र में कम से कम संचार माध्यमों में योग्यता और ज्ञान से अधिक चेहरा और आवाज के साथ ही निज प्रबंधन की क्षमता की प्रधानता है जिसके आधार पर वहां काम मिलता है। अब जरा उन बुद्धिजीवियों की भी बात करें जो इन नक्सलियों को वीर मानते हैं।
असावधान, सो रहे तथा खाना खा रहे पुलिस कर्मियों पर जिस तरह नक्सली हमले करते हैं वह उनके कायर और क्रूर होने की निशानी है। दूसरा अभी हाल ही में बिहार में अपहृत पुलिस कर्मियों की घटना जो सामने आयी है उसमें एक तथ्य ऐसा है जो कुछ अलग से हटकर सोचने को मज़बूर करता है। वह है तनाव ग्रस्त क्षेत्र से आदिवासियों के पलायन का जो कि पुलिस की घेराबंदी के चलते वहां से बाहर आ रहे हैं। इधर पुलिस उधर नक्सली ऐसे में उनके लिये जीवन बचाने का यही एक रास्त है क्योंकि वह आम आदमी हैं। ऐसी स्थिति में उनकी हमदर्दी नक्सलियों से होगी इस पर उनके अंध समर्थक ही यकीन कर सकते हैं। कहीं यह नक्सलवाद भी क्रिकेट मैचों की तरह फिक्स तो नहीं है। आदिवासियों का यह पलायन कहीं उनके स्थाई पलायन का पूर्वाभ्यास तो नहीं है। क्योंकि आदिवासी क्षेत्रों में विकास न होने की बात कही जाती है और उसका जो स्वरूप हमारे सामने हैं वह केवल पूंजीपति ही करते हैं। इसके लिये उनको चाहिऐ सस्ती ज़मीन! आदिवासी ऐसे ज़मीन देंगे नहीं मगर उनसे लेनी है। इसलिये वहां तनाव पैदा कर उनको पहले अस्थाई रूप से पलायन करने के लिये विवश किया गया। बाद में विकास करने के नाम पर कोई समझौता किया जाये तो उसमें पूंजीपतियों की भूमिका तो बिना आमंत्रण के होनी ही है तब अशांति से ऊबे आदिवासी जहां अब उनको अस्थाई बसाहट मिले वहां रहने को तैयार कर ज़मीन उनसे औने पौने दामों पर खरीद ली जाये-क्या ऐसी किसी योजना की आशंका से इंकार किया जा सकता है।
जहां तक पुलिस जवानों के मरने का सवाल है तो वह आम लोग हैं और उनसे आमजन की हमदर्दी ही हो सकती है बाकी तो जुबानी जमा खर्च वाले बहुत बड़े लोग हैं। किं्रकेट में खूब फिक्सिंग चलती है किसी को परवाह नहीं क्योंकि उसमें आम इंसान ही ठगा जाता है। जो क्रिकेट में सट्टा चला रहे हैं वही फिल्मों से भी जुड़े हैं तो आतंकवादियों को भी पैसा पहुंचा रहे हैं। यह आतंक भी फिक्सिंग जैसा लगता है जिसमें स्थापित लोगों को कोई अंतर नहीं पड़ता। मरने वाला भी छोटा आदमी और मारने वाला भी।
एक पुलिस वाले को मार दिया है। उसके जवाब में नक्सली नेता कहता है कि‘हमारी कमेटी ने यह निर्णय लिया।’
मतलब कमेटी में बैठे लोग सीधे मारने नहीं आते और जो मारते हैं यह निर्णयकर्ता नहीं है। घालमेल यही से शुरु होता है। इस बात की पूरी गुंजायश है कि जहां अधिक लोग निर्णय करने वाले होते हैं वहां बाहर से आये निर्देंशों का पालन किया जाता है। आखिरी बात यह युद्ध है तो कमेटी ने निर्णय क्यों लिया? क्या कभी सुना है कि युद्ध में कमेटियां निर्णय देती हैं और सैनिक गोलियां चलाते हैं। जो पुलिस वाले बंधक हैं वह निहत्थे हैं और स्पष्टतः एक तरह से कथित नक्सली योद्धाओं के की शरण में है। आधुनिक युग में भी युद्धबंदियों की हत्या एक अपराध ही माना जाता है। इसलिये जो बुद्धिमान लोग इन नक्सलियों में वीरता का गुण देखते हैं वह जरा अपनी राय पर विचार कर लें। जो इन नक्सलियों से असहमत हैं वह भी जरा यह सवाल उनके सामने उठायें। यह बतायें कि यह युद्ध नहीं होता। इसका केवल एक ही नाम है‘आतंक।’
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Friday, May 28, 2010

हिंसा के समर्थक किसको धोखा दे रहे हैं-हिन्दी लेख (hinsa samarthak de rarhe hain dhokha-hindi lekh)

देश के भ्रष्टाचार, अनाचार तथा भेदभाव बहुत है। कोई बताये तो सही कौनसा इलाका ऐसा है जहां आम आदमी आराम से है। गर्मी में पानी, बिजली, तथा बीमारियों से देश का एक बहुत बड़ा भूभाग जूझ रहा है। उत्तर भारत में आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित लोग बड़ी संख्या में है पर उनसे ज्यादा अधिक संख्या ऐसे लोगों की है जो खुले आकाश में सूरज की इस तपिश को प्यासे कंठ से झेलते हैं। मगर कोई भी अभावों से ग्रसित आदमी उस तरह की हिंसा करने की नहीं सोचता जैसी कि कथित नक्लसवादी कर रहे हैं।
इस लेखक को यह स्वीकार करने में जरा भी यह हिचक नहीं है कि वह अर्द्धसुविधा भोगी वर्ग से है जिसे अनेक बार सुविधा मिलती है तो अनेक बार असुविधा भी झेलना पड़ती है। दूसरी बात यह है कि इस लेखक ने भी मजदूर के रूप में अपना जीवन प्रारंभ किया तब समझ लिया था कि समाज में अमीर और गरीब के बीच की एक कभी न पाटी जाने वाली खाई है जिसमें अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये परिश्रम के साथ ही बौद्धिक चालाकी की भी आवश्यकता होगी। तब भी नफरत के ऐसे बीज बोने का विचार नहीं आया था जैसे कि आज नक्सलियों के समर्थक बुद्धिजीवी बो रहे हैं। एक आम आदमी के रूप में अनेक कष्ट झेलने पड़ते हैं पर तब भी किसी की मौत का ख्याल नहीं आता। जिस तरह एक ट्रेन (ज्ञानेश्वरी एक्सप्रसे) पर हमला कर नक्सलियों ने सैंकड़ों लोगों को मार दिया उसके बाद उनके समर्थक बुद्धिजीवियों से वाद विवाद करने की गुंजायश कम ही बची है।
पिछली बार एक पाठ पर नक्सलियों का एक समर्थक बौखला गया था। उसने इस लेखक के पाठ पर बेहूदा टिप्पणी की फिर प्रतिवाद में पाठ लिखा तब भी उस पर गुस्सा नहीं आया।
यह लेखक बार बार पूछता है कि ‘आखिर नक्सलियों के पास हथियार खरीदने के लिये धन कहां से आता है? हथियार कहां से आते हैं यह तो पता लग ही गया है क्योंकि उनको गोली बारूद बेचने के आरोप में कुछ पुलिस वाले भी गिरफ्तार हो चुके हैं-यह बात अखबारों से पता चली। मतलब यह कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने वाले यह नक्सली संगठन न केवल उसी के सहारे हैं बल्कि उसे बढ़ा भी रहे हैं। जिन कथित बौद्धिक दृष्टि से पैदल मूर्खों का यह कहना कि नक्सली प्रभावित इलाकों में भ्रष्टाचार की वजह से जन असंतोष है उनकी नज़र इस पर नहीं जाती। भूखे और गरीब के पास इतना पैसा नहीं होता कि वह बंदूक खरीद सके तब यह सवाल उठता है कि इन नक्सलियों के पास हथियार खरीदने के लिये पैसा कहां से आता है?
यह पैसा एक दो रुपये कर नहीं बटोरा जाता होगा। एक मुश्त बड़ी रकम कोई न कोई व्यक्ति, संगठन या समूह देता है और वह कोई दान नहीं करता बल्कि इसके बदले अधिक रकम कमा रहा होगा। उसका व्यवसाय भी अपराधिक पृष्ठभूमि पर आधारित होगा।
इस लेखक की स्पष्टतः मान्यता है कि धर्म, जाति, भाषा, वर्ग या वर्ण के नाम पर होने वाली हिंसा उनके नाम पर बने समूहों के हित के लिये होेने का दावा एकदम गलत है। अगर किसी हिंसक वारदात में कोई बहस योग्य तत्व ढूंढ रहा है तो वह महामूर्ख है और देश में ऐसे लोगों की जमात बड़े पैमाने पर दिख रही है।
आतंकवाद एक व्यापार है। जिस तरह किसी व्यापार में कोई व्यक्ति अपना सौदा बेचने के लिये धर्म और सर्वशक्तिमान की कसम खाता है यही हाल आतंकवाद के इन व्यापारियों का है। इस आतंकवाद का एक ही उद्देश्य होता है कि सरकार और प्रशासन का ध्यान बंटा रहे ताकि उसके प्रायोजकों का धंधा चलता रहे। हालांकि इस तरह के आतंकवाद के समर्थकों के लिये मूर्ख कहना भी अपने आपको धोखा देना है क्योंकि वह भी कहीं न कहीं से प्रायोजित होते हैं। कहना गलत न होगा कि कुछ सफेदपोश संगठन इन आतंकवादियों के मुखौटे होते हैं और उसी के सदस्य ही सामाजिक, आर्थिक तथा वैचारिक विवादों की आड़ लेते हैं।
जिस ब्लाग लेखक ने इस लेखक के पाठ का प्रतिवाद किया था वह प्रत्यक्ष नक्सलवादियों का समर्थन नहीं कर उनके प्रभाव वाले क्षेत्रों की समस्याओं की बात कर रहा था। यह उसकी चालाकी थी क्योंकि हिंसक वारदातों के चलते सीधा समर्थन करने की गुंजायश अब बहुत कम बुद्धिजीवियों के पास बची है इसलिये वहां की समस्याओं की आड़ लेते हुए मध्यमार्गी दिखने का प्रयास करते हैं-लिखते हैं कि वहां का विकास हो जाये तो यह समस्या खत्म हो जायेगी।
इस लेखक ने अपने पाठ में नक्सल प्रभावित वाले क्षेत्रों की समस्याओं की चर्चा का समर्थन किया पर एक ही आग्रह किया था कि जब नक्सलवाद की बात करें तो उनकी चर्चा बेमानी है क्योंकि हिंसक तत्व केवल उसकी आड़ ले रहे हैं। इन नक्सलियों को न केवल हथियार मिल रहे हैं बल्कि उनको अन्य भौतिक सुविधायें भी उपलब्ध हैं। मज़दूरों, गरीबों तथा बेसहारों के कल्याण की बात अगर वह करते हैं तो संसार के प्रचार माध्यमों को धोखा दे रहे हैं। दरअसल प्रचार पाकर ही उनको धन मिल सकता है इसलिये ऐसी वारदातें कर रहे हैं।
बंदूक और बम आने के बाद आदमी में हैवानियत छा जाती हैं। चूंकि नक्सलवादियों के समर्थकों को भारतीय अध्यात्म विष तुल्य लगता है इसलिये उनको बता दें कि भगवान श्रीराम की पत्नी सीता अपने पति को यही समझाती थी कि ‘हथियार आदमी की मति को भ्रष्ट कर देते हैं।’
उन्होंने एक किस्सा अपने पति को सुनाया था। एक तपस्वी के तप से संकट अनुभव कर रहे देवराज इंद्र ने उसके पास जाकर अपना एक खड्ग धरोहर के रूप में रखा। उस धरोहर की रक्षा करते हुए वह तपस्वी हिंसक हो उठे और बेकसूरों को मारने लगे और उनका तप भंग हो गया। भगवान श्रीराम और देवी सीता के नाम से बिदकने वाले नक्सल समर्थक बुद्धिजीवियों को बताना जरूरी है ताकि यह समझें कि यह देश अभी भी अध्यात्मवादियों से भरा हुआ है और उनकी चालाकियों को समझता है। आप चाहे कितना भी दावा करें पर सच यही है कि हथियार पकड़ने वाला मनुष्य दूसरों से ज्यादा अपने लोगों के लिये अधिक खतरनाक होता है और आदिवासियों का समर्थन इन नक्सलियों के पास है यह बात भले ही चालाकी से कहें पर इसे आम जनता मूर्खतापूर्ण ही मानती है। यह अलग बात है कि ज्ञानी लोग जानते हैं कि ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें लिखने वाले चालाकी से प्रायोजित हैं।
अगर देश के भ्रष्टाचार, बेईमानी, अन्याय, अत्याचार, दुराचार तथा अपराध की बात की जाये तो भला कौनसा ऐसा क्षेत्र है जहां स्वर्ग बसा हुआ है। इन पर चर्चा होना चाहिये पर अगर इसके नाम पर कुछ क्षेत्रों में हिंसा का समर्थन किया जाता है तो फिर यह सवाल भी उठता है कि कथित रूप से गरीब और पिछड़े क्षेत्रों के गरीबों के पास हथियार आ जाते हैं पर रोटी हाथ में नहंी आती। चलिये यह काम दूसरे दानी करते हैं तो भी यह बतायें कि उनको संघर्ष के नाम पर हथियार देने वाले क्या उनको रोटी नहीं दे सकते? हमारा यह स्पष्टतः मानना है कि गरीब, पिछ़डे और अन्यास से जूझ रहे लोगों को हर जगह नैतिक समर्थन देना चाहिये पर जब आप इस आड़ में हिंसक तत्वों को प्रचार देते हैं तो आपकी नीयत पर शक होगा।
यह कहना तो सरासर मूर्खता है कि विकास होने से वहां की समस्या दूर हो जायेगी। दरअसल विकास न हो इसलिये ही तो यह हिंसा की जा रही है क्योंकि विकास से लोग जागरुक हो जाते हैं तब काले धंधे वालों के लिये मुश्किल होती है। तय बात है कि उनके प्रायोजन से चल रहे हिंसक तत्वों का विकास से कोई वास्ता नहीं है। जो बुद्धिजीवी इन हिंसक तत्वों के लिये समर्थन करते हुए पाठ लिखते हैं वह स्वयं धोखे में है या आम लोगों को धोखा दे रहे हैं।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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