ज़माने में मनोरंजन पर खर्च कर आते हैं,
गरीबी और भुखमरी का रोग छिपाने के लिये
उस पर क्रिकेट के छक्के,
और फिल्म के झटके,
दवा और मरहम की तरह लगाते हैं।
धन सफेद हो तो
किसे चिंता होती है,
पर काला हो तो
अनिद्रा साथ होती है,
मगर लूट का हो तो
अपना पाप छिपाने के लिये
धर्म की आड़ होना भी जरूरी पाते हैं।
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अब फिक्र यह नहीं कि अपनों ने हमें लूटा है,
पर डर है कि रिश्तों का भांडा सरेराह फूटा है।
ग़म पैसा जाने का नहीं, क्योंकि वह फिर आयेंगे,
चिंता है कि कुनबे की नेकनीयती का दावा झूठा है।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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