समझदार लोग जानते हैं कि यह उनका भ्रम है इसलिये केवल विचारों को आता जाता देखकर काम चला लेते हैं पर कुछ संवेदनशील लोग विशिष्ट हस्तियों के निकट तक पहुंचना चाहते हैं। सच कहें तो वह पर्दे के पीछे जाकर उनसे मिलना चाहते हैं। यह एक खतरनाक काम है क्योंकि भीड़ के सामने और पर्दे के पीछे व्यवहार में बहुत अंतर होता है।
एक संत कथा कर रहे थे। उनके प्रवचनों में भी वही बातें थी-‘मोह माया छोड़ दो’, ’लोगों का भला करो’, वगैरह वगैरह। पैसे के प्रति उनका मोह सर्वज्ञात था पर फिर भी अपने देश के लोग तत्वज्ञान होने के बावजूद भ्रम में रहना पसंद करते हैं इसलिये उनको सुनने भीड़ आती थी। एक प्रवचन कार्यक्रम खत्म होते ही वह पर्दे के पीछे पहुंचे गये। वहां अपने शिष्य से बोलो-‘आज कितना चढ़ावा आया। कल तो बहुत कम आया था। ऐसा प्रतीत होता है कि लोग मु्फ्त में प्रवचन सुनना चाहते हैं।’
वह शिष्य बोला-‘बाबा, आज तो छुट्टी का दिन है। भीड़ ज्यादा है। आज बाहर चंदे की पेटियां भी बढ़ा दी हैं। इसलिये कल से अच्छा चढ़ावा आयेगा।’
महाराज खुश नहीं हुए और बोले-‘तुमने परले शहर फोन किया। वहां के आयोजक से कहो कि कथा करने के हम इतने कम पैसे नहीं लेंगे।’
वह शिष्य बोला-‘मैंने उससे कहा था। वह आज आपको फोन करेगा।’
कथित संत बोले-‘मुझे उसने सुबह फोन किया था। उस समय तुम मेरे पास नहीं थे। मैंने उससे कहा कि इतने कम पैसे में कथा करने नहीं आऊंगा। तुम फिर एक बार फिर फोन करना। देखो राजी हो जायेगा। यहां चढ़ावा बहुत कम आया है। मेरे लिये यह हैरानी की बात है।’
इस बातचीत को एक अन्य श्रद्धालु सुन रहा था। दरअसल प्रवचन खत्म होते ही वह संत जी के शिष्यों को चकमा देते हुए वहां उनके करीब से दर्शन करने पहुंच गया था। शिष्य की नजर उस पर गयी और वह बोला-‘कौन हो भई, यहां कैसे आये।’
तब तक वह श्रद्धालू संतजी के पास पहुंच गया था और चरण पकड़ कर बोला-‘महाराज आपके पास से दर्शन किये।जीवन धन्य हो गया।’
प्रवचन के दौरान बात बात पर हंसने वाले उन संत जी का मूंह सूझा हुआ था। वह आशीर्वाद देते हुए बोले-‘ठीक है भई, पर इस तरह मत आया करो। हम भी आखिर इंसान है थक जाते हैं और हमें भी विश्राम की आवश्यकता होती है। अब तुम जाओ।’
उसने अपनी जेब से सौ का नोट निकालकर उनके पांव पर रख दिया और बोला-‘महाराज, यह लीजिये इस तुच्छ प्राणी की यह तुच्छ भेंट।’
शिष्य ने कहा-‘उठाओ यह नोट! महाराज को क्या भिखारी समझ रखा है। बाहर जाकर पेटी में डाल दो।’
महाराज ने कहा-‘अब ले लो।’
उन्होंने वह नोट स्वयं ही उठा लिया और उससे कहा-‘अब जाओ! हमारी आज्ञा का पालन करो।’
वह जाते हुए कुछ शमियाने के बाहर दरवाजे पर रुक गया यह जानने के लिये कि पर्दे के पीछे महाराज दूसरी कौनसी बातें करते हैं। उसने महाराज को कहते हुए सुना-‘लक्ष्मी को मत ठुकराया करो। क्या पता, बाहर जाकर उसका विचार बदल जाता। वैसे इस सौ के नोट से क्या होता है पर कम चढ़ावा आ रहा है तो जहां से जितना आ रहा है ले लो।’
संत शिष्य की बात जो भी हुई उससे उस श्रद्धालू का मन टूट गया। वह इस बात पर नहीं पछता रहा था कि उसके इष्टदेव की असलियत सामने आयी बल्कि परेशान वह बात को लेकर था कि वह पर्दे के पीछे गया क्यों? कम से कम उसका भ्रम तो बना रहता। जब सच कड़वे हों तो भ्रम में रहना भी आदमी को अच्छा लगता है। यह भ्रम तभी तक सत्य लगता है कि जब तक आदमी अपने आदरणीय का पीछा करते हुए पर्दे के पीछे नहीं चला जाता।
सच तो यह है कि पर्दे के पीछे न जाना चाहिये। पर्दे के पीछे बड़े बड़े खेल होते हैं।
एक विवाह समारोह में एक सज्जन पर्दे के पीछे किसी काम से चले गये। वहां से लौटे तो एक मित्र ने पूछा-‘क्या पर्दे के पीछे शराब पीने गये थे?’
‘नहीं-’उन सज्जन ने कहा-‘पर यह तुम क्यों पूछ रहे हो।’
मित्र ने कहा-‘ऐसे ही! शादी विवाह में लोग पर्दे के पीछे ऐसे ही शराब पीने जाते हैं।’
ऐसा हो सकता है कि कई जगह आपको शराब या सिगरेट का सेवन न करने के लिये जागरुकता उत्पन्न करने वाले सेमीनार होते दिखें। उनकी समाप्ति पर उसमें शामिल लोगों को अगर पर्दे के पीछे उन्हीं वस्तुओं का सेवन करते देखें तो हैरान न हो। सामने और पर्दे के पीछे आचरण करने के लोगा इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि उनको अपने कथन और कर्म के विरोधाभास दिखाई नहीं देते। इन विरोधाभासों को देखकर दिलोदिमाग में तनाव पैदा न हो इसलिये पर्दे के पीछे जाने का प्रयास ही नहीं करना चाहिये।
.....................................
दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
No comments:
Post a Comment