कातिल को तलाश रहे थे।
मिलता कहां भला वह
शामिल जो था उनमे
उसके कातिल हाथ
पहरेदार की पहचान पा रहे थे।
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जो सुना
जो देखा
जो हाथ से छुआ
उसकी पहचान पर फिर भी यकीन नहीं करना
देखने और सुनने के
बिक रहे बाजार में नये औजार
जिनको हाथ से छूते ही
अक्ल गायब हो जाती है
झूठ भी लगता है सच
जो पैदा नहीं हुआ
वही शख्स जिंदा चलता दिखता है
सारी दुनियां कहे
फिर भी आजमाये बिना यकीन नहीं करना।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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