बेबस होकर जलते रहे,
अपनी छा ही छाती पर मूंग दलते रहे,
उम्मीद थी कि इंसाफ
सारे जख्म धो देगा।
जब तारीख आई
तो वह भी मिला
पर जैसे पहाड़ खोदकर निकला चूहा
अफसोस यह था कि
पता लगी अपनी औकात
इसका अनुमान नहीं था कि
ज़मीर करता था जिस इंसाफ पर यकीन
वह भी खो देगा।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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1 comment:
बहुत सुंदर
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