पुरानी लोक कथा है जिसे सभी पढ़ या सुन चुके हैं। एक किसान अपनी दो बेटियों से मिलने गया। एक बेटी किसान के घर में ब्याही थी। वह उससे मिलकर अपने घर जाने को तैयार हुआ तो बेटी ने कहा-‘पिताजी, भगवान से प्रार्थना करिये इस बार बरसात जल्दी और अच्छी हो क्योंकि अब खेतों में बोहनी का समय निकल रहा है।’
किसान ने कहा-‘हां भगवान से प्रार्थना करूंगा कि इस बार अच्छी और जल्दी बारिश हो।’
उसके बाद वह अपनी दूसरी बेटी से मिलने गया तो चलते समय उस बेटी नेे कहा-‘पिताजी, भगवान से प्रार्थना करिये कि अभी बारिश न हो क्योंकि
हमारे मटके धूप में सूखने के लिये रखे हुए हैं अगर पानी पड़ा तो सब बरबाद हो जायेगा। फिर बारिश होते ही उनकी बिक्री भी कम हो जाती है।’
यह तो पुरानी कहानी है जिसमें वर्षा ऋतु को लेकर मनुष्य समाज का अंतर्विरोध दर्शाया गया है पर वर्तमान समय में तो यही अंतर्विरोध एक मनुष्य में ही सिमट गया है और खासतौर से शहरी सभ्यता में तो इसके दर्शन प्रत्यक्ष किये जा सकते हैं।
हमारा घर ऐसी कालोनी में है जिसमें अपनी बोरिंग से ही पानी आता है। पिछले पांच छह वर्षों से गर्मियों में जिस संकट का सामना करना पड़ता है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इस बार फरवरी से ही संकट प्रारंभ हुआ जो हैरानी की बात थी। पिछली बार बारिश अच्छी हुई थी इसलिये हमें आशा थी कि इस बार पानी का स्तर अधिक नीचे नहीं जायेगा मगर फरवरी से ही संकट प्रारंभ हो गया। पानी पांच मिनट आता फिर बंद हो जाता था। तब बार बार मशीन बंद कर चलाना पड़ता। अप्रैल आते आते यह दो मिनट तक रह गया। जून आते आते एक मिनट तक रह गया। दरअसल हमारा इलाका पानी की बहुलता के लिये जाना जाता है और अनेक कारखाने इसलिये वहां बड़ी बड़ी मशीने लगाकर उसका दोहन करने लगे हैं।
अब समस्या दूसरी थी। अगर बोरिंग खुलवाते हैं तो कमरे में जाने वाला पाईप भी गल चुका है और उसे भी बदलवाना पड़ेगा क्योंकि वहां से हवा पकड़ लेती है। दो साल पहले पाईप दस फुट बढ़वाया था और अब उसमें बढ़ने की संभावना है कि पता नहीं। सोचा जब तक चल रहा है चलने दो। कहीं खुलवाया तो इससे भी न चले जायें। दूसरी बोरिंग खुदवाना इस समय महंगा काम हो सकता है दूसरा यह कि हम भी प्रंद्रह वर्षों से अपनी इस आशा को जिंदा रखते रहे हैं कि कालौनी में सरकारी पानी की लाईन आ जायेगी।
बहरहाल ऐसे में हमें बरसात से ही आसरा था। हर रोज यही लगता था कि आज पानी ने साथ छोड़ा कि अब छोड़ा। पिछले शनिवार जब आकाश में बादल चिढ़ा रहे थे तब तो लग रहा था कि अब पानी भी चिढ़ाने वाला है। आकाश से बादल चले जा रहे और नीचे सूखा। फिर उमस ऐसी कि लगता था कि शायद नरक इसे ही कहा जाता है।
ऐसे में बरसात हुई तो मजा आ गया। उम्मीद है कि कम से कम पानी अभी तत्काल साथ नहीं छोड़ेगा मगर सड़कों क्या करें? रात को घर लौटते हुए घर पहुंचना किसी जंग से कम नहीं लगता। सभी जगह विकास कार्यों की वजह से कीचड़! कई जगह बाई पास मार्ग ढूंढना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह कि अपनी कालोनी की सड़क अब पूरी तरह से मिट्टी वाली हो गयी है और डंबर नाममात्र को भी नहीं है, मगर यही सडक अब एक तरह से पानी संचय का काम करती है क्योकि बाकी जगह तो मकान बन गये हैं। जगह जगह पानी भर गया है पर फिर भी सड़क बन जाये ऐसा ख्याल नहीं आता क्योंकि हमारी मुख्य समस्या तो पानी है।
शाम को घर आते हुए पानी की बूंदे गिर रही थीं, सड़कों से जूझते हुए बढ़ रहे थे पर फिर भी दिल में यह ख्याल नहीं आया कि बरसात बंद हो जाये।
खराब सड़क देखकर चिढ़ आती है कि ‘यहां डंबरीकरण क्यों नहीं हो रहा है’ पर तत्काल अपनी बोरिंग का ख्याल आता है तो सोचते हैं कि बरसात तो कभी कभी न थम जायेगी तो सड़क वैसे ही दिखाई देगी पर अगर पानी नहीं मिला तो सड़क पर ही कहीं जाकर सरकारी स्त्रोत से पानी भरना पड़ेगा।
पिछले ऐसा ही वाक्या हुआ।
एक हमारी जान पहचान के सज्जन है उनके यहां सरकारी नल से पानी आता है। संयोगवश उस दिन बरसात हो रही थी और वह हमारे साथ ही एक दुकान की छत के नीचे आसरा लिये खड़े हुए थे। पता नहीं कैसे वह बड़बड़ाये कि ‘हे भगवान, पानी बंद हो जाये तो घर पहुंच जाऊं।’
पास ही एक ग्रामीण अपनी साइकिल खड़ी करके वहां बैठा बीड़ी पी रहा था। वह बोला-‘भगवान और जोर से बारिस कर।
फिर वह उन सज्जन की तरफ मूंह कर बोला-‘कैसी बात कर रहे हो। हमारे गांव में बोरिंग से पानी बहुत कठिनाई से निकल रहा है। खेत सूखे पड़े हैं और आप हो कि बारिश शुरु हुई नहीं है कि उसे बंद करने की प्रार्थना करने लगे।’
उस ग्रामीण ने बात हमारे मन की कही थी पर हमारे अंदर भी वैसा ही अंतर्द्वंद्व था जैसा कि किसान के मन में बेटियों की वजह से आया होगा।
बहरहाल स्थिति यह है कि सड़कों की हालत यह है कि बरसात के दिनों मे घर से बाहर निकलने की इच्छा ही नही होती। वैसे भी हमारे देश के अध्यात्म दर्शन में वर्षा ऋतु में बाहर निकलना वर्जित किया गया है । वैसे कुछ समय पहले तक कहा जाता था कि वर्तमान समय में सड़कें आदि बन गयी हैं इसलिये अब इस धारा से मुक्ति पायी जानी चाहिए पर जब देश के विभिन्न शहरों की स्थिति देखते हैं तो यह धारा आज भी प्रभावी लगती है क्योंकि डंबरीकृत सड़कें्र एक बरसात में ही बह जाती हैं उस पानी से लबालब सड़क पर कहां सीवर लाईन का गटर है पता नहीं क्योंकि उनमें गिरने वालों की बहुत बड़ी संख्या रहती है-ऐसे समाचार अक्सर आते रहते हें तब लगता है कि वर्षा ऋतु में भारतीय अध्यात्म ज्ञान आज भी प्रासांगिक है।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
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