धातुओं के नाम हैं
जिनकी चमक फीकी पड़ जाती है।
पर फिर भी इंसान की आंखें
उनके बने सामान पर हो जाती हैं फिदा,
तब सोच हो लेती है विदा,
बाहर की रौशनी से दिल रौशन नहीं होते
फैशन की अंधी दौड़ में
बिना अकल के घोड़े पर सवार
इंसान कई बार धोखा खाकर गिरता है
फिर भी यह बात उसे समझ में नहीं आती है।
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ख्वाहिश होती है
जिनको अपना नाम आकाश में चमकाने की
चाल उनकी बिगड़ जाती है,
नेकी और इंसानियत के बन जाते सौदागर वही
घर के सामने का दरवाजा लगता मंदिर जैसा
दौलत उनके यहां पिछवाड़े से आती है।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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