अपनों पर नहीं यकीन
इसलिये गैरों से उनके शिकवे और शिकायत करते हैं,
परायों के कमरे में जाकर छूते हैं पांव,
उनसे मुलाकात का दंभ भरते है आकर अपने गांव,
कुछ खास हैं
यह दिखाने के लिये
आखिर अपने रिश्तों में ही दम भरते हैं।
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अपनों से छिप कर वह
परदेसियों से आंखें लड़ाते हैं,
जिनको अपनी गली में नहीं मिलती इज्जत
वही बाहर जाकर अपना दर्द
बयान कर आते हैं।
साथियों में फिर वैसे ही वफादारी का
चोला पहनकर खामोशी से खड़े हो जाते हैं।
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परायों के कमरे में जाकर छूते हैं पांव,
उनसे मुलाकात का दंभ भरते है आकर अपने गांव,
कुछ खास हैं
यह दिखाने के लिये
आखिर अपने रिश्तों में ही दम भरते हैं।
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अपनों से छिप कर वह
परदेसियों से आंखें लड़ाते हैं,
जिनको अपनी गली में नहीं मिलती इज्जत
वही बाहर जाकर अपना दर्द
बयान कर आते हैं।
साथियों में फिर वैसे ही वफादारी का
चोला पहनकर खामोशी से खड़े हो जाते हैं।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
poet writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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