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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, October 24, 2013

सौदागरों के लफड़े-हिन्दी व्यंग्य कविता(saudagaron ke lafde-hindi vyangya kavita)



शोर मचा है कहीं बाज़ार में
सौदागर काले हाथ करते हुए  पकड़े हैं,
कानून की जंजीरों में अब जकड़े  है,
हैरान है सौदागरों के कारिंदे
यह सोचकर कि अपना काफिला
कैसे आगे चलेगा,
कहंी उनके घर में घी की बजाय
तेल का चिराग तो नहीं जलेगा,
इसलिये नारे लगाते हुए
अपने मालिक की ईमानदारी पर
सीना तानकर खड़े अकड़े हैं।
कहें दीपक बापू
दौलतमंद चाहे कितने भी आगे हों
सारे जहान में
मगर ईमान के रास्ते चलने पर
उनकी नानी हमेशा मरती,
हुकुमत पर काबू रखने का
ख्वाब अच्छा है
मगर उसके आगे चलने की ख्वाहिश भी
उनकी आहें भरती,
यह अलग बात है
कानून अंधा है
कभी कभी चल पड़ता है
अपने ही दोस्तों की तरफ
अपने हाथ बढ़ाते हुए,
खरीदते हैं जो उसे अपने सिक्कों की दम पर
चल पड़ता है डंडा लेकर कभी
उनको डराते हुए,
सौदागरों के हमदर्द
ज़माने के बिखर जाने का खौफ दिखाते हैं
आवाज इतनी जोर से करते
ताकि कोई न पूछे
उनके मालिकों के दूसरे कितने लफड़े हैं।
------------------


लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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Monday, October 14, 2013

उनका हिसाब-हिन्दी व्यंग्य कविता (unka hisab-hindi vyangya kavita)



जिनको उम्मीद है कोई तुमसे
उन पर  अपना आसरा
कभी नहीं टिकाना,
वादे पर वादे वह करेंगे
मतलब निकलते ही
बदल लेंगे  अपना ठिकाना।
कहें दीपक बापू
अगर वह चालाक नहीं होते,
गद्देदार पलंग की बजाय जमीन पर सोते,
वफादारी निभाने की अगर उनमें तमीज होती,
तब क्यों उनकी एकदम सफेद कमीज होती,
पसीने की एक बूंद नहीं है शरीर पर जिनके,
आम इंसान होते उनके लिये तिनके,
एक हाथ उठाकर वह एक चीज मांगें
तुम दोनो हाथों से दो चीज देना
किसी के खाते में उनका हिसाब न लिखाना,
आदत नहीं है उनको
मतलब पूरा होने के बाद अपनी शक्ल दिखाना।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Sunday, October 6, 2013

कुदरत की चाल और इंसान की चालाकियां-हिन्दी कविता(kudrat ki chal aur insan ki chalakiyan-hindi kavita)



कुदरत की अपनी चाल है
इंसान की अपनी चालाकियां है,
कसूर करते समय
सजा से रहते अनजान
यह अलग बात है कि
सर्वशक्तिमान की सजा की भी बारीकियां हैं,
दौलत शौहरत और ओहदे की ऊंचाई पर
बैठकर इंसान घमंड में आ ही जाता है,
सर्वशक्तिमान के दरबार में हाजिरी देकर
बंदों में खबर बनकर इतराता है,
आकाश में बैठा सर्वशक्तिमान भी
गुब्बारे की तरह हवा भरता
इंसान के बढ़ते कसूरों पर
बस, मुस्कराता है
फोड़ता है जब पाप का घड़ा
तब आवाज भी नहीं लगाता है।
कहें दीपक बापू
अहंकार ज्ञान को खा जाता है,
मद बुद्धि को चबा जाता है,
अपने दुष्कर्म पर कितनी खुशफहमी होती लोगों को
किसी को कुछ दिख नहंी रहा है,
पता नहीं उनको कोई हिसाब लिख रहा है,
गिरते हैं झूठ की ऊंचाई से लोग,
किसी को होती कैद
किसी को घेर लेता रोग
उनकी हालत पर
जमीन पर खड़े इंसानों को तरस ही जाता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Thursday, September 26, 2013

नाटकीय अंदाज-हिन्दी व्यंग्य कविता(natkiy andaz-hindi vyangya kavita)



दूसरे को विष देने के लिये सभी तैयार
पर  हर कोई खुद अमृत चखता है,
घर से निकलता है  अपनी  खुशियां ढूंढने
पूरा ज़माना बड़े जोश के साथ
दूसरों को सताने के लिये
दर्द की पुड़िया भी साथ रखता है।
कहें दीपक बापू
बातें बहुत लोग करते हैं
सभी का भला करने की
मगर आमादा रहते
अपना मतलब निकालने के वास्ते,
जुबां से करते गरीबों की मदद की बात
आंखें उनकी ढूंढती अपनी कमीशने के रास्ते,
बेबसों की मदद का नारा लोग  देते,
पहले अपने लिये दान का चारा लेते,
नाटकीय अंदाज में सभी को रोटी
दिलाने के लिये आते वही सड़कों पर
जिनके घर में चंदे से भोजन पकता है।
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Tuesday, September 17, 2013

हादसे होते रहेंगे-हिन्दी व्यंग्य कविता



देश में तरक्की बहुत हो गयी है
यह सभी कहेंगे,
मगर सड़कें संकरी है
कारें बहुत हैं
इसलिये हादसे होते रहेंगे,
रुपया बहुत फैला है बाज़ार में
मगर दौलत वाले कम हैं,
इसलिये लूटने वाले भी
उनका बोझ हल्का कर
स्वयं ढोते रहेंगे।
कहें दीपक बापू
टूटता नहीं तिलस्म कभी माया का,
पत्थर पर पांव रखकर
उस सोने का पीछा करते हैं लोग
जो न कभी दिल भरता
न काम करता कोई काया का,
फरिश्ते पी गये सारा अमृत
इंसानों ने शराब को संस्कार  बना लिया,
अपनी जिदगी से बेजार हो गये लोगों ने
मनोरंजन के लिये
सर्वशक्तिमान की आराधना को
खाली समय
पढ़ने का किस्सा बना लिया,
बदहवास और मदहोश लोग
आकाश में उड़ने की चाहत लिये
जमीन पर यूं ही गिरते रहेंगे।
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Monday, September 9, 2013

हिन्दी दिवस पर व्यंग्य कविता-एक दिन की रौशनी (hindi diwas par vyangya kavita-ek din ki roshni



14 सितंबर हिन्दी दिवस के बहाने,
राष्ट्रभाषा का महत्व मंचों पर चढ़कर
बयान करेंगे
अंग्रेजी के सयानो।
कहें दीपक बापू
अंग्रेजी में रंगी जिनकी जबान,
अंग्रेजियत की बनाई जिन्होंने पहचान,
हर बार की तरह
साल में एक बार
हिन्दी का नाम जपते नज़र आयेंगे।
लिखें और बोलें जो लोग हिन्दी में
श्रोताओं और दर्शकों की भीड़ में
भेड़ों की तरह खड़े नज़र आयेंगे,
विद्वता का खिताब होने के लिये
अंग्रेजी का ज्ञान जरूरी है
वरना सभी गंवार समझे जायेंगे,
गुलामी का खून जिनकी रगों में दौड़ रहा है
वही आजादी की मशाल जलाते हैं
वही लोग हमेशा की तरह हिन्दी भाषा के  महत्व पर
एक दिन रौशनी डालने आयेंगे।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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Wednesday, August 28, 2013

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी-श्रीमद्भागवत गीता के जनक को कोटि कोटि नमन(shri krishna janamashtami-shrimadbhawat geeta ke janak ko koti koti naman



                        आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है।  भारत में धर्मभीरु लोगों के लिये यह उल्लास का दिन है।  इसमें कोई संशय नहीं है कि मनुष्य में मर्यादा का सर्वोत्तम स्तर का मानक जहां भगवान श्रीराम ने स्थापित किया वहीं भगवान श्रीकृष्ण ने अध्यात्मिक ज्ञान के उस स्वर्णिम रूप से परिचय कराया जो वास्तविक रूप से मनुष्यता की पहचान है। भोजन और भोग का भाव सभी जीवो में समान होता है पर बुद्धि की अधिकता के कारण मनुष्य तमाम तरह के नये प्रयोग करने में ंसक्षम है बशर्ते वह उसके उपयोग करने का तरीका जानता हो।  भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में मनुष्य को बुद्धि पर नियंत्रण करने की कला बताई है। आखिर उन्होंने इसकी आवश्यकता क्यों अनुभव की होगी? इसका उत्तर यह है कि मनुष्य का मन उसकी बुद्धि से अधिक तीक्ष्ण है।  बुद्धि की अपेक्षा  से कहीं उसकी गति तीव्र है।  सबसे बड़ी बात मनुष्य पर उसके मन का  ही नियंत्रण है।  ज्ञान के अभाव में मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग मन के अनुसार करता है पर जिसने श्रीगीता का अध्ययन कर लिया वह बुद्धि से ही मन पर नियंत्रण कर सफलतापूर्वक जीवन व्यतीत करता है। वही ब्रह्मज्ञानी है।
                        चंचल मन मनुष्य को इधर से उधर भगाता है। बेकाबू मन के दबाव में मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग केवल उसी के अनुसार करता है। बुद्धि की चेतना उस समय तक सुप्तावस्था में रहती है जब तक मन उस पर अधिकार जमाये रहता है।  ऐसे में जो मनुष्य सांसरिक विषयों में सिद्धहस्त हैं वह सामान्य मनुष्य को भेड़ की तरह भीड़ बनाकर हांकते हुए चले जाते हैं।  सामान्य मनुष्य समाज की सोच का स्तर इसी कारण इतना नीचा रहता है कि वह अधिक भीड़ एकत्रित करने वाले सांसरिक विषयों में  प्रवीण लोगों को ही सिद्ध मानने लगता है।
                        इस देश में अध्यात्मिक ज्ञान और धार्मिक कर्मकांडों का अंतर नहीं किया गया।  जिस हिन्दू धर्म की हम बात करते हैं उसके सभी प्रमाणिक ग्रंथों में  कहीं भी इस नाम से नहीं पुकारा गया। कहा जाता है कि प्राचीन धर्म सनातन नाम से जाना जाता था पर इसका उल्लेख भी प्रसिद्ध ग्रंथों में नहंी मिलता। दरअसल इन ग्रंथों में आचरण को ही धर्म का प्रमाण माना गया हैं।  इस आचरण के सिद्धांतों को धारण करना ही अध्यात्मिक ज्ञान कहा जाता है।  हमारी देह पंच तत्वों से बनी है जिसमें मन, बुद्धि तथा अहंकार तीन प्रवृत्तियां स्वाभाविक रूप से आती हैं। हम अपने ही मन, बुद्धि तथा अहंकार के चक्रव्यूह में फंसी देह को धारण करने वाले अध्यात्म को नहीं पहचानते। अपनी ही पहचान को तरसता अध्यात्म यानि आत्मा जब त्रस्त हो उठता है और पूरी देह कांपने लगती है पर ज्ञान के अभाव में यह समझना कठिन है-यदि ज्ञान हो तो फिर ऐसी स्थिति आती भी नहीं।  यह ज्ञान कोई गुरु ही दे सकता है यही कारण है कि गुरु सेवा को श्रीगीता में बखान किया है।  समस्या यह है कि अध्यात्मिक गुरु किसी धर्म के बाज़ार में अपना ज्ञान बेचते हुए नहीं मिलते। जिन लोगों ने धर्म के नाम पर बाज़ार सजा रखा है उनके पास ज्ञान के नारे तो हैं पर उसका सही अर्थ से वह स्वयं अवगत नहीं है। 
                        हमारे देश में धार्मिक गुरुओं की भरमार है। अधिकतर गुरु आश्रमों के नाम पर संपत्ति तथा गुरुपद प्रतिष्ठित होने के लिये शिष्यों का संचय करते हैं।  गुरु सेवा का अर्थ वह इतना ही मानते हैं कि शिष्य उनके आश्रमों की परिक्रमा करते रहें।  श्रीकृष्ण जी ने गुरुसेवा की जो बात की है वह केवल ज्ञानार्जन तक के लिये ही कही है। शास्त्र मानते हैं कि ज्ञानार्जन के दौरान गुरु की सेवा करने से न केवल धर्म निर्वाह होता है वरन् उनकी शिक्षा से सिद्धि भी मिलती है।  यह ज्ञान भी शैक्षणिक काल में ही दिया जाना चाहिये।  जबकि हमारे वर्तमान गुरु अपने साथ शिष्यों को बुढ़ापे तक चिपकाये रहते हैं।  हर वर्ष गुरु पूर्णिमा के दिन यह गुरु अपने आश्रम दुकान की तरह सजाते हैं।  उस समय धर्म कितना निभाया जाता है पर इतना तय है कि अध्यात्म ज्ञान का विषय उनके कार्यक्रमों से असंबद्ध लगता है।  शुद्ध रूप से बाज़ार के सिद्धांतों पर आधारित ऐसे धार्मिक कार्यक्रम केवल सांसरिक विषयों से संबद्ध होते हैं। नृत्य संगीत तथा कथाओं में सांसरिक मनोरंजन तो होता है  पर अध्यात्म की शांति नहीं मिल सकती।  सीधी बात कहें तो ऐसे गुरु सांसरिक विषयों के महारथी हैं।  यह अलग बात है कि उनके शिष्य इसी से ही प्रसन्न रहते हैं कि उनका कोई गुरु है।
                        हमारे देश में श्रीकृष्ण के बालस्वरूप का प्रचार ऐसे पेशेवर गुरु अवश्य करते हैं। अनेक गुरु तो ऐसे भी हैं जो राधा का स्वांग कर श्रीकृष्ण की आराधना करते हैं।  कुछ गुरु तो राधा के साथ श्याम के नाम का गान करते हैं।  वृंदावन की गलियों का स्मरण करते हैं। महाभारत युद्ध में श्रीमद्भावगत गीता की स्थापना करने वाले उन भगवान श्रीकृष्ण को कौन याद करता है? वही अध्यात्मिक ज्ञानी तथा साधक जिन्होंने गुरु न मिलने पर भगवान श्रीकृष्ण को ही गुरु मानकर श्रीमद्भागवत के अमृत वचनों का रस लिया है, उनका स्मरण मन ही मन करते हैं। उन्होंनें महाभारत युद्ध में हथियार न उठाने का संकल्प लिया पर जब अर्जुन संकट में थे तो चक्र लेकर भीष्म पितामह को मारने दौड़े।  उस घटना को छोड़कर वह पूरा समय रक्तरंजित हो रहे कुरुक्षेत्र के मैदान में कष्ट झेलते रहे। एक अध्यात्मिक ज्ञानी के लिये ऐसी स्थिति में खड़े रहने की सोचना भी कठिन है पर भगवान श्रीकृष्ण ने उस कष्ट को उठाया।  उनका एक ही लक्ष्य था अध्यात्मिक ज्ञान की प्रक्रिया से धर्म की स्थापना करना। यह अलग बात है कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर गीता की चर्चा करने की बजाय  उनके बालस्वरूप और लीलाओं पर ध्यान देकर भक्तों की भीड़ एकत्रित करना पेशेवर धार्मिक व्यक्तित्व के स्वामी भीड़ को एकत्रित करना सुविधाजनक मानते हैं।
                        जैसे जैसे आदमी श्रीगीता की साधना की तरफ बढ़ता है वह आत्मप्रचार की भूख से परे होता जाता है। वह अपना ज्ञान बघारने की बजाय उसके साथ जीना चाहता है। न पूछा जाये तो वह उसका ज्ञान भी नहीं देगा। सम्मान की चाहत न होने के कारण वह स्वयं को ज्ञानी भी नहीं कहलाना चाहता। सबसे बड़ी बात वह भीड़ एकत्रित नहीं करेगा क्योंकि जानता है कि इस संसार में सभी का ज्ञानी होना कठिन है।  भीड़ पैसे के साथ प्रसिद्धि दिला सकती है मगर वह  सिद्धि जो उद्धार करती है वह एकांत में ही मिलना संभव है।  गुरु न मिले तो ज्ञान चर्चा से भी अध्यात्म का विकास होता है। श्रीमद्भागवत गीता के संदेश तथा भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र भारतीय धरती की अनमोल धरोहर है।  भारतीय धरा को ऐसी महान विरासत देने वाले श्रीकृष्ण के बारे में लिखते या बोलते  हुए अगर होठों पर मुस्कराहट की अनुभूति हो रही हो तो यह मानना चाहिये कि यह उनके रूप स्मरण का लाभ मिलना प्रारंभ हो गया है। ऐसे परमात्मा स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को कोटि कोटि नमन!

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Wednesday, August 7, 2013

यह बस्ती-हिन्दी कविता




जरूरत का सामान महंगा है
गैर जरूरी है
इसलिये जिंदगी सस्ती है।
देश  हो या देवता की
सच्ची भक्ति करने वालों को पूछता कौन है
जिनके काले चेहरे पर लगी सफेद क्रीम
चाल जिनकी आवारा है
चरित्र पर लगे हैं दाग
उनकी रही हमेशा मस्ती है।
कहें दीपक बापू
दर्द नहीं सीने में जिनके
प्याज से आंखों में आंसू वही लाते हैं,
मर गया है जमीर जिनका
आकाओं के लिये फरिश्तों की तरह
गीत वही गाते है
कदम नहीं पड़ते कभी जमीन पर
जमाने के साथ चलने का दावा करने वालों से
भरी यह बस्ती है।
 
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Sunday, July 14, 2013

पतंजलि योग विज्ञान-चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग कहलाता है (patanjali yog vigyan aur yoga scince-chitta ke vritiyon par niyantran karna hee yog kahalata hai)



      भारतीय योग साधना शब्द ही अपने आप में स्वर्णिम लगता है।  जब भी कहीं योग की बात आती है तो भारतीय जनमानस उसके प्रति अपना सदाशय दिखाने में चूकता नहीं है। महर्षि पतंजलि योग विज्ञान के जनक है तो उसके महत्व को भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में प्रतिपादित किया है।  हम यह भी देखते रहे हैं कि जिस तरह भारतीय अध्यात्म ग्रंथों के सत्य से संबंधित विषय सामग्री का उपयोग पेशेवर धार्मिक कथाकार अपने व्यवसायिक हित की साधना के लिये करते हैं वैसे ही योग पद्धति का भी करना शुरु कर दिया है। हालांकि लंबे समय तक योग  साधना केवल सन्यासियों और सिद्धों के लिये स्वाभाविक कर्म माना जाता था पर जैसे जैसे भौतिकवाद ने मनुष्य के तन, मन और विचारों को विकृत किया वैसे वैसे ही विश्व के अनेक समाज, स्वास्थ्य तथा शिक्षा विशेषज्ञों ने उसका प्रतिकार भारतीय योग साधना को मानने का अभियान प्रारंभ किया।
   जैसा कि हम भारतीयों की आदत है जब तक कोई फैशन विदेश से न आये हम उसे स्वीकार नहीं करते वैसे ही योग साधना के मामले में भी रहा। विदेशी विशेषज्ञों ने जब भारतीय योग को एक वैज्ञानिक पद्धति माना तो देश में उसकी शिक्षा का व्यवसायिक अभियान प्रारंभ हो गया।  आज स्थिति यह है कि राजयोग, ज्ञान योग, अध्यात्मिक योग तथा  चमत्कृत शब्दों से अनेक कथित धार्मिक संस्थान अपनी दुकान चला रहे हैं तो अनेक बड़े छोटे पर्दे के कलाकार भी योग को योगा बनाकर अपनी छवि चमत्कृत कर रहे हैं। हमें  उनसे कोई शिकायत नहीं  है।  समस्या यह है कि उपभोग की तरह योग विषय का विज्ञापन करने का प्रभाव यह हुआ है कि पतंजलि योग का मूल स्तोत्र उससे मेल नहीं खाता जिससे इस विषय को लेकर अनेक लोग  भ्रमित हो रहे हैं।  सच बात तो यह है कि योग साधना के प्राणायाम तथा आसनों तक ही सीमित रखा जा रहा है।  अनेक पेशेवर धार्मिक फिल्मी कलाकारों की तरह दैहिक सक्रियता तक ही सीमित रखकर ज्ञान दे रहे हैं।  हाथ पांव हिलाने से आदमी न केवल स्वयं को देखता है बल्कि दूसरे भी उसे देखते हैं।  उसी तरह  सांसों को तेज करने से ध्वनि का बोध होता है।  इस तरह दृश्य और स्वरों के मेल से जो सक्रियता हो वह दिखती है इसलिये उनसे मनुष्य की दो इंद्रियां आंख और कान चमत्कृत होती हैं। इन्हीं दो इंद्रियों के आधार पर  मनोरंजनक व्यवसायियों के अर्थ का महल बनता है।  अगर धार्मिक पेशेवर भी इसी पर काम रहे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि उनका लक्ष्य भी समाज कल्याण के नाम पर अपना प्रचार करना ही है।
         आमतौर से पतंजलि योग साहित्य और श्रीमद्भागवत गीता को अनेक कथित धार्मिक प्रवचनकार गूढ अर्थों वाला मानते हैं।  उनका मानना है कि आम आदमी उसका स्वतः ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। यह प्रचार उन्हें स्वयं को गुरु पद पर प्रतिष्ठित करने के प्रयासों के  अलावा कुछ नहीं है।  सच बात तो यह है कि नित्य योग साधना तथा गीता का अध्ययन करने वाले लोग जब ज्ञान के सागर में गोता लगाने के आदी हो जाते हैं तब उनको यही गहराई कम लगती है।  इतना ही नहीं प्रचलित योग तथा उसके मूल स्तोत्र में उनको अंतर का पता चलता है।  योग मूलतः अंतर्मुखी होने की कला है जबकि योग प्रचारक उसे दैहिक सक्रियता तक सीमित रखकर उसके बहिर्मुखी होना प्रमाणित करते हैं। इसलिये इस बात की अनेक विद्वान आवश्यकता अनुभव करते हैं कि योग का मूल अर्थ समाज में बताते रहना चाहिये। इस विषय पर अनेक निष्काम कर्मी प्रयास कर रहे हैं जो प्रशंसनीय है।
पतंजलि योग में कहा गया है कि

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योगनिश्चत्तवृत्तिनिरोधः।।

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।

वृत्तिसारूप्यमिततरत्र।।

   हिन्दी में भावार्थ-चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।  उस समय दृष्टा की  स्थिति अपने वास्तविक स्वरूप से जुड़ जाती है। दूसरे समय या यानि सामान्य समय में वह वृत्ति के सदृश होता है।
            हम योग का केवल शाब्दिक  अर्थ लें तो उसका मतलब जोड़ना।  मूल रूप से मनुष्य का संचालक उसका मन है।  मन हमेशा बहिर्मुखी विषयों की तरफ आकर्षित रहता है।  ऐसे में दृष्टा भी मन की बतायी राह पर चलता है। यह असहज योग की स्थिति है।  मनुष्य का मन या चित्त उसकी बुद्धि को इधर से उधर दौड़ाता है।  जब देह थक जाती है तो मनुष्य टूटने लगता है।  हम अगर मूल योग की बात करें तो वह चित्त की अवस्था पर नियंत्रण की विधा है।  जिस तरह दैहिक कार्य करने के बाद विराम लिया जाता है उसी तरह मन को भी विराम देना चाहिये पर यह केवल योग साधक ही कर सकते हैं।  हम दिन भर सांसरिक विषयों में रत रहें। रात को सो जायें फिर सुबह उठकर इन्हीं सांसरिक विषयों का चिंत्तन करें ऐसे में हमारे अध्यात्म का तो कोई अभ्यास होता ही नहीं हैं। अध्यात्म यानि वह शक्ति जो  इस शरीर को धारण करती है पर वह उसकी उपभोक्ता नहीं है। उपभोक्ता तो चित्त या मन है।  सांसरिक विषयों में डूबा मन कभी विरत नहीं होता। एक विषय से भरता है तो दूसरा ढूंढ लेता है।   उधर अध्यात्म का घर खाली लगता है।  इन दोनों को मिलाना ही योग है।  अध्यात्म और चित्त मिलकर एक स्वस्थ मनुष्य का निर्माण करते हैं।
               हमें इस मेल के लिये त्याग की आवश्यकता होती है।  यह त्याग धन का नहीं मन का होता है। प्रातःकाल उठकर पहले शरीर, मन और विचारों के विकारों को  योगासन, प्राणायाम और प्रत्याहार  से ध्वस्त करें फिर धारणा, ध्यान के साथ  समाधि की प्रक्रिया  से अपने चित्त को नवीन स्वरूप मे स्थापित करें। सांसरिक विषयों में लिप्त मन को प्रतिदिन उनसे विराम देने के लिये अध्यात्मिक साधना करें।  योग साधना की प्रक्रिया में लिप्त होने पर मनुष्य स्वाभाविक रूप से सांसरिक विषयों से परे हो जाता है जिसे हम त्याग कह सकते हैं। 
    आप अगर सर्वेक्षण करें तो पायेंगे कि अनेक लोग यह कहते हैं कि हम योग साधना करना चाहते हैं पर समय नहीं मिलता या फिर हमारी कुछ घरेलु समस्यायें जिनके हल तक यह करना संभव नहीं है। दरअसल ऐसे लोग सांसरिक विषयों के प्रति अपने भाव को त्याग नहीं करना चाहते हैं। चित्त में चिंतायें जमाये रखने की उनको ऐसी आदत होती है कि उससे परे रहना उन्हें उसी तरह तकलीफदेह लगता है जैसे कि किसी शराबी को शराब न मिलने पर लगता है।
      एक बात सभी जानते हैं कि सबका दाता राम है फिर लोग कभी अपनी  तो कभी अपने परिवार की समस्याओं को लेकर अपने अंदर चिंता की आग जलाये क्यों रखते हैं। वह भगवान के समक्ष  आर्त भाव से इस तरह प्रस्तुत क्यों होते हैं कि उनका काम बन जाये तो वह योग साधना करेंगे?   दरअसल चिंता की अग्नि में  जलने की आम लोगों को आदत है। एक तरह से कहें कि चिंतायें पालना भी एक तरह का नशा हो गया है। सब ज्ञान है पर धारण कोई नहीं करता।  चिंता के नशे में रहने आदी लोगों को योग साधना के दौरान अंतर्मुखी होने पर बाहरी विषयों से परे होने का भय उसको डरा देता है।  जबकि  मन और शरीर स्वस्थ होने के साथ ही  विचारों की शुद्धता मनुष्य को संबल प्रदान करती है पर सांसरिक विषयों से  विराम की आवश्यकता है उसे कोई लेना नहीं चाहता। हम इसे यह भी कह सकते हैं कि सांसरिक विषयों के चिंत्तन का त्याग कर योग साधना का लाभ अधिकतर लोग लेना नहीं चाहते। कहने का अभिप्राय यही है कि योग अपने चित्त पर नियंत्रण के लिये आवश्यक है।  जब तक चित्त पर नियंत्रण नहीं आता तब तक योग का कोई महत्व नहीं है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja ""Bharatdeep""
Gwalior, madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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Saturday, June 22, 2013

उत्तराखंड की तबाही और हिन्दूओं की भावनात्मक शक्ति-हिन्दी लेख (uttarakhand mein tabahi aur hinduon ki bhavnatmak shakti-hindi lekh or aticle natural calamity in kedarnath and charondham uttrakhakhand)



           उत्तराखंड में बादल फटने से हुई तबाही प्रलय का ही वह रूप है जिसकी चर्चा हमारे अनेक धर्म ग्रंथों में की गयी है। कहा जाता है कि जब धरती पर पाप बढ़ जाते हैं तब प्रथ्वी भगवान के पास जाकर प्रार्थना करती है कि वह स्वयं अवतरित होकर उसके बोझ का हल्का करें।  इस प्रसंग में अनेक कथायें हमारे धार्मिक ग्रंथों में प्रचलित है। इसी तारतम्य में भगवान के चौदह अवतारों की चर्चा भी होती है। 
     उत्तराकांड  प्रलय में जो लोग मर गये उन पर क्या लिखा जाये पर जो बचें हैं उनको यह सदमा कितना सतायेगा यह तो वही समझेंगे जो झेलेंगे। जिन लोगों ने अपने परिवार के सदस्यों को खोया होगा उनके लिये यह यात्रा कभी समाप्त न होने वाली कठिन जीवन यात्रा का प्रारंभ  होने वाली भी सिद्ध हो सकती है।  उनके साथ कभी न मिटने वाला दर्द भी साथ हो सकता है।
       प्रकृति के प्रकोपों का इतिहास उसके जन्म के साथ ही जुड़ा है।  श्रीमद्भागवत गीता में भगवान के मुख से कहा भी कहा गया है कि जब जब संसार में पाप बढ़ते हैं धर्म की स्थापना के लिये मैं अपनी योग माया से प्रकट होता हूं।  एक जगह भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय सखा अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाते हुए कहते हैं कि मैं इस संसार में विध्वंस के लिये बड़ा हुआ महाकाल हूं 
        उनके इस वाक्यांश पर अभी हाल ही में एक फिल्म बनी थी। उस फिल्म का नाम था ऑ माई गॉड। उसमें एक बीमा कंपनी ने एक अभिदाता को यह कहते हुए बीमा राशि देने से मना कर दिया था कि वह भगवान के प्रकोप से हुई हानि की क्षतिपूर्ति देने के लिये बाध्य नहीं हैं।  यह मामला अदालत में लाया गया। वह एक फिल्मी कथा थी पर उसमें मुख्य पात्र बीमाधारक ने मंदिरों के स्वामियों पर मामला दर्ज कर यह दावा जताने  का प्रयास किया कि वही लोग  उसकी हानि का क्षतिपूर्ति करें।  इस फिल्म पर कुछ धार्मिक लोगों ने किया था पर यह फिल्म श्रीमद्भागवत गीता के साधकों के लिये अत्यंत रुचिकर थी।
        बहरहाल उत्त्राखंड भारत का वह इलाका है जो प्राकृतिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है।  हरियाली तथा जल की बहुतायत की  वजह से वहां ग्रीष्म ऋतु में बाहर के लोगों के लिये पर्यटन की दृष्टि से अनेक महत्वपूर्ण केंद्र बन गये हैं।  वहां ऐसे लोगों के लिये भी कुछ शहरों में पर्यटन केंद्र बन गये है जिनकी धार्मिक विषयों में रुचि नहीं है पर आनंद उठाना चाहते हैं।  इसी प्राचीन काल से   लोगों को आकर्षित करने के लिये अनेक धार्मिक केंद्र बने हुए थे जिससे लोग धर्म निर्वाह  के साथ ही अपने मन को भी शांत रखने का प्रयास कर सकें  इनमें चार धामों की यात्रा तो पुरातन समय से चल रही है।
         जब हम देश में धार्मिक आधार पर व्यवसाय चलने की बात करते हैं तो केवल आनंद के लिये आधुनिककाल में  और प्राचीन समय में  धर्म निर्वाह के लिये बनाये केंद्रों में अंतर सहजता से पता नहीं चलता।  पहले लोगों गंगोत्री, यमनोत्री, बद्रीनाथ तथा केदारनाथ की यात्र अत्यंत श्रद्धाभाव  से करते थे।  अनेक लोग जीवन में एक बार इन चारों धामो की यात्रा कर अपना जीवन धन्य समझते थे। यह भाव लोगों में आया कैसे? तय बात है कि कहीं न कहीं इसके पीछे निष्काम ज्ञानियों के साथ ही व्यवसायिक लाभ उइाने वालों का भी प्रयास रहा होगा।  ठीक उसी तरह जिस तरह अब श्रीनगर, शिमला तथा मनाली जैसे गर्मी में आंनददायी स्थानों के प्रचार के लिये व्यवसायिक लोग प्रयास करते हैं।  यहां यह भी हम समझ लें कि निष्काम ज्ञानियों के प्रचार में व्यवसायिकता का अभाव होता है पर धर्म के प्रति आकर्षण पैदा की शक्ति होती है। इसके बावजूद वह अधिक लोगों को प्रेरित नहीं कर पाते। उनकी गतिविधियों को देखकर व्यवसायिक लोग अपनी योजना बनाते हैं और उनके लक्ष्यों को व्यवसायिक बनाकर अधिक लोगों को आकर्षित कर लेते हैं।  ऐसे में धर्म और उसके व्यवसायक का अंतर पता करना सहज नहीं होता।  यही कारण है कि हम हरिद्वार में अनेक जगह यही नारा पढ़ते हैं कि सारे तीर्थ बार बार, गंगासागर एक बार  इस नारे के यह प्रभाव हुआ है  कि अब अधिकतर लोग हरिद्वार में जाकर गंगास्नान कर अपना जीवन धन्य समझते हैं।  इस स्नान में लोग धार्मिक भाव के साथ नहाने वालों की संख्या कम आनंद उठाने वालों की ज्यादा होती है।
       यहां हम धार्मिक विरोधाभासों पर इससे अधिक चर्चा नहीं कर सकते पर इतना तय है कि समय के साथ अब हरिद्वार को ही सभी तीर्थों में अधिक महत्व का मान लिया है।  इसके बावजूद चारों तीर्थों की परंपरा चलती रही है तो केवल इस कारण कि पर्यटन के व्यवसायियों ने चारों धामों तक की यात्र को पहले  से अधिक सहज बना दिया है। सरकार ने भी सड़कें बनाकर बसों के साथ पुल बनाकर आवागमन से परिवहन को सहज बना दिया है।  इन चारों धामों के लिये हर शहर में चारों धामों को सहजता से कराने का दावा कराने वाले व्यवसायिक संस्थान हर शहर में खुल गये हैं। फिर अपने देश के लोग धर्मभीरु होते ही हैं।  फिर मन कहीं न कहीं भटकने के लिये लालायित होता ही  है।  ऐसे में मनोरंजन के साथ ही अनेक लोग स्वयं को ही  धार्मिक दिखने और दूसरों को दिखाने कें लिये लोग तीर्थयात्राओं पर जाते हैं। जैसा कि गीता में वर्णित है इन लोगों में चार प्रकार के भक्त होते ही होंगे-आर्ती,अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी।  अधिक संख्या अर्थार्थी दृष्टिकोण वालों की ही होती है।  चारों धामों का प्रचार आज से सदियों पहले ही हुआ है और तय बात है कि व्यवसायिक लोगों का प्रयास आज भी उसे बनाये रखे हुए हैं।
      जहां तक हिन्दू धर्म की बात करें तो उसके चारों दिशाओं में अनेक महत्वपूण्र धार्मिक केंद्र हैं। गंगा यमुना नदियों के नाम अत्यंत्र पवित्र हैं पर नर्मदा, कावेरी तथा क्षिप्रा नदियों केा भी कम धार्मिक महत्व नहीं है। यही कारण है कि चार महाकुंभों में से दो ही गंगा यमुना पर होते हैं तो एक नर्मदा दूसरा क्षिप्रा पर होता है।  तबाही से उत्तराखंड में भारी हानि हुई। इसके दूरगामी प्रभाव होंगे।  वहां के मनोरंजक तथा धार्मिक स्थानों की यात्रा के आधार पर व्यवसायिक करने वाले अनेक लोगों की आय में यकीनन कमी आयेगी।  चारों धामों में यात्रा सुगम नहीं रही और इससे  नव धनाढ्य लोगों का आकर्षण बनाये रखना अब संभव नही है क्योंकि उनके लिये धर्म का भाव आनंद से संयुक्त होने के साथ ही सहज भी होना चाहिये।   दूसरी बात यह कि केदारनाथ धाम में आरती पूजा बंद है।  यह उसके खंडित होने की स्थिति है। चारों धाम एक दूसरे के साथ संबद्ध है और भले ही गंगोत्री, यमनोत्री और बद्रीनाथ सुरक्षित हों पर केदारनाथ धाम के बिना उनको भी खंडित ही माना जा सकता है।  इन चारों धामों की यात्रा एक दो वर्ष तक नही हो पायेगी। इसका मतलब यह है कि सदियों पुरानी निरंतरता का लाभ अब मिलना कठिन है। ऐसे में भी हिन्दुओं के लिये भावनात्मक संकट अधिक नहीं है क्योंकि उसके पास तीर्थों के रूप में अनेक केंद्र पहले से ही हैं।
                    अक्सर अनेक लोग यह आक्षेप करते हैं कि हिन्दूओं का कोई एक स्थान पूज्यनीय है नहीं। उनको कोई एक देवता नहीं है। उन्हें यह समझना होगा कि सनातन धर्म जिसे अब हिन्दू धर्म माना जाता है वह निरंकार की उपासना का प्रेरक है।  इसमें साकार तथा निराकार पूजा को मान्यता दी जाती हैं।  भारत में अनेक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान हैं।  किसी एक स्थान पर संकट  उपस्थित पर  हिन्दू कांपता नहीं है। न ही विलाप करता है।  इतना ही नहीं समय की दृष्टि से हिन्दू अपने धार्मिक स्थानों का निर्माण करते ही रहते हैं।  आज भी वृंदावन, अमरनाथ, उज्जैन, नासिक, इलाहबाद और वाराणसी अपनी धार्मिक आस्था के साथ हिन्दुओं का आत्मविश्वास बनाये रखे हुए हैं।  इसके अलावा दक्षिण में अनेक स्थान हैं जहां हिन्दू धर्म का झंडा लहराता है।  हम यह आशा करते हैं कि बहुत जल्दी इन चारों धर्म की यात्रायें  सहज हो जायेंगी। मूल समस्या पीड़ित लोगों की है। यही दुआ करते हैं कि भगवान सभी को यह शक्ति झेलने की शक्ति प्रदान करे।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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