राहों पर छपे कदमों को चूम कर
उसके निशान जमाने को दिखाते हैं।
गुजरते समय के साथ
बदलते जमाने को अपने ही
नजरिये से चलाने की कोशिश करते
वह लोग
मुर्दाखानों में जिंदगी की रौशनी जलाते हैं।
जितनी जिंदगियां चलती हैं
उतनी ही कहानियां पलती हैं
इस रंगबिरंगी दुनियां में
बस एक सूरज की रौशनी ही जलती है
बाकी चिराग तो
उधार पर अपना काम निभाते हैं।
हर चैहरे पर नाक और कान अलग अलग
सभी के अलग हैं शरीर
सबकी अपनी तकदीर और तब्दीर
पैरों और हाथों के निशान एक नहीं होते
यह सच जानने और समझने वाले ही
जिंदगी में अमन से रह पाते हैं।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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