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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका
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Friday, July 25, 2008

मिट्टी और मांस की मूर्ति-लघुकथा

मूर्तिकार फुटपाथ पर अपने हाथ से बनी मिट्टी की भगवान के विभिन्न रूपों वाली छोटी बड़ी मूर्तियां बेच रहा था तो एक प्रेमी युगल उसके पास अपना समय पास करने के लिये पहुंच गया।
लड़के ने तमाम तरह की मूर्तियां देखने के बाद कहा-‘अच्छा यह बताओ। मैं तुम्हारी महंगी से महंगी मूर्ति खरीद लेता हूं तो क्या उसका फल मुझे उतना ही महंगा मिल जायेगा। क्या मुझे भगवान उतनी ही आसानी से मिल जायेंगे।’

ऐसा कहकर वह अपनी प्रेमिका की तरफ देखकर हंसने लगा तो मूर्तिकार ने कहा-‘मैं मूर्तियां बेचता हूं फल की गारंटी नहीं। वैसे खरीदना क्या बाबूजी! तस्वीरें देखने से आंखों में बस नहीं जाती और बस जायें तो दिल तक नहीं पहुंच पाती। अगर आपके मन में सच्चाई है तो खरीदने की जरूरत नहीं कुछ देर देखकर ही दिल में ही बसा लो। बिना पैसे खर्च किये ही फल मिल जायेगा, पर इसके लिये आपके दिल में कोई कूड़ा कड़कट बसा हो उसे बाहर निकालना पड़ेगा। किसी बाहर रखी मांस की मूर्ति को अगर आपने दिल में रखा है तो फिर इसे अपने दिल में नहीं बसा सकेंगे क्योंकि मांस तो कचड़ा हो जाता है पर मिट्टी नहीं।’
लड़के का मूंह उतर गया और वह अपनी प्रेमिका को लेकर वहां से हट गया

यह लघु कथा मूल रूप से ‘दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका’ पर लिखा गया है। इसके प्रकाशन की कहीं अनुमति नहीं है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, February 23, 2008

विदुर नीति: सरल स्वभाव का विरोधी हो वह बल नहीं

१.मनुष्य में धन और आरोग्य को छोड़कर कोई दूसरा गुण नहीं है, क्योंकि रोगी मनुष्य मुर्दे के समान है।
२.जो बिना रोग के उत्पन्न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करने वाला, पाप से संबद्ध, कठोर, तीखा और गरम है जो सज्जनों द्वारा ग्रहण करने योग्य नही और जिसे दुर्जन ही व्यक्त सकते हैं, उस क्रोध को पी जाइये और शांत हो जाइये।
३.रोग से पीड़ित मनुष्य मधुर फलों का आदर नहीं करते, विषयों में भी उन्हें जीवन का सुख और सार भी नहीं मिल पता। रोगी सदा ही दुखी रहते हैं। वह न तो धारण से प्राप्त धन का और वैभव के सुख का अनुभव कर पाते हैं ।
४.वह बल नहीं है जिसका जो सरल स्वभाव का विरोधी हो। सूक्ष्म धर्म को शीघ्र ही ग्रहण करना चाहिए। क्रूरता से अर्जित धन नष्ट होता है। यदि धन सात्विक मार्ग से आया है तो वह लंबे समय तक स्थिर रहता है.

Monday, January 7, 2008

रहीम के दोहे:संपति के पास विपत्ति ही ले जाती है

कोउ रहीम जनि कहू के, द्वार गए पछिताय
संपति के सब जात हैं, विपति सबै ले जाय


कविवर रहीम कहते हैं कि विपत्ति अपने पर सभी को किसी से मदद मांगनी पड़ती हैं और इसमें शर्माने या पछताने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि जिसके पास संपति है उनके पास विपति लोगों को ले ही जाती है।

खर्च बढ्यो, उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन
कहू रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन


कविवर रहीम कहते हैं कि व्यय अधिक हो गया, प्रयास भी घाट गया और स्वामी निष्ठुर हो गया तो कैसे काम चलेगा। कम जल में मछली कैसा जिंदा रह सकती हैं।

Saturday, January 5, 2008

चाणक्य नीति:जब तक वाणी मधुर न हो कोयल मौन रहती है

1. यह मनुष्य का स्वभाव है की यदि वह दूसरे के गुण और श्रेष्ठता को नहीं जानता तो वह हमेशा उसकी निंदा करता रहता है। इस बाट से ज़रा भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

उदाहरण- यदि किसी भीलनी को गजमुक्ता (हाथी के कपाल में पाया जाने वाला काले रंग का मूल्यवान मोती) मिल जाये तो उसका मूल्य न जानने के कारण वह उसे साधारण मानकर माला में पिरो देती है और गले में पहनती है।

2.बसंत ऋतू में फलने वाले आम्रमंजरी के स्वाद से प्राणी को पुलकित करने वाली कोयल की वाणी जब तक मधुर और कर्ण प्रिय नहीं हो जाती तबतक मौन रहकर ही अपना जीवन व्यतीत करती है।
इसका आशय यह है हर मनुष्य को किसी भी कार्य को करने के लिए उचित समय की प्रतीक्षा करना चाहिए अन्यथा असफलता का भय बना रहता है।
3.राजा , अग्नि, गुरु और स्त्री इन चारों से न अधिक दूर रहना चाहिऐ न अधिक पास अर्थात इनकी अत्यधिक समीपता विनाश का कारण बनती है और इनसे दूर रहने पर भी कोई लाभ नहीं होता। अत: विनाश से बचने के लिए बीच का रास्ता अपनाना चाहिऐ।

Friday, January 4, 2008

चाणक्य नीति:देवालयों का धन हड़पने वाला चांडाल

1.देव-मंदिरों के लिए निर्धारित भूमि, रत्नकोश (धन और अन्य संपदा), गुरुओं के भूमि जो धोखे से अपने कपट के व्यवहार से हड़प लेता है उसे चांडाल कहा जाता है।

2.रूप की शोभा गुण है। अगर गुण नहीं है तो रूपवान स्त्री और पुरुष भी कुरूप लगने लगता है।
3.कुल की शोभा शील मैं है। अगर शील नहीं है तो उच्च कुल का व्यक्ति भी नीच और गन्दा लगने लगता है।
4.विद्या की शोभा उसकी सिद्धि में है। जिस विद्या से कोई उपलब्धि प्राप्त हो वही काम की है।धन की शोभा उसके उपयोग में है ।
5.धन के व्यय में अगर कंजूसी की जाये तो वह किसी मतलब का नहीं रह जाता है, अत: उसे खर्च करते रहना चाहिऐ।
6.ऐसा धन जो अत्यंत पीडा, धर्म त्यागने और बैरियों के शरण में जाने से मिलता है, वह स्वीकार नहीं करना चाहिए।
7.बिना पढी पुस्तक की विद्या और अपना कमाया धन दूसरों के हाथ में देने पर समय पर न विद्या काम आती है न धनं.

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