वही बांट रहे हैं जमाने में अंधेरा
अपने विश्वास में टूट गये हैं
किससे करें शिकायत
अपनों ने ही गैर बनकर घेरा।
लेकर जमाने भर की रौशनी
वादा करते रहे हमेशा चिराग जलाने का
अब लगे हैं इस कोशिश में
चाहे जमाने में रौशनी न हो
पर कभी खुद के घर में न हो अंधेरा।
रुख बदल गये हैं तेल के दरिया
जो बांटते थे रौशनी इंसानों को
मुड़कर चले जा रहे उनके घरों में
जहां पहले ही है, रौशनी का डेरा।
आंखों में जब पड़ती है रौशनी
इंसान अंधा हो ही जाता है
मगर ‘और चाहिये रौशनी’ की चाहत
करने वालों को भला यह कहां समझ में आता है
फिर मजा तो सभी को मिलता है
जब अपने घर में हो रौशनी
दूसरे के घर में हो धुप्प अंधेरा।
गैरों से जंग लड़ते लड़ते थक गये
कैसे लड़े
जो किया अपनों ने ही अंधेरा।
.....................
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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4 comments:
सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!
-समीर लाल ’समीर’
दिवाली की हार्दिक ढेरो शुभकामनाओ के साथ, आपका भविष्य उज्जवल और प्रकाशमान हो .
हमने तो प्रकाशित कर लिया है मन पर अपने
बोलो दीपक भाई कौन सी धारा लगाओगे या
फिर दीपावली पर राधा राधा गाओगे, हर्षाओगे।
रौशनियों के इस मायाजाल में
अनजान ड़रों के
खौ़फ़नाक इस जंजाल में
यह कौन अंधेरा छान रहा है
नीरवता के इस महाकाल में
कौन सुरों को तान रहा है
.....
........
आओ अंधेरा छाने
आओ सुरों को तानें
आओ जुगनू बीनें
आओ कुछ तो जीलें
दो कश आंच के ले लें....
०००००
रवि कुमार
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