परेशानहाल की फांकेगर्दी
और जमाने की बेरुखी और बेदर्दी
जिन किताबों में है
वह बाजार में बिकती महंगे दाम।
कहीं कहीं पुरस्कार के लिये भी
सज जाता है उसका नाम।
अपनी अय्याशी से उकताये
अपने बड़े ओहदे पर आराम के सताये
और अपनी ही सोच गुलाम रख आये
लोगों को जमाने के रोते चेहरे
और उससे कागज पर छपे शब्द गहरे
देते है दिल को बहुत आराम।
हम बेहतर है इनसे
यह सोचकर मिलता
उनके दिमाग को विराम।
दिल बहलाने को भी दर्द उनको चाहिये
सुबह और शाम।
चलता रहेगा यह सिलसिला
जब तक गरीब
उन जैसे होने के ख्वाब देखते
देगा अपनी सोच को आराम।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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