उस दिन हमारे एक मित्र अपना किस्सा सुना रहे थे। उनके अनुसार शाम को पार्क में ऐसा कोई दिन नहीं आता जब किसी ऐसे शख्स को देखने का सौभाग्य न मिलता हो जो मोबाईल पर गालियां न बकता हो।
उनके अनुसार कई कई लड़के तो पचास शब्दों में चालीस गालियों सें भरते हैं तो अनेक के वार्तालाप में दस गालियों के बाद उनका कोई एक सार्थक शब्द आता है जिसका मतलब समझा जा सके। कभी कभी तो लगता है कि उनके ‘वार्तालाप समय के मूल्य का अधिकतर हिस्सा गालियां पर खर्च होता होगा।
उस दिन अवकाश के दिन हम अपने एक मित्र के साथ एक पार्क में गये। दरअसल वह मित्र वहां चल रहे एक धार्मिक कार्यक्रम में शामिल होने आये थे पर वह उनको वहां मजा नहीं आया। वह बाहर निकले तो हमसे सामना हो गया। जब हमने उनको बताया कि पार्क में घूमने जा रहे हैं तो वह भी साथ हो लिये। अंदर घुसते ही हमारे कानों में क्रूरतम गालियां सुनाई दीं। अरे, बाप रे! लोग दूसरे की मां बहिनों को क्या समझते हैं!
संभवत लड़का लाईन पर मौजूद व्यक्ति की बजाय किसी तीसरे पक्ष को गााली दे रहा था। ‘हारे हुए पैसे’ शब्द भी सुनाई दिये। मित्र ने कहा-‘कहीं, यह क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाला आदमी तो नहीं है।’
उसकी बात पूरी भी नहंी हो पायी कि एक सज्जन वहां से निकले और हमारी तरफ देखते हुए बोले-‘देखिए, अपने देश का आदमी कितना पागल हो जाता है। वह लड़का कैसे जोर जोर से गालियां बक रहा है। उसे लग रहा है कि पार्क उसके पिताजी ने अकेले उसके लिये बनाकर दिया है।’
हम दोनों मुस्करा दिये। हमारे मित्र ने कहा-‘लगता है कि तुम्हारा ब्लाग पढ़ता है! इसलिये मोटर साइकिल वाला शब्द मोबाईल पर चिपका कर गया है।’
दरअसल हमारा वह मित्र ब्लाग नहीं पढ़ता पर उसका अनुमान रहा था कि ऐसा वाक्य हमने कहीं लिखा जरूर लिखा होगा। इस लेखक के एक व्यंग्य में पिता अपने पुत्र से कहता है कि ‘बेटा, याद रखना मैंने तुम्हें मोटर साइकिल खरीद कर दी है, पर यह सड़क मेरी नहीं है।’
हमारा यह व्यंग्य उसने पढ़ा था। इसका आशय यही था कि लड़के मोटर साइकिलों पर ऐसे चलते हैं जैसे कि उनके पालकों ने गाड़ी के साथ सड़क भी खरीद कर दी हो जिस पर उनको अकेले चलने का अधिकार प्राप्त है।
उसी मित्र के साथ हम पार्क के दूसरे हिस्से में गये। वहां एक अन्य युवक भी दनादन गालियां बके जा रहा था। हमने देखा उसके पास भी मोबाइल है। मां बहिन कितना अच्छा शब्द है पर उनके साथ गालियां जोड़ना बड़ा भयानक है। शायद लोगों को मोबाइल और मोटर साइकिल की तरह यही लगता है कि हमारी मां बहिन ही मां बहिन हैं बाकी के लिये चाहे जो बक दो। उस लड़के के गालियां बकने के दौरान ही उसके पास से दो युवतियों के साथ एक महिला भी निकल रही थी। उसके कटु स्वर उन्होंने भी सुने।
थोड़ी दूर जाकर एक युवती ने अपनी संगिनियों से कहा-‘यहां भी गंदे लोग पहुंच ही जाते हैं।
महिला ने कहा-‘क्या करें, घर पर अपनी मां बहिन के सामने गालियां बक नहीं सकता। रास्ते में कोई दूसरा सुन लेगा तो टोक देगा। इसलिये पार्क में आया है गालियां देने।’
उन तीनों नारियों की आंखों में नफरत झलक रही थी जो वहां मौजूद ठंडक में भी झुलसा देने वाली लगी। ऐसा लगा कि जेठ की गरम दोपहर की तपिश भी इससे कम होगी। सच कहते हैं कि कटु वाणी तकलीफदेह होती है चाहे भले ही वह आपसे न बोली गयी हो। प्रसंगवश वह लड़का भी किसी तीसरे पक्ष को गालियां दे रहा था। मतलब सामने किसी की हिम्मत नहीं होती गाली देने की। हर कोई एक दूसरे के लिये पीछे ही बकता है।
कहीं सुनने में आता है कि ‘मैंने उससे ढेर सारी गालियां सुनाई।’ भले ही प्रत्यक्ष उसने गाली न सुनाई हो।
इन सबका फायदा किसे है! टेलीफोन कंपनियों को चिंता नहीं करना चाहिए। भारत में मां बहिन की गालियां देने वाले बहुत हैं इसलिये उनका धंधा कभी मंदा नहीं हो सकता। अब यह आंकलन कौन कर सकता है कि टेलीफोन कंपनियों की आय में इन गालियों का योगदान कितना है?
एक किस्सा आज मोटर साइकिल का भी नज़र आया। एक लड़की पास से दुपहिया पर निकली थी। हमारा ध्यान नहीं जाता अगर उसी समय पास से ही मोटर साइकिल पर गुज़र रहे दो लड़कों ने उस पर फिकरा कसा नहीं होता।
लड़के आगे निकले क्योंकि उनकी मोटर साइकिल तो उड़ रही थी। फिर उन्होंने गति कम की। लड़की फिर आगे निकली तो फिर उसके पास से तेजी से निकले। सड़क पर दूसरे भी वाहन चल रहे थे। कहीं मोटर साइकिल फंसी या फिर लड़कों ने खुद गति कम की। शायद दो किलोमीटर तक ऐसा हुआ होगा। आखिर लड़की सड़क के दायीं गली में मुड़ी जहां शायद उसे पहले नंबर के मकान में जाना था। वहां रुककर उसने लड़कों को घूर कर देखा तो वह बहुत तेजी से वहां से भाग गये।
पूरे प्रसंग में लड़कों की मनस्थिति आश्चर्यजनक लग रही थी। वह क्या किसी फिल्म का काल्पनिक अभिनय कर रहे थे जिसमें नायक ही ऐसी हरकतें कर सकते हैं। उनको दूसरे लोग दिख ही नहीं रहे थे। सच है सुविधायें आदमी को अक्ल ही अंधा बना देती हैं अलबत्ता गूंगा और बहरा भी बनाती।
आंखों से मतलब के अलावा कुछ दिखता नहीं। बोलता ऐसी बात है जो समझ में नहीं आती और सुनता कुछ दूसरा है समझता दूसरा है। अपने भारत में अधिकतर लोग सुंविधाओं को भोगना नहंी बल्कि लूटना चाहते हैं-यह अलग बात है कि दूसरे को ऐसा करते हुए देखकर मन वितृष्णा से भर जाता है-‘उसकी शर्ट मेरी शर्ट से सफेद कैसे’ की तर्ज पर।
सच है खाना पचने की दवाईयां हैं, पर सुविधाएं पचा सके ऐसा कोई दवा नहीं बनी। सबसे बड़ी बात यह है कि नैतिकता और मधुर वाणी सिखा सके ऐसी कोई किताब ही न बनी। दूसरी बात यह कि इस संस्कारहीनता के लिये जिम्मेदारी किस पर डाली जानी चाहिये।
---------
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
------------------------
दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
No comments:
Post a Comment