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Friday, June 19, 2009

दूसरा खेल कौनसा है-हास्य कविता (dusra khel-hindi hasya vyangya kavita)

बेटे ने कहा बाप से
‘पापा मुझे पतंग उड़ाना सिखा दो
कैसे पैच लड़ाते हैं यह दिखा दो
तो बड़ा मजा आयेगा।’

बाप ने कहा बेटे से
‘पतंग उड़ाना है बेकार
इससे गेंद और बल्ला पकड़ ले
तो खेल का खेल
भविष्य का व्यापार हो जायेगा।
मैंने व्यापार में बहुत की तरक्की
पर पतंग उड़ाकर किया
बचपन का वक्त
यह हमेशा याद आयेगा।
बड़ा चोखा धंधा है यह
जीतने पर जमाना उठा लेता सिर पर
हार जाओ तो भी कोई बात नहीं
सम्मान भले न मिले
पर पैसा उससे ज्यादा आयेगा।
दुनियां के किसी देश के
खिलाड़ी को जीतने पर भी
नहीं कोई उसके देश में पूछता
यहां तो हारने पर भी
हर कोई गेंद बल्ले के खिलाड़ी को पूजता
विज्ञापनों के नायक बन जाओ
फिर चाहे कितना भी खराब खेल आओ
बिकता है जिस बाजार में खेल
वह अपने आप टीम में रहने का
बोझ उठायेगा।
हारने पर थकने का बहाना कर लो
फिर भी यह वह खेल है
जो हवाई यात्रा का टिकट दिलायेगा।
जीत हार की चिंता से मुक्त रहो
क्योंकि यह मैदान से बाहर तय हो जायेगा।
भला ऐसा दूसरा खेल कौनसा है
जो व्यापार जैसा मजा दिलायेगा।

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नोट-यह व्यंग्य काल्पनिक तथा इसका किसी व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है और किसी से इसका विषय मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।
दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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Friday, June 12, 2009

फोटो स्वयंबर-हास्य व्यंग्य (foto svyanbar-hindi hasya vyangya)

उस सुंदरी ने तय किया कि वह उसी लड़के से पहले प्रेम लीला कर बाद में विवाह करेगी जो इंटरनेट पर व्यवसाय करते हुए अच्छा कमा रहा होगा। एक सहेली ने मना किया और कहा-‘अरे, भई हमें नहीं लगता है कि कोई लड़का इंटरनेट पर काम करते हुए अच्छा कमा लेता होगा अलबत्ता जो कमाते होंगे वह शायद ही अविवाहित हों।’
सुंदरी ने कहा-‘तुम जानती नहीं क्योंकि तुम्हारे पास इंटरनेट की समझ है ही क्हां? अरे, जिनको कंप्यूटर की कला आती है उनके लिये इंटरनेट पर ढेर सारी कमाई के जरिये हैं। मैं कंप्यूटर पर काम नहीं कर पाती इसलिये सोचती हूं कि कोई इंटरनेट पर कमाई करने वाला लड़का मिल जाये तो कुछ शादी से पहले दहेज का और बाद में खर्च का जुगाड़ कर लूं।’

उसकी वह सहेली तेजतर्रार थी-सुंदरी को यह पता ही नहीं था कि उसका चचेरा भाई इंटरनेट पर उसे बहुत कुछ सिखा चुका था। वह कुछ फोटो उसके घर ले आई और उस सुंदरी को दिखाने लगी। उस समय उसके पास दूसरी सहेली भी बैठी थी जो इंटरनेट के बारे में थोड़ा बहुत जानती थी और उसके बारे में बताने ही उसके घर आयी थी। पहली सहेली ने एक फोटो दिखाया और बोली-‘यह हिंदी में कवितायें लिखता हैं। इसका ब्लाग अच्छा है। ब्लाग पर बहुत सारे विज्ञापन भी दिखते हैं। तुमने तो अखबारों में पढ़ा होगा कि हिंदी में ब्लाग लेखक बहुत अच्छा कमा लेते हैं।’
दूसरी सहेली तपाक से बोली उठी-‘अखबारों में बहुत छपता है तो हिंदी के ब्लाग लेखक भी रोज अब भी हिंदी ब्लाग से कमाने के नये नुस्खे छापते हैं पर उन पर उनके साथी ही टिपियाते हैं कि ‘पहला हिंदी ब्लाग लेखक दिखना बाकी है जो लिखने के दम पर कमा रहा हो’, फिर इस कवि का क्या दम है कि कमा ले। गप मार रहा होगा।’
पहली सहेली ने कहा-‘पर यह स्कूल में शिक्षक है कमाता तो है।’
सुंदरी उछल पड़ी-‘मतलब यह शिक्षक है न! इसका मतलब है कि इंटरनेट पर तो शौकिया कवितायें लिखता होगा। नहीं, मेरे लिये उसके साथ प्रेम और शादी का प्रस्ताव स्वीकार करना संभव नहीं होगा।’
सहेली ने फिर दूसरा फोटो दिखाया और कहा-‘यह ब्लाग पर कहानियां लिखता हैं!’
सुंदरी इससे पहले कुछ कहती उसकी दूसरी सहेली ने पूछ लिया-‘हिंदी में कि अंग्रेजी में!’
पहली ने जवाब दिया-‘हिंदी में।’
अब तक सुंदरी को पूरा ज्ञान मिल गया था और वह बोली-‘हिंदी में कोई कमाता है इस पर यकीन करना कठिन है। छोड़ो! कोई दूसरा फोटो दिखाओ।’
पहली सहेली ने सारे फोटो अपने पर्स में रखते हुए कहा-‘यह सब हिंदी में ब्लाग लिखते हैं इसलिये तुम्हें दिखाना फिजूल है। यह फोटो स्वयंबर अब मेरी तरफ से रद्द ही समझो।’
वह जब अपने पर्स में फोटो रख रही थी तो उसमें रखे एक दूसरे फोटो पर उसका हाथ चला गया जिसे उसने अनावश्यक समझकर निकाला नहीं था। उसने सभी फोटो सही ढंग से रखने के लिये उसे बाहर निकाला। दूसरी सहेली ने उसके हाथ से वह फोटो ले लिया और कहा-‘यह फोटो पर्स में क्यों रखे हुए थी।’
पहली ने कहा-‘यह एक अंग्रेजी के ब्लाग लेखक का है।’
सुंदरी और दूसरी सहेली दोनों ही उस फोटो पर झपट पड़ी तो वह दो टुकड़े हो गया पर इसका दोनों को अफसोस नहीं था। सुंदरी ने कहा-‘अरे, वाह तू तो बिल्कुल शादियां कराने वाले मध्यस्थों की तरह सिद्धहस्त हो गयी है। बेकार का माल दिखाती है और असली माल छिपाती है। अब जरा इसके बारे में बताओ। क्या यह अपने लिये बचा रखा है?’
पहली सहेली ने कहा-‘नहीं, जब मैं इंटरनेट से तुम्हारे लिये फोटो छांट रही थी तब इसके ब्लाग पर नजर पड़ गयी और पता नहीं मैंने कैसे और क्यों इसका फोटो अपने एल्बम मेें ले लिया? इसलिये इसको बाहर नहीं निकाला।’
सुंदरी ने पूछा-‘पर यह है कौन? यह तो बहुत सुंदर लग रहा है। आह.... अंग्रेजी का लेखक है तो यकीनन बहुत कमाता होगा।’
पहली ने कहा-‘मेरे जान पहचान के हिंदी के ब्लाग लेखक हैं जो व्यंग्य वगैरह लिखते हैं पर फ्लाप हैं वह कहते हैं कि ‘सभी अंग्रेजी ब्लाग लेखक नहीं कमाते।’
दूसरी सहेली ने कहा-‘हिंदी का ब्लाग लेखक क्या जाने? अपनी खुन्नस छिपाने के लिये कहता होगा। मैंने बहुत सारे हिंदी ब्लाग लेखकों की कवितायें और कहानियां पढ़ी हैं। बहुत बोरियत वाली लिखते हंै। तुम्हारा वह हिंदी ब्लाग लेखक अपने को आपको तसल्ली देता होगा यह सोचकर कि अंग्रेजी वाले भी तो नहीं कमा रहे। पर तुम यह बताओ कि यह फोटो किस अंग्रेजी ब्लाग लेखक का है और वह कहां का है।’
दूसरी सहेली ने कहा-‘इसका पता ही नहीं चल पाया, पर यह शायद विदेशी है। इसकी शादी हो चुकी है।’
सुंदरी चिल्ला पड़ी-‘इतना बड़ा पर्स तो ऐसे लायी थी जैसे कि उसमें इंटरनेट पर लिखने वाले अंग्रेजी के ढेर सारे लेखकों के फोटो हों पर निकले क्या हिंदी के ब्लाग लेखक। उंह....यह तुम्हारा बूता नहीं है। बेहतर है तुम मेरे लिये कोई प्रयास न करो।’
दूसरी सहेली ने कहा-‘तुम्हारे फोटो में मैंने एक देखा था जो तुमने नहीं दिखाया। वह शायद चैथे नंबर वाला फोटो था। जरा दिखाना।’
पहली सहेली ने कहा-‘वह सभी हिंदी के ब्लाग लेखकों के हैं।’
‘जरा दिखाना’-दूसरी सहेली ने कहा।
पहली सहेली ने फिर सारे फोटो निकाले और उनके हाथ में दे दिये। दूसरी सहेली ने एक फोटो देखकर कहा-‘तुम इसे जानती हो।’
दूसरी सहेली ने कहा-‘हां, यह मेरे चचेरे भाई का फोटो है। भला लड़का है यह एक कंपनी में लिपिक है। फुरसत में ब्लाग पर लिखता है। ’
दूसरी सहेली ने कहा-‘यह लिखता क्या है?’
पहली सहेली ने कहा-‘यह कभी कभार ही लिखता है वह भी कभी हिंदी ब्लाग से कमाने के एक हजार नुस्खे तो कभी रुपये बनाने के सौ नुस्खे।’
सुंदरी ने पूछा-‘खुद कितने कमाता है।’
पहली ने कहा-‘यह तो मालुम नहीं पर कभी कभार इसकी तन्ख्वाह के पैसे खत्म हो जाते हैं तो इंटरनेट का बिल भरने के लिये यह मुझसे पैसे उधार ले जाता है।’
सुंदरी ने कहा-‘वैसे तुम अगर स्वयं प्रयास न कर सको तो अपने इस चचेरे भाई से पूछ लेना कि क्या कोई इंटरनेट पर अंग्रेजी में काम करने वाला कोई लड़का हो तो मुझे बताये। हां, तुम हिंदी वाले का फोटो तो क्या उसका नाम तक मेरे सामने मत लेना।’
पहली सहेली ने ने स्वीकृति में गर्दन हिलायी और वहां से चली गयी। इस तरह ब्लाग लेखकों का फोटो स्वयंबर समाप्त हो गया।
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Saturday, June 6, 2009

अमृत और विष-लघुकथा (amrut aur vish-hindi laghu katha)

वह कोई गेहुंआ वस्त्र पहने साधु या संत नहीं बल्कि कोई शिक्षित और सज्जन पुरुष थे। कहीं बैठकर लोगों से ज्ञान चर्चा कर रहे थे। उनके सामने तीन लोग श्रोता के रूप में बैठ कर उनकी बातें सुन रहे थे। उन सज्जन ज्ञानी पुरुष ने पुराने शास्त्रों से अनेक उद्धरण देते हुए कुछ महापुरुषों के संदेश भी सुनाये।
उनके पीछे एक अन्य व्यक्ति भी बैठा यह सब सुन रहा था। उसे यह चर्चा बेकार की लग रही थी। अचानक वह उठा और उन सज्जन पुरुष के पास आकर उनसे बोला- तुम यह क्या बकवास कर रहे हो? इस ज्ञान चर्चा से क्या होगा,? तुम इतना सब सुना रहे हो वह सब मैंने भी किताबों में पढ़ा है पर तुम्हारी तरह इधर उधर ज्ञान नहीं बघारता। तुम इतना ज्ञान बघार रहे हो पर क्या उस पर चलते भी हो?‘
उस सज्जन ने कहा-‘कोशिश बहुत करता हूं कि उस राह पर चलूं। अब यह तो लोग ही बता सकते हैं कि मेरा व्यवहार किस तरह का है? बाकी रहा ज्ञान बघारने का सवाल तो भई, फालतू की बातें सोचने अैार कहने से अच्छा है तो इसी तरह की बातें की जाये। अच्छा, हम जब यह ज्ञान चर्चा कर रहे थे तब तुम्हारे मन में क्या विचार आ रहे थे।
उस आदमी ने कहा-‘मेरे को इस तरह की ज्ञान चर्चा पर गुस्सा आ रहा था। मैं तुम जैसे ढोंगियों को देखकर क्रोध में भर जाता हूं। पता नहीं यह तीनों तुम्हें कैसे झेल रहे थे?’
उन सज्जन ने कहा-‘मुझे बहुत दुःख है कि मेरी ज्ञान चर्चा से तुम्हें बहुत गुस्सा आया पर मैं भी अनेक ढोंगियों को देखता हूं पर गुस्सा बिल्कुल नहीं होता। उनकी ज्ञान की बातें सुनता हूं पर उनके आचरण पर ध्यान देकर अपना मन खराब नहीं करता। वैसे तुम इन श्रोताओं से पूछो कि आखिर हम दोनों में वह किसे पसंद करेंगे?’
उन्होंने तीनों श्रोताओं की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा तब एक श्रोता उस बीच में बोलने वाले आदमी से बोला-‘हम इन सज्जन पुरुष की बातें सुन रहे थे तो मन को शांति मिल रही थी। हमें इससे क्या मतलब कि यह कहां से आये है और क्या करते हैं? बस इनकी बातें सुनकर आनंद आ रहा था। यह सब बातें हमने भी सुनी है पर इनके मुख से सुनकर भी अच्छा लगा रहा था। हां, तुम्हारे बीच में आने से जरूर हमें दुःख पहुंचा है।’
दूसरा श्रोता ने कहा-‘तुमने बताया कि तुमने यह सब पढ़ा है तो हमने भी सुना है। इन सज्जन की वाणी से हमें सुख मिल रहा था पर तुम्हारे आने से ऐसा लग रहा है कि जैसे यज्ञ में किसी राक्षस ने बाधा डाली हो!
तीसरे कहा-‘तुम्हारी अंतदृष्टि में यह सज्जन ढोंगी हैं पर हमारी नजर में ज्ञानी हैं क्योंकि इनकी बात से हमें आत्मिक सुख मिल रहा था भले ही यह पुरानी बातें दोहरा रहे हैं मगर तुम शिक्षित और ज्ञानी होते हुए भी भटक रहे हो क्योंकि ज्ञान धारण न भी किया हो पर उसकी चर्चा कर अच्छा वातावरण तो बनाया जा सकता है और तुमने इसे विषाक्त बना दिया।’
बीच में बोलने वाले सज्जन का मूंह उतर गया। वह पैर पटकता हुआ वहां से चला गया तो एक श्रोता ने उस सज्जन से कहा-‘आखिर यह आपकी बात पर गुस्सा क्यों हुआ?’
सज्जन ने कहा-‘भई, एक तो यह अपने घर से परेशान होगा दूसरे यह कि इस समाज में ज्ञान चर्चा केवल गेहूंए वस्त्र पहनने वाले ही कर सकते हैं। उन्होंने इतनी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति एकत्रित कर ली होती है कि किसी की हिम्मत नहीं होती कि सामने जाकर कोई उनको ढोंगी कह सके इसलिये उनकी कुंठायें ऐसे लोगों के सामने निकालते हैं जो सादा वस्त्र पहनकर ज्ञान चर्चा करते हैं। सभी सुविधायें जुटाकर सन्यासी होने का ढोंग करने वालों से कहना कठिन है पर कोई सद्गृहस्थ ज्ञान चर्चा करे तो उस पर उंगली उठाकर अपनी कुंठा निकालना अधिक आसान है। शायद इसलिये उसने जमाने भर का गुस्सा यहां निकाल दिया। बहरहाल तुम उसकी बात भूल जाना क्योंकि इससे तुम्हारे अंदर उसका फैलाया विष असर दिखाने लगेगा और अगर मेरी बात से कुछ बूँद अमृत बना है तो वह भी दवा कर का नहीं कर पायेगा।
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Monday, June 1, 2009

गिरेबां में झांकने की कोशिश-आलेख(gireban men jhankne ki koshish-hindi alekh)

आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले की घटना कोई नई बात नहीं है-कम से कम भारत लौटे एक युवक और युवती का टीवी साक्षात्कार में तो यही कहना था। सच बात तो यह है कि भारतीयों पर पश्चिमी देशों में भी हमले होते रहे हैं जिनके समाचार अक्सर समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर आते हैं। यह हमले निंदनीय है पर जिस तरह हमारे यहां के बुद्धिमान लोग इसमें नस्लवाद तथा राष्ट्रवाद की भावनायें उभारते हुए अपनी अभिव्यक्ति करते हैं उसका समर्थन भी नहीं किया जा सकता। आस्ट्रेलिया से लौटे जिस युवक और युवती ने साक्षात्कार दिया उन्होंने इसे नस्ल या राष्ट्र से जोड़ने इंकार करते हुए बताया कि
1.अक्सर यह घटनायें रात को घटती हैं जब आफिस या क्लब से लौटते हुए शराबी और बेकार नवयुवकों द्वारा ही इस तरह का आक्रमण किया जाता है। कई बार तो पैसा लेकर छोड़ा जाता है।
2.आस्ट्रे्रलिया के किसी संस्थान, विश्वविद्यालय, पुलिस तथा सरकार द्वारा ऐसी घटनाओं को समर्थन नहीं दिया जाता। आम जनता में भी कोई ऐसा विरोध नहीं है। यह हमले केवल भारतीयों पर ही नहीं बल्कि अन्य देशों के लोगों पर भी होते हैं। इतना ही नहीं आस्ट्रेलिया में पहले बसे कुछ लोग भी नये लोगों के प्रति कम दुर्भाव नहीं दिखाते। सीधे पहले भारतीय बसे लोगों का नाम नहीं लिया गया पर इशारों में इस तरफ संकेत किया गया।
भारत में जिस तरह समाचार पत्रों, टीवी चैनलों तथा अंतर्जाल पर लेखकों ने शुरुआत में जो इस विषय पर लिखा उससे उस युवक और युवती के बयान मेल नहीं खाते। यह हैरानी की बात है कि मुख्यधारा को चुनौती देने का दावा करने वाले हिंदी ब्लाग लेखक ने उसी के साथ मिलकर आस्ट्रेलिया को चरित्र को ही चुनौती दे डाली। अनेक हिंदी ब्लाग लेखकों के आक्रामक पाठ देखकर ऐसा लगा कि वह मुख्यधारा की तरह सतही वैचारिक धारा में बह रहे हैं पर एक आक्रामक पाठ पर एक ब्लाग लेखक की टिप्पणी ने कुछ अलग हटकर सोचने के लिये इस लेखक को बाध्य किया।
उस टिप्पणीकर्ता ने पहले तो आक्रामक पाठ का समर्थन किया पर अंत में भारत में जारी रैगिंग प्रथा का मुद्दा उठाया और उसे रोकने की मांग की। श्री बालासुब्रहण्म-यहां साभारपूर्वक सम्मान के साथ उनका नाम लिखा जा रहा है। अगर उन्हें आपत्ति हो तो यह नाम हटा दिया जायेगा-ने जिस ढंग से यह मुद्दा उठाया उससे एक बात तो लगी कि ब्लाग लेखकों में कुछ लोग अन्य देशों पर सवाल उठाने से पहले अपने समाज के गिरेबां में झांकने का प्रयास भी कर रहे हैं।
टीवी पर आस्ट्रेलिया से लौटे उस युवक युवती ने साफ कहा कि वह दोबारा वहां जाना चाहेंगे। उनका यह भी कहना था कि मंदी के कारण बेरोजगार आस्ट्रेलिय नवयुवक इन हमलों के लिये जिम्मेदार हैं पर उसके लिये समूचे आस्ट्रेलिया पर उंगली उठाना नहीं चाहिए।

मगर इस देश में ऐसे ही प्रचार किया जा रहा है। हम यहां रैगिंग का का मामला उठायें तो लगेगा कि यह एक तरह का सांस्कृतिक नस्लवाद है जिसे इस देश के कथित सभ्रांत वर्ग ने सहज मान लिया है। हां, इसे और क्या कहा जा सकता है? रैगिंग हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है। इतना ही नहीं यहां प्रचलित किसी धर्म या विचार से उसका प्रवर्तन भी नहीं हुआ। जिस तरह वैलंटाईन डे, प्रेम दिवस, मित्र दिवस, पिता दिवस, और माता दिवस मनाने की अपने देश में परंपरा शुरू हुई है पर देश का एक बहुत बड़ा वर्ग इसमें दिलचस्पी नहीं लेता। जब यह दिवस मनाये जाते हें उस दिन देश के अखबार या टीवी पर इनका प्रचार देखें तो लगेगा कि हर आदमी बस इसमें ही लिप्त है। यही स्थिति रैगिंग की है। अधिकतर छात्र छात्रायें इसको पंसद नहीं करते पर विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में धनाढ्य और कथित सभ्रांत वर्ग के छात्र और छात्रायें अपनी शक्ति और सभ्यता दिखाने के लिये इसे अपनाते हुए दूसरों को भी मजबूर करते हैं। कितनी गंदी हरकतें होती हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है। किसी धार्मिक या सामाजिक संगठन ने उठकर कभी रैगिंग के नाम पर अनाचार करने वालों के खिलाफ यह कहते हुए प्रदर्शन नहीं किया कि यह हमारे धर्म या संस्कृति के विरुद्ध है-न ही किसी पीड़ित को सांत्वना दी। सारा समाज एक तरफ बैठा तमाशा देख रहा है और क्या मजाल कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग इसके विरुद्ध को अभियाना छोड़े या सामाजिक या धार्मिक कार्यकर्ता विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में छात्रों से सतत संपर्क कर उन्हें समझायें कि ‘यह रैगिंग प्रथा हमारे धर्म के खिलाफ है‘ या कि ‘यह हमारी संस्कृति के खिलाफ है’।
आस्ट्रेलिया की जितनी जनसंख्या है उतनी तो हमारे देश में हर वर्ष आबादी में बढ़ जाती है। क्षेत्रफल की दृष्टि से आस्ट्रेलिया हमसे बहुत बड़ा है इसलिये इस बात की संभावना है कि आगे चलकर वहां एशियाई देशों के लोगों की संख्या निश्चित रूप से बढ़ेगी। वहां की कानून व्यवस्था भी इतनी खराब नहीं है कि बाहर से आये लोगों को संरक्षण नहीं दिये जाने की शिकायत मिलती हो। क्रिकेट में उसके खिलाड़ियों द्वारा किया गया नस्लवादी व्यवहार पूरे देश का प्रमाण नहीं माना जा सकता। जहां तक कानून व्यवस्था का सवाल है तो अपने देश में ही विदेशी युवतियों के साथ दुर्व्यवहार की अनेक घटनायें हो चुकी हैं पर किसी ने समूचे भारत को इसके लिये दोषी नहीं ठहराया। अगर विदेशी लोग भी अगर इस तरह की टिप्पणियां करते तो क्या हमें बुरा नहीं लगता?
चर्चा करते हुए याद आया कि हमारे हिंदी ब्लाग जगत के एक प्रसिद्ध ब्लाग लेखक भी आस्ट्रेलिया में रहते हैं। उनका कोई पाठ इस संबंध में नहीं दिखा-हो सकता है उन्होंने लिखा हो और इस लेखक की दृष्टि में नहीं आया हो। कहने का तात्पर्य है कि ऐसी घटनाओं की निंदा करते हुए लिखना कोई बुरी बात नहीं है पर पूरे राष्ट्र पर आक्षेप करना ठीक नहीं है। यह ठीक है कि आक्रामक पाठ लिखकर आप दूसरों को प्रभावित करना चाहते हैं पर कहने वाले सच तो कह ही जाते हैं। यह अलग बात है कि कोई पहले आपकी बात का समर्थन कर फिर अपनी बात इस ढंग से कह जाता है कि आप समझते नहीं पर दूसरा यह तसल्ली कर लेता है कि उसने अपनी बात कह दी।
अंतर्जाल पर लिखने-पढ़ने का यही एक मजा भी है। पाठों के साथ उनकी टिप्पणियों में भी कोई ऐसी बात हो सकती है जो आपको अलग से हटकर सोचने के लिये बाध्य कर देती है। बालासुब्रण्यम साहब की टिप्पणी बड़ी थी पर उसमें रैगिंग का मुद्दा उठाना इस बात का प्रमाण था कि हिंदी के ब्लाग लेखक अपने समाज के गिरेबां में झांकते नजर आयेंगे जो कि मुख्यधारा-समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों-में नहीं देखने को मिलता है।
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Thursday, May 21, 2009

हड़ताल का तिलिस्म-लघु व्यंग्य

देश की एक टेलीफोन कंपनी में कर्मचारियों की हड़ताल हो गयी तो उसके इंटरनेट प्रयोक्ताओं को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा। इस लेखक का कनेक्शन उस कंपनी से जुड़ा नहीं है इसलिये उसे यह केवल अन्य ब्लाग लेखकों से ही पता चल पाया कि उनकी पाठन पाठन की नियमित प्रक्रिया पर उसका बुरा प्रभाव पड़ा। अनेक ब्लाग लेखकों को उनके मित्र ब्लाग लेखकों की नवीनतम रचनायें पढ़ने का अवसर नहीं मिल पाया तो लिखने से भी वह परेशान होते रहे। हड़ताल दो दिन चली और सुनने में आया कि वह समाप्त हो गयी।
अच्छा ही हुआ कि हड़ताल समाप्त हो गयी वरना इस ब्लाग/पत्रिका लेखक को अनेक प्रकार के भ्रम घेर लेते। हुआ यूं कि इस लेखक के बाईस ब्लाग ं पर पिछले तीन दिनों से जिस तरह पाठकों का आगमन हुआ वह हैरान करने वाला था। पिछले दो दिनों से यह संख्या हजार के पार गयी और आज भी इसकी संभावना लगती है कि कर ही लेगी। पांच ब्लाग पर यह संख्या आठ सौ के करीब है। आखिर ऐसा क्या हुआ होगा? जिसकी वजह से इस ब्लाग लेखक के ब्लाग पर इतने पाठक आ गये। हिंदी ब्लाग जगत में अनेक तेजस्वी ब्लाग लेखक हैं जिनके लिखे को पढ़ने में मजा आता है। मगर टेलीफोन कंपनी के कर्मचारियेां की हड़ताल हो तो फिर पाठक कहां जायें?
नियमित रूप से जिन ब्लाग लेखकों के पाठ हिंदी ब्लाग जगत को सूर्य की भांति प्रकाशमान करते हैं उनका अभाव पाठकों के लिये बौद्धिक रूप से अंधेरा कर देता है। शायद यही वजह है कि इस ब्लाग लेखक के चिराग की तरह टिमटिमाते पाठों में उन्होंने हल्का सा बौद्धिक प्रकाश पाने का प्रयास किया होगा।
यह एक दिलचस्प अनुभव है कि एक टेलीफोन कंपनी की हड़ताल से दूसरी टेलीफोन कंपनी के प्रयोक्ता ब्लाग लेखकों को पाठक अधिक मिल जाते हैं। दावे से कहना कठिन है कि कितने पाठक बढ़े होंगे और क्या यह संख्या आगे भी जारी रहेगी? वैसे तो इस लेखक के ब्लाग/पत्रिकाओं के करीब साढ़े सात सौ से साढ़े नौ सौ पाठ प्रतिदिन पढ़े जाते हैं। संख्या इसी के आसपास घूमती रहती है। पिछले तीन दिनों से यह संख्या तेरह सौ को पार कर गयी जो कि चैंकाने वाली थी। इसको टेलीफोन कर्मचारियों की हड़ताल का असर कहना इसलिये भी सही लगता है कि आज शाम के बाद पाठक संख्या कम होती नजर आ रही है और अगर यह संख्या एक हजार पार नहीं करती तो माना जाना चाहिये कि यही बात सत्य है।
इस दौरान पाठकों की छटपटाहट ने ही उनको ऐसे ब्लागों पर जाने के लिये बाध्य किया होगा जो उनके पंसदीदा नहीं है। पढ़ने का शौक ऐसा भी होता है कि जब मनपसंद लेखक या पत्रिका नहीं मिल पाती तो निराशा के बावजूद पाठक विकल्प ढूंढता है। यह अच्छा ही हुआ कि हड़ताल समाप्त हो गयी वरना इस लेखक को कितना बड़ा भ्रम घेर लेता? भले ही आदमी कितनी भी ज्ञान की बातें लिखता पढ़ता हो पर सफलता को मोह उसे भ्रम में डाल ही देता है। अब कभी ऐसे तीव्र गति से पाठ पढ़े जायें तो यह देखना पड़ेगा कि उसकी कोई ऐसी वजह तो नहीं है कि जिसकी वजह से पाठक मजबूर होकर आ रहे हों। यह हड़ताल का तिलिस्म था जो इतने सारे पाठक दिखाई दिये। अच्छा ही हुआ जल्दी टूट गया वरना तो भ्रम बना ही रहता।
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Saturday, May 16, 2009

बिचारा साथी नहीं पाता-त्रिपदम

वह बिचारा
मशहूर नहीं है
यूं हार जाता।

बिचारापन
संवेदना जुटा ले
प्रेम न पाता।

कुछ न किया
इसका खेद कभी
शोभा न पाता।

वह वक्त था
मौका पकड़ने का
अब न आता!

काठ की हांडी
चढ़ती बार बार
सच न आता!

वक्त काम का
बहानों में गुजारा
लौट न आता।

असफलता
पीछे ही चलती हैं
लेकर खाता!

बन बिचारा
भले भीड़ जुटा लें
साथी न पाता।

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Monday, May 11, 2009

नौकरानी बनाओ या रानी-हास्य व्यंग्य कविता (nakurani aur rani-hasya vyangya kavita)

फिल्म का नाम था
‘नौकरानी ने बनी रानी’
जोरदार थी कहानी।
निर्देशक ने अभिनेत्री से कहा
‘आधी फिल्म में मेकअप बिना
आपको काम करना होगा
फटी हुई साड़ियों को ओढ़ना होगा
फिल्म जोरदार हिट होगी
अभिनय जगत में आपकी ख्याति का
नहीं होगा कोई सानी।’
अभिनेत्री ने कहा-‘
नये नये निर्देशक हो
इसलिये नहीं मुझे जानते हो
बिना मेकअप के चाहे कोई भी पात्र हो
उसका अभिनय नहीं करूंगी
सारी दुनियां में मुझे सुंदरी कहा जाता है
मेकअप के बिना तो मैं
अपना चेहरा आईने में खुद ही नहीं देखती
बिना मेकअप के तो कई बार
मैंने अपनी सूरत भी नहीं पहचानी।
अपने शयनकक्ष से ही बाहर
मैं मेकअप लगाकर आती हूं
अपनी मां को शक्ल ऐसे ही दिखाती हूं
ढेर सारे मेरे चाहने वाले
जब मेरी असल शक्ल देख लेंगे
तो आत्महत्या कर लेंगे
पड़ौस के लड़के जो
पल्के बिछाये मुझे देखते हैं
वह भी मूंह फेर लेंगे
जहां तक साड़ियों की बात है
तो आजकल काम वाली बाईयां भी
बन ठन कर घूमती हैं
ढेर सारी फिल्में ऐसी बनी हैं
जिनमें वह नई साड़ी में अपने
सजेधजे बच्चों को चूमती हैं
इसलिये अगर फिल्म में
मुझसे अभिनय कराना हो तो
महंगी साड़ियां ही मंगवाना
मेकअप का सामान हर हालत में जुटाना
चाहे बनाओ नौकरानी या रानी।’

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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Friday, May 8, 2009

इंसान को कैसे छोड़ देंगे बिना छल-व्यंग्य कविता

जिंदगी से लड़ते रहना है हर पल।
रिवाजों की अग्नि में नहीं जाना है जल।
इंसान बन गये हैं बुत
उनकी क्या परवाह करना
खुद भटके हुए लोगो के बताये रास्ते पर
चलकर नहीं है मरना
लोगों को अपनी बात कहनी है
अनसुना कर कर दो
वरना बेकार में ही सहनी है
रिश्तों में हक और फर्ज़ के
हिसाब अपने अपने ढंग से बने हैं
हर घर में झगड़े के लिये लोग तने हैं
देख रहे हैं सभी दूसरों के घरों में छेद
बंटा रहे हैं सब ध्यान लोगों को
ताकि नहीं देख सके कोई उनके भेद
बताते हैं लोग अपने अपने रास्ते
पुराने हवालों के देते हैं वास्ते
झूठ और फरेब की चादर ओढ़कर
कर रहे हैं इबादत
सर्वशक्तिमान को नहीं छोड़ा
वह कैसे इंसान को छोड़ देंगे बिना छल।।

......................
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Monday, May 4, 2009

ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण (हास्य व्यंग्य) (blog ka lokarpan-hasya vyangya in hindi)

कविराज जल्दी जल्दी घर जा रहे थे और अपनी धुन में सामने आये आलोचक महाराज को देख नहीं सके और उनसे रास्ता काटकर आगे जाने लगे। आलोचक महाराज ने तुरंत हाथ पकड़ लिया और कहा-‘क्या बात है? कवितायें लिखना बंद कर दिया है! इधर आजकल न तो अखबार में छप रहे हो और न हमारे पास दिखाने के लिये कवितायें ला रहे हो। अच्छा है! कवितायें लिखना बंद कर दिया।’
कविराज बोले-‘महाराज कैसी बात करते हो? भला कोई कवि लिखने के बाद कवितायें लिखना बंद कर सकता है। आपने मेरी कविताओं पर कभी आलोचना नहीं लिखी। कितनी बार कहा कि आप मेरी कविता पर हस्ताक्षर कर दीजिये तो कहीं बड़ी जगह छपने का अवसर मिल जाये पर आपने नहीं किया। सोचा चलो कुछ स्वयं ही प्रयास कर लें।’
आलोचक महाराज ने अपनी बीड़ी नीचे फैंकी और उसे पांव से रगड़ा और गंभीरता से शुष्क आवाज में पूछा-‘क्या प्रयास कर रहे हो? और यह हाथ में क्या प्लास्टिक का चूहा पकड़ रखा है?’
कविराज झैंपे और बोले-‘कौनसा चूहा? महाराज यह तो माउस है। अरे, हमने कंप्यूटर खरीदा है। उसका माउस खराब था तो यह बदलवा कर ले जा रहे हैं। पंद्रह दिन पहले ही इंटरनेट कनेक्शन लगवाया है। अब सोचा है कि इंटरनेट पर ब्लाग लिखकर थोड़ी किस्मत आजमा लें।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम्हें रहे ढेर के ढेर। हमने चूहा क्या गलत कहा? तुम्हें मालुम है कि हमारे देश के एक अंग्रजीदां विद्वान को इस बात पर अफसोस था कि हिंदी में रैट और माउस के लिये अलग अलग शब्द नहीं है-बस एक ही है चूहा। हिंदी में इसे चूहा ही कहेंगे। दूसरी बात यह है कि तुम कौनसी फिल्म में काम कर चुके हो कि यह ब्लाग बना रहे हो। इसे पढ़ेगा कौन?’
कविराज ने कहा-‘अब यह तो हमें पता नहीं। हां, यह जरूर है कि न छपने के दुःख से तो बच जायेंगे। कितने रुपये का डाक टिकट हमने बरबाद कर दिया। अब जाकर इंटरनेट पर अपनी पत्रिका बनायेंगे और जमकर लिखेंगे। हम जैसे आत्ममुग्ध कवियों और स्वयंभू संपादकों के लिये अब यही एक चारा बचा है।’
‘हुं’-आलोचक महाराज ने कहा-‘अच्छा बताओ तुम्हारे उस ब्लाग या पत्रिका का लोकार्पण कौन करेगा? भई, कोई न मिले तो हमसे कहना तो विचार कर लेंगे। तुम्हारी कविता पर कभी आलोचना नहीं लिखी इस अपराध का प्रायश्चित इंटरनेट पर तुम्हारा ब्लाग या पत्रिका जो भी हो उसका लोकार्पण कर लेंगे। हां, पर पहली कविता में हमारे नाम का जिक्र अच्छी तरह कर देना। इससे तुम्हारी भी इज्जत बढ़ेगी।’
कविराज जल्दी में थे इसलिये बिना सोचे समझे बोल पड़े कि -‘ठीक है! आज शाम को आप पांच बजे मेरे घर आ जायें। पंडित जी ने यही मूहूर्त निकाला है। पांच से साढ़े पांच तक पूजा होगी और फिर पांच बजकर बत्तीस मिनट पर ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण होगा।’
‘ऊंह’-आलोचक महाराज ने आंखें बंद की और फिर कुछ सोचते हुए कहा-‘उस समय तो मुझे एक संपादक से मिलने जाना था पर उससे बाद में मिल लूंगा। तुम्हारी उपेक्षा का प्रायश्चित करना जरूरी है। वैसे इस चक्कर में क्यों पड़े हो? अरे, वहां तुम्हें कौन जानता है। खाली पीली मेहनत बेकार जायेगी।’
कविराज ने कहा-‘पर बुराई क्या है? क्या पता हिट हो जायें।’
कविराज वहां से चल दिये। रास्ते में उनके एक मित्र कवि मिल गये। उन्होंने पूरा वाक्या उनको सुनाया तो वह बोले-‘अरे, आलोचक महाराज के चक्कर में मत पड़ो। आज तक उन्होंने जितने भी लोगो की किताबों का विमोचन या लोकर्पण किया है सभी फ्लाप हो गये।’
कविराज ने अपने मित्र से आंखे नचाते हुए कहा-‘हमें पता है। तुम भी उनके एक शिकार हो। अपनी किताब के विमोचन के समय हमको नहीं बुलाया और आलोचक महाराज की खूब सेवा की। हाथ में कुछ नहीं आया तो अब उनको कोस रहे हो। वैसे हमारे ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण तो इस माउस के पहुंचते ही हो जायेगा। इन आलोचक महाराज ने भला कभी हमें मदद की जो हम इनसे अपने ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करायेंगे?’
मित्र ने पूछा-‘अगर वह आ गये तो क्या करोगे?’
कविराज ने कहा-‘उस समय हमारे घर की लाईट नहीं होती। कह देंगे महाराज अब कभी फिर आ जाना।’
कविराज यह कहकर आगे बढ़े पर फिर पीछे से उस मित्र को आवाज दी और बोले-‘तुम कहां जा रहे हो?’
मित्र ने कहा-‘आलोचक महाराज ने मेरी पत्रिका छपने से लेकर लोकार्पण तक का काम संभाला था। उस पर खर्च बहुत करवाया और फिर पांच हजार रुपये अपना मेहनताना यह कहकर लिया कि अगर मेरी किताब नहीं बिकी तो वापस कर देंगे। उन्होंने कहा था कि किताब जोरदार है जरूर बिक जायेगी। एक भी किताब नहीं बिकी। अपनी जमापूंजी खत्म कर दी। अब हालत यह है कि फटी चपलें पहनकर घूम रहा हूं। उनसे कई बार तगादा किया। बस आजकल करते रहते हैं। अभी उनके पास ही जा रहा हूं। उनके घर के चक्कर लगाते हुए कितनी चप्पलें घिस गयी हैं?’

कविराज ने कहा-‘किसी अच्छी कंपनी की चपलें पहना करो।’
मित्र ने कहा-‘डायलाग मार रहे हो। कोई किताब छपवा कर देखो। फिर पता लग जायेगा कि कैसे बड़ी कंपनी की चप्पल पहनी जाती है।’
कविराज ने कहा-‘ठीक है। अगर उनके घर जा रहे हो तो बोल देना कि हमारे एक ज्ञानी आदमी ने कहा कि उनकी राशि के आदमी से ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करवाना ठीक नहीं होगा!’
मित्र ने घूर कर पूछा-‘कौनसी राशि?’
कविराज ने कहा-‘कोई भी बोल देना या पहले पूछ लेना!’
मित्र ने कहा-‘एक बात सोच लो! झूठ बोलने में तुम दोनों ही उस्ताद हो। उनसे पूछा तो पहले कुछ और बतायेंगे और जब तुम्हारा संदेश दिया तो दूसरी बताकर चले आयेंगे। वह लोकार्पण किये बिना टलेंगे नहीं।’
कविराज बोले-‘ठीक है बोल देना कि लोकार्पण का कार्यक्रम आज नहीं कल है।’
मित्र ने फिर आंखों में आंखें डालकर पूछा-‘अगर वह कल आये तो?’
कविराज ने कहा-‘कल मैं घर पर मिलूंगा नहीं। कह दूंगा कि हमारे ज्ञानी ने स्थान बदलकर ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण करने को कहा था आपको सूचना नहीं दे पाये।’
मित्र ने कहा-‘अगर तुम मुझसे लोकर्पण कराओ तो एक आइडिया देता हूं जिससे वह आने से इंकार कर देंगे। वैसे तुम उस ब्लाग पर क्या लिखने वाले हो? कविता या कुछ और?’
कविराज ने कहा-‘सच बात तो यह है कि आलोचक महाराज पर ही व्यंग्य लिखकर रखा था कि यह माउस खराब हो गया। मैंने इंजीनियर से फोन पर बात की। उसने ही ब्लाग बनवाया है। उसी के कहने से यह माउस बदलवाकर वापस जा रहा हूं।’
मित्र ने कहा-‘यही तो मैं कहने वाला था! आलोचक महाराज व्यंग्य से बहुत कतराते हैं। इसलिये जब वह सुनेंगे कि तुम पहले ही पहल व्यंग्य लिख रहे हो तो परास्त योद्धा की तरह हथियार डाल देंगे। खैर अब तुम मुझसे ही ब्लाग पत्रिका का विमोचन करवाने का आश्वासन दोे। मैं जाकर उनसे यही बात कह देता हूं।’
वह दोनों बातें कर रह रहे थे कि वह कंप्यूटर इंजीनियर उनके पास मोटर साइकिल पर सवार होकर आया और खड़ा हो गया और बोला-‘आपने इतनी देर लगा दी! मैं कितनी देर से आपके घर पर बैठा था। आप वहां कंप्यूटर खोलकर चले आये और उधर मैं आपके घर पहुंचा। बहुत देर इंतजार किया और फिर मैं अपने साथ जो माउस लाया था वह लगाकर प्रकाशित करने वाला बटन दबा दिया। बस हो गयी शुरुआत! अब चलिये मिठाई खिलाईये। इतनी देर आपने लगाई। गनीमत कि कंप्यूटर की दुकान इतने पास है कहीं दूर होती तो आपका पता नहीं कब पास लौटते।’

कविराज ने अपने मित्र से कहा कि-’अब तो तुम्हारा और आलोचक महाराज दोनों का दावा खत्म हो गया। बोल देना कि इंजीनियर ने बिना पूछे ही लोकार्पण कर डाला।’
मित्र चला गया तो इंजीनियर चैंकते हुए पूछा-‘यह लोकार्पण यानि क्या? जरा समझाईये तो। फिर तो मिठाई के पूरे डिब्बे का हक बनता है।’
कविराज ने कहा-‘तुम नहीं समझोगे। जाओ! कल घर आना और अपना माउस लेकर यह वापस लगा जाना। तब मिठाई खिला दूंगा।’
इंजीनियर ने कहा-‘वह तो ठीक है पर यह लोकार्पण यानि क्या?’
कविराज ने कुछ नहीं कहा और वहां से एकदम अपने ब्लाग देखने के लिये तेजी से निकल पड़े। इस अफसोस के साथ कि अपने ब्लाग पत्रिका का लोकार्पण वह स्वयं नहीं कर सके।
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Friday, May 1, 2009

छोटा प्रश्न-लघु कथा (ek chhota saval-hindi laghu katha)

वह विशेष बुत अपना भाषाण दे रहा था। उसका विषय था समाज की समस्यायें और उनका हल। उसने अपना भाषण समाप्त किया। सामने बैठी आम बुतों की भीड़ ने तालियां बजाईं। उसने अपना भाषण समाप्त किया और फिर कहा-‘अगर किसी को मेरी बात पर कोई शक हो तो अपना प्रश्न बेहिचक पूछ सकते हैं।’
भीड में बैठे समान्य बुत खामोश रहे पर एक ने कहा-‘आप यह बतायें कि मेरे घर में पानी की तंगी हमेशा रहती है। आपने कहा था कि पानी का संचय करें और इसके लिये पेड़ पौधे भी लगायें। मेरे घर के बाहर सारी जमीन पक्की है तो बाहर आंगन में खुदाई करवा कर कच्चा करवा दूं तो ठीक रहेगा।’

उस विशेष बुत ने कहा-‘यहां हम समाज की समस्याओं के हल के लिये एकत्रित हुए हैं न कि निजी विषयों पर चर्चा के लिये। फिर भी जवाब देता हूं कि किसी विशेषज्ञ से चर्चा कर फिर ऐसा करें।’
वह विशेष बुत उठकर चला गया। इधर सारे आम बुत उस प्रश्नकर्ता बुत को ऐसे देखा जैसे कि वह कोई अजूबा हो।’
उसका मित्र बुत उसके पास आया और बोला-‘क्या ज्रूरत थी प्रश्न करने की?’
प्रश्नकर्ता बुत ने कहा-‘पर मेरे प्रश्न पर सभी मुझे ऐसे क्यों देख रहे हैं? क्या प्रश्न करना बुरा है?’
मित्र बुत ने कहा-‘हां, प्रश्न करने का मतलब तुम सोचते हो। इसका मतलब है कि तुम फालतू आदमी हो! आजकल किसे फुरसत है सोचने की जो प्रश्न करे। फिर उनके उत्तर असहज करते हैं क्योंकि उन पर भी सोचना पड़ता है। फिर वह विशेष बुत था और हम उसे सुनने आये थे। उसकी बात सुनना जरूरी था क्योंकि वह विश्ेाष है। प्रश्न करने का अर्थ यह कि तुम आम बुत की बजाय विशेष बनना चाहते हो और भला यह भीड़ कैसे सहन कर सकती है? तुम्हारा प्रश्न ही तुम्हें आम बुतों की भीड़ में विशिष्टता प्रदान कर रहा था और वह उसे नहीं देख सकते। इसलिये तुम्हें हास्याप्रद दृष्टि से देखकर अपनी खिसियाहट निकाल रहे थे।
प्रश्नकर्ता ने कहा-‘पर उस विशेष बुत को इतनी देर सुना! तब तो कुछ नहीं और मैंने प्रश्न किया तो सब दुःखी हो गये।’
मित्र बुत ने कहा-‘हां, यहां बिना सोचे सुनना और सुनाना ही चलता है। प्रश्न करने का मतलब यह है कि तुम सोचते हो। सोचते हुए आदमी को देखकर दूसर चिढ़ जाते हैं क्योंकि वह सोचते नहीं इसलिये प्रश्न करना उन्हें असहज लगता है और गलती से कर भी डालें तो उसके उत्तर से उनको सोचना पड़ता है। यह कठिन प्रक्रिया है और जब हम आराम से हैं तो क्यों उसे अपनायें?’
प्रश्नकर्ता बुत ने पूछा-’पर तुम परेशान क्यों हो?’
मित्र बुत ने कहा-‘इस बात से कि तुम अगर अपने घर के बाहर जमीन कच्ची करवाकर उस पेड़ पौधे लगाओगे तो हो सकता है तुम्हारी लिये अच्छा हो जाये। पानी का संचय भी होगा तो अच्छी वायु भी मिलने लगेगी। तुम्हें देखकर मेरे अंदर भी ऐसा करने का विचार आयेगा तब मुझे खर्च भी करना पड़ेगा और मेहनत भी करना पड़ेगी। अब बताओ, जिंदगी आराम से चल रही है। पानी की कमी है तो कोई बात नहीं! इधर उधर गुस्सा निकालकर व्यक्त तो कर लेते हैं। मगर इतनी सारी मेहनत से तो बचते हैं। सोचने की तकलीफ तो नहीं होती।’
प्रश्नकर्ता बुत ने कहा-‘मगर तुम सोच रहे हो? फिर अच्छा करने की क्यों नहीं सोचते?’
मित्र बुत ने कहा-‘मैं कुछ न करने की सोच रहा हूं, इसमें कोई बुराई नहीं है। इससे दिमाग और शरीर को कोई तकलीफ नहीं होगी, पर तुम्हारा प्रश्न और उसका उत्तर कुछ करने के लिये प्रेरित करता है। बस यही नहीं चाहता! इसलिये कभी ऐसी जगह पर मेरे साथ चलो तो सोचने के लिये प्रेरित करने वाले प्रश्न नहीं उठाया करो क्योंकि फिर उत्तर भी ऐसे ही आयेंगे।’
मित्र बुत चला गया पर प्रश्नकर्ता बुत अभी तक यही सोच रहा था कि‘आखिर उसके एक छोटा प्रश्न करने में बुराई क्या थी?’
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Wednesday, April 22, 2009

असलियत का रीटेक-हास्य व्यंग्य(film & cricket ka reteke-hindi vyangya)

वह अभिनेता अब क्रिकेट टीम का प्रबंधक बन गया था। उसकी टीम में एक मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी भी था जो अपनी बल्लेबाजी के लिये प्रसिद्ध था। वह एक मैच में एक छक्के की सहायता से छह रन बनाकर दूसरा छक्का लगाने के चक्कर में सीमारेखा पर कैच आउट हो गया। अभिनेता ने उससे कहा-‘ क्या जरूरत थी छक्का मारने की?’
उस खिलाड़ी ने रुंआसे होकर कहा-‘पिछले ओवर में मैने छक्का लगाकर ही अपना स्कोर शुरु किया था।
अभिनेता ने कहा-‘पर मैंने तुम्हें केवल एक छक्का मारकर छह रन बनाने के लिये टीम में नहीं लिया है।’
दूसरे मैच में वह क्रिकेट खिलाड़ी दस रन बनाकर एक गेंद को रक्षात्मक रूप से खेलते हुए बोल्ड आउट हो गया। वह पैवेलियन लौटा तो अभिनेता ने उससे कहा-‘क्या मैंने तुम्हें गेंद के सामने बल्ला रखने के लिये अपनी टीम में लिया था। वह भी तुम्हें रखना नहीं आता और गेंद जाकर विकेटों में लग गयी।’
तीसरे मैच में वह खिलाड़ी 15 रन बनाकर रनआउठ हो गया तो अभिनेता ने उससे कहा-‘क्या यार, तुम्हें दौड़ना भी नहीं आता। वैसे तुम्हें मैंने दौड़कर रन बनाने के लिये टीम में नहीं रखा बल्कि छक्के और चैके मारकर लोगों का मनोरंजन करने के लिये टीम में रखा है।’
अगले मैच में वह खिलाड़ी बीस रन बनाकर विकेटकीपर द्वारा पीछे से गेंद मारने के कारण आउट (स्टंप आउट) हो गया। तब अभिनेता ने कहा-‘यार, तुम्हारा काम जम नहीं रहा। न गेंद बल्ले पर लगती है और न विकेट में फिर भी तुम आउट हो जाते हो। भई अगर बल्ला गेंद से नहीं लगेगा तो काम चलेगा कैसे?’
उस खिलाड़ी ने दुःखी होकर कहा-‘सर, मैं बहुत कोशिश करता हूं कि अपनी टीम के लिये रन बनाऊं।’
अभिनेता ने अपना रुतवा दिखाते हुए कहा-‘कोशिश! यह किस चिड़िया का नाम है? अरे, भई हमने तो बस कामयाबी का मतलब ही जाना है। देखो फिल्मों में मेरा कितना नाम है और यहां हो कि तुम मेरा डुबो रहे हो। मेरी हर फिल्म हिट हुई क्योंकि मैंने कोशिश नहीं की बल्कि दिल लगाकर काम किया।’
उस क्रिकेट खिलाड़ी के मूंह से निकल गया-‘सर, फिल्म में तो किसी भी दृश्य के सही फिल्मांकन न होने पर रीटेक होता है। यहां हमारे पास रीटेक की कोई सुविधा नहीं होती।’
अभिनेता एक दम चिल्ला पड़ा-‘आउठ! तुम आउट हो जाओ। रीटेक तो यहां भी होगा अगले मैच में तुम्हारे नंबर पर कोई दूसरा होगा। नंबर वही खिलाड़ी दूसरा! हुआ न रीटेक। वाह! क्या आइडिया दिया! धन्यवाद! अब यहां से पधारो।’
वह खिलाड़ी वहां से चला गया। सचिव ने अभिनेता से कहा-‘आपने उसे क्यों निकाला? हो सकता है वह फिर फार्म में आ जाता।’
अभिनेता ने अपने संवाद को फिल्मी ढंग से बोलते हुए कहा-‘उसे सौ बार आउट होना था पर उसकी परवाह नहीं थी। वह जीरो रन भी बनाता तो कोई बात नहीं थी पर उसने अपने संवाद से मेरे को ही आउट कर दिया। मेरे दृश्यों के फिल्मांकन में सबसे अधिक रीटेक होते हैं पर मेरे डाइरेक्टर की हिम्मत नहीं होती कि मुझसे कह सकें पर वह मुझे अपनी असलियत याद दिला रहा था। नहीं! यह मैं नहीं सकता था! वह अगर टीम में रहता तो मेरे अंदर मेरी असलियत का रीटेक बार बार होता। इसलिये उसे चलता करना पड़ा।’
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Sunday, April 12, 2009

जन्नत और मन्नत-व्यंग्य कविताएँ

अगर करता अक्ल का इस्तेमाल आदमी
तो जमीन पर ही जन्नत होती।
जहन्नुम नहीं बनाया होता धरती पर
तो भला जज़्बातों के ठेकेदारों के दरवाजे पर
किसकी और किसके लिये मन्नत होती।
......................................
ऊपर से लेकर नीचे तक
अपनी अक्ल गुलाम रखकर
आजादी की चाहत में इंसान घूम रहा है।

पहचान की तमीज नहीं है
अपनी जिंदगी बचाने के लिये
दिल का इलाज हमदर्दी की
दवा से करने की बजाय
दूसरे के लिये दर्द पैदा कर
अपनी जीभ से जहर चूम रहा है
..........................

उजाड़ दिया चमन
फिर भी जिंदगी में नहीं रहता अमन
दूसरे इंसानों को रौंदते रौंदते
धरती को खोदते खोदते
जहन्नुम बना दिया।
दूसरों के खून से सना है
या अपने पसीने से
वह खुद भी नहीं जानता
पूछने पर बताता है इंसान
‘मेरे उस्तादों ने जन्नत का यही पता दिया’।

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Tuesday, April 7, 2009

‘भारतीय ज्योतिष की जय हो’-व्यंग्य आलेख (bhartiya jyotish ki jay ho-hasya vyangya-in hindi)

सप्ताह में सात दिन और दिन में 24 धंटे पर मंगलवार का सुबह 11.45 मिनट का समय सभी लोगों के लिये भारी होता है-जी नहीं! यह खबर किसी भारतीय ज्योतिषवेता की नहीं बल्कि पश्चिम के शोधकर्ताओं की है। इसे शिरोधार्य करना चाहिये क्योंकि वह तमाम तरह के प्रयोग करते हैं और किसी ज्योतिष गणना का सहारा नहीं लेते। अगर कोई भारतीय विशेषज्ञ ज्योतिषी कहता तो शायद लोग उसका मखौल उड़ाते।
वैसे भारतीय ज्योतिष में भी मंगल को एक तरह से भारी ग्रह माना जाता है और जिसकी राशि का स्वामी होता है उसके लिये जीवन साथी भी वैसा ही ढूंढना पड़ता है। लड़के और लड़की की जाति बंधन के साथ आजकल ग्रह बंधन भी हो गया है। इस देश में दो प्रकार के अविवाहित युवक युवतियां होती हैं-एक जो मांगलिक हैं दूसरे जो नहीं है। हम अब यह तो कतई नहीं कह सकते कि एक मांगलिक दूसरे अमांगलिक क्योंकि इससे अर्थ का अनर्थ हो जायेगा।
अनेक बार लोग एक दूसरे को शुभकामनायें देते हुए कहते हैं कि ‘तुम्हारा मंगल हो‘, ‘तुम्हारा पूरा दिन मंगलमय हो’ या ‘तुम्हारा अगला वर्ष मंगलमय हो‘। इसके बावजूद भारतीय ज्योतिष में मंगल ग्रह एक भारी ग्रह माना जाता है।
अपने यहां एक कहावत भी है कि ‘मंगल को होये दिवारी, हंसे किसान रोये व्यापारी‘। वैसे मंगल कामनायें कृषि के लिये नहीं बल्कि व्यापार में अधिक दी जाती हैं। कृषि के लिये तो सारे दिन एक जैसे हैं। अपने यहां पहले मंगलवार को ही व्यापार में अवकाश रखने का प्रावधान अधिक था। समय के साथ अब लोग रविवार को भी अवकाश रखने लगे।
शोधकर्ताओं ने मंगल 11.45 मिनट का समय इसलिये भारी बताया है कि शनिवार और रविवार के अवकाश-जी हां, वहां दो दिन का अवकाश ही रखा जाता है-के बाद आदमी सोमवार को अलसाया हुआ रहता है और पूरा दिन ऐसे ही निकाल देता है। मंगलवार को काम के मूड में सुबह वह काम पर आता है तो उसे पता लगता है कि उसके सामने तो काम बोझ रखा हुआ है। सुबह काम शुरु करने के बाद यह सोच 11.45 मिनट के आसपास उसके दिमाग में आता है। शोधकर्ताओं ने पांच हजार कर्मचारियों पर यह शोध किया।

वैसे नहीं मानने वाले अब भी यह नहीं मानेंगे कि भारतीय ज्योतिष ग्रहों के मनुष्य के दिमाग पर परिणाम की जो व्याख्या करता है वह सच है। वैसे देखा जाये तो सुबह उठकर जब यह याद आता है कि आज अवकाश का दिन है तो आदमी के दिमाग में एक स्वतः तरोताजगी आती है इसका किसी वार से कोई संबंध नहीं है। उसी तरह जब सुबह यह याद आता है कि आज काम पर जाना है तब तनाव भी स्वाभाविक रूप से आता है।
भारतीय ज्योतिष को लेकर अनेक तरह के विवाद हैं। दो ज्योतिषी एक मत नहीं होते। इसके अलावा एक बात जो स्पष्ट नहीं होती कि ज्योतिष और खगोलशास्त्र में क्या अंतर है? खगेालशास्त्र में ग्रहों की गति के आधार पर समय और अन्य गणनायें की जाती हैं। भारतीय खगोलशास्त्र कितना संपन्न है कि उनकी गणना के अनुसार सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण उसी समय पर आते हैं जब पश्चिम के वैज्ञानिक बताते हैं। भारतीय खगोलशास्त्रियेां की उनकी कई ऐसी गणनायें और खोज हैं जिनकी पश्चिम के वैज्ञानिक अब प्रमाणिक पुष्टि करते हैं। बुध,शुक्र,शनि,मंगल,गुरु तथा अन्य ग्रहों के बारे में भारतीय खगोलशास्त्री बहुत पहले से जानते हैं। भारत में सात वार है और पश्चिम में भी-इससे यह तो प्रमाणित होता कि कहीं न कहीं हमारे खगोलशास्त्री विश्व के अन्य देशों से आगे थे। संभवतः ज्योतिष विद्या उन ग्रहों की स्थिति के ह आधार पर मनुष्य और धरती पर पड़ने वाले प्रभावों की व्याख्या करने वाली विद्या मानी जा सकती है।

चंद्रमा हमारे सबसे निकट एक ग्रह है इसलिये उसके प्रभाव की अनुभूति तत्काल की जा सकती है। गर्मी में जब सूर्यनारायण दिन भर झुलसा देते हैं तब रात को आकाश में चंद्रमा आंखों मेें जो ठंडक देता है उसे हम उसे शीघ्र अनुभव करते हैं। अन्य ग्रह कुछ अधिक दूर है इसलिये उनके प्रभावों का एकदम पता नहीं चलता-उनका प्रभाव होता है यह तो हम मानते हैं।
समस्या इस बात की है कि ज्योतिष के नाम पर ढोंग और पाखंड अधिक हो गया है। कुछ कथित ज्योतिषी अपने पैसे कमाने के लिये तमाम तरह के ऐसे हथकंडे अपनाते हैं जिससे समाज में ज्योतिष विद्या की छबि खराब होती है। वैसे इन ग्रहों के दुष्प्रभाव से बचने का एक ही उपाय है परमात्मा की सच्चे मन से भक्ति और निष्काम भाव से अपना कर्म करते रहना। अगर आदमी निष्काम भाव से रहे तो फिर उसके लिये अच्छा क्या? बुरा क्या? अपना क्या? पराया क्या?
योग साधन, ध्यान, मंत्र जाप और प्रार्थना से मनुष्य को अपनी देह में ही ऐसी शक्तियों का आभास होता है जो उसका बिगड़ता काम बना देती है। लक्ष्य उनके कदम चूमता है। हां, सकाम रूप से भक्ति और अन्य कार्य करने वालों की ही ज्योतिष की सहायता की आवश्यकता होती है। बहरहाल यह कहना कठिन है कि इस देश में कितने ज्योतिष ज्ञानी है और कितने अल्पज्ञानी। अलबत्ता धंधा केवल वही कर पाते हैं जिनके पास व्यवसायिक चालाकियां होती हैं।

इन ज्योतिष ज्ञानियों द्वारा दी गयी जानकारियों में विरोधाभास अक्सर देखने को मिलता है। इंटरनेट पर इसका एक रोचक अनुभव हुआ। एक महिला ज्योतिष विद् ने इस लेखक के ब्लाग/पत्रिका पर टिप्पणी की। वह ज्योतिष के नाम पर होने वाले पाखंड के विरुद्ध अभियान शुरु किये हुए हैं-उन्होंने अपनी प्रकाशित एक किताब की जानकारी भी भेजी। उन्होंने अध्यात्म ब्लाग पर लिखने के लिये इस लेखक की प्रशंसा करते हुए अपने अभियान में समर्थन का आश्वासन मांगा। मुझे बहुत खुशी हुई। लेखक ने जवाब में समर्थन के आश्वासन के साथ अंतर्जाल पर सक्रिय एक अन्य ज्योतिषी के ब्लाग का पता भी दिया और साथ में यह राय भी कि आप उनका ब्लाग देखकर उनसे भी इस मामले में सहायता मांगे। लौटती डाक से जवाब आया कि ‘वह उन ज्योतिषी की गणनाओं से सहमत नहीं है।’
तब यह देखकर हैरानी हुई कि दो ज्योतिष विशारद आखिर क्यों आपस में इस तरह असहमत होते हैं? हम तो इस मामले में पैदल हैं इसलिये कहते हैं कि यह भी सही और वह भी सही मगर जब जानकार लोग इस तरह भ्रम पैदा करें तो..............शायद यही कारण है कि भारतीय ज्योतिष विश्व में कभी वह स्थान प्राप्त नहीं कर पाया जिसकी अपेक्षा की जाती रही है। हां , उपरोक्त शोध से एक बात तो सिद्ध हो गयी कि भारतीय ज्योतिष का भी कोई न कोई तार्किक आधार होगा तभी इतने लंबे समय से वहा प्रचलन में है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि अध्यात्मिक ज्ञान का एक भाग ज्योतिष ज्ञान भी माना जाता है। पश्चिम के वैज्ञानिकों के शोध के आधार पर यह तो कहा जा सकता है कि ‘भारतीय ज्योतिष की जय हो’
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Saturday, April 4, 2009

मनोरंजन की कतरनों में ढूंढ रहे खबरें-व्यंग्य क्षणिकाएं

बेच रहे हैं मनोरंजन
कहते हैं उसे खबरें
भाषा के शब्दकोष से चुन लिए हैं
कुछ ख़ास शब्द
उनके अर्थ की बना रहे कब्रें
परदे पर दृश्य दिखा रहे हैं
और साथ में चिल्ला रहे हैं
अपनी आँख और कान पर भरोसा नहीं
दूसरों पर शक जता रहे हैं
इसलिए जुबान का भी जोर लगा रहे हैं
टीवी पर कान और आँख लगाए बैठे हैं लोग
मनोरंजन की कतरनों में ढूँढ रहे खबरें
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चीखते हुए अपनी बात
क्यों सुनाते हो यार
हमारी आंख और कान पर भरोसा नहीं है
या अपने कहे शब्द घटिया माल लगते हैं
जिसका करना जरूरी हैं व्यापार

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Friday, April 3, 2009

लेखक और आचरण-आलेख

हिंदी और उर्दू दो अलग भाषायें हैं पर बोली होने की वजह से एक जैसी लगती हैं। यह भाषायें इस तरह आपस में मिली हुईं है कि कोई उर्दू बोलता है तो लगता है कि हिंदी बोल रहा है और उसी तरह हिंदी बोलने वाला उर्दू बोलता नजर आता है। दोनों के बीच शब्दों का विनिमय हुआ है और हिंदी में उर्दू शब्दों के प्रयोग करते वक्त नुक्ता लगाने पर विवाद भी चलता रहा है। बोली की साम्यता के बावजूद दोनों की प्रवृत्ति अलग अलग है। इस बात को अधिकतर लोगों ने नजरअंदाज किया है पर उस विचार किया जाना जरूरी है।
उर्दू की महिमा बहुत सारे हिंदी लेखक भी गाते रहे हैं पर उसकी मूल प्रवृत्ति देखना भी जरूरी है। उर्दू की लिपि अरबी है और हिंदी की देवनागरी। देवनागरी बायें से दायें लिखी जाती है और अरेबिक दायें से बायें लिखी जाती है। वैज्ञानिक मानते हैं कि लिखने के अंदाज से व्यक्ति के स्वभाव और विचारों में अंतर पड़ता है। कुछ मनोविशेषज्ञ कहते हैं कि बायें से दायें लिखने के कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं जो दायें से बायें में नहीं पाये जाते।

इससे अलग भी एक महत्वपूर्ण बात है। वह यह है कि उर्दू भाषा किसी लेखक या रचनाकार की रचनाओं पर ही अपना ध्यान केंद्रित करती नजर आती है जबकि हिंदी में इसके विपरीत साहित्य के साथ उसके रचयिता के आचरण पर भी दृष्टि रखने की प्रवृत्ति है। इस पर विचार करते हुए हम पहले हिंदी उसकी सहायक भाषाओं के प्रसिद्ध रचनाकारों के आचरण और विचारों पर दृष्टिपात करें। पहले हम संस्कृत के प्रसिद्ध रचनाकारों पर दृष्टि डालें लो हिंदी की जननी भाषा है। उसमें महर्षि बाल्मीकि, वेदव्यास और शुकदेव का नाम आता है। आप देखिये लोग उनका नाम ऐसे ही लेते हैं जैसे भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण का। इसका कारण उनका महान आचरण, त्याग और तपस्या है। उसके बाद हम देखते हैं हिंदी के भक्तिकाल के महान कवि और संत कबीर,रहीम,मीरा,तुलसी आदि के चरित्र और जीवन निश्चित रूप से ऊंचे दर्जे का था। आधुनिक हिंदी में भी सर्व श्री प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद आदि का चरित्र भी उज्जवल था। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक की व्यक्तिगत धवल छबि हो तभी हिंदी भाषा वाले उसकी रचनाओं के महत्व को स्वीकार करते हैं-यह हिंदी की प्रवृत्ति है।

अब उर्दू भाषा की प्रवृत्तियों पर दृष्टिपात करें। हम यहां उनके किसी लेखक का नाम नहीं लेंगे क्योंकि उससे विवाद बढ़ता है। भारत के एक प्रसिद्ध शायद हुए जिनको मुगल काल में बहुत सम्मान मिला। एक तरह से भारत के उर्दू शायरी को उन्होंने प्राणवायु प्रदान की। उनके शेर निश्चित रूप से बहुत प्रभावी हैं उन जैसा प्रसिद्ध होना तो किसी किसी के भाग्य में बदा होता है मगर वह फिर भी वह हिंदी भाषा के कवियों जैसे आदरणीय इस देश में नहीं है। वजह! वह शराब खूब पीते थे। उनके कोठों पर जाने की चर्चा भी कई जगह पढ़ने को मिलती है। उनकी शायरियेां का अंदाज तो उनके बाद के शायरों में शायद ही दिख पाया पर हां, इससे निजी आचरण की अनदेखी उर्दू की एक सामान्य प्रवृत्ति लगती है।

एक अन्य शायर जो बाद में पाकिस्तान चले गये। उनका एक देशभक्ति से भरा गीत तो हमेशा ही रेडियो और टीवी पर सुनने को मिलता है। इतना ही नहीं उन्होंने भगवान श्रीराम और शिव जी पर भी अपनी शायरी लिखी। उन्होंने भारतीय संदर्भों को पूरी तरह अपनाया पर आखिर हुआ क्या? वह पाकिस्तान चले गये। भारत उनको पराया लगने लगा। उनके जाने के बाद भी बहुत समय तक उनके यहां के हिंदी और उर्दू के लेखक और पाठक इस बात की प्रतीक्षा करते रहे कि वह वापस आयें पर ऐसा हुआ नहीं। आज भी अनेक हिंदी और उदू्र्र के लेखक उनकी रचनाओं को अपनी कलम से संजोये रख कर पाठकों के समक्ष रखते हैं। इतने बड़े शायर को इस देश ने भुला दिया। कारण यही है कि आम पाठक उनके पाक्रिस्तान चले जाने का बात को पचा नहीं पाया।

कुछ लोगों को यह बात अजीब लगे पर जरा विचार करें। जब हम मन में भगवान श्रीराम का स्मरण करते हैं तो हमारा ध्यान बाल्मीकि कृत रामायण और तुलसीकृत रामचरित मानस की तरफ जाता है। हम थोड़ा आगे विचार करते हैं तो वह पुस्तकें उठा लेते हैं और फिर उसके अध्ययन से हमारे अंदर भगवान श्रीराम का एक विशाल रूप स्वतः दृष्टिगोचर होता है। यही स्थिति भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करने पर हो सकती है। उनका नाम मन में आते ही हमारा श्रीगीता, या मद्भागवत, सुखसागर, और प्रेमसागर की किताब की तरफ चला जाता है। यही स्थिति कबीर और रहीम जी का स्मरण करने पर होती है। यहां हम नाम की महिमा और उसके बाद उसके विस्तार स्वरूप प्रकट होने पर विचार करते हुए यह कह सकते हैं कि जिस शब्द का सार्वभौमिक महत्व हैं उसका विस्तृत रूप मनुष्य के पूरे मन पर नियंत्रण कर लेता हैं। एक शब्द से उसकी पूरी सोच का रास्ता बन जाता है।

यही स्थिति भाषा की है। जब हम हिंदी में सोचेंगे तक हमारी प्रवृत्ति उसकी मूल प्रवृत्ति की तरह हो जायेगी। यही स्थिति उर्दू की भी होगी। तब ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर इसका निष्कर्ष क्या है? दरअसल हिंदी के प्रसिद्ध लेखक जानबूझकर उर्दू लेखकों की प्रशंसा करते हैं ताकि हिंदी में जो लेखक की आचरण पर दृष्टि डालने की प्रवृत्ति है उससे बचा जाये। इधर फिल्मों में भी उर्दू भाषी गीतकारों और कहानीकारेां का प्रभाव अधिक रहा है। इन फिल्मों में ं आचरण तो नाम का भी नहीं होता। इनका वर्चस्व इतना रहा है कि हिंदी फिल्म उद्योग को कभी बालीवुड तो कभी मुबईया फिल्म उद्योग कहा जाता है। फिल्मी पर्दे पर नायक का काम करने वाले भले ही निजी जीवन में खराब आचरण करते हों पर उनकी छबि फिर भी आम आदमी में खराब न हो इसके लिये फिल्म उद्योग में उनके प्रचारक सक्रिय रहते हैं। बोली की समानता के कारण उर्दू भाषियों के अस्तित्व को हिंदी फिल्मों में अलग करना मुश्किल है पर यह सच है कि उनका प्रभाव अधिक है और इसी कारण वहां आचरण की महिमा भी वैसी है।
उर्दू अदब की भाषा है। निश्चित रूप से मानना चाहिये क्योंकि शायरों की शायरियां वाकई दार्शनिक भाव से भरी हुईं हैं पर हिंदी अध्यात्म की भाषा है। शराब और शवाब पर खुलकर लिखने की प्रवृत्ति उर्दू ने ही हिंदी को दी है हालांकि सभी लेखक ऐसा नहीं करते। ऐसा नहीं है कि नारी सौंदर्य पर हिंदी में नहीं लिखा जाता पर उसमें जिस तरह की व्यंजना विद्या उपयोग की जाती है वह उर्दू में नहीं देखी जाती। हमारे प्राचीन ग्रंथों में नारी पात्रों के सौंदर्य पात्रों का वर्णन जिस तरह किया गया है उसे पढ़ा जाये तो आज के लेखकों पर तरस ही आ सकता है।

वैसे आजकल हिंदी और उर्दू शायरों में अधिक अंतर नहीं रहा है। इसका कारण यह है कि जो उर्दू में लिखने वाले हैं वह हिंदी में ही पढ़े लिखे हैं इसलिये उसके अध्यात्म का उन पर प्रभाव है और वह इसे छिपाते भी नहीं है। वैसे अनेक उर्दू लेखक और शायरी है जिन्होंने अपने पूर्वज शायरों के निजी जीवन को नहीं अपनाया जो आचरण की दृष्टि से उतने ही उज्जवल है जितने हिंदी वाले, पर यह उनके हिंदी से जुड़े होने के कारण ही है। हिंदी वालों ने उर्दू वालों की संगत की है तो उनमें भी आचरण के प्रति उपेक्षा का भाव दिखने लगा है। वैसे हिंदी में अनेक ऐसे प्रसिद्ध लेखक हुए हैं जिन्होंने उर्दू में भी खूब लिखा। सच बात तो यह है कि आजकल हिंदी और उर्दू का अंतर केवल लिपि को लेकर है और उसका प्रभाव फिर भी नहीं नकारा जा सकता। इस धरती पर कोई सर्वज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता इसलिये किसी पर यह आक्षेप करना ठीक नहीं है पर जिस तरह की प्रवृत्तियां देखी गयी हैं उन पर नजर डालना भी जरूरी है। हो सकता है कि यह नजरिया पूरी तरह से गलत हो और नहीं भी।
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Sunday, March 29, 2009

रौशनी बचाने के लिये किया अँधेरा-व्यंग्य कविता

धरती की रौशनी बचाने के लिये
उन्होंने अपने घर और शहर में
अंधेरा कर लिया
फिर उजाले में कहीं वह लोग खो गये।
दिन की धूप में धरती खिलती रही
रात में चंद्रमा की रौशनी में भी
उसे चमक मिलती रही
इंसान के नारों से बेखबर सुरज और चंद्रमा
अपनी ऊर्जा को संजोते रहे
एक घंटे के अंधेरे से
सोच में रौशनी पैदा नहीं हो सकती
अपनी अग्नि लेकर ही जलती
सूरज की उष्मा से ही पलती
और चंद्रमा की शीतलता पर यह धरती मचलती
उसके नये खैरख्वाह पैदा हो गये।
नारों से बनी खबर चमकी आकाश में
लगाने वाले चादर तानकर सो गये।

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Sunday, March 22, 2009

सूरज अगर डूबता नहीं-व्यंग्य क्षणिकाएँ

पानी से लहराती नदियों
उठते कहीं गिरते पहाड़ों
और हरियाली की चादर ओढ़े
चैन से खड़ा यह चमन था।
बन गया उजाड तब
जब आ गये वह गिद्ध
दिखते थे बहुत बड़े सिद्ध
नीयत थी जिनकी काली
पर जुबां पर पैगाम-ए-अमन था।
............................
इस जमीन पर औरत की
औरत तब तक ही सलमात थी
जब नहीं आये बेआबरू होने से
बचाने वाले पहरेदार
बातें करते थे जो रखवाली की
पर अदाओं में जिनके कयामत थी।
............................
हमने नहीं जाना तब तक
धोखा और गद्दारी क्या होती है
इश्क और यारी क्या होती है
जब तक दिल लगाया नहीं।
अब जाना कि वादे हमसे दोस्त करते हैं
इरादे कहीं और बसते हैं
वफा करते हैं हमेशा
मौका पड़ते ही गद्दारी से चूकते नहीं।
......................
सूरज अगर डूबता नहीं
उसकी कदर कौन करता।
यह अंधेरा ही है जो
उसके होने का अहसास दिलाता है
वरना उसकी इबादत कौन करता।

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Tuesday, March 17, 2009

सबसे बड़ा कौन-लघुकथा

डूबता हुआ सूरज रोज अट्टहास के साथ अपने से ही सवाल करता था कि ‘इस दुनियां में सबसे बड़ा कौन?’
फिर दोबारा अट्टहास करते हुए स्वयं ही जवाब देता था कि ‘मैं’! मेरी रौशनी के बिना इस संसार के उस हिस्से में अंधेरा छा जाता है जहां से मैं विदा लेता हूं।’
एक दिन डूबने से पहले उसने कुछ देर पहले धरती पर झांक कर देखा तो उसे एक औरत अपने घर के बाहर बने छोटे चबूतरे पर एक जलता चिराग रखते हुए दिखाई दी। पड़ौसन ने उससे कहा-‘यह चिराग तुम क्यों जलाकर रखती हो। अपने कमरे में ही चिराग जलते है, फिर यहां रखने से क्या लाभ? बेकार में तेल का अपव्यय करना भला कहां की अक्लमंदी है?’
उस महिला ने कहा-‘यहां गली में रात को अंधेरा रहता है। अनेक राहगीर यहां से गुजरते हैं। इस चिराग से उनको सहायता मिलती है। अपने लिये तो सभी रौशनी करते हैं पर दूसरे के लिये करने पर एक अलग प्रकार का ही आनंद आता है।’

सूरज वहां से विदा हो गया पर उस महिला की बात उसके मन में घर कर गयी। उसने अपने आप से कहा-’मैं भी तो यही करता हूं पर अपने अहंकार की वजह से कभी उस आनंद का अनुभव नहीं कर पाया जो वह महिला करती है। एक छोटा चिराग भी वही कर लेता है जो मैं करता हूं। मतलब न इस दुनियां में रौशनी करने वाला मै अकेला हूं, दूसरों को रौशनी देने की सोचने वाला’
यह सोचकर सूरज मौन हो गया। फिर कभी डूबते समय उसने अट्टहास नहीं किया। उस चिराग और महिला ने ज्ञान का प्रकाश दिखाकर उसके अहंकार को परे कर दिया।

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Wednesday, March 11, 2009

दर्द चाहे जितना खरीदो-व्यंग्य कविता

वह दिखाते अपनी तस्वीरों और शब्दों में लोगों के घाव।
प्रचार में चलता है इसलिये हमेशा चलता है उनका दाव।।
अपने दर्द से छिपते हैं दुनियां के सभी लोग
दूसरे के आंसू के दरिया में चलाते दिल की नाव।।
जज्बातों के सौदागर इसलिये कोई दवा नहीं बेचते
दर्द चाहे जब जितना खरीदो, एक किलो या पाव।।

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Wednesday, March 4, 2009

फासले पर रखो अपना विश्वास-हिंदी शायरी

जिसके लिये प्रेम होता दिल में पैदा
उसके पास जाने की
इच्छा मन में बढ़ जाती है
आंखें देखती हैं पर
बुद्धि अंधेरे में फंस जाती है
कुंद पड़ा दिमाग नहीं देख पाता सच
कहते हैं दूर के ढोल सुहावने
पर दूरी होने पर ही
किसी इंसान की असलियत समझ में आती है
इसलिये फासले पर रखो अपना विश्वास
किसी से टकराने पर
हादसों से जिंदगी घिर जाती है

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