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Wednesday, April 22, 2009

असलियत का रीटेक-हास्य व्यंग्य(film & cricket ka reteke-hindi vyangya)

वह अभिनेता अब क्रिकेट टीम का प्रबंधक बन गया था। उसकी टीम में एक मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी भी था जो अपनी बल्लेबाजी के लिये प्रसिद्ध था। वह एक मैच में एक छक्के की सहायता से छह रन बनाकर दूसरा छक्का लगाने के चक्कर में सीमारेखा पर कैच आउट हो गया। अभिनेता ने उससे कहा-‘ क्या जरूरत थी छक्का मारने की?’
उस खिलाड़ी ने रुंआसे होकर कहा-‘पिछले ओवर में मैने छक्का लगाकर ही अपना स्कोर शुरु किया था।
अभिनेता ने कहा-‘पर मैंने तुम्हें केवल एक छक्का मारकर छह रन बनाने के लिये टीम में नहीं लिया है।’
दूसरे मैच में वह क्रिकेट खिलाड़ी दस रन बनाकर एक गेंद को रक्षात्मक रूप से खेलते हुए बोल्ड आउट हो गया। वह पैवेलियन लौटा तो अभिनेता ने उससे कहा-‘क्या मैंने तुम्हें गेंद के सामने बल्ला रखने के लिये अपनी टीम में लिया था। वह भी तुम्हें रखना नहीं आता और गेंद जाकर विकेटों में लग गयी।’
तीसरे मैच में वह खिलाड़ी 15 रन बनाकर रनआउठ हो गया तो अभिनेता ने उससे कहा-‘क्या यार, तुम्हें दौड़ना भी नहीं आता। वैसे तुम्हें मैंने दौड़कर रन बनाने के लिये टीम में नहीं रखा बल्कि छक्के और चैके मारकर लोगों का मनोरंजन करने के लिये टीम में रखा है।’
अगले मैच में वह खिलाड़ी बीस रन बनाकर विकेटकीपर द्वारा पीछे से गेंद मारने के कारण आउट (स्टंप आउट) हो गया। तब अभिनेता ने कहा-‘यार, तुम्हारा काम जम नहीं रहा। न गेंद बल्ले पर लगती है और न विकेट में फिर भी तुम आउट हो जाते हो। भई अगर बल्ला गेंद से नहीं लगेगा तो काम चलेगा कैसे?’
उस खिलाड़ी ने दुःखी होकर कहा-‘सर, मैं बहुत कोशिश करता हूं कि अपनी टीम के लिये रन बनाऊं।’
अभिनेता ने अपना रुतवा दिखाते हुए कहा-‘कोशिश! यह किस चिड़िया का नाम है? अरे, भई हमने तो बस कामयाबी का मतलब ही जाना है। देखो फिल्मों में मेरा कितना नाम है और यहां हो कि तुम मेरा डुबो रहे हो। मेरी हर फिल्म हिट हुई क्योंकि मैंने कोशिश नहीं की बल्कि दिल लगाकर काम किया।’
उस क्रिकेट खिलाड़ी के मूंह से निकल गया-‘सर, फिल्म में तो किसी भी दृश्य के सही फिल्मांकन न होने पर रीटेक होता है। यहां हमारे पास रीटेक की कोई सुविधा नहीं होती।’
अभिनेता एक दम चिल्ला पड़ा-‘आउठ! तुम आउट हो जाओ। रीटेक तो यहां भी होगा अगले मैच में तुम्हारे नंबर पर कोई दूसरा होगा। नंबर वही खिलाड़ी दूसरा! हुआ न रीटेक। वाह! क्या आइडिया दिया! धन्यवाद! अब यहां से पधारो।’
वह खिलाड़ी वहां से चला गया। सचिव ने अभिनेता से कहा-‘आपने उसे क्यों निकाला? हो सकता है वह फिर फार्म में आ जाता।’
अभिनेता ने अपने संवाद को फिल्मी ढंग से बोलते हुए कहा-‘उसे सौ बार आउट होना था पर उसकी परवाह नहीं थी। वह जीरो रन भी बनाता तो कोई बात नहीं थी पर उसने अपने संवाद से मेरे को ही आउट कर दिया। मेरे दृश्यों के फिल्मांकन में सबसे अधिक रीटेक होते हैं पर मेरे डाइरेक्टर की हिम्मत नहीं होती कि मुझसे कह सकें पर वह मुझे अपनी असलियत याद दिला रहा था। नहीं! यह मैं नहीं सकता था! वह अगर टीम में रहता तो मेरे अंदर मेरी असलियत का रीटेक बार बार होता। इसलिये उसे चलता करना पड़ा।’
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Sunday, April 12, 2009

जन्नत और मन्नत-व्यंग्य कविताएँ

अगर करता अक्ल का इस्तेमाल आदमी
तो जमीन पर ही जन्नत होती।
जहन्नुम नहीं बनाया होता धरती पर
तो भला जज़्बातों के ठेकेदारों के दरवाजे पर
किसकी और किसके लिये मन्नत होती।
......................................
ऊपर से लेकर नीचे तक
अपनी अक्ल गुलाम रखकर
आजादी की चाहत में इंसान घूम रहा है।

पहचान की तमीज नहीं है
अपनी जिंदगी बचाने के लिये
दिल का इलाज हमदर्दी की
दवा से करने की बजाय
दूसरे के लिये दर्द पैदा कर
अपनी जीभ से जहर चूम रहा है
..........................

उजाड़ दिया चमन
फिर भी जिंदगी में नहीं रहता अमन
दूसरे इंसानों को रौंदते रौंदते
धरती को खोदते खोदते
जहन्नुम बना दिया।
दूसरों के खून से सना है
या अपने पसीने से
वह खुद भी नहीं जानता
पूछने पर बताता है इंसान
‘मेरे उस्तादों ने जन्नत का यही पता दिया’।

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Tuesday, April 7, 2009

‘भारतीय ज्योतिष की जय हो’-व्यंग्य आलेख (bhartiya jyotish ki jay ho-hasya vyangya-in hindi)

सप्ताह में सात दिन और दिन में 24 धंटे पर मंगलवार का सुबह 11.45 मिनट का समय सभी लोगों के लिये भारी होता है-जी नहीं! यह खबर किसी भारतीय ज्योतिषवेता की नहीं बल्कि पश्चिम के शोधकर्ताओं की है। इसे शिरोधार्य करना चाहिये क्योंकि वह तमाम तरह के प्रयोग करते हैं और किसी ज्योतिष गणना का सहारा नहीं लेते। अगर कोई भारतीय विशेषज्ञ ज्योतिषी कहता तो शायद लोग उसका मखौल उड़ाते।
वैसे भारतीय ज्योतिष में भी मंगल को एक तरह से भारी ग्रह माना जाता है और जिसकी राशि का स्वामी होता है उसके लिये जीवन साथी भी वैसा ही ढूंढना पड़ता है। लड़के और लड़की की जाति बंधन के साथ आजकल ग्रह बंधन भी हो गया है। इस देश में दो प्रकार के अविवाहित युवक युवतियां होती हैं-एक जो मांगलिक हैं दूसरे जो नहीं है। हम अब यह तो कतई नहीं कह सकते कि एक मांगलिक दूसरे अमांगलिक क्योंकि इससे अर्थ का अनर्थ हो जायेगा।
अनेक बार लोग एक दूसरे को शुभकामनायें देते हुए कहते हैं कि ‘तुम्हारा मंगल हो‘, ‘तुम्हारा पूरा दिन मंगलमय हो’ या ‘तुम्हारा अगला वर्ष मंगलमय हो‘। इसके बावजूद भारतीय ज्योतिष में मंगल ग्रह एक भारी ग्रह माना जाता है।
अपने यहां एक कहावत भी है कि ‘मंगल को होये दिवारी, हंसे किसान रोये व्यापारी‘। वैसे मंगल कामनायें कृषि के लिये नहीं बल्कि व्यापार में अधिक दी जाती हैं। कृषि के लिये तो सारे दिन एक जैसे हैं। अपने यहां पहले मंगलवार को ही व्यापार में अवकाश रखने का प्रावधान अधिक था। समय के साथ अब लोग रविवार को भी अवकाश रखने लगे।
शोधकर्ताओं ने मंगल 11.45 मिनट का समय इसलिये भारी बताया है कि शनिवार और रविवार के अवकाश-जी हां, वहां दो दिन का अवकाश ही रखा जाता है-के बाद आदमी सोमवार को अलसाया हुआ रहता है और पूरा दिन ऐसे ही निकाल देता है। मंगलवार को काम के मूड में सुबह वह काम पर आता है तो उसे पता लगता है कि उसके सामने तो काम बोझ रखा हुआ है। सुबह काम शुरु करने के बाद यह सोच 11.45 मिनट के आसपास उसके दिमाग में आता है। शोधकर्ताओं ने पांच हजार कर्मचारियों पर यह शोध किया।

वैसे नहीं मानने वाले अब भी यह नहीं मानेंगे कि भारतीय ज्योतिष ग्रहों के मनुष्य के दिमाग पर परिणाम की जो व्याख्या करता है वह सच है। वैसे देखा जाये तो सुबह उठकर जब यह याद आता है कि आज अवकाश का दिन है तो आदमी के दिमाग में एक स्वतः तरोताजगी आती है इसका किसी वार से कोई संबंध नहीं है। उसी तरह जब सुबह यह याद आता है कि आज काम पर जाना है तब तनाव भी स्वाभाविक रूप से आता है।
भारतीय ज्योतिष को लेकर अनेक तरह के विवाद हैं। दो ज्योतिषी एक मत नहीं होते। इसके अलावा एक बात जो स्पष्ट नहीं होती कि ज्योतिष और खगोलशास्त्र में क्या अंतर है? खगेालशास्त्र में ग्रहों की गति के आधार पर समय और अन्य गणनायें की जाती हैं। भारतीय खगोलशास्त्र कितना संपन्न है कि उनकी गणना के अनुसार सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण उसी समय पर आते हैं जब पश्चिम के वैज्ञानिक बताते हैं। भारतीय खगोलशास्त्रियेां की उनकी कई ऐसी गणनायें और खोज हैं जिनकी पश्चिम के वैज्ञानिक अब प्रमाणिक पुष्टि करते हैं। बुध,शुक्र,शनि,मंगल,गुरु तथा अन्य ग्रहों के बारे में भारतीय खगोलशास्त्री बहुत पहले से जानते हैं। भारत में सात वार है और पश्चिम में भी-इससे यह तो प्रमाणित होता कि कहीं न कहीं हमारे खगोलशास्त्री विश्व के अन्य देशों से आगे थे। संभवतः ज्योतिष विद्या उन ग्रहों की स्थिति के ह आधार पर मनुष्य और धरती पर पड़ने वाले प्रभावों की व्याख्या करने वाली विद्या मानी जा सकती है।

चंद्रमा हमारे सबसे निकट एक ग्रह है इसलिये उसके प्रभाव की अनुभूति तत्काल की जा सकती है। गर्मी में जब सूर्यनारायण दिन भर झुलसा देते हैं तब रात को आकाश में चंद्रमा आंखों मेें जो ठंडक देता है उसे हम उसे शीघ्र अनुभव करते हैं। अन्य ग्रह कुछ अधिक दूर है इसलिये उनके प्रभावों का एकदम पता नहीं चलता-उनका प्रभाव होता है यह तो हम मानते हैं।
समस्या इस बात की है कि ज्योतिष के नाम पर ढोंग और पाखंड अधिक हो गया है। कुछ कथित ज्योतिषी अपने पैसे कमाने के लिये तमाम तरह के ऐसे हथकंडे अपनाते हैं जिससे समाज में ज्योतिष विद्या की छबि खराब होती है। वैसे इन ग्रहों के दुष्प्रभाव से बचने का एक ही उपाय है परमात्मा की सच्चे मन से भक्ति और निष्काम भाव से अपना कर्म करते रहना। अगर आदमी निष्काम भाव से रहे तो फिर उसके लिये अच्छा क्या? बुरा क्या? अपना क्या? पराया क्या?
योग साधन, ध्यान, मंत्र जाप और प्रार्थना से मनुष्य को अपनी देह में ही ऐसी शक्तियों का आभास होता है जो उसका बिगड़ता काम बना देती है। लक्ष्य उनके कदम चूमता है। हां, सकाम रूप से भक्ति और अन्य कार्य करने वालों की ही ज्योतिष की सहायता की आवश्यकता होती है। बहरहाल यह कहना कठिन है कि इस देश में कितने ज्योतिष ज्ञानी है और कितने अल्पज्ञानी। अलबत्ता धंधा केवल वही कर पाते हैं जिनके पास व्यवसायिक चालाकियां होती हैं।

इन ज्योतिष ज्ञानियों द्वारा दी गयी जानकारियों में विरोधाभास अक्सर देखने को मिलता है। इंटरनेट पर इसका एक रोचक अनुभव हुआ। एक महिला ज्योतिष विद् ने इस लेखक के ब्लाग/पत्रिका पर टिप्पणी की। वह ज्योतिष के नाम पर होने वाले पाखंड के विरुद्ध अभियान शुरु किये हुए हैं-उन्होंने अपनी प्रकाशित एक किताब की जानकारी भी भेजी। उन्होंने अध्यात्म ब्लाग पर लिखने के लिये इस लेखक की प्रशंसा करते हुए अपने अभियान में समर्थन का आश्वासन मांगा। मुझे बहुत खुशी हुई। लेखक ने जवाब में समर्थन के आश्वासन के साथ अंतर्जाल पर सक्रिय एक अन्य ज्योतिषी के ब्लाग का पता भी दिया और साथ में यह राय भी कि आप उनका ब्लाग देखकर उनसे भी इस मामले में सहायता मांगे। लौटती डाक से जवाब आया कि ‘वह उन ज्योतिषी की गणनाओं से सहमत नहीं है।’
तब यह देखकर हैरानी हुई कि दो ज्योतिष विशारद आखिर क्यों आपस में इस तरह असहमत होते हैं? हम तो इस मामले में पैदल हैं इसलिये कहते हैं कि यह भी सही और वह भी सही मगर जब जानकार लोग इस तरह भ्रम पैदा करें तो..............शायद यही कारण है कि भारतीय ज्योतिष विश्व में कभी वह स्थान प्राप्त नहीं कर पाया जिसकी अपेक्षा की जाती रही है। हां , उपरोक्त शोध से एक बात तो सिद्ध हो गयी कि भारतीय ज्योतिष का भी कोई न कोई तार्किक आधार होगा तभी इतने लंबे समय से वहा प्रचलन में है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि अध्यात्मिक ज्ञान का एक भाग ज्योतिष ज्ञान भी माना जाता है। पश्चिम के वैज्ञानिकों के शोध के आधार पर यह तो कहा जा सकता है कि ‘भारतीय ज्योतिष की जय हो’
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Saturday, April 4, 2009

मनोरंजन की कतरनों में ढूंढ रहे खबरें-व्यंग्य क्षणिकाएं

बेच रहे हैं मनोरंजन
कहते हैं उसे खबरें
भाषा के शब्दकोष से चुन लिए हैं
कुछ ख़ास शब्द
उनके अर्थ की बना रहे कब्रें
परदे पर दृश्य दिखा रहे हैं
और साथ में चिल्ला रहे हैं
अपनी आँख और कान पर भरोसा नहीं
दूसरों पर शक जता रहे हैं
इसलिए जुबान का भी जोर लगा रहे हैं
टीवी पर कान और आँख लगाए बैठे हैं लोग
मनोरंजन की कतरनों में ढूँढ रहे खबरें
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चीखते हुए अपनी बात
क्यों सुनाते हो यार
हमारी आंख और कान पर भरोसा नहीं है
या अपने कहे शब्द घटिया माल लगते हैं
जिसका करना जरूरी हैं व्यापार

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Friday, April 3, 2009

लेखक और आचरण-आलेख

हिंदी और उर्दू दो अलग भाषायें हैं पर बोली होने की वजह से एक जैसी लगती हैं। यह भाषायें इस तरह आपस में मिली हुईं है कि कोई उर्दू बोलता है तो लगता है कि हिंदी बोल रहा है और उसी तरह हिंदी बोलने वाला उर्दू बोलता नजर आता है। दोनों के बीच शब्दों का विनिमय हुआ है और हिंदी में उर्दू शब्दों के प्रयोग करते वक्त नुक्ता लगाने पर विवाद भी चलता रहा है। बोली की साम्यता के बावजूद दोनों की प्रवृत्ति अलग अलग है। इस बात को अधिकतर लोगों ने नजरअंदाज किया है पर उस विचार किया जाना जरूरी है।
उर्दू की महिमा बहुत सारे हिंदी लेखक भी गाते रहे हैं पर उसकी मूल प्रवृत्ति देखना भी जरूरी है। उर्दू की लिपि अरबी है और हिंदी की देवनागरी। देवनागरी बायें से दायें लिखी जाती है और अरेबिक दायें से बायें लिखी जाती है। वैज्ञानिक मानते हैं कि लिखने के अंदाज से व्यक्ति के स्वभाव और विचारों में अंतर पड़ता है। कुछ मनोविशेषज्ञ कहते हैं कि बायें से दायें लिखने के कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं जो दायें से बायें में नहीं पाये जाते।

इससे अलग भी एक महत्वपूर्ण बात है। वह यह है कि उर्दू भाषा किसी लेखक या रचनाकार की रचनाओं पर ही अपना ध्यान केंद्रित करती नजर आती है जबकि हिंदी में इसके विपरीत साहित्य के साथ उसके रचयिता के आचरण पर भी दृष्टि रखने की प्रवृत्ति है। इस पर विचार करते हुए हम पहले हिंदी उसकी सहायक भाषाओं के प्रसिद्ध रचनाकारों के आचरण और विचारों पर दृष्टिपात करें। पहले हम संस्कृत के प्रसिद्ध रचनाकारों पर दृष्टि डालें लो हिंदी की जननी भाषा है। उसमें महर्षि बाल्मीकि, वेदव्यास और शुकदेव का नाम आता है। आप देखिये लोग उनका नाम ऐसे ही लेते हैं जैसे भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण का। इसका कारण उनका महान आचरण, त्याग और तपस्या है। उसके बाद हम देखते हैं हिंदी के भक्तिकाल के महान कवि और संत कबीर,रहीम,मीरा,तुलसी आदि के चरित्र और जीवन निश्चित रूप से ऊंचे दर्जे का था। आधुनिक हिंदी में भी सर्व श्री प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद आदि का चरित्र भी उज्जवल था। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक की व्यक्तिगत धवल छबि हो तभी हिंदी भाषा वाले उसकी रचनाओं के महत्व को स्वीकार करते हैं-यह हिंदी की प्रवृत्ति है।

अब उर्दू भाषा की प्रवृत्तियों पर दृष्टिपात करें। हम यहां उनके किसी लेखक का नाम नहीं लेंगे क्योंकि उससे विवाद बढ़ता है। भारत के एक प्रसिद्ध शायद हुए जिनको मुगल काल में बहुत सम्मान मिला। एक तरह से भारत के उर्दू शायरी को उन्होंने प्राणवायु प्रदान की। उनके शेर निश्चित रूप से बहुत प्रभावी हैं उन जैसा प्रसिद्ध होना तो किसी किसी के भाग्य में बदा होता है मगर वह फिर भी वह हिंदी भाषा के कवियों जैसे आदरणीय इस देश में नहीं है। वजह! वह शराब खूब पीते थे। उनके कोठों पर जाने की चर्चा भी कई जगह पढ़ने को मिलती है। उनकी शायरियेां का अंदाज तो उनके बाद के शायरों में शायद ही दिख पाया पर हां, इससे निजी आचरण की अनदेखी उर्दू की एक सामान्य प्रवृत्ति लगती है।

एक अन्य शायर जो बाद में पाकिस्तान चले गये। उनका एक देशभक्ति से भरा गीत तो हमेशा ही रेडियो और टीवी पर सुनने को मिलता है। इतना ही नहीं उन्होंने भगवान श्रीराम और शिव जी पर भी अपनी शायरी लिखी। उन्होंने भारतीय संदर्भों को पूरी तरह अपनाया पर आखिर हुआ क्या? वह पाकिस्तान चले गये। भारत उनको पराया लगने लगा। उनके जाने के बाद भी बहुत समय तक उनके यहां के हिंदी और उर्दू के लेखक और पाठक इस बात की प्रतीक्षा करते रहे कि वह वापस आयें पर ऐसा हुआ नहीं। आज भी अनेक हिंदी और उदू्र्र के लेखक उनकी रचनाओं को अपनी कलम से संजोये रख कर पाठकों के समक्ष रखते हैं। इतने बड़े शायर को इस देश ने भुला दिया। कारण यही है कि आम पाठक उनके पाक्रिस्तान चले जाने का बात को पचा नहीं पाया।

कुछ लोगों को यह बात अजीब लगे पर जरा विचार करें। जब हम मन में भगवान श्रीराम का स्मरण करते हैं तो हमारा ध्यान बाल्मीकि कृत रामायण और तुलसीकृत रामचरित मानस की तरफ जाता है। हम थोड़ा आगे विचार करते हैं तो वह पुस्तकें उठा लेते हैं और फिर उसके अध्ययन से हमारे अंदर भगवान श्रीराम का एक विशाल रूप स्वतः दृष्टिगोचर होता है। यही स्थिति भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करने पर हो सकती है। उनका नाम मन में आते ही हमारा श्रीगीता, या मद्भागवत, सुखसागर, और प्रेमसागर की किताब की तरफ चला जाता है। यही स्थिति कबीर और रहीम जी का स्मरण करने पर होती है। यहां हम नाम की महिमा और उसके बाद उसके विस्तार स्वरूप प्रकट होने पर विचार करते हुए यह कह सकते हैं कि जिस शब्द का सार्वभौमिक महत्व हैं उसका विस्तृत रूप मनुष्य के पूरे मन पर नियंत्रण कर लेता हैं। एक शब्द से उसकी पूरी सोच का रास्ता बन जाता है।

यही स्थिति भाषा की है। जब हम हिंदी में सोचेंगे तक हमारी प्रवृत्ति उसकी मूल प्रवृत्ति की तरह हो जायेगी। यही स्थिति उर्दू की भी होगी। तब ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर इसका निष्कर्ष क्या है? दरअसल हिंदी के प्रसिद्ध लेखक जानबूझकर उर्दू लेखकों की प्रशंसा करते हैं ताकि हिंदी में जो लेखक की आचरण पर दृष्टि डालने की प्रवृत्ति है उससे बचा जाये। इधर फिल्मों में भी उर्दू भाषी गीतकारों और कहानीकारेां का प्रभाव अधिक रहा है। इन फिल्मों में ं आचरण तो नाम का भी नहीं होता। इनका वर्चस्व इतना रहा है कि हिंदी फिल्म उद्योग को कभी बालीवुड तो कभी मुबईया फिल्म उद्योग कहा जाता है। फिल्मी पर्दे पर नायक का काम करने वाले भले ही निजी जीवन में खराब आचरण करते हों पर उनकी छबि फिर भी आम आदमी में खराब न हो इसके लिये फिल्म उद्योग में उनके प्रचारक सक्रिय रहते हैं। बोली की समानता के कारण उर्दू भाषियों के अस्तित्व को हिंदी फिल्मों में अलग करना मुश्किल है पर यह सच है कि उनका प्रभाव अधिक है और इसी कारण वहां आचरण की महिमा भी वैसी है।
उर्दू अदब की भाषा है। निश्चित रूप से मानना चाहिये क्योंकि शायरों की शायरियां वाकई दार्शनिक भाव से भरी हुईं हैं पर हिंदी अध्यात्म की भाषा है। शराब और शवाब पर खुलकर लिखने की प्रवृत्ति उर्दू ने ही हिंदी को दी है हालांकि सभी लेखक ऐसा नहीं करते। ऐसा नहीं है कि नारी सौंदर्य पर हिंदी में नहीं लिखा जाता पर उसमें जिस तरह की व्यंजना विद्या उपयोग की जाती है वह उर्दू में नहीं देखी जाती। हमारे प्राचीन ग्रंथों में नारी पात्रों के सौंदर्य पात्रों का वर्णन जिस तरह किया गया है उसे पढ़ा जाये तो आज के लेखकों पर तरस ही आ सकता है।

वैसे आजकल हिंदी और उर्दू शायरों में अधिक अंतर नहीं रहा है। इसका कारण यह है कि जो उर्दू में लिखने वाले हैं वह हिंदी में ही पढ़े लिखे हैं इसलिये उसके अध्यात्म का उन पर प्रभाव है और वह इसे छिपाते भी नहीं है। वैसे अनेक उर्दू लेखक और शायरी है जिन्होंने अपने पूर्वज शायरों के निजी जीवन को नहीं अपनाया जो आचरण की दृष्टि से उतने ही उज्जवल है जितने हिंदी वाले, पर यह उनके हिंदी से जुड़े होने के कारण ही है। हिंदी वालों ने उर्दू वालों की संगत की है तो उनमें भी आचरण के प्रति उपेक्षा का भाव दिखने लगा है। वैसे हिंदी में अनेक ऐसे प्रसिद्ध लेखक हुए हैं जिन्होंने उर्दू में भी खूब लिखा। सच बात तो यह है कि आजकल हिंदी और उर्दू का अंतर केवल लिपि को लेकर है और उसका प्रभाव फिर भी नहीं नकारा जा सकता। इस धरती पर कोई सर्वज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता इसलिये किसी पर यह आक्षेप करना ठीक नहीं है पर जिस तरह की प्रवृत्तियां देखी गयी हैं उन पर नजर डालना भी जरूरी है। हो सकता है कि यह नजरिया पूरी तरह से गलत हो और नहीं भी।
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