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Friday, May 28, 2010

हिंसा के समर्थक किसको धोखा दे रहे हैं-हिन्दी लेख (hinsa samarthak de rarhe hain dhokha-hindi lekh)

देश के भ्रष्टाचार, अनाचार तथा भेदभाव बहुत है। कोई बताये तो सही कौनसा इलाका ऐसा है जहां आम आदमी आराम से है। गर्मी में पानी, बिजली, तथा बीमारियों से देश का एक बहुत बड़ा भूभाग जूझ रहा है। उत्तर भारत में आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित लोग बड़ी संख्या में है पर उनसे ज्यादा अधिक संख्या ऐसे लोगों की है जो खुले आकाश में सूरज की इस तपिश को प्यासे कंठ से झेलते हैं। मगर कोई भी अभावों से ग्रसित आदमी उस तरह की हिंसा करने की नहीं सोचता जैसी कि कथित नक्लसवादी कर रहे हैं।
इस लेखक को यह स्वीकार करने में जरा भी यह हिचक नहीं है कि वह अर्द्धसुविधा भोगी वर्ग से है जिसे अनेक बार सुविधा मिलती है तो अनेक बार असुविधा भी झेलना पड़ती है। दूसरी बात यह है कि इस लेखक ने भी मजदूर के रूप में अपना जीवन प्रारंभ किया तब समझ लिया था कि समाज में अमीर और गरीब के बीच की एक कभी न पाटी जाने वाली खाई है जिसमें अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये परिश्रम के साथ ही बौद्धिक चालाकी की भी आवश्यकता होगी। तब भी नफरत के ऐसे बीज बोने का विचार नहीं आया था जैसे कि आज नक्सलियों के समर्थक बुद्धिजीवी बो रहे हैं। एक आम आदमी के रूप में अनेक कष्ट झेलने पड़ते हैं पर तब भी किसी की मौत का ख्याल नहीं आता। जिस तरह एक ट्रेन (ज्ञानेश्वरी एक्सप्रसे) पर हमला कर नक्सलियों ने सैंकड़ों लोगों को मार दिया उसके बाद उनके समर्थक बुद्धिजीवियों से वाद विवाद करने की गुंजायश कम ही बची है।
पिछली बार एक पाठ पर नक्सलियों का एक समर्थक बौखला गया था। उसने इस लेखक के पाठ पर बेहूदा टिप्पणी की फिर प्रतिवाद में पाठ लिखा तब भी उस पर गुस्सा नहीं आया।
यह लेखक बार बार पूछता है कि ‘आखिर नक्सलियों के पास हथियार खरीदने के लिये धन कहां से आता है? हथियार कहां से आते हैं यह तो पता लग ही गया है क्योंकि उनको गोली बारूद बेचने के आरोप में कुछ पुलिस वाले भी गिरफ्तार हो चुके हैं-यह बात अखबारों से पता चली। मतलब यह कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने वाले यह नक्सली संगठन न केवल उसी के सहारे हैं बल्कि उसे बढ़ा भी रहे हैं। जिन कथित बौद्धिक दृष्टि से पैदल मूर्खों का यह कहना कि नक्सली प्रभावित इलाकों में भ्रष्टाचार की वजह से जन असंतोष है उनकी नज़र इस पर नहीं जाती। भूखे और गरीब के पास इतना पैसा नहीं होता कि वह बंदूक खरीद सके तब यह सवाल उठता है कि इन नक्सलियों के पास हथियार खरीदने के लिये पैसा कहां से आता है?
यह पैसा एक दो रुपये कर नहीं बटोरा जाता होगा। एक मुश्त बड़ी रकम कोई न कोई व्यक्ति, संगठन या समूह देता है और वह कोई दान नहीं करता बल्कि इसके बदले अधिक रकम कमा रहा होगा। उसका व्यवसाय भी अपराधिक पृष्ठभूमि पर आधारित होगा।
इस लेखक की स्पष्टतः मान्यता है कि धर्म, जाति, भाषा, वर्ग या वर्ण के नाम पर होने वाली हिंसा उनके नाम पर बने समूहों के हित के लिये होेने का दावा एकदम गलत है। अगर किसी हिंसक वारदात में कोई बहस योग्य तत्व ढूंढ रहा है तो वह महामूर्ख है और देश में ऐसे लोगों की जमात बड़े पैमाने पर दिख रही है।
आतंकवाद एक व्यापार है। जिस तरह किसी व्यापार में कोई व्यक्ति अपना सौदा बेचने के लिये धर्म और सर्वशक्तिमान की कसम खाता है यही हाल आतंकवाद के इन व्यापारियों का है। इस आतंकवाद का एक ही उद्देश्य होता है कि सरकार और प्रशासन का ध्यान बंटा रहे ताकि उसके प्रायोजकों का धंधा चलता रहे। हालांकि इस तरह के आतंकवाद के समर्थकों के लिये मूर्ख कहना भी अपने आपको धोखा देना है क्योंकि वह भी कहीं न कहीं से प्रायोजित होते हैं। कहना गलत न होगा कि कुछ सफेदपोश संगठन इन आतंकवादियों के मुखौटे होते हैं और उसी के सदस्य ही सामाजिक, आर्थिक तथा वैचारिक विवादों की आड़ लेते हैं।
जिस ब्लाग लेखक ने इस लेखक के पाठ का प्रतिवाद किया था वह प्रत्यक्ष नक्सलवादियों का समर्थन नहीं कर उनके प्रभाव वाले क्षेत्रों की समस्याओं की बात कर रहा था। यह उसकी चालाकी थी क्योंकि हिंसक वारदातों के चलते सीधा समर्थन करने की गुंजायश अब बहुत कम बुद्धिजीवियों के पास बची है इसलिये वहां की समस्याओं की आड़ लेते हुए मध्यमार्गी दिखने का प्रयास करते हैं-लिखते हैं कि वहां का विकास हो जाये तो यह समस्या खत्म हो जायेगी।
इस लेखक ने अपने पाठ में नक्सल प्रभावित वाले क्षेत्रों की समस्याओं की चर्चा का समर्थन किया पर एक ही आग्रह किया था कि जब नक्सलवाद की बात करें तो उनकी चर्चा बेमानी है क्योंकि हिंसक तत्व केवल उसकी आड़ ले रहे हैं। इन नक्सलियों को न केवल हथियार मिल रहे हैं बल्कि उनको अन्य भौतिक सुविधायें भी उपलब्ध हैं। मज़दूरों, गरीबों तथा बेसहारों के कल्याण की बात अगर वह करते हैं तो संसार के प्रचार माध्यमों को धोखा दे रहे हैं। दरअसल प्रचार पाकर ही उनको धन मिल सकता है इसलिये ऐसी वारदातें कर रहे हैं।
बंदूक और बम आने के बाद आदमी में हैवानियत छा जाती हैं। चूंकि नक्सलवादियों के समर्थकों को भारतीय अध्यात्म विष तुल्य लगता है इसलिये उनको बता दें कि भगवान श्रीराम की पत्नी सीता अपने पति को यही समझाती थी कि ‘हथियार आदमी की मति को भ्रष्ट कर देते हैं।’
उन्होंने एक किस्सा अपने पति को सुनाया था। एक तपस्वी के तप से संकट अनुभव कर रहे देवराज इंद्र ने उसके पास जाकर अपना एक खड्ग धरोहर के रूप में रखा। उस धरोहर की रक्षा करते हुए वह तपस्वी हिंसक हो उठे और बेकसूरों को मारने लगे और उनका तप भंग हो गया। भगवान श्रीराम और देवी सीता के नाम से बिदकने वाले नक्सल समर्थक बुद्धिजीवियों को बताना जरूरी है ताकि यह समझें कि यह देश अभी भी अध्यात्मवादियों से भरा हुआ है और उनकी चालाकियों को समझता है। आप चाहे कितना भी दावा करें पर सच यही है कि हथियार पकड़ने वाला मनुष्य दूसरों से ज्यादा अपने लोगों के लिये अधिक खतरनाक होता है और आदिवासियों का समर्थन इन नक्सलियों के पास है यह बात भले ही चालाकी से कहें पर इसे आम जनता मूर्खतापूर्ण ही मानती है। यह अलग बात है कि ज्ञानी लोग जानते हैं कि ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें लिखने वाले चालाकी से प्रायोजित हैं।
अगर देश के भ्रष्टाचार, बेईमानी, अन्याय, अत्याचार, दुराचार तथा अपराध की बात की जाये तो भला कौनसा ऐसा क्षेत्र है जहां स्वर्ग बसा हुआ है। इन पर चर्चा होना चाहिये पर अगर इसके नाम पर कुछ क्षेत्रों में हिंसा का समर्थन किया जाता है तो फिर यह सवाल भी उठता है कि कथित रूप से गरीब और पिछड़े क्षेत्रों के गरीबों के पास हथियार आ जाते हैं पर रोटी हाथ में नहंी आती। चलिये यह काम दूसरे दानी करते हैं तो भी यह बतायें कि उनको संघर्ष के नाम पर हथियार देने वाले क्या उनको रोटी नहीं दे सकते? हमारा यह स्पष्टतः मानना है कि गरीब, पिछ़डे और अन्यास से जूझ रहे लोगों को हर जगह नैतिक समर्थन देना चाहिये पर जब आप इस आड़ में हिंसक तत्वों को प्रचार देते हैं तो आपकी नीयत पर शक होगा।
यह कहना तो सरासर मूर्खता है कि विकास होने से वहां की समस्या दूर हो जायेगी। दरअसल विकास न हो इसलिये ही तो यह हिंसा की जा रही है क्योंकि विकास से लोग जागरुक हो जाते हैं तब काले धंधे वालों के लिये मुश्किल होती है। तय बात है कि उनके प्रायोजन से चल रहे हिंसक तत्वों का विकास से कोई वास्ता नहीं है। जो बुद्धिजीवी इन हिंसक तत्वों के लिये समर्थन करते हुए पाठ लिखते हैं वह स्वयं धोखे में है या आम लोगों को धोखा दे रहे हैं।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Tuesday, May 25, 2010

कंप्यूटर पर लिखने का अपना तरीका-हिन्दी लेख (writing on computer in hindi)

अंतर्जाल पर अगर लिखते रहें तो अच्छा है, पर पढ़ना एक कठिन काम है। दरअसल लिखते हुए दोनों हाथ चलते हैंे और आंखें बंद रहती हैं तब तो ठीक है क्योंकि तब सामने से आ रही किरणों से बचाव होने के साथ दोनों हाथों के रक्त प्रवाह का संतुलन बना रहता है।
लिखते हुए आंखें बंद करने की बात से हैरान होने की आवश्यकता नहीं है। अगर आपको टाईपराइटिंग का ज्ञान है और लिखते भी स्वतंत्र और मौलिक हैं तो फिर की बोर्ड पर उंगलियों और दिमाग का काम है आंखों से उसका कोई लेना देना नहीं है।
सच बात तो यह है कि कंप्यूटर पर काम करते हुए माउस थकाता है न कि की बोर्ड-अपने अनुभव से लेखक यही बात समझ सका है।
जब भी इस लेखक ने कंप्यूटर खोलकर सीधे लिखना प्ररंभ किया है तब लगता है कि आराम से लिखते जाओ। हिन्दी टाईप का पूरा ज्ञान है इसलिये उंगलियां अपने आप कीबोर्ड पर अक्षरों का चयन करती जाती हैं। एकाध अक्षर जब अल्ट से करके लेना हो तब जरूर कीबोर्ड की देखना पड़ता है वरना तो दो सो से तीन सौ अक्षर तो ं कब टंकित हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। हालत यह होती है कि सोचते हैं कि चार सौ शब्दों का कोई लेख लिखेंगे पर वह आठ सौ हजार तक तो पहुंच ही जाता है। यही वजह है कि अनेक बार कवितायें लिखकर काम चला लेते हैं कि कहीं गद्य लिखने बैठे तो फिर विषय पकड़ना कठिन हो जायेगा।
अगर कहीं माउस पकड़ कर अपने विभिन्न ब्लागों की पाठक संख्या देखने या अन्य ब्लाग पढ़ने का प्रयास किया तो दायां हाथ जल्दी थक जाता है। वैसे फायर फाक्स पर टेब से काम कर दोनों हाथ सक्रिय रखे जा सकते हैं पर तब भी आंखें तो खुली रखनी पड़ेंगी। फिर आदत न होने के कारण उसमें देर लगती है तब माउस से काम करने का लोभ संवरण नहीं हो पाता। वैसे एक कंप्यूटर विशारद कहते हैं कि अच्छे कंप्यूटर संकलक तथा संचालक कभी माउस का उपयेग नहंी करते। शायद वह इसलिये क्योंकि वह थकावट जल्दी अनुभव नहीं करते होंगे।
आंखें बंद कर टंकण करने का एक लाभ यह भी है कि आप सीधे अपने विचारों को तीव्रता से पकड़ सकते हैं जबकि आंखें खोलकर लिखने से एकाग्रता तो कम होती है साथ ही दूसरे विचार की प्रतीक्षा करनी पड़ती है और कभी कभी तो एक विचार निकल जाता है दूसरा दरवाजे पर खड़ा मिलता है। तब पहले को पकड़ने के चक्कर में दूसरा भी लड़खड़ा जाता है और वाक्य कुछ का कुछ बन जाता है। कंप्यूटर का सबसे अधिक असर आंखों पर पड़ता है पर एक हाथ माउस पकड़ना भी कम हानिकारक नहीं है। वैसे हमारे देश में लोग इस बात की परवाह कहां करते हैं। अधिकतर लोग पश्चिमी में अविष्कृत सुविधाजनक साधनों का उपयोग  तो करते हैं पर उससे जुड़ी सावधानियों को अनदेखा कर जाते हैं।
वैसे कंप्यूटर से ज्यादा हानिकारक तो हमें मोबाईल लगता है। उन लोगों की प्रशंसा करने का मन करता है तो उस पर इतने छोटे अक्षर देखकर टाईप करते हैं। उनकी स्वस्थ आंखें और हाथ देखकर मन प्रसन्न हो उठता है। उस एक मित्र ने हमसे कहा ‘यार, तुम्हारा मोबाईल बंद था, तब मैंने तुम्हें एसएमएस भेजा। तुमने कोई जवाब भी नहीं दिया।’
हमें आश्चर्य हुआ। उससे हमने कहा कि ‘मैं तो कभी मोबाईल पर मैसेज पढ़ता नहीं। तुमने अपने मैसेज में क्या भेजा था?’
‘तुम्हारे ब्लाग की तारीफ की थी। वहां कमेंट लिखने में शर्म आ रही थी क्योंकि वहां किसी ने कुछ लिखा नहीं था कि हम उसकी नकल कर कुछ लिख जाते। तुम्हारी पोस्ट एक नज़र देखी फिर उसे बंद कर दिया। तब ख्याल आया कि चलो तुम्हें एसएमएस कर देते हैं। किसी ब्लाग की एक लाख संख्या पार होने पर तुम्हारा पाठ था।’
हमने कहा‘अच्छा मजाक कर लेते हो!’
मित्र ने कहा‘ क्या बात करते हो। तुम्हारे साथ भला कभी मजाक किया है?’
हमने कहा-‘नहीं! मेरा आशय तो यह है कि तुमने अपने साथ मजाक किया। इतना बड़ा कंप्यूटर तुम्हारे पास था जिस पर बड़े अक्षरों वाला कीबोर्ड था पर तुमने उसे छोड़कर एक छोटे मोबाईल पर संदेश टाईप कर अपनी आंखों तथा हाथ को इतनी तकलीफ दी बिना यह जाने कि हम उस संदेश को पढ़ने का प्रयास करेंगे या नहीं।’
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Thursday, May 20, 2010

असली क्रिकेट कोच-हिन्दी हास्य व्यंग्य (real cricket coach)

एक आदमी अपने लड़के को क्रिकेट की कोचिंग सिखाने के लिये ले जा रहा था। रास्ते में दोस्त मिल गया और उसने पूछा तो वह आदमी बोला-‘यार, मेरा बच्चा क्रिकेट खेलता है। पढ़ता लिखता कुछ नहीं है। पड़ौसियों को परेशान कर रखा है। इसलिये इसे क्रिकेट कोच के पास ले जा रहा हूं। हो सकता है कि यह क्रिकेट खिलाड़ी बन जाये क्योंकि ऐस सारे गुण इसमें दिखाई देते हैं।
दूसरे दोस्त ने कहा-‘अच्छी बात है! वैसे मैं एक अच्छे क्रिकेट कोच को जानता हूं। उसने कभी क्रिकेट अधिक नहीं खेली पर जितनी खेली कोच बनने के लिये पर्याप्त थी। तुम कहो तो उसके यहां चलें।’
उस आदमी ने कहा-‘अरे यार, तुम समझते नहीं। आजकल कोई भी खेल खेलना काफी नहीं है। जिस कोच के पास ले जा रहा हूं वह क्रिकेट सिखाने के साथ रैम्प पर नाचना भी सिखाता है। सबसे बड़ी बात यह कि वह ऐसा क्रिकेट कोच है जो फिक्सिंग करना भी सिखाता है।
दोस्त ने हैरान होकर पूछा-‘यार कैसी बात कर रहे हो?’
उस आदमी ने कहा-‘वही तो हम पुराने लोग नहीं समझ पाते। इधर मैंने देखा कि मैच फिक्सिंग की बातें भी हो रही है। अरे, एक पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी पर भारत की दो दो लड़कियां फिदा हो गयीं। एक से तलाक फिक्स किया तो दूसरे की साथ शादी हुई जबकि उसके बारे में उस देश की ही एक खिलाड़ी कहता है कि वह गज़ब का फिक्सिर है। उधर क्रिकेट खिलाड़ियों को रैम्प पर नाचता हुआ देखता हूं तो लगता है कि यह भी उनको कोच ने ही सिखाया होगा। एक दो खिलाड़ी तो लाफ्टर शो में भी निर्णायक बन कर आता है। ऐसी गतिविधियां वह कोच सिखाता है। क्रिकेट तो कोई भी सीख और सिखाता है पर उसके साथ जो दूसरी जरूरी चीजें वह सिखाये वही असली कोच है।
वह दोस्त अपना मुंह लेकर चला गया।
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Friday, May 14, 2010

पैसा खेल रहा था क्रिकेट नहीं’-हिन्दी व्यंग्य (money and cricket T-20-hindi satire ariticle)

बीसीसीआई की-भारत का क्रिकेट नियंत्रक मंडल-टीम के खिलाड़ी वेस्टइंडीज के एक बार में वहां कुछ क्रिकेट प्रशंसकों के हाथों पिट गये। ताज्जुब है इस समय किसी बुद्धिजीवी को देश का अपमान नहीं अनुभव हो रहा है। शायद इसका कारण यह है कि मारने वाले भारत भक्त थे जिनकी शिकायत यह थी कि एक तो इन भारत के नाम पर खेलने वाले इन खिलाड़ियों ने कोई खेल नहीं दिखाया फिर हारने के बाद भी मौज करने के लिये बारों में घूम रहे हैं। इधर चैनल वालों की हवा निकल रही है क्योंकि क्रिकेट के आधार पर समय पास करने वाले उनके कार्यक्रम उनकी टीआरपी गिरा सकते हैं। वैसे भी भारत के समाचार चैनल केवल दस मिनट के समाचार देते हैं और बाकी फिल्म, टीवी धारावाहिक तथा क्रिकेट में मनोरंजन कार्यक्रम पेश कर पास करते हैं।
फिर इधर अपने देश में भी टीम की हार को लेकर आक्रोश नहीं दिखाई दे रहा। आक्रोश न दिखने का कारण यह भी हो सकता है कि क्रिकेट की लोकप्रियता शायद उतनी न रही हो जितना पहले थी पर नयी पीढ़ी का वह वर्ग जो मनोरंजन के साथ दाव लगाकर खुशी और गम मनाने के लिये जुड़ा है वह भी शायद अधिक नहीं है-अलबत्ता इतना तो है कि वह क्रिकेट के कर्णधारों का जेब भर सके। दूसरा यह भी कि विज्ञापनदाताओं को अपने उत्पादों के प्रचार से मतलब है न कि कार्यक्रम की गुणवता से इसलिये वह कोई दबाव नहीं डालते और यही कारण है कि क्रिकेट खेल के लिये मिलने वाले विज्ञापनों को देखकर यह भ्रम हो जाता है कि शायद क्रिकेट अधिक लोकप्रिय है।
बहरहाल समाचार पत्रों ने खिलाड़ियों के पिटने की खबर छापकर यह तो सिद्ध कर दिया कि देश का प्रबुद्ध वर्ग इस विषय पर उनके साथ नहीं है। इसका कारण यह नहीं है कि बीसीसीआई के खिलाड़ी केवल हारे नहीं ल्कि बहुत बदतमीजी से हारे। देश से क्या अपनी टीम से ही वफादारी उन्होंने नहीं निभाई। आज वह जो भी हैं बीसीसीआई की टीम में खेलने की वजह से है पर उनको उसकी उपसमिति से ज्यादा वफादारी हो गयी है। भारतीय कप्तान से जब विश्व  कप  की बात की जाती है तो वह बड़े रुखेपन से जवाब देता है और अगर आईपीएल की बात की जाये तो वह खुश हो जाता है। उसने यहां इतना पैसा कमाया कि उसका नशा अभी उतरा नहीं है। अगर उनके चेहरे को पढ़ा जाये तो बीसीसीआई को अपने खिलाड़ियों से इस बात का आभार व्यक्त करना चाहिये कि वह उनकी टीम के लिये खेले। इतने अमीर खिलाड़ी खेले क्या यह कम बात है?
एक समाचार चैनल पत्रकार वार्ता में भारतीय कप्तान के हंसने से नाराज है। अब उसे कैसे समझायें कि उसकी हंसी का राज क्या है?
दरअसल वह कप्तान हंस रहा है दूसरी टीमों पर जो सेमीफाइनल में पहुंच गयी हैं। वह मन ही मन सोच रहा होगा कि देखो इन मूर्ख खिलाड़ियों  को विश्व कप जीतकर भी क्या कमायेंगे जितना हमने आईपीएल में हमने कमाया। अरे, यहां तो केाई रात्रिकालीन पाटियों का भी प्रावधान नहीं है जबकि आईपीएल में बहुत कुछ मजा था। पार्टियों में अमीर मिलते तो कुछ खूबसूरत चेहरे भी दृष्टिगोचर होते। जिनके साथ फोटो अखबार में छपता तो मजा भी आता। यहां क्या है, जो सेमीफायनल और फायनल खेलने में वक्त खराब किया जाये। इसलिये जल्दी घर पहुंचो तो जो पैसा कमाया है उसे देखकर मजा लिया जाये। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि कोई अपने काम में दक्ष आदमी अगर सौ रुपया लेता है तो वह बीस रुपये में काम नहीं करता। अगर किसी चिकित्सक की फीस सौ रुपया है तो वह बीस रुपये वाले मरीज को नहीं देखना पसंद करता। अब लोगों को कौन समझाये कि बीसीसीआई के इन खिलाड़ियों को बस आईपीएल में मैच खेलना ही पसंद है क्योंकि वह अपने देश में विदेश जैसा आनंद देते हैं। कमाई और इज्जत एक साथ मिलती है। अपने चाणक्य महाराज कहते हैं कि विदेश में जाकर ही आदमी सम्मान अर्जित करता है ऐसे में जिन लोगों को घर में विदेश जैसा आराम और सम्मान मिले तो फिर बाहर जाकर क्यों खेलें?
आखिरी बात टीम के कोच गैरी कर्स्टन का कहना है कि इस टीम में आठ खिलाड़ी अनफिट थे और उनका वजन अधिक हो गया था। उनकी आदतें खराब हो गयी हैं जिसमें वह सुधार नहीं लाना चाहते। भारतीय खिलाड़ी हारने के बावजूद बार में गये-यकीनन वहां अमृत नहीं मिलता है। आईपीएल की रात्रिकालीन पार्टियों की आदत अब उनसे नहीं छूट सकती। अगर इस टीम के आठ खिलाड़ी अनफिट थे जो एक दिन में नहीं हुए होंगे। यहां हुई क्ल्ब स्तरीय मैचों के दौरान ही ऐसा हुआ होगा पर पता नहीं चला क्योंकि अपने देश में गेंद उछलती कम है और वेस्टइंडीज में स्थिति उलट है। वहां बाउंसरों के सामने उनकी पोल खुल गयी। इसका मतलब यह है कि आईपीएल में अनफिट खिलाड़ियों को दर्शकों ने देखा और पसंद किया। अनफिट यानि कूड़ा।
अपने देश की साथ ही यही होता है। यहां कूड़ा भी हिट होता है। फिर क्रिकेट लोग देखते अधिक हैं खेलने वाले उतने नहीं है। उनको यह पता ही नहंी पड़ता कि कौन कूड़ा है और कौन सोना! फिर सोने की पहचान किसे है? जौहरी अगर पीतल को भी सोना बताये तो कौन उस पर यकीन नहीं करेगा। क्रिकेट के जौहरी तो यही कर रहे हैं। आखिरी बात देश में पैसा बहुत है पर यह तरक्की का प्रमाण नहीं है। शराब पीने और और रोटियां खाने से पेट बढ़ाकर पहलवान नहीं हो जाया करते। यह अलग बात है कि मोहल्ले में कोई पहलवान न हो तो चाहे जैसा दावा करते फिरो। अगर धनी आदमी हो तो फिर कहना ही क्या? कुश्ती मत लड़ो! दूसरे लड़ें तो उन पर हंसो। वैसे अपने देश के पैसा लेकर कूड़ा ही बेचा जा रहा है-हम चीन का उदाहरण देख सकते हैं जो अपने घटिया सामान भेज रहा है। अब क्या करें पैसा आने से अक्ल नहीं आती भले ही हमारी अमीर को अक्लमंद मानने की आदत हो। फिर अमीरी सभी को हजम नहीं होती चाहे वह क्रिकेट खिलाड़ी हो। इसलिये हम कह सकते हैं कि भारत में पैसा क्रिकेट खिला रहा था और वेस्टइंडीज में उसने साथ छोड़ दिया।
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Wednesday, May 12, 2010

टी-ट्वंटी विश्व कप में घटोत्कच वध जैसा दृश्य -हिन्दी लेख (T-20 world cup cricket match)

बीसीसीआई की क्रिकेट टीम टी-ट्वंटी विश्व कप से बाहर हो गयी। टीवी चैनल वाले इसको लेकर प्रलाप कर रहे हैं। अब उन्हें अपने देश की इज्जत लुट जाने का गम साल रहा है। वाह यार! क्या गजब़ है!
जब पाकिस्तान के खिलाड़ियों को भारत के आयोजित क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में नहीं खरीदा गया तब यही चैनल वाले देशभक्ति की बात ताक पर रखकर इसका विरोध कर रहे थे। 26/11 के जख्म की वरसी पर मोमबत्तियां जलाने के दृश्य दिखाने वाले यह टीवी चैनल भूल गये थे कि यह कार्य उस पाकिस्तान ने किया है जहां की जनता भारत से नफरत करती है। अब फिर क्रिकेट में हारने पर देश के जज़्बातों की आड़ में गम बेचने का प्रयास कर रहे हैं जिसे अब कोई भी देख सकता है।
दरअसल इन चैनलों को इस बात का गम नहीं कि देश की इज्जत की लुटिया डूब गयी बल्कि उनको लग रहा है कि अब निकट भविष्य में उनके क्रिकेट के कार्यक्रम लोकप्रियता के अंक बढ़ाने में सहायक नहीं होंगे। दूसरे यह भी कि खिलाड़ियों के विरुद्ध अपने देश के आम लोगों में एक मानसिक विद्रोह पैदा होगा जिससे उनके अभिनीत विज्ञापनों के उत्पाद भी अलोकप्रिय हो सकते हैं। कुछ के विज्ञापन भी शायद उत्पादक वापस लेना चाहें जैसे कि 2007 के विश्व कप में बीसीसीआई की टीम की हार पर हुआ था। इसका सीधा आशय यह है कि इन टीवी चैनलों को आर्थिक नुक्सान हो सकता है-यहां यह बात साफ कर दें कि यह केवल अनुमान है क्योंकि बाज़ार और प्रचार के खिलाड़ी येनकेन प्रकरेण क्रिकेट की लोकप्रियता बचाने का प्रयास करेंगे।
एक चैनल इस हार के बाद धोनी के मुस्कराने पर एतराज जता रहा था। अरे भई, इस हार पर तो वह हर ज्ञानी आदमी खुश होगा जो सोचता है कि क्रिकेट की लोकप्रियता गिरे तो उस पर सट्टा खेलने वाली नयी पीढ़ी के सदस्यों का भविष्य अंधकारमय न हो। आये दिन ऐसी खबरे पढ़ने को मिलती हैं कि कर्ज में डूबे आदमी ने अपने परिवार के सदस्यों को मारा। अखबारों में आये दिन यह भी खबर आती है कि सट्टा खेलने और खिलाने वाले पकड़े गये। आज तक इस बात का आंकलन नहीं हुआ कि इस खेल का देश के परिवारों पर अप्रत्यक्ष रूप से कितना दुष्प्रभाव पड़ता है।
धोनी के मुस्कराने पर इतना एतराज करना ठीक नहीं है। ऐसा लगता है कि घटोत्कच वध जैसा प्रसंग उपस्थित हो गया है। महाभारत युद्ध में जब कर्ण की ब्रह्म शक्ति से घटोत्कच का वध हुआ तब सारे पांडव दुःखी होकर उसके शव के निकट गये पर कृष्ण प्रसन्नता से अपना शंख बचा रहे थे। वजह पूछने पर उन्होंने बताया कि ‘घटोत्कच राक्षस था। वह इस युद्ध से बचता भी तो मैं उसे मारता। दूसरे यह कि जब तक कर्ण के पास शक्ति के रहते मैं अर्जुन को मरा हुआ मानता था। कर्ण की उस शक्ति ने घटोत्कच का वध करके अर्जुन को जीवनदान दिया है।’
बात सीधी है कि क्रिकेट के कारण अनेक युवा बुरे रास्ते का शिकार हो रहे हैं। दूसरे यह खेल आलसी खेल है और इससे शरीर या मन को कोई लाभ नहीं होता। ऐसे में फुटबाल, टेनिस या अन्य खेलों को प्रोत्साहन मिले तो अच्छा ही रहेगा।
जहां तक देश भक्ति की बात है तो उसके लिये बहुत सारे क्षेत्र हैं। इस गुलामों के खेल में उसे देखने की आवश्यकता नहीं है। जिसमें समय और धन की बर्बादी क अलावा शारीरिक तथा मानसिक विकार पैदा होते है-यह बात खिलाड़ियों पर नहीं केवल दर्शकों के लिये लिखी जा रही है। हम तो अपने देश को भारत के नाम से जानते हैं और चैनल वाले भी इसे टीम इंडिया कहते हैं तब इसके प्रति आत्मीय भाव वैसे भी अनेक लोगों के मन में नहीं रह जाता। फिर बीसीसीआई की टीम है जिसकी एक कथित उपसमिति क्लब स्तरीय प्रतियोगितायें कराती हैं। यह बात भी आम लोगों को तब पता लगी जब उसमें तमाम गोलमाल की बात सामने आयी। तब यह भी प्रश्न उठा कि पिछली बार जब इनको भारत में प्रतियोगिता कराने की अनुमति नहीं मिली तब उसे दक्षिण अफ्रीका में उसे कराया गया। सीधी बात यह है कि बीसीसीआई को क्रिकेट से मतलब है देश से नहीं। वह एक कंपनी की तरह काम करती है और कोई भी कंपनी चाहे कितनी भी प्रसिद्ध या बड़ी हो वह देश की प्रतीक नहीं हो सकती।
हाकी हमारा राष्ट्रीय खेल है और उसमें अपनी टीम आजकल जोरदार प्रदर्शन कर रही है। आशा है वह आगे भी जारी रखेगी। अगर इस हार से देश में क्रिकेट की लोकप्रियता गिरती है और हमारी नयी पीढ़ी तमाम तरह की बुराईयों से बचती है तो यह बुरी नहीं है। हम तो यही चाहते हैं कि देश की युवा पीढ़ी को संबल मिले। अन्य खेलों में बढ़कर खिलाड़ी देश का नाम करें और उनको युवा पीढ़ी दर्शक के रूप में प्रोत्साहन दे। प्रसंगवश कर्ण की शक्ति से आहत होने की बावजूद घटोत्कच ने अपना कद बहुत बढ़ा लिया और जब गिरा तो उसने कौरवों की बहुत सारी सेना मारकर अपने बड़ों का भला किया। अब युद्ध तो होते नहीं खेल भी युद्ध जैसे हो गये हैं। दूसरे अब चौसर वाली जुआ नहीं खेली जाती कुछ खेलों ने उसकी जगह ले ली है। इसलिये अब बीसीसीआई की टीम की हार से देश क्रिकेटिया व्यसनों से बचता है तो अच्छा ही होगा।
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Saturday, May 8, 2010

दर्द और इलाज-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (dard aur ilaj-hindi shayari)

जिन मुद्दों पर निष्कर्ष न निकले
बहस उन्हीं पर करवाई जाती है।
निरंतर चलती रहे शब्दों की जंग,
खून के धब्बों में ढूंढते आदर्श के रंग,
समस्याओं के खत्म होने की सोचते नहीं
जहां हल न निकले, चर्चाकार खड़े हैं वहीं,
काली स्याही से कागज भरते रहें,
इलाज से अधिक दर्द की बात कहें,
कहीं नाश्ते के लिये
तो कहीं शराब के लिये
बहसें लंबी चलायी जाती हैं।
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दर्द पर बयां करना आसान है,
इलाज ढूंढने में दिमाग का तेल निकल जाता है।
इसलिये ही दर्दनाक मुद्दों पर
बहस होती है,
बोलने के फन में माहिर लोगों की
आंखें आंसु बहाती रोती हैं,
जिंदा लोगों से वह फेरते आंखें
मरे इंसान के लिये संवेदनायें जताते
क्योंकि वह दवा मांगने नहीं आता है।
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Sunday, May 2, 2010

सर्वशक्तिमान का दरवाजा-हिन्दी हास्य कविता (thief and states-hindi hasya kavita)

हांफता हुआ आया फंदेबाज
और बोला
‘दीपक बापू,
आज तो निकल गया इज्जत का जनाजा
बज जायेगा मेरे नाम का भी बाजा,
घर से पर्स में केवल पचास रुपये
लेकर निकला था कि कट गया,
मेरे लिये तो जैसे आसमान फट गया,
अब चिंता इस बात की है कि
कभी चोर पकड़ा गया तो
मेरा पर्स भी दिखायेगा,
उसमें मेरा परिचय पत्र है तो
वह नाम भी लिखायेगा,
दुःख इस बात का है कि
पचास रुपये थे उसमें
यह सुनकर हर कोई मुझ पर हंसेगा,
तब हमारा सिर शर्म के मारे जमीन में धंसेगा,
तरस जायेगा इज्जतदार मेहमानों के लिये
हमारे घर का दरवाजा।’

सुनकर तमतमाते हुए दीपक बापू बोले
‘बेशर्मी की भी हद करते हो,
पर्स में रखते हो परिचय पत्र
फिर पचास रुपये उसमें धरते हो,
दुआ करो चोर पकड़ा न जाये,
या पैसे निकालकर उसे कहीं फैंक आये
पकड़ा गया तो
उसकी बद्दुआ तुम्हारे नाम पर भी आयेगी,
जेल में पहुंचे है हजारों करोड़ चुराने वाले
उसे देखकर उसकी रूह शरमायेगी,
पहले अगर जेल जाकर भी वह चोर नहीं सुधरा होगा
क्योंकि उसने वहां अपने जैसों को ही बंद देखा होगा,
अब पहुंचेगा तो अपने को ‘गरीब श्रेणी’ में पायेगा,
मिलेंगे उसे ऐसे साथी, जिनकी लूटी रकम की बराबरी
वह सैंकड़ों जन्मों तक की चोरी में भी नहीं कर पायेगा,
बाहर की आजादी को तरसा करेगा,
जब ‘उच्च स्तरीय चोरों’ की गुलामी में चिलम भरेगा,
तब देगा उन घर स्वामियों को गालियां,
जिनके तालों में घुसी थी उसकी तालियां (चाबियां),
पकड़ा वह चोर न जाये,
या फिर पर्स उसका खो जाये
इसके लिये प्रार्थना करो
खुला है इसके लिये
बस एक सर्वशक्तिमान का दरवाजा।’
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