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Thursday, November 26, 2009

जिंदगी का अहसास-हिंन्दी चिंतन और कविता(zindagi ka ahsas-hindi chintan aur kavita)

आदमी अपनी जिंदगी को अपने नज़रिये से जीना चाहता है पर जिंदगी का अपना फलासफा है। आदमी अपनी सोच के अनुसार अपनी जिंदगी के कार्यक्रम बनाता है कुछ उसकी योजनानुसार पूर्ण होते हैं कुछ नहीं। वह अनेक लोगों से समय समय पर अपेक्षायें करता है उनमें कुछ उसकी कसौटी पर खरे उतरते हैं कुछ नहीं। कभी कभी तो ऐसा भी होता है कि संकट पर ऐसा आदमी काम आता है जिससे अपेक्षा तक नहीं की जाती। कहने का तात्पर्य यह है कि जिंदगी भी अनिश्तताओं का से भरी पड़ी है पर आदमी इसे निश्चिंतता से जीना चाहता है। बस यहीं से शुरु होता है उसका मानसिक द्वंद्व जो कालांतर में उसके संताप का कारण बनता है। अगर आदमी यह समझ ले कि उसका जीवन एक बहता दरिया की तरह चलेगा तो उसका तनाव कम हो सकता है। जीवन में हर पल संघर्ष करना ही है यही भाव केवल मानसिक शक्ति दे सकता है। इस पर प्रस्तुत हैं कुछ काव्यात्मक पंक्तियां-
खुद तरसे हैं
जो दौलत और इज्जत पाने के लिये
उनसे उम्मीद करना है बेकार।
तय कोई नहीं पैमाना किया
उन्होंने अपनी ख्वाहिशों
और कामयाबी का
भर जाये कितना भी घर
दिल कभी नहीं भरता
इसलिये रहते हैं वह बेकरार।
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समंदर की लहरों जैसे
दिल उठता और गिरता है।
पर इंसान तो आकाश में
उड़ती जिंदगी में ही
मस्त दिखता है।
पांव तले जमीन खिसक भी सकती है
सपने सभी पूरे नहीं होते
जिंदगी का फलासफा
अपने अहसास कुछ अलग ही लिखता है।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Wednesday, November 25, 2009

हिंदी समाचार-हास्य व्यंग्य कविता (samachar in hindi-hasya kavita)

समाचार भी अब फिल्म की तरह

टीवी पर चलते हैं।

हास्य पैदा करने वाले विज्ञापनों के बीच

दृश्यों में हिंसा के शिकार लोगों की याद में

करुणामय चिराग जलते हैं।

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समाचार भी खिचड़ी की तरह

परदे पर सजाये जाते हैं।

ध्यान रखते हैं कि 

हर रस वाला समाचार

लोगों को सुनाया जाये

किसी को हास्य तो किसी को वीर रस

अच्छा लगता है

कुछ लोग करुणारस पर

मंत्र मुग्ध हो जाते हैं।

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Tuesday, November 24, 2009

यकीन नहीं करना-हिंदी व्यंग्य कवितायें (yakeen nahin karna-hindi vyangya kavita)

शहर के सारे तलवारबाज बाशिंदे
कातिल को तलाश रहे थे।
मिलता कहां भला वह
शामिल जो था उनमे
उसके कातिल हाथ
पहरेदार की पहचान पा रहे थे।
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जो सुना
जो देखा
जो हाथ से छुआ
उसकी पहचान पर फिर भी यकीन नहीं करना
देखने और सुनने के
बिक रहे बाजार में नये औजार
जिनको हाथ से छूते ही
अक्ल गायब हो जाती है
झूठ भी लगता है सच
जो पैदा नहीं हुआ
वही शख्स जिंदा चलता दिखता है
सारी दुनियां कहे
फिर भी आजमाये बिना यकीन नहीं करना।

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Saturday, November 21, 2009

हाथ में हथियार हो तो मति भ्रष्ट हो ही जाती है-आलेख (hath men hathiyar-hindi lekh)

 यह आश्चर्य की बात है कि इस देश के कुछ बुद्धिजीवी हिंसक आंदोलनों में समाज के आदर्श तलाश रहे हैं।  इन बुद्धिजीवियों में कई लोग तो जो उस पश्चिम से ही अपनी रचनाओं के कारण पुरुस्कृत हैं जिनकी सम्राज्यवादी नीति के खिलाफ जूझ रहे हैं। मजे की बात यह है कि इस देश के प्रचार माध्यम-टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकायें-उनकी बात को छापते हैं जबकि आम आदमी उनको जानता तक नहीं हैं। शायद इस देश के प्रचार माध्यमों की आदत है कि वह कमाते  हिंदी भाषा से  हैं पर उनको लेखक अंग्रेजी के पंसद आते हैं और यह कथित अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भारतीय विजेता अंग्रेजी में लिखते हैं। उनका विषय भी वही होता है भारतीय गरीबी और सामाजिक शोषण।  बहरहाल उन्हें वर्तमान में हर भारतीय शिष्ट व्यक्ति शोषक नजर आता है सिवाय अपने।  इसके अलावा भी कुछ अन्य बुद्धिजीवी भी है जो इस आशा के साथ गरीब और शोषक के लिये संघर्ष करते हुए नजर आते हैं कि शायद कभी किसी पश्चिमी देश की नजर उन पर पड़ जाये और वह पुरुस्कार प्राप्त करें।  कभी कभी तो लगता है कि यह बुद्धिजीवी प्रायोजित हैं जिनको यह दायित्व दिया गया है कि जितना भी हो सके भारतीय समाज को अपमानित करो।  बहरहाल ऐसे ही बुद्धिजीवी देश में चल रहे हिंसक आंदोलनों  में नये समाज के आधार ढूंढ रहे हैं।  सच तो यह है कि वह जिसका खाते हैं उसी की कब्र खोदते हैं। 

इससे पहले कश्मीर में चल रही हिंसा में उन्होंने अपनी असलियत दिखाते रहे और अब पूर्वोत्तर में चल रही हिंसा में भी वही उनका रवैया है जो इस देश के समाज के अनुकूल कतई नहीं है।  इनमें कई तो लेखक चीन की माओवादी नीति के समर्थक हैं जो इस एशिया में हथियारों को बेचने वाला सबसे बड़ा सौदागर है।  अगर हम चीन और पश्चिमी देशों की नीतियों को देखें तो वह हिंसा भड़काकर ही अपने हथियार बेचते हैं।  कभी कभी तो लगता है कि उसके दलालों के रूप में ही यहां अनेक बुद्धिजीवी हैं जो इस हिंसा का प्रत्यक्ष समर्थन करते हैं।  दरअसल आज हम जिन आंदोलनों  में प्राचीन विद्रोहों जैसी परिवर्तन की संभावना देखते हैं वह निर्मूल हैं।  आजकल के ऐसे आंदोलनकारियों का नेतृत्व हिंसा के व्यापरियों से जुड़े दलालों  के हाथों में जाता प्रतीत होता है जिनको नेता तो बस कहा जाता है।

इनके तर्क हास्यास्पद और निराधार ही होते हैं। हम पूर्वोत्तर की हिंसा में अगर देखें तो उसमें चीनी सरकार के हाथ होने के आरोप लगते हैं।  बहरहाल किसी भी वाद या भाषा, धर्म, क्षेत्र तथा जाति के नाम पर देश में कहीं भी चल रही हिंसा को देखें तो वह केवल एक व्यापार लगती है और उनमें कोई सिद्धांत या आदर्श ढूंढना एक प्रायोजित प्रयास प्रतीत होता है।  जहां तक गरीबों और शोषकों के भले की बात है तो वह केवल एक भ्रामक प्रचार है जो आम आदमी में कल्पना की तरह स्थापित किया जाता है।  पहली बात तो आधुनिक लोकतंत्र की कर लें जिसे यह बुद्धिजीवी ढकोसला कहते हैं। चीन का मसीहा माओ कभी भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्षधर नहीं था पर भारत के इन बुद्धिजीवियों का अगर वह अध्ययन करता तो शायद अपने यहां इसकी इजाजत देता क्योंकि उसे लगता कि इसकी तो उसके अनुयायियों को जरूरत ही नहीं है।  इन बुद्धिजीवियों ने जितनी बातें यहां  की हैं उसके दसवें हिस्से में तो उनको चीन  में  फांसी हो जाती-वहां कितनी असहिष्णुता है सभी जानते हैं। यह लोकतंत्र ही जहां जो  मजे कर रहे हैं। समाज पर आक्षेप करके और कभी कभी तो कश्मीर पाकिस्तान को देने जैसी राष्ट्रद्रोही बातें करने पर भी  यहां प्रचार माध्यमों में लोकप्रिय प्राप्त करते हैं। फिर  जब वह कहते हैं कि देश की राजनीति, आर्थिक तथा सामाजिक पर बैठे शिखर पुरुष भ्रष्ट हैं तो उन्हें यह भी बताना चाहिये कि-

1-क्या उन हिंसक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हिंसा के व्यापारिक दलाल-कथित नेता-दूध के धुले हैं?  आखिर यह बुद्धिजीवी किस आधार पर उनको अन्य शिखर पुरुषों से अलग मानते हैं। इनके व्यक्तिगत चरित्र का क्या उन्होंने पूरा आंकलन कर लिया है या करना नहीं चाहते। आप जब देश के आर्थिक, राजनीति, और सामाजिक शिखर पर बैठे लोगों के चरित्र की मीमांसा करते हैं तो आपको यह नहीं बताना चाहिये कि आपके द्वारा समर्थित हिंसक आंदोलनों के प्रमुखों का कैसा चरित्र है? क्या सभी पवित्र हैं। 

2-मुखबिरी के आरोप में आदिवासियों, गरीबों और शोषकों को ही मारने वालों में वह किस तरह उन्हीं के समाजों का रक्षक मानते हैं? क्या जिन स्वजातीय या वर्ग के जिन लोगों को उन्होंने मारा उनको सजा देने का हक उनको था? फिर जब तब वह अपहरण या हमले की वारदात करते हैं उस समय तीन चार सौ लोगों की भीड़ जुटाते हैं क्या वह डर के मारे उनके साथ नहीं आती?

3-इन हिंसक आंदोलनों के नेताओं का राजनीतिक प्रशिक्षण आखिर किन लोगों के बीच में हुआ है?

देश में शोषण और संघर्ष हुआ है पर उनमें इन हिंसक तत्वों में ही समाज का बदलाव देखना अपने आपको धोखा देना है।  इन पंक्तियों का लेखक जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म के नाम बने समूहों को ही भ्रामक मानता है पर दूसरा सच यह है कि फायदे के लिये लोग अपने समूहों का उपयोग करते हैं।  दलित, आदिवासियों और मजदूरों के कथित संरक्षकों  क्या यह पता है कि चीन में एक ही जाति और वर्ग के लोग सत्ता पर हावी हैं और वहां आज भी जातीय संघर्ष होते हैं। इसके अलावा तिब्बत पर कब्जा जमाये बैठा चीन भारतीय क्षेत्रों पर भी दावा जताकर अपने सम्राज्यवादी होने का सबूत देता है।  चीन की तरक्की एक धोखा है।  कुछ अमेरिकी विशेषज्ञ साफ कहते हैं कि उसके विकास के पीछे अपराध जगत का भी योगदान है।  माओ भारत का शत्रु था और उसका यहां नाम लेना एक तरह से भारतीय समाज को चिढ़ाना ही है।  गरीब और शोषक की चिंता समाज को करना चाहिये वह नहीं करता तो उसकी सजा भी वह भोगता है पर कम से कम यह हिंसक तत्व किसी भी तरह उन लोगों के हितैषी नहीं है जो बंदूक सामने रखकर लोगों को इस बात के लिये बाध्य करते हैं कि वह उनके आंदोलन का हिस्सा बने। अगर वह यह साबित करना चाहते हैं कि लोग उनके साथ आंदोलन दिल से जुड़े हैं तो वह अपने कंधों से वह बंदूक हटा लें तो अपनी औकात का पता लग जायेगा? जहां तक लोकतंत्र का सवाल है तो सत्याग्रह और प्रदर्शन कर वह अपने मसले उठा सकते हैं पर ऐसा कोई प्रयास उन्होंने किया हो कभी ऐसा समाचार देखने या पढ़ने में नहीं आता-जैसा कि अभी किसानों ने कर दिखाया था।  इन बुद्धिजीवियों ने भी भारत में यह फैला रखा है कि यहां जातीय तनाव है जबकि चीन इससे मुक्त नहीं है-संभव है इस लेख में टिप्पणियों के रूप में कोई इस बात का प्रमाण भी रख जाये जैसे कि पहले के लेखों पर लिखी गयी थी। इन टिप्पणियों से ही यह पता लगा कि वहां भी उच्च वर्ग और जातियां हैं जिन्होंने कार्ल माक्र्स की आड़ में अपनी सत्ता कायम की है। इसी कारण वहां भी जातीय संघर्ष कम नहीं होता है।  सच बात तो यह है कि अंग्रेजी लेखकों के मोह ने ही भारतीय प्रचार माध्यमों को भी आज इस हालत में पहुंचाया है कि उन पर लोग उंगली उठा रहे हैं। अपने देश के हिंदी लेखकों के प्रति अत्यंत निम्न कोटि का व्यवहार रखने वाले प्रचार माध्यमों का साथ आम आदमी इसलिये जुड़ा है क्योंकि उसे कोई अन्य मार्ग नहीं मिलता।  यही कारण है कि विदेशी लोग उन भारतीय लेखकों को पुरुस्कृत करते रहे हैं जो अंग्रेजी में लिखते हैं उनको पता है कि हिंदी में लिखे की तो यहां भी इज्जत नहीं है फिर उनको प्रचार माध्यम हाथों हाथ उठाते हैं।  इसलिये वह भारतीय समाज की खिल्ली उड़ाने  या बेइज्जती करने वाले अंग्रेजी लेखकों को पुरुस्कार देते हैं।  हिन्दी भाषा के महान लेखक श्री नरेंद्र कोहली ने  अपने भाषण में इसकी चर्चा की थी-याद रहे भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों और संस्कृति में सामयिक रूप से लिखने में उनका कोई सानी नहीं है।

कहने का तात्पर्य यह है कि गरीबों, आदिवासियों, मजदूरों और दलितों को सम्मान पूर्वक जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिये। इसके लिये सामाजिक आंदोलन किये जायें अच्छी बात है पर जिसमें राजनीतिक और आर्थिक-जी हां, इन हिंसक आंदोलन के अनेक नेताओं पर तमाम तरह के आर्थिक और सामाजिक आरोप हैं जो उनके ही लोग लगाते हैं-हित साधने की बात हैं वहां सिद्धांत और आदर्श तो केवल दिखावा रह जाते हैं।  बार बार यह कहना कि हिंसक आंदोलनों को कुचलने की बजाय राज्य सत्ता उनसे बात करे, पूरी तरह गलत है।  राज्य सत्ता के पास इसके अलावा कोई मार्ग नहीं होता कि वह अपने देश में चल रही हिंसा के साथ  कड़ाई से निपटे, यह उसका जिम्मा है क्योंकि हर नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना उसका दायित्व है और जिसे यह हिंसक तत्व नष्ट करते हैं।  सामान्य नागरिक को हिंसा से परहेज करना चाहिये पर राजसत्ता ऐसा नहीं कर सकती। इन बुद्धिजीवियों को पता ही नहीं इस दुनियां में चलने के दो ही मार्ग हैं। एक तो अध्यात्मिक सत्संग का है जिसमें अपनी दाल रोटी खाओ और प्रभु के गुन गाओ। दूसरा राजधर्म है जिसमें अपने नागरिकों की रक्षा के लिये राज्य प्रमुख किसी भी हद तक चला जाये।  हिंसक तत्वों से यह आशा करना ही बेकार है कि वह कोई सौहार्द भाव किसी के प्रति रखते हैं क्योंकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि जिसके हाथ में हथियार है उसकी मति भ्रष्ट हो ही जाती है। ऐसे में इन हिंसक तत्वों द्वारा प्रचारित विचारों और योजनाओं पर चर्चा करना भी बेमानी लगती है।
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Monday, November 16, 2009

पाखंड की तस्वीर-व्यंग्य कविता (pakhand ke tasvir-vyangya kavita)

कब तक पाखंड को
सच माने
उसकी भी एक उम्र होती।
सोच के अंधेरे में
जब तक दिखता
सच लगता है
जो रौशन हुए ख्याल
उसकी तस्वीर खंड खंड होती।
सौ बार बोलने से झूठ भी
सच लगने लगता है
पर उसकी तस्वीर मुकम्मल नहीं होती।

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Sunday, November 15, 2009

कपड़ो की राशि कम से कम भरना-दो हास्य व्यंग्य कविताएँ (kapdon ke rakam-hindi hasya vyangka kavitaen

अश्लीलता और श्लीतता में
अंतर कितना रह गया है
बस छह इंच के कपड़े का।
क्यों इतना रोज छोड़ मचता है
खत्म कर दो हर कायदा
कोई पहने या न पहने
लगा दो एक नारा चैराहे पर
अपनी इज्जत की रक्षा खुद करें
दूसरे में तब देखें
पहले अपनी आंखों में शर्म भरें
नहीं मिलेगा कोई पहरेदार
आपनी आबरू के लिये बनो खुद्दार
और भी जमाने में मुसीबतें हैं
नहीं करेगा कोई कायदा हिफाजत
हल खुद ही करो पहनावे के लफड़ा।
---------------
निर्देशक ने अपनी फिल्म के
कपड़ा निर्देशक से
चर्चा करते हुए कहा
‘भई, यह कम बजट की फिल्म है
इसलिये अधिक पैसे की उम्मीद नहीं करना।
इसमें केवल नायक के कपड़े ही
अधिक बनाने होंगे
नायिका तो पूरी फिल्म में छह इंच के ही
वस्त्र धारण करेगी
कभी कभी एक फुट का भी वेश धरेगी
इसलिये अपने अनुबंध में
कपड़ों की राशि कम से कम भरना।

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Thursday, November 12, 2009

इश्क का सबूत-हास्य व्यंग्य कविता (ishq ka saboot-hasya vyangya kavita)

आशिक ने कहा माशुका से
‘तुझे में इतना प्यार करता हूं
तेरी हर अदा पर मरता हूं
तुम कहो तो चांद को जमीन
पर ले आंऊ।’
सुनकर माशुका ने कहा
’‘किस जमाने में रहते हो
जो यह पौंगापंथी बातें कहते हो
चांद क्या सिर में डालूंगी
छोटे से कमरे में
मेरा ही दम घुटता है
उसे रखकर मैं कैसे चैन पा लूंगी
वैसे तो मेरी समस्या पानी की है
जिससे भरते हुए
मेरी सुबह परेशानी में गुजरती है
नल कभी आते नहीं हैं
टैंकर के इंतजार में बैठकर आहें भरती हूं
नहीं आता तो फिर
दूर जाकर बर्तन में पानी भरती हूं
सुना है चांद पर भी पानी है
हो सके तो वहां से
पानी को धरती पर लाने का जुगाड़ बनाओे
शादी बाद में होगी
पहले तुम आधुनिक भागीरथ बन कर दिखाओ
तो मैं सारे जमाने को अपने इश्क का सबूत दिखाऊं।’’

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Wednesday, November 11, 2009

पैसे से वाहन खरीदा है सड़क नहीं-व्यंग्य लेख (vahan aur sadak-vyangya lekh)

अब यह फिल्मों का ही प्रभाव कहा जा सकता है कि रास्ते पर गाड़ी चलाने वाले लड़के लड़कियां अपने आपको नायक नायिका से कम नहीं समझा करते। फिल्मों में अनेक गीत नायक नायिका को रास्ते पर कार या मोटर साइकिलें चलाते हुए फिल्माये जाते हैं। वह लड़के लड़कियों के दिमाग में इस तरह अंकित रहते हैं कि जब गाड़ी पर उनका पंाव आता है तो वह ऐसे सोचते हैं जैसे कि वह किसी फिल्म का अभिनय कर रहे हैं। उनको शायद पता ही नहीं नायक नायिका के ऐसे गाने वाले दृश्य रास्ते पर पैदल या गाड़ियों चलाते हुए फिल्माये दृश्यों को स्टूडियो में तैयार किया जाता है। वहां उनके आसपास ऐसा आदमी नहीं आ सकता जिसे फिल्म का निदेशक न चाहे।
आम सड़क पर ऐसा नहीं होता। वह निजी सड़क नहीं है और न ही वहां आपके लिये ऐसी कोई सुविधा है।
एक समस्या दूसरी भी है जिसे समझ लें। खराब सड़कों पर कम ही दुर्घटना होती है क्योंकि वहां लोग वाहन पर ही क्या पैदल ही सोचकर धीमी गति से चलते हैं। कभी कभी तो इतनी धीमी गति हो जाती है कि स्कूटर बंद कर ही उस पर बैठकर उसे घसीटा जाता है। अधिकतर दुर्घटनायें साफ सुथरी और डंबरीकृत सड़कों पर ही होती है जहां गाड़ियां तीव्र गति से चलाने में मजा आता है।
जब भी दुर्घटना की खबरें आती हैं ऐसी ही सड़कों से आती हैं। कार या मोटर साइकिल निजी रूप से आकर्षक वाहन हैं पर सड़कें केवल उनके लिये नहीं है। इन पर ट्रक और बसें भी चलती हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि ट्राली के साथ जुड़े ट्रेक्टर भी चलते हैं जिनके कुछ चालक उनको बैलगाड़ी की तरह चलाते हैं। यह ट्राली ऐसे ही जैसे भैंस! पत नहीं कब सड़क पर थोड़ा झटका खाने से उसकी कमर मटक जाये। उसके समानांतर चलते हुए हमेशा चैकस रहना चाहिये।
आखिर यह ख्याल क्यों आया? उस दिन सड़क पर दो लड़के अपनी मोटर साइकिल पर ट्रेक्टर और ट्राली के एकदम समानातंर जा रहे थे। आगे बैठा लड़का अपनी धुन में कुछ ऐसा आया कि दोनो हाथ छोड़कर मोटर साइकिल चलाता रहा। पता नहीं वहां उसके आगे कोई छोटा पत्थर का टुकड़ा या कागज को कोई छोटा ठोस पुलिंदा आ गया जिससे मोटर साइकिल लड़खड़ी गयी। मोटर साइकिल ट्राली की तरफ बढ़ती इससे पहले ही लड़के ने संभाल लिया। यह दृश्य देखकर किसी की भी सांस थम सकती थी। याद रखिये जब वाहन की गति तीव्र होती है तब रास्ते पर पड़ी कोई छोटी ठोस चीज भी उसको विचलित कर सकती है। हवाई जहाज को आकाश में चिड़िया भी विचलित कर देती है-ऐसी अनेक घटनाएं अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं।
यह तो केवल एक वाक्या है? यह सड़कें गरीब और अमीर दोनों के लिये बनी है। अपनी कार पर इतना मत इतराओ कि साइकिल छू जाने पर किसी गरीब को मारने लगो। यह सड़क केवल अमीर की नहीं है क्योंकि जिंदगी भी केवल वह नहीं जीते! यह सड़के के्रवल अमीरों की इसलिये भी नहीं है क्योंकि मौत भी केवल गरीब की नहीं होती। एक दिन वह अमीरों को भी लपेटती है। कार या मोटर साइकिल से टकराकर साइकिल सवार गरीब मरेगा तो कार और मोटर साइकिल वाले भी ट्रक, बस और ट्रेक्टर ट्राली से टकराकर बच नहीं सकते। तुम अपने पैसे से वाहन खरीदते हो सड़क नहीं।
नित प्रतिदिन दुर्घटनाऐं और टकराने पर जिस तरह झगड़े होते हैं उससे तो देखकर यही लगता है कि हम लोगों को रास्ते पर चलने की तमीज नहीं है। फिल्मी और धारावाहिक दृश्यों ने हमारी अक्ल का बल्ब फ्यूज कर दिया है।
कभी कभी तो लगता है कि सड़के तो उबड़ खाबड़ ही ठीक हैं क्योंकि लोग वाहनों को चलाते नहीं बल्कि घसीटते ही ठीक रहते हैं जहां उनको गति बढ़ाने का अवसर मिला वहां अपना होश हवास खो देते हैं। इसका मतलब क्या यह समझें कि हम अच्छी सड़कों के लायक नहीं है। याद रखो दुर्घटना के लिये सैकण्ड का हजारवां हिस्सा भी काफी है। इसलिये सड़क पर चलते हुए जल्दबाजी से बचो। इसलिये नहीं कि घर पर तुम्हारा कोई इंतजार कर रहा है बल्कि इसलिये क्योंकि बेमौत किसी को दूसरे क्यों मारना चाहते हो या मरना चाहते हो। न भी मरे तो शरीर का अंग भंग हमेशा ही जीवन का दर्द बन जाता है। हो सकता है कि इसमें लेख में कुछ कटु बातें हों पर क्या करें दर्द की दवा तो कड़वी भी होती है। वैसे भी कहते हैं कि नीम कड़वा है पर स्वास्थ के लिये उसका बहुत महत्व है। इस पर कुछ काव्यात्मक अभिव्यक्ति के रूप में पंक्तियां।


सड़कों पर इतनी तेज मत चलो कि
जमीन पर आ गिरो
पांव जमीन पर ही रखो
हवा में उड़ने की कोशिश मत करो कि
अपने ही ओढ़े दर्द के जाल में घिरो।
एक पल ही बहुत है दुर्घटना के लिये
वाहनों पर बिना अक्ल साथ लिये यूं न फिरो।
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Monday, November 9, 2009

शब्द ऋषि और क्रिकेट-आलेख (shabda rishi aur cricket maich-hindi lekh)

उन महान शब्द ऋषि की मृत्यु की खबर ने स्तब्ध कर दिया। यह लेखक घर से बाहर अपने काम पर जाने की तैयारी कर रहा था। उसी समय टीवी पर यह खबर दिखाई दी। खबर यह थी कि‘अपने प्रिय खिलाड़ी के आउट होने के बाद भारतीय टीम की हार का सदमा उनसे सहन नहीं हुआ।’
मन ही मन यह शब्द फूट पड़े‘हे शब्द ऋषि! आप तो सत्य के अन्वेषण करने वाले तपस्वी थे फिर कहां इस मिथ्या खेल में मन फंसाये बैठे थे।’
एक तरफ उनके निधन का दुःख और दूसरा क्रिकेट के प्रति उनके लगाव पर आश्चर्य एक साथ हो रहा था। ऐसे में अधिक शब्द नहीं सूझ पाये।
इस हिंदी भाषा में अनेक पत्रकार आये और गये पर जिसने आजादी के बाद एक हिंदी पत्रकार के रूप में अकेले ख्याति अर्जित की तो उसमें वही एक व्यक्ति थे। कहने को तो अनेक प्रकाशक ही अपना नाम संपादक के रूप में लिखते हैं। इसके अलावा अधिकतर समाचार पत्र अंग्रेजी के लेखकों के अनुवाद कर उनको हिंदी में प्रतिष्ठित करते हैं इसलिये हिंदी में एक प्रतिष्ठित और ऐतिहासिक पत्रकार बनना हरेक के बूते नहीं होता। केवल हिंदी के दम पर महान पत्रकार का दर्जा केवल उन्हीं महर्षि को ही दिया जा सकता है क्योंकि उनका लिखा अनुवाद के माध्यम से नहीं पढ़ा गया।
एक गैरपूंजीपति पत्रकार हमेशा अपना जीवन एक सामान्य आदमी की तरह व्यतीत करता है और उन्होंने भी यही किया। लिखने में जब विशिष्टता प्राप्त होती है तब आदमी अत्यंत सहज हो जाता है। उसे अपनी विशिष्टता का अहंकार नहीं आता क्योंकि उसे एक के बाद दूसरी रचना करनी होती है।
वह शब्द ऋषि एक आदमी की तरह जिया। इस लेखक से कभी उनकी मुलाकात नहीं हुई पर उनके अनेक लेख पढ़े। क्या गजब की लेखनी थी? हर पंक्ति में अपना अर्थ था। उनकी भाषा शैली की नकल अनेक पत्रकार करने का प्रयास करते हैं। लंबें चैड़े वाक्यों में हिंदी के आकर्षक शब्दों का प्रयोग करने की शैली को कोई दूसरा छू नहीं पाया पर कुछ लोग कोशिश करते हैं पर जो पढ़ने वाले जानते हैं उनका स्तर कितना ऊंचा था।
फिर क्रिकेट जैसे खेल में उनका मन कैसे फंसा। वह खेल प्रेमी थे। अपने ही अखबारों में क्रिकेट के संबंध में समय समय पर जो प्रतिकूल छपता है क्या वह पढ़ते नहीं थे? हमने तो उनका अखबार पढ़ते ही पढ़ते क्रिकेट देखा और फिर देखना कम कर दिया। किसी पर यकीन नहीं है। किसी क्रिकेट खिलाड़ी में लगाव नहीं है। हार जीत के समाचार जबरन सामने आते हैं तो देख लेते हैं। जिस मैच को देखने के बाद उनके दिल ने साथ छोड़ा उसकी खबर हमने उनके परमधाम गमन के साथ ही सुनी।
संभव है कि जान बूझकर इसका प्रचार किया गया हो कि देखो कैसे इस देश में जुनून की तरह माना जाता है-हालांकि मैच के समय जिस तरह पहले सड़कों पर इसकी चर्चा देखते थे अब नहीं दिखती । एक तरह से संदेश होता है कि अगर आप क्रिकेट नहीं देखते तो इसका मतलब है कि आप युवा नहीं है-जैसे कि क्रिकेट कोई सैक्सी खेल हो।
बहरहाल उन शब्द ऋषि के देहावसान की खबर ने दुःख तो दिया पर सच बात तो यह है कि एक दिन यह सभी के साथ होना है। फिर हम कहें कि क्रिकेट की वजह से यह हुआ-गलत होगा। सत्य के अन्वेषक एक ऋषि का दिल एक मैच से टूट जाये यह संभव नहीं है। मृत्यु के लिये कोई न कोई बहाना तो बनता ही है।
इतने सारे मैच भारत हारा। सच तो यह है कि अनेक लोग तो पक गये हैं कि जीतने पर ही यकीन नहीं करते। जिसने मैच न देखा हो उसे कसम खाकर बताना पड़ता है कि भारत मैच जीत गया। उनका जो प्रिय खिलाड़ी है तो उसका कहना ही क्या? ढेर सारे रिकार्डों से लोग खुश जरूर होते हैं पर टीम कभी विश्व नहीं जीत सकी। केवल एक मैच की वजह से उनका दिल टूटेगा यह संभव नहीं हो सकता। जो आदमी जितनी सांसे लिखवाकर लाया है उतनी ही ले पायेगा।
अलबत्ता क्रिकेट वह शौकीन जो बड़ी उम्र के हैं उनको अब इसे देखना बंद करना चाहिये। कुछ लोग इसे देखते हुए ही वृद्ध हो गये हैं पर फिर भी उनका दिल मानता नहीं है। जिन लोगों ने यकीन कम होने के कारण क्रिकेट देखना बंद कर दिया है वह बहुत आराम अनुभव करते हैं। वरना पहले जब भारत हारता था तो अनेक लोगों का सदमे से सारा शरीर सुन्न हो जाता था। सारा दिन मैच आंखें लगाकर देखा और जब भारत हार गया तो बाहर जाने पर ऐसा लगता था कि नरक से बाहर आये हैं। सुबह मैच हो तो रात को नींद नहीं आती थी। वह तो भला उस भारतीय खिलाड़ी का जिसने पाकिस्तानी खिलाड़ी द्वारा इसके काले पक्ष को उजागर करने के बाद उसका समर्थन किया जिससे अनेक क्रिकेट प्रेमियों की आंखें खुल गयीं। इधर हम यह भी देखते हैं कि भारत पाकिस्तान के बीच अन्य विषयों पर भले ही दुश्मनी हो पर क्रिकेट के विषय पर एका दिखता है। इससे हमें क्या? लब्बोलुआब यह कि क्रिकेट एक पैसे का खेल है जिसमें आगे पैसा, पीछे पैसा, नीचे पैसा, ऊपर पैसा, दायें पैसा, बायें पैसा यानि हर बात में पैसा है।
उन शब्द ऋषि जैसा हम तो नहीं लिख सकते पर उन जैसे हमारे गुरु भी थे। उनके परमधाम गमन के समय हमें अपने गुरुजी की भी याद आयी। वही हमसे कहते कि क्रिकेट गुलामों का खेल है। सच तो यह है कि हमारा मन भर आया था। लोग रोये भी होंगे पर सोच रहे थे कि ‘क्या यह सच नहीं है कि आजादी के बाद वही ऐसे एकमात्र शख्स रहे हैं जिन्होंने पत्रकार के रूप में बिना धन लगाये केवल शब्दों के सहारे ख्याति अर्जित की। उनको नमन करने का मन करता है क्योंकि वह भी हमारे लेखन के प्रेरक रहे थे।
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Sunday, November 8, 2009

शब्द धन-त्रिपदम (shabda dhan-hindi kavita)

शब्द योद्धा
छोड़ गया संसार
पता न चला।

छायी चुप्पी
बयान करती है
वह था भला।।

अमीर होता
ऐसे जमाना रोता
हुआ अबला।

लिखो या नहीं
दिखो शब्दयोद्धा
चमके गला।

अमीरा रूप
यहां पूजा जाता है
इंसानी कला।

कलम योगी
सच समझता है
शब्द जला।

धन चंचल
नाम पते के साथ
मुख बदला।

शब्द धन
रचयिता के साथ
हमेशा चला।

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Wednesday, November 4, 2009

कदमों के निशान-हिंदी कविता (kadmon ke nishan-hindi vyangya kavita)

यूं तो दर-ब-दर भटकते रहे
इस नीले आसमान के नीचे।
कभी सोचा न था कि
इस दौर में भी छप रहे हैं
धरती पर हमारे कदमों के निशान पीछे।

पल पल अपने दर्द के साथ जीते रहे
अपने गम खुद ही पीते रहे
पर अल्फाजों में कभी नहीं कहे
जमाने ने चाहे
हमारे पांव बढ़ने से रोकने के लिये खींचे।

जब बैठते हुए मुड़कर देखा
तब दिल में हुई खुशी यह देखकर कि
उन जगहों पर अल्फाजों के शेर
खिले थे फूल की तरह
जिस रास्ते हम चले थे
हमारे पांवों से गिरे पसीने ने ही वह सींचे।
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अपनी चाहतों का
कभी पूरा करने का मौका ही न मिला
जब एक रुपया था जेब में
तब कीमत थी दो रुपया
जब दो था तब हो गयी चार।
पैमाने के नीचे ही
झूलते रहे
जिन्होंने हमेशा साथ निभाया
वही ख्वाहिशें हमेशा बनी रही यार।


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Monday, November 2, 2009

रामचरित मानस में त्रुटियों की चर्चा-हिंदी आलेख (disscusion on mistak of ramcharit manas-hindi lekh)

रामचरित मानस लिखने के 387 वर्ष बाद एक संत ने यह शोध प्रस्तुत किया है कि उसमें व्याकरण और भाषा की तीन हजार गल्तियां हैं। हाय! भगवान राम जी के भक्त यह सुनकर उद्वेलित हो जायेंगे कि ‘देखो, रामचरित मानस का अपमान हो रहा है।’

शायद ऐसा न हो क्योंकि वह भारतीय धर्म से ही जुड़े एक संत हैं अगर ऐसा न होता तो उस पर अनेक लोग क्रोध प्रकट कर चुके होते। तुलसीदासजी ने रामचरित मानस बड़े पावन हृदय से लिखा था इसमें संदेह नहीं है। एक तो कवि मन होता ही बहुत भोला है दूसरे उन्होंने पहले ही अपने विरोधियों को यह बता दिया था कि उनका भाषा ज्ञान अल्प है-क्षमा याचना भी पहले ही कर ली थी।
यह अलग बात है कि 387 वर्ष बाद -भई, यह आंकड़ा हमें टीवी पर ही सुनाई दिया, अगर गलती हो तो क्षमा हम भी मांग लेते हैं- एक संत को यह क्या सूझा कि उसमें दोष ढूंढने बैठ गये। अगर कोई प्रगतिशील होता तो उस पर तमाम तरह की फब्तियां कसी जा सकती थीं यह कहते हुए कि ‘आप तो उसमें दोष ही ढूंढोगे’ मगर वह तो विशुद्ध रूप से पंरपरावादी विद्वान हैं। फिर संत! हमारे समाज मे जो भी कोई संतों का चोगा पहन ले वह पूज्यनीय हो जाता है-फिर लोग उसकी नीयत का फैसला उसी पर छोड़कर उसे प्रणाम करते हुए अपनी राह पकड़ते हैं। वैसे आजकल तो कथित संतों पर फब्तियां कसने वालों की कमी नहीं है पर वह लोग भी सावधानी बरतते हैं कि कहीं अधिक न लिखें।

हम भाषा से पैदल रहे हैं-इससे कमी से स्वतः ही अवगत हैं। कभी कभी कोई शब्द लिखने से कतराते हैं कि कहीं पढ़ने वाले भाषा ज्ञान को संदिग्ध न मान ले। हिंदी के बारे में हमारे गुरु की बस एक ही बात हमारे गले उतरी कि ‘जैसी बोली जाती है वैसी लिखी जाती है।’ फिर इधर हमने यह भी बात गांठ बांधली है कि ‘यहां हर पांच कोस पर बोली बदल जाती है’,मतलब किसी शब्द पर कोई बहस करे तो उससे पूछ लेते हैं कि हमसे कितना दूर रहता है? उसके पता बताने पर जब अपने घर से पांच कोस की दूरी अधिक मिलती है तो कह देते हैं कि-‘भई, हमारे इलाके में ऐसा ही है। तुम ठहरे दूर इलाके के। हमारे यहां जैसा बोला जाता है वैसा ही तो लिखा भी जायेगा न! हिंदी का नियम है।’
मगर संतों से बहस कैसे करें-तिस पर तुलसीदास जी की भाषा हिंदी की सहयोगी भाषा रही हो तब तो और भी कठिन है-संभव हो वह संत उस भाषा के ज्ञाता हों और उनके निवास की पांच कोस की परिधि मेें ही रहते हों। फिर हम तो उस प्रदेश के बाहर के ही हैं जहां तुलसीदास जी बसते थे और संभवतः संत उन्हीं के प्रदेश के हैं। एक बात तय रही कि तुलसीदास कोई दूसरा बन नहीं सकता-पर बनने की चाहत सभी में है। कई लोग इसके लिये संघर्ष करते हुए स्वर्ग में जगह बनाने में सफल रहे पर नहीं मिला तो तुलसीदास जी जैसा वह पद, जिसकी जगह लोगों के हृदय में सदैव रहती है।

तुलसीदास जी की रामचरित मानस न केवल भाषा साहित्य बल्कि अध्यात्मिक दृष्टि से भी बहुत महत्व रखती है। पहले एक पुस्तक आती थी जिसमें तुलसीदास जी को समाज का पथप्रदर्शक न बताकर पथभ्रष्ट बताया जाता था। उसमें बताया गया कि उन्होंने बाल्मीकी रामायण के श्लोकों का हुबहु अनुवाद भर किया है। इसके अलावा भी तमाम तरह की टीका टिप्पणियां भी थी।
इस पर हमने एक अखबार में संपादक के नाम पत्र में लिखा था-हां, हमारे अधिकतर कचड़ा चिंतन वहीं जगह पाते थे-कि ‘चलिये, सब बात मान ली। मगर एक बात हम कहना चाहते हैं कि उस दौर में जब समाज के सामने वैचारिक संकट था तब भगवान श्रीराम जी के चरित्र को लगभग लुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी संस्कृत भाषा से निकालकर देशी भाषा में इतने बृहद ढंग से प्रस्तुत करने का जो काम तुलसीदास जी ने किया उसके लिये समाज उनका हमेशा ऋणी रहेगा। इसका केवल साहित्य महत्व नहीं है बल्कि उन्होंने राम को इस देश जननायक बनाये रखने की प्रक्रिया को निरंतरता प्रदान की जो संस्कृत के लुप्त होने के बाद बाधित हो सकती थी। वैसे राम चरित्र भारत में सदियों गाया जाता रहेगा पर रामचरित मानस ने उसे एक ऐसा संबल दिया जिससे उसमें अक्षुण्ण्ता बनी रहेगी।’
वैसे तुलसीदासकृत राम चरित मानस एक भाव ग्रंथ है। उसमें शब्द गलत हों या सही पर वह पढ़ने वाले के हृदय को उनके भाव वैसे ही छूते हैं जैसे उनका अर्थ है। उसमें भाषा और व्याकरण संबंध त्रुटियों को निकलाने की क्षमता शायद ही किसमें हो क्योंकि अपने यहां बोली वाकई हर पांच कोस पर बदलती है। अभी भी गांव से जुड़े शिक्षित लोग शहर में आकर ‘इतके आ’, ‘काहे चलें’ ‘वा का मोड़ा’ तथा कई ऐसे शब्द बोलते हैं पर उनकी बात पर कोई आपत्ति नहीं करता। वजह! वह अपने अर्थ के अनुसार भाव को संपूर्णता से प्रकट करते हैं। इनको आप भाषा संबंधी त्रुटि मानकर अपनी अज्ञानता और असहजता का परिचय देते हैं।
आखिरी बात संत कहते हैं कि दूसरे में दोष मत देखो। उनकी बात सिर माथे पर। संत एक सामाजिक चिकित्सक हैं इसलिये उनको तो इलाज करने के लिये दोष और विकार देखने ही पड़ते हैं-यह भी सच! मगर एक सच यह भी है कि संत को किसीके दोषों की चर्चा दूसरों के सामने-कम से कम सार्वजनिक रूप से-तो नहीं करना चाहिए। वैसे उस संत की महत्ता ज्ञानियों की दृष्टि में कम हो जाती है जो दूसरों के दोष इस तरह गिनाते हैं। कहते हैं कि तुलसीदासकृत रामचरित मानस में तीन हजार गल्तियां ढूंढने वाले विद्वान ने स्वयं भी अस्सी पुस्तके लिखी हैं, मगर इससे उनको इस तरह की टिप्पणी से बचना ही चाहिये था।
आप कितने भी अच्छे हिंदी भाषी ज्ञाता हों पर लेखक अच्छे नहीं हो जाते। लेखक होते हैं तो भी पाठक पसंद करे तो यह जरूरी नहीं। यह सच है कि लिखने में जितना हो सके त्रुटियों से बचें पर यह भी याद रखें दूसरे के लिखे का अगर भाव सही मायने में प्रकट हो तो आक्षेप न करना ही अच्छा। दूसरी बात हिंदी का यह नियम याद रखें कि जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। ऐसे में यह भी देखना चाहिये कि लेखक किस इलाके का है और उसका शब्द कहीं ऐसे ही तो नहीं बोला जाता। सच तो यह है कि तुलसीदास जी की रामचरित मानस एक शाब्दिक या साहित्य रचना नही बल्कि भाव ग्रंथ है और उसमें तीन लाख त्रुटियां भी होती तो इसकी परवाह कौन करता जब समाज का वह अभिन्न हिस्सा बन चुका है। वैसे इसकी टीवी पर चर्चा सुनी तो लगा कि संभव है कि इस बहाने उस पर अपनी विद्वता दिखाने और प्रचार पाने का एक नुस्खा हो।
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Sunday, November 1, 2009

कर्मजोग और धर्मजुद्ध-हिंदी व्यंग्य कविता (karmyog aur dharamuyddh-hindi vyangya kavita)

वह धर्मजुद्ध से करने निकले
जमाने भर की सफाई।
अमन का नारा लगाते किया शोर
शीतलता के लिये चहुं ओर आग लगाई।।

तलवार से लड़ते धर्मजुद्ध तो
धरा पर सिर कटकर गिरते हैं,
शब्द घौंपते है खंजर की तरह तो
भले इंसानों के दिल भी हिलते हैं,
एक पल भी मोहब्बत का नहीं जुटाते
कर लेते हैं धर्मजोद्धा नाम की कमाई।।

कहें दीपक बापू
इतिहास भरा पड़ा है
पहले से ही तयशुदा धर्मजुद्धों से
मिले जहां दो धर्मजोद्धा
बन जाते हैं इंसानियत के पुरोधा
बांटकर आपस में किताबें
कहीं शाब्दिक शास्त्रार्थ करते
कहीं तलवार से प्रहार करते
सारे जमाने को लोगों का सिर कट जाये
या दिल फट जाये
पर धर्मजोद्धाओं ने अपनी
जान कभी न गंवाई,
उनके जाल में फंसा वही
जिसकी खुद की मति काम न आई।
ओ भलेमानसों!
धर्मजुद्धों से कभी इंसानियत पैदा नहीं होती,
उनके बुरे नतीजों से
हर बार दुनियां रोती,
कर्मजोगी इसलिये देते हैं
हमेशा अहिंसा, प्रेम और दया की दुहाई।
धर्मजोद्धाओं के जुद्ध में
कभी न दिखलाओ अपनी दिलचस्पी
अपने कर्मजुद्ध का मोर्चा संभाले रहो
यह दुनियां कर्मजोगियों ने ही चलाई।

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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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