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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Monday, June 27, 2011

चोर और ज्योतिषी-हिन्दी हास्य कविता (chor aur jyotishi-hindi hasya kavita)

चोर पहुंचा और एक हजार का नोट
हाथ में देते हुए बोला
‘‘महाराज,
मेरा हाथ देकर बताओ
कौनसा धंधा करूं, यह समझाओ,
चोरी या जेब काटने का,
दिन बुरे चल रहे हैं
कब आ जाये दिन धूल चाटने का,
अनेक जगह सोने की चोरी की
पता चला सभी जगह नकली मिला माल,
खाली जा रहा है पूरा साल,
आपको देखा तो
भविष्य पूछने के लिये
एक हजार का नोट किसी की जेब काटकर आया,
किसी का धन चुरा सकते हैं
पर अक्ल नहीं
अब यह आपका काम देखकर समझ पाया।’’

ज्योतिषी ने नोट को घुमा फिराकर देखा
फिर उसे वापस थमाते हुए कहा
‘‘बेटा,
तुम्हारा हाथ देखने की जरूरत नहीं,
जन्मपत्री भी मत दिखाना कहीं,
तुम्हारी किस्मत अब साथ छोड़ रही है
असलियत की तरफ मोड़ रही है,
यह नोट भी नकली है,
पर जिंदगी तुम्हारी असली है,
इससे अच्छा है तुम कहीं
ठेला चलाने का धंधा प्रारंभ करो,
न अब बुरे कर्म का दंभ भरो,
रकम छोटी आयेगी,
पर सच को साथ लायेगी,
अब तुम जाओ,
अभी तक लोगों से लिया पैसा
पर तुम्हें मुफ्त में भविष्य बताया।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक   'भारतदीप',ग्वालियर 
Editor and writer-Deepak  'Bharatdeep',Gwalior
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Tuesday, June 21, 2011

तख्त के लिये मची जंग-हिन्दी कविता(takhta ke liye jung-hindi kavita

तख्त के लिये मची है चारों तरफ जंग,
इंसानों के मुंह खुले पर दिमाग हैं तंग।
सजे हुए सब चेहरे, ओढ़े चमकीले कपड़े
मगर सभी की नीयत का काला है रंग।
भरोसा के नाम, मिलता तोहफा धोखे का
सच की लय को भ्रम ने किया है भंग।
कहें दीपक बापू अंधों के आगे क्या रोना
समाज बड़ा है, पर बंधे है उसके सारे अंग।
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Monday, June 13, 2011

हास्य कविता-धर्म के धंधे में कोई कर नहीं है (hasya kavita-dharm ke dhandhe mein tax nahin hai)

चेले ने कहा गुरु से
‘गुरुजी,
अब तो आपकी सेवा में बहुत सारे
चेले आ गये हैं,
सभी आपके भक्तों को भा गये हैं,
मुझे अब समाज सेवा के लिये
आश्रम से बाहर जाने की
सहमति प्रदान करे,
किसी बड़ी संस्था में पद लेकर
आपका नाम रौशन करूं,
अनुमति प्रदान करें।’
सुनकर गुरु जी बोले
‘सीधी बात क्यों नहीं कहता
कि अब अपनी धार्मिक छवि को
नकदी में भुनाना चाहता है,
माया के लोभ में
ज्ञान को भुलाना चाहता है,
मगर भईये!
समाज सेवा में राजनीति चलती है,
बाहर लगते हैं जनकल्याण के नारे
अंदर कमीशन पाने की नीयत पलती है,
तुझे लग रहा है कि यह रास्ता सरल है,
मगर वहां बदनामी का खतरा हर पल है,
फिर तेरा अनुभव तो पूजा पाठ का है
राजनीति में एक तरह से तू तो उल्लू काठ का है,
वहां पहले से ही मौजूद बड़े बड़े धुरंधर हैं,
कुछ बाहर पेल रहे हैं डंड तो कुछ अंदर हैं,
उनकी आपस में तयशुदा होती जंग,
देखती है जनता बड़े चाव से
भले ही हालातों से तंग,
फिर तू समाज सेवा के नाम पर
कोई आंदोलन चलायेगा,
डंडे की मार खाकर यहीं लौट आयेगा,
भले ही मेरी वजह से
तेरे को कई समाज सेवक मानते हैं,
पर उनके इलाके में अगर तू घुसा
मार खायेगा
यह हम जानते हैं,
वहां जाकर नाकामी तेरे हाथ आयेगी,
यह बदनामी मेरे नाम के साथ भी जायेगी,
इसलिये अच्छा है
कहंी दूसरी जगह आश्रम बनाकर
तू भी स्वामी बन जा,
धर्म के धंधे में एक खंबे की तरह तन जा,
यहां डंडे का डर नहीं है,
कमाई पर कोई कर नहीं है,
अभी तक मैं अपना खजाना अकेला भरता था
अब अलग होकर दोनों ही
अपनी तिजोरी दुगुनी गति से भरें।’
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Sunday, June 5, 2011

दूसरों के दर्द से कब तक छिपोगे-हिन्दी साहित्यक कवितायें (doosron ke dard se kab tak chhipaoge-hindi litgerature poem)

तुम सुनना नहीं चाहते, पर तुम्हारे कान बंद करने से
जमाने के लोगों की दर्दीली आवाज बंद नहीं हो जायेगी,
देखना नहीं चाहते किसी की पीड़ा, पर आंखें बंद करने से
लोगों के जिस्म की भूख, केवल वादों से नहीं मिट जायेगी,
 चाहे जब छिप जाओ तुम वातानुकूलित कमरों में
बाहर की आग और आंधी दीवारें उनको भी कभी ढायेगी।
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न खेलो इस ज़माने से
लोगों को खिलौना मानकर,
दूसरों के दर्द को
अनदेखा न करो अच्छी तरह जानकर।
अपने हाथ से किये कसूरों  पर
चाहे कितनी सफाई देते रहो
कोई यकीन नहीं करेगा,
भले ही डर से कोई
सामने नहीं कहेगा,
कभी न कभी न उठेगा
तुम्हारे किये कसूरों का तूफान
गिरा देगा तुम्हारे महल
तब रहो आराम से चादर तानकर।
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