समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, January 22, 2011

ज़मीन पर तैराकी-हिन्दी व्यंग्य (zamih par tairaki-hindi vyangya-hindi vyangya)

टीवी पर प्रसारित एक समाचार को देख सुनकर यह विचार नहीं बन पाया कि उस पर व्यंग्य लिखें कि चिंतन! खबर यह थी कि झारखंड में राष्ट्रीय खेलों में भाग लेने वाले तैराकों को जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण दिया जा रहा है क्योंकि पानी का प्रबंध नहीं हो पाया। समाचार के साथ प्रसारित दृश्यों में बाकायदा खिलाड़ियों को जमीन पर तैराकी जैसे हाथ पांव मारते दिखाया गया। उसे देखकर तो यही लगा कि जैसे कि वह योग साधना जैसा कुछ कर रहे हैं। अब हम सोच रहे थे कि इस पर हंसे कि रोऐं! हंसें तो व्यंग्य लिखना पड़ता और रोऐं तो चिंतन! मगर यह खबर तो ऐसा स्तब्ध किये दे रही थी कि लगने लगा कि इस पर तो हिन्दी में कोई विद्या लिखने लायक तो है ही नहीं-कम से कम अपनी बुद्धि में तो नहीं।
यह समाचार हास्य कविता जैसा भी नहीं था क्योंकि उस पर हंसी नहीं आती। व्यंग्य जैसा लिखें तो लगता है कि प्रस्तुति दर्दनाक बन जायेगी। मित्र लोग हास्य कविता लिखना पसंद नहीं करते। शायरियां लिखना हमें आता नहीं। हास्य व्यंग्य देखकर लोग कह देते हैं कि यह तो चिंतन जैसा बन गया। लोग गंभीर चिंतन लिखने के लिये कहते हैं पर जब दर्द असहनीय हो जाये तो एक ही रास्ता है कि हास्यासन किया जाये।
जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण अपने आपमें एक अजूबा है जो शायद अपने ही देश में संभव है। युवा पीढ़ी को आगे लाने के दावे रोज सुनते हैं पर इस सवाल का जवाब कौन देगा कि घर में ही जब पानी का अकाल हो तो बाहर कौन जाकर शेर जैसी तैराकी करेगा। मगरमच्छ कागज का बांध बनाकर पानी को रोक लें तो आम आदमी मछली जैसे भी कहां तैर पायेगा।
बहुत हास्य व्यंग्य लिखे और पढ़े पर लगता है कि बेकार रहा। शरद जोशी, हरिशंकर परसाईं और श्रीलाल शुक्ल हिन्दी भाषा में हास्य व्यंग्य लिखने के लिये जाने जाते हैं। उन जैसे रचनाकारों का हिन्दी साहित्य में बहुत बड़ा स्थान है। श्री शरद जोशी का एक वाक्य तो भूलाये नहीं भूलता कि ‘हम इसलिये अब तक जिंदा हैं क्योंकि हमें मारने के लिये किसी के पास फुर्सत नहीं है।’
उनका आशय यही था कि चूंकि लुटने पिटने के लिये बहुत सारे धनी मानी लोग हैं पर लूटने वाले कम हैं। इसलिये अपना नंबर तो आने से रहा। बहरहाल अब तो देश में ऐसी ऐसी घटनायें होने लगी हैं कि कहना पड़ता है कि बड़े बड़े व्यंग्यकार भी ऐसी कल्पना क्या कर पायें? जब कोई रचनाकार व्यंग्य लिखता है तो समाज में व्याप्त अंर्तविरोधों में अपनी कुछ कल्पना शक्ति का भी सहारा लेता है। ऐसी रचना कोई शायद कोई नहीं कर पाया कि नयी पीढ़ी को जमीन पर तैराकी का प्रशिक्षण देकर उनसे पदक लाने की आशा की जायेगी। कागजी बांध इतने शक्तिशाली हो जायेंगे कि पानी की एक बूंद का निकलकर जमीन पर आना भी संभव नहीं होगा।
हां कई व्यंग्य पढ़ने को मिले पर ऐसा नहीं! कुंऐं कागज पर खुद जमीन पर लापता हो गये। सार्वजनिक उद्यान फाईलों में हरियाली से लहलहाते रहे पर वहां कचड़ा घर दिखता रहा। सड़कें किसी फिल्मी हीरोईन के गाल की तरह चिकनी बनकर कागज पर चमकती रहीं पर उन पर पैदल चलना भी दूभर रहा है। ऐसा कई बार पढ़ा और सुना। संभव है कि कहंीं तैराकी का तालाब बनाकर वहां प्रशिक्षण भी कागजों पर दिया गया हो। मगर यहां तो सचमुच प्रशिक्षण दिया जा रहा है। मतलब आधा हास्य और आधा व्यंग्य! अवाक खड़े होकर देखने के बाद चिंतन क्या काम करेगा?
नयी पीढ़ी के लड़के लड़कियों के साथ किया गया यह क्रूर मजाक इराक की याद दिलाता है। जहां सद्दाम के बेटे पर आरोप लगाया कि अपनी फुटबाल टीम के हारने पर उसने उसके सदस्यों की हत्या कर दी थी। यहां दैहिक हत्या नहीं की गयी पर जवान पीढ़ी के उत्साह की हत्या का पाप मौजूद है। आदमी की देह हत्या और उसके सपने की हत्या एक समान ही है क्योंकि सपना टूटने पर आदमी मृतक समान ही हो जाता है।
हैरानी की बात यह है किसी को खौफ नहीं है। इस बात की चिंता नहीं है कि कहीं प्रचार माध्यमों की नज़र इस पर न पड़ जाये। बच्चों को जमीन पर छाती रगड़ने के लिये कहना वह भी तैराकी के खेल के प्रशिक्षण के नाम पर! यह भारत है जहां खेलों के विकास के नाम पर करोड़ों फूंके जा रहे हैं और खिलाड़ियों को फालतू की चीज माना जा रहा है। वैसे हमारे अनेक खिलाड़ी खेलोें के विकास की बात करते हैं पर बताईये उनका भी कहीं विकास होता है। खेलों से तो आदमी का विकास होता है वह भी तब जब अपने खिलाड़ियों को सुविधायें दें। क्रिकेट के एक महान धुरंधर उस दिन कह रहे थे कि ‘आईपीएल से भारत में क्रिकेट का विकास हुआ है!’
क्रिकेट का विकास चाहिये या क्रिकेट से देश की युवा पीढ़ी का! जहां तक देश की युवा पीढ़ी का क्रिकेट से विकास करने की बात है तो उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि यह खेल बच्चे बच्चे में अपनी जड़ें जमा चुका है। ऐसे में जब कोई क्रिकेट खेल के विकास की बात कर रहा है तो वह ढोंगी है और अपने धंधे का जुगाड़ कर रहा है। अभी कॉमनवेल्थ हुए। एक दो दिन तक प्रचार माध्यम उसकी कमियों का रोना रोते रहे पर जैसे ही अपना मतलब बना सभी उसे देश में खेलों के विकास से उसे जोड़ने लगे। दिल्ली में हुए इन खेलों से देश के खिलाड़ियों में क्या सुधार आया पता नहीं पर चीन में हुए एशियाड में असलियत उजागर हो गयी। दिल्ली में खेल सुविधायें बनने से देश में खेल का स्तर नहीं सुधर सकता। अगर भारत को खेल में अपना नाम ऊंचा करना है तो उसे शहरों की बजाय गांवों में अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। खासतौर से आदिवासी इलाकों में। शहर वाले केवल क्रिकेट खेलने की कुब्बत रखते हैं क्योंकि उसमें फिटनेस अधिक जरूरी नहीं है। झारखंड आदिवासी इलाका है और वहां अच्छे खिलाड़ियों के मिलने की पूरी संभावना है पर वहां सुविधाओं का यह हाल है तब अंतर्राष्ट्रीय खेलों में हमें ज्यादा आशा नहींे करना चाहिए। सच बात तो यह है कि हमारे यहां के आर्थिक सामाजिक तथा प्रतिष्ठित शिखरों पर बैठ महापुरुषों को खेल चाहिये नाम और नामा कमाने के लिये न कि खिलाड़ी। खेलों के आयोजन से उनका कमीशन बनता है और अखबारों में प्रचार होता है सो अलग! खिलाड़ी तो खाना मांगता है और वह भी अच्छा!
खाने पर याद आयी उतरांचल की एक खबर! वहां बर्फ पर खेले जाने वाले खेल के लिये विदेश से खिलाड़ी आये जिसमें पाकिस्तानी भी शामिल थे। सभी को जमीन पर बैठकर हल्का खाना खिलाया गया और आयोजन से जुड़े पदाधिकारी टेबलों पर बैठकर ऊंचा खाना खाते रहे। मतलब यह कि जिन पर खेलों का जिम्मा है उनको खाने से मतलब है खिलाड़ी से नहीं इसलिये ही वह खेलों के विकास की बात करते हैं जो कभी हो ही नहीं सकता क्योकि खेलों से एक स्वस्थ और उत्साही मनुष्य का निर्माण होता और यही इनके आयोजन का मतलब होता है। खेलों के नाम जो भी शीर्ष पुरुष सक्रिय हैं उनको खेल चाहिये न खिलाड़ी! उनको स्वस्थ समाज नहीं चाहिये क्योंकि उसमें चेतना होती है और वहां ज़मीन पर तैराकी का प्रशिक्षण देना संभव नहीं है। इसलिये उन्होंनें जड़ समाज की सरंचना को ही महत्व दिया है कहने को दावे कुछ भी करते रहें।
--------------

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
------------------------

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
५.दीपक भारतदीप का चिंत्तन
६.ईपत्रिका
७.दीपक बापू कहिन
८.जागरण पत्रिका
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

Friday, January 7, 2011

लालबत्ती-हिन्दी व्यंग्य (lalbatti or red light-hindi satire article)

लालबत्ती वाली गाड़ियों को देखते ही आम आदमी की आंखें फटी और कान खड़े हो जाते हैं। इसका मतलब यह है कि कोई विशिष्ट व्यक्ति उस वाहन में है जिसका मार्ग रोकना या बाधा डालना खतरे से खाली नहीं है। आधुनिक राजशाही में यह लालबत्ती विशिष्टता का प्रतीक बन गयी है। आजकल के युवा वर्ग न पद देखते है न वेतन बस उनकी चाहत यही होती है कि किसी तरह से लालबत्ती की गाड़ी में चलने का सौभाग्य मिल जाये। कुछ लोग तो मजाक मजाक में कहते भी हैं कि‘अमुक आदमी पहले क्या था? अब तो लालबत्ती वाली गाड़ी में घूम रहा है।’
मगर कुछ यह कुदरत का नियम ऐसा है कि सपने भले ही सभी के एक जैसे हों पर भाग्य एक जैसा नहीं होता। अनेक लोग लालबत्ती की गाड़ी की सवारी के योग्य हो जाते हैं तो कुछ नहीं! मगर सपना तो सपना है जो आज की राजशाही जिसे हम लोकतंत्र भी कहते हैं, यह अवसर कुछ लोगो को सहजतना से प्रदान करती है।
उस दिन एक टीवी चैनल पर लालबत्ती के दुरुपयोग से संबंधित एक कार्यक्रम आ रहा था। पता लगा कि ऐसे अनेक लोग अपनी गाड़ियों पर लालबत्ती लगाते हैं लालबत्ती लगी गाड़ियों का दुरुपयोग कर रहे हैं जिनको कानूनन यह सुविधा प्राप्त नहीं है। यहां यह बात दें कि लालबत्ती का उपयोग केवल सरकारी गाड़ियों में ही किया जाता है जो कि संविधानिक पदाधिकारियों को ही प्रदान की जाती हैं। मगर लालबत्ती का मोह ऐसा है कि अनेक लोग ऐसे भी हैं जो अपनी गाड़ियों पर बिना नियम के ही इसको लगवा रहे हैं। ऐसे लोग भी हैं जिनको लालबत्ती लगाकर चलने का अधिकार तभी है जब वह कर्तव्य पर हों पर वह तो मेलों में अपने परिवार को लेकर जाते हैं। अनेक जनप्रतिनिधियों को लालबत्ती के उपयोग की अनुमति नहीं हैं पर जनसेवा के लिये वह उसका उपयोग करने का दावा करते हैं।
चर्चा मज़ेदार थी। एक पूर्व पुलिस अधिकारी ने बताया कि सीमित संवैधानिक पदाधिकरियों को ही इसका अधिकार है। सामान्य जनप्रतिनिधियों को इसके उपयोग का अधिकारी नहीं है। ऐसे में कुछ जनप्रतिनिधियों से जब इस संबंध में सवाल किया गया तो उनका जवाब ऐसा था कि उस पर यकीन करना शायद सभी के लिये संभव न हो। उनका कहना था कि
‘‘जिस तरह एंबूलैंस को लालबत्ती लगाने का अधिकार है उसी तरह हमें भी है। आखिर हमारा चुनाव क्षेत्र है जहां आये दिन परेशान लोगों की सूचना पर हमें जाना पड़ता है। ऐसी आपातस्थिति में ट्रैफिक में फंसने के लिये लालबत्ती का होना अनिवार्य है।’’
एक ने कहा कि
‘‘इससे सुरक्षा मिलती है। इस समय कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है और आम आदमी पर खतरा बहुत है। लालबत्ती देखकर कोई उस वक्र दृष्टि नहीं डालता। फिर टेªफिक में फंसने पर समय खराबा होगा तो हम जनसेवा कब करेंगे?’’
एक अन्य ने कहा कि
‘‘हम जनप्रतिनिधि हैं और लालबत्ती हमारी इसी विशिष्टता का बयान करती है।’
पूर्व पुलिस अधिकारी ने इस हैरानी जाहिर करते हुए कहा कि‘‘चाहे कुछ भी हो जनप्रतिनिधि को कानून का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। अगर वह जरूरत समझते हैं तो ऐसे नियम क्यों नहीं बना लेते जिससे उन पर उंगली न उठे।’’
बात लाजवाब थी। अगर जनप्रतिनिधियों को लालबत्ती का अधिकार चाहिए तो वह अपने मंचों पर जाकर अपनी बात क्यों नहीं रखते? वह कानून बनाने का हक रखते हैं तब कानून क्यों नहीं बनवाते?
मगर अपने देश की स्थिति यह है कि विशिष्ट होने या दिखने की चाहत सभी में है पर उसके दायित्वों का बोध किसी को नहीं है। जब विशिष्ट हो गये तो कुछ करने को नहीं रह जाता। बस, अपने मोहल्ले, रिश्तेदारों और मित्रों में विशिष्ट दिखो। लोग वाह वाह करें! करना कुछ नहीं है क्योंकि विशिष्ट बनते ही इसलिये हैं कि आगे कुछ नहीं करना! मेहनत से बच जायेंगे! कानून क्यों बनवायें? वह तो वह पैसे ही इशारों पर चलता है! भला विशिष्ट कभी इसलिये बना जाता है कि दायित्व निभाया जाये? विशिष्ट होने का मतलब तो अपने दायित्व से मुक्त हो जाना है बाकी काम तो दूसरे करेंगे! कानून बनाने का काम तो तभी करेेंगे जब कोई दूसरा सामने रखेगा। मगर रखेगा कौन? सभी तो विशिष्टता का सुख उठा रहे हैं। जब सुख ऐसे ही मिल रहा है तो उसके लिये कानून बनाने की क्या जरूरत?
मगर लालबत्ती का शौक ऐसा है कि अनेक लोग तो ऐसे ही लगवा लेते हैं। लालबत्ती का खौफ भी ऐसा है कि दिल्ली में एक डकैत गिरोह के लोग पकड़े गये जो लालबत्ती लगी गाड़ी का उपयोग पड़ौसी शहर से आने के लिये करते थे। लालबत्ती देखकर उनको कहीं रोका नहीं जाता था। पकड़े जाने पर पुलिस के कान खड़े हुए पर फिर भी यह संभव नहीं है कि कोई किसी लालगाड़ी लगी गाड़ी को रोकने का साहस कर सके। सरकारी हो या निजी लोग लालगाड़ी पर सवार होने के बाद विशिष्टता की अनुभूति साथ लेकर चलते हैं। सरकारी आदमी तो ठीक है पर निजी लोग तो रोकने पर ही कह सकते हैं-‘ए, तुम मुझे जानते नहीं। अमुक आदमी का अमुक संबंधी हूं।’
मुद्दा यह है कि आदमी की विशिष्टता केवल लालबत्ती के इर्दगिर्द आकर सिमट गयी है। हम कहीं भी सिग्नल पर लालबत्ती देखकर रुक जाते हैं क्योंकि अपने आम आदमी होने का अहसास साथ ही रहता है। यह अहसास ऐसा है कि अगर खुदा न खास्ता कहीं लालगाड़ी वाली गाड़ी में बेठने लायक योग्यता भी मिल जाये तो अपने चालक से-अपुन को गाड़ी न चलाना आती है न सीखने का इरादा है-सिग्नल पर लाल बत्ती देखकर कहेंगे कि ‘रुक जा भाई, क्या चालाना करवायेगा?’
----------------
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
------------------------

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
५.दीपक भारतदीप का चिंत्तन
६.ईपत्रिका
७.दीपक बापू कहिन
८.जागरण पत्रिका
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

यह रचनाएँ जरूर पढ़ें

Related Posts with Thumbnails

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

यह रचनाएँ जरूर पढ़ें

Related Posts with Thumbnails

विशिष्ट पत्रिकाएँ