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Friday, January 29, 2010

भलाई करने का काम-हिन्दी क्षणिका (work of welfare-hindi shayri)

कान में लगाये मोबाइल पर

ऊंची आवाज में बतियाते

पांव उठाता सीना तानकर

आंखों से बहती कुटिल मुस्कराहट

वह अभिमान से चला जा रहा है।

लोगों ने बताया

‘अपनी बेईमानी से कभी लाचार

वह भाग रहा था जमाने से

गिड़गिड़ाता तथा छोटे इंसानों के सामने भी

अब मिल गया है उसे लोगों के भला करने का काम

उसकी कमाई से उसका कद बढ़ता जा रहा है।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Monday, January 25, 2010

असंगठित लेखक के लिये पुरस्कार कहां होते हैं-आलेख (hindi writer and prize-hindi article)

कोई साहित्य अकादमी अगर अपने द्वारा प्रदत्त पुरस्कारों के लिये किसी देशी या विदेशी कंपनी को प्रायोजित करने के लिये बुलाती है तो उसमें बुराई देखना या न देखना हम जैसे असंगठित आम लेखकों के विषय के बाहर की बात है। सुनने में आ रहा है कि एक विचाराधारा विशेष के लेखक समूह उसका विरोध कर रहे हैं। तय बात है जब कोई संगठन अपनी तरफ से कोई अभियान प्रारंभ करता है तो वह आमजन का हवाला देता है वही संगठित विचाराधारा के समूह बद्ध लेखकों ने भी किया।
उनका तर्क बड़ा जोरदार है कि इस देश के लेखकों की एक बहुत बड़ी आबादी इस देश के समाज में चल रहे संघर्षों पर रचनायें कर रही हैं और इस तरह किसी बहुराष्ट्रीय को यहां बुलाकर उनका मजाक उड़ाना है।

उस साहित्य अकादमी के लोकतांत्रिक और स्वायत्त स्वरूप को क्षति पहुंचने की संभावना भी व्यक्त की जा रही है। चाहे देश में कोई भी भाषा हो, कम से कम एक आम लेखक तब तक कहीं से पुरस्कार मिलने की आशा नहीं करता जब तक वह संस्थागत होकर किसी को अपना शीर्ष पुरुष नहीं बनाता-हिन्दी का तो मामला कुछ अधिक ही विचित्र है। जब भी गणतंत्र दिवस आता है अनेक संस्थायें हिन्दी तथा अन्य भाषाओं के लेखकों को पुरस्कृत करती हैं पर यह पुरस्कार किसी आम लेखक या कवि के पास जाते हुए नहीं दिखता। अनेक पाठकों को यह पढ़कर आश्चर्य होगा कि इस देश में आजादी के बाद अनेक ऐसे शायर, कवि और लेखक हुए हैं जिन्होंने गज़ब का लिखा पर उनका नाम कभी राष्ट्रीय मानचित्र पर नहीं दिखा क्योंकि वह अपनी रोजरोटी के लिये जूझते रहे और उनके पास किसी संस्था से जुड़ने का अवसर नहीं रहा-यह लेखक कम से कम चार गज़ब के शायर और कवियों के बारे में जानता है। पता नहीं बाकी लोगों का इसमें क्या अनुभव है पर इस लेखक ने देखा है कि संस्थागत लेखन में पुरस्कार खूब बंटे पर उसे हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी भले ही उसे येनकेन प्रकरेण पाठ्य पुस्तकों में स्थान दिया गया। यही कारण है कि हिन्दी में नाटक, कहानियां और उत्कृष्ट पद्य की कमी की बात हमेशा कही जाती है।
इस बहस में मुख्य प्रश्न यह है कि जब फिल्म, क्रिकेट, व्यापार तथा अन्य क्षेत्रों में देशी तथा विदेशी कंपनियों का निवेश आ रहा है और उसका यहां के धनपति तथा अन्य लोग लाभ उठा रहे हैं तो फिर लेखकों को उससे दूर क्यों रहना चाहिये? एक बात सभी को समझना चाहिये कि भारत में हिन्दी तथा अन्य भाषाओं का आम लेखक कभी अपने लेखन की वजह से फलदायी स्थिति में नहीं रहा। संस्थागत लेखक भले ही उसका नाम लेते हों पर असंगठित लेखक इस बात को जानते हैं कि वह अपने लेखन की दम पर कभी बड़े पुरस्कार प्राप्त नहीं कर सकते। अभी जिस अभियान की बात हम कर रहे हैं उसे आम लेखक का समर्थन मिल रहा होगा यह आशा करना व्यर्थ ही है क्योंकि आम लेखक को न तो बहुराष्ट्रीय कंपनी की अनुपस्थिति में पुरस्कार मिलना था और न अब मिलना है? फिर जब हम देख रहे हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कई जगह अपने पांव फैलाये हैं तो साहित्य उससे कैसे बच सकता है? यहां राष्ट्रप्रेम की बात भी नहीं चल सकती क्योंकि यह पुरस्कार मिलना तो भारत के ही लोगों को है। दूसरी बात यह है कि पुरस्कार देने वाली सभी संस्थायें किसी न किसी विचारधारा के प्रभाव में रहती हैं और संबद्ध लेखक ही पुरस्कृत होते हैं ऐसे में एकता की बात बेमानी लगती है। दूसरा यह भी कि इन पुरस्कारों में हिन्दी के अनेक प्रदेश उपेक्षित रहे हैं और वहां के लेखकों के लिये ऐसे पुरस्कार एक अजूबा ही हैं। फिर क्षेत्र, भाषा और वैचारिक विभाजन की वजह से देश का बहुत बड़ा हिस्सा यह अनुभव कर सकता है कि संभवतः एक संस्था के लेखक पुरस्कार पायेंगे और दूसरे अपनी उपेक्षा की आशंका से पुरस्कारों के बहुराष्ट्रीय कंपनी के प्रायोजन का विरोध कर रहे हैं।
दूसरी बात यह है कि जो लेखक हैं उनको इस तरह के विरोध के लिये सड़क पर क्यों आना चाहिये? जब आम लेखक को लिखने के लिये प्रेरित करने की बात आती है तो संस्थागत लेखक कहते हैं कि पुरस्कार आदि की बात भूल जाओ क्योंकि यह स्वांत सुखाय है पर जब अपने सम्मानित होने का अवसर उपस्थित हो अपने पक्ष में ढेर सारे तर्क देते हैं। फिर सभी प्रकार के संस्थागत लेखक अपने ही निबंधों में बड़ा लेखक उसी को मानते हैं कि जिसे पुरस्कृत किया गया हो या जिसकी किताब छपी हो। ऐसे में उनको याद रखना चाहिये कि इस देश में लाखों लेखक हैं और सभी को न तो पुरस्कृत किया जा सकता है और न ही सभी किताबें छपवा सकते हैं। ऐसे में किसी अकादमी द्वारा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी से अपने पुरस्कारों का प्रायोजन बुरा हो तो भी आम लेखक उसके विरोध से परे दिखता है। संस्थागत लोग चाहे कितना भी शोर करें वह संपूर्ण भाषा साहित्य के प्रतिनिधि होने का दावा नहीं कर सकते क्योंकि उनके साथ जुड़े लोग भी सीमित क्षेत्र से होते हैं। इसके विपरीत अभी तक पुरस्कारों से वंचित कुछ उपेक्षित संगठित लेखकों का समूह इस आशा से इसका समर्थन भी कर सकता है कि कहीं उनको पुरस्कार मिल जाये। अलबत्ता हम जैसे आम लेखक के लिये ऐसे विषय केवल किनारे बैठकर देखने जैसे दिखते हैं। असंगठित क्षेत्र का लेखक चाहे कितना भी लिख ले पुरस्कार या किताब छपे बिना छोटा ही माना जाता है और देश में ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है।
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Sunday, January 24, 2010

श्रीमद्भागवत गीता और ज्योतिष विज्ञान-आलेख (shri madbhagvat geeta and jyotish vigyan-hindi lekh)

भारतीय ज्योतिष विज्ञान का विरोध किसलिये हो रहा है। चंद ज्योतिषी इस आड़ में यहां के लोगों को मूर्ख बना रहे हैं और हम यह जानते हैं। इसे बार बार दोहराने से क्या मतलब है? यहां के लोगों को बेवकूफ समझते हैं और अंग्रेजी शिक्षा पाने के बाद कुछ कथित विद्वान समझते हैं कि यह देश मूर्खों का है। कुछ लोग तो पाश्चात्य सभ्यता में ऐसे रम गये लगते हैं और उनको यह लगता है कि ‘हमारे अलावा यह सब मूर्ख बसते हैं।’
सूर्य ग्रहण या चंद्रग्रहण क्या आता है भारतीय टीवी चैनल चंद ज्योतिषियों को लेकर बैठ जाते हैं। फिर शुरु होती है बहस। ज्योतिष पर ही बहस हो तो ठीक, पर वहां तो श्रीगीता मद्भागवत का विषय भी छा जाता है। श्रीमद्भागवत गीता वास्तव में अद्भुत ग्रंथ है। आप रोज पढ़िये समझ में तब तक नहीं आयेगा जब तक भक्ति भाव के साथ ही ज्ञान प्राप्ति की प्यास मन में नहीं होगी। जब समझ में आयेगा तो फिर आप किसी से बहस नहीं करेंगे। कोई अन्य एक बार करेगा पर फिर दूसरी बार सोचेगा भी नहीं। अगर आप श्रीगीता से लेकर बोल रहे हैं और अगले को चुप नहीं करा पाये तो समझ लीजिये कि आपको अभी सिद्धि नहीं मिली। मगर यह ज्योतिषी अपने व्यवसायिक हितों के लिये अनावश्यक रूप से श्रीमद्भागवत गीता को बीच में लाते हैं।
दरअसल भारतीय अध्यात्म पर हमले करने के लिये विरोधी लोगों को केवल तोते से ज्योतिष बताकर पैसे एैंठने वाले ही दिखते हैं। उस दिन तो हद ही हो गयी। एक साथ दो चैनलों पर सूर्य ग्रहण के बाद बहस चल रही थी। एक दक्षिण का तर्कशास्त्री एक ही समय दो चैनलों पर दिखाई दे रहा था। नाम से गैर हिन्दू धर्म का प्रतीत होने वाला वह शख्स तर्कशास्त्री कैसे था यह तो नहीं मालुम-वह अपने को नास्तिक बता रहा था- पर वह एक जगह भविष्यवक्ता और दूसरी जगह तंत्र मंत्र वाले से जूझता दिखा-दोनों बहसें पहले से ही कैमरे में दर्ज की गयी थी।
भविष्यवक्ता से उस कथित तर्कशास्त्री बहस पहले सीधे हुई थी। उसमें उसने अपनी जन्मतिथि बताई तो भविष्यवक्ता ने उससे कहा कि ‘तुम्हारा घरेलू जीवन तनाव से भरा है।’
उसने इंकार किया और तब उसकी पत्नी से फोन पर पूछा गया तो वह भी ज्योतिषी की बात से असहमत हुई। बात आयी गयी खत्म होना चाहिये थी पर नहीं! अगले दिन फिर वह तर्कशास्त्री आया और आरोप लगाया कि ज्योतिषी उसकी जन्मतिथि पूछने के बाद फोन करने गया था, और वहीं से किसी से पूछकर भविष्य बताया। चैनल में काम करने वाली एक महिला तकनीशियन ने उसे बताया था कि ज्योतिषी का एक एस. एम. एस आया था। ज्योतिषी अब फोन पर बात करते हुए बता रहा था कि ‘उस समय तो मेरा फोन ही बंद था।’
चैनल की महिला तकनीशियन ने बताया कि यह संदेश बहस समाप्ति के बाद ही आया था। बहस का ओर छोर नहीं मिल रहा था।
यही तर्कशास्त्री उसी समय एक दूसरे चैनल पर एक तांत्रिक से उलझा हुआ था। तांत्रिक कह रहा था कि मैं तीन मिनट में तुम्हें बेहोश कर दूंगा। तांत्रिक को अवसर दिया गया पर वह ऐसा नहीं कर सका। इस दौरान वह संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण करता रहा। अब कौन कहे कि कहां ज्योतिष और कहां यह तंत्र मंत्र! मगर चूंकि भारतीय अध्यात्म को निशाना बनाना है तो ऐसे अनेक विषय मिल ही जाते हैं।
इस पूरी बहस में हमें हंसी आयी। ऐसा लगता है कि श्रीमद्भागवत गीता की तरह ज्योतिष भी एक ऐसा विषय है जो चाहे जितना पढ़ लो समझ में नहीं आ सकता जब तक अपने रक्त में समझदार तत्व प्रवाहित न हो रहे हों। इसी बहस में एक ज्योतिष पढ़ चुकी महिला कह रही थी कि मुझे ज्योतिष में विश्वास नहीं है। यहां तक कि मैं अपना भविष्यफल जानने की कोशिश नहीं करती।’
इसलिये हमें यह लगा कि ज्योतिष भी श्रीगीता की तरह सभी के समझ में न आने वाला विषय हो सकता है। आखिरी ज्योतिष पढ़ चुकी एक महिला कह रही है तो यही समझा जा सकता है।
बहरहाल हमें यह लगा कि इस आड़ के भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का मजाक उड़ाने का प्रयास हो रहा है। ज्योतिष विषय पर टीवी पर ही एक विद्वान द्वारा दी गयी जानकारी हमें अच्छी लगी। उसने बताया कि ज्योतिष के छह भाग हैं जिनमें एक ही भाग ऐसा है जिसमें समय समय पर पूछने पर भविष्य बताया जाता है। उन्होंने बताया कि गणितीय गणना भी ज्योतिष का भाग है जिसके आधार पर हमारे पुराने विद्वानों ने सूरज, चंद्रमा तथा अन्य ग्रहों का पता लगाया था।
वैसे पता नहीं कैसे लोग कहते हैं कि ग्रहों का असर नहीं होता? इस विषय पर हमारा आधुनिक तर्कशास्त्रियों से मतभेद है। सूर्य जब दक्षिणायन होता है तो ठंड पड़ती है। यह ठंड आदमी को शरीर को कंपकंपा देती है और यकीनन उसकी मनस्थिति बिगड़ती है। आधुनिक विज्ञानी एक तरफ कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग रहता है तब यह कैसे संभव है कि गर्मी फैला रहे सूर्य में जल रहा शरीर अपना ठंडा दिमाग रख सके। श्रीगीता के ‘गुण ही गुण बरतते हैं’ के सिद्धांत को हमने अपनी देह पर लागू होते देखा है। जब परेशान होते हैं तब सूर्य, चंद्रमा और आकाश की स्थिति को देखकर लगता है कि यह सभी ग्रहों का असर है। जब यह बदलेंगे तो हमारी मानसिकता भी बदलेगी। एक सम्मानित वैज्ञानिक भी वहां आये थे-यकीनन वह बहुत महान हैं पर उनको ग्रहण के अवसर पर ही लाया जाता है। हमने कभी किसी ग्रहण के अवसर पर एक कार्यक्रम में उनको कहते सुना था कि ‘हम यह तो पता नहीं लगा सके कि धरती से बाहर जीवन है कि नहीं, पर यह तय है कि जीवन के आधार वहां ऐसे ही होंगे।’
उन्होंने शायद यह भी कहा था कि जिस तरह धरती और सूर्य के बीच अन्य ग्रह हैं वह दूसरी सृष्टि में भी होंगेे तभी वहां जीवन होगा। तात्पर्य यह है कि कहीं जीवन होगा तो वहां ऐसी प्रथ्वी होगी जिसके पास अपना सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति, शुक्र, बुध, शनि, मंगल तथा अन्य ग्र्रह भी होंगे। हम इसे यह भी कह सकते हैं कि यह ग्रह सभी प्रकार के जीवन का आधार हैं तो फिर यह कैसे संभव है कि वह मनुष्य जीवन को प्रभावित न करें।
हमने अपने अनुभव से एक बात यह देखी है कि एक ही नाम के दो व्यक्ति में कई बार स्वभावगत, परिवार तथा वैचारिक स्तर पर समानता होती है। यह सही है कि सभी का जीवन स्तर समान नहीं होता पर उनकी आदतें और विचार एक ही तरह के दिखते हैं। संभव है कुछ ज्योतिषी इसका दुरुपयोग करते हों पर सभी को इसके लिये गलत नहीं ठहराया जा सकता।
दूसरी बात यह है कि ज्योतिष में ही हमारा खगोल शास्त्र भी जुड़ा हुआ है। हमारे यहां अनेक पंचांग छपते हैं जिनमें सूर्य और चंद्रग्रहण की तारीख और समय छपा होता है और जो पश्चिमी विज्ञान की भविष्यवाणी से मेल खाता है। भारत में अनेक लोगों को पता होता है कि अमुक तारीख को सूर्य या चंद्रग्रहण होगा। अखबार और टीवी में तो बहुत बाद में पढ़ते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय ज्योतिष एक विज्ञान है मगर इस विषय पर वही लोग बोल और लिख रहे हैं जिनको इसका ज्ञान नहीं है-इनमें वह लोग भी हैं जो पढ़े पर समझ नहीं पाये। वैसे इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस तरह की बहसें प्रायोजित हैं ताकि भारतीय अध्यात्म को विस्मृत किया जा सके। एक तर्कशास्त्री की दो जगह उपस्थित यही प्रमाणित करती है।
आखिरी सलाह ज्योतिषियों को भी है कि हो सके तो वह श्रीमद्भागवत गीता से दूर ही रहें क्योंकि वह समझना भी हरेक के बूते का नहीं है। उसमें जो योग और ध्यान के अभ्यास का संदेश दिया गया है उसमें इतनी शक्ति है कि उससे न यहां आदमी इहलोक बल्कि परलोक भी सुधार लेता है। सूर्य इस देह को जला सकता है पर उस आत्मा को नहीं जो न जल सकती है न मर सकती है। किसी भी प्रकार के विज्ञान से परिपूर्ण होने की बात तो उसमें कही गयी है पर इसका मतलब यह नहीं है कि ज्योतिष विज्ञान में पारंगत होने का आशय श्रीगीता सिद्ध हो जाना है। वैसे ज्योतिषियों को यह पता होना चाहिये कि इस तरह अपने ज्ञान का प्रदर्शन अज्ञानियों के सामने प्रदर्शन तामसी प्रवृत्ति का परिचायक है और उनके सामने श्रीगीता का ज्ञान देने की मनाही तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी की है।
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Tuesday, January 19, 2010

मूक और बधिर हैं सभी नरमुंड-हिन्दी व्यंग्य कविता (mook aur badhir-hindy vyangya kavita)

रोज नैतिकता की बात

हर बार आदर्श पर चर्चा

सिद्धांतों की दुहाई देते लोग थकते नहीं हैं।

फिर भी समाज के बिगड़ते जाने की चिंता

सभी को सता रही है,

हर जगह से

भ्रष्टाचार की बू आ रही है,

धर्म की राह के सभी राहगीर,

अपने पाप से बना रहे अपने लिये खीर,

प्रवचनों में ढेर सारे लोगों का जमा है झुंड,

शायद मूक और बधिर हैं सभी नरमुंड,

चक्षुओं से देखते आसमान में

देवताओं के जमीन पर आने की राह,

अपने को छोड़कर सभी इंसानों को

ईमानदारी का बोझ ढोते देखने की चाह,

वह उम्मीदें करते हैं जमाने से

जो खुद पूरी कर सकते नहीं हैं।

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Wednesday, January 13, 2010

वफा और यकीन बेचने आते हैं-हिन्दी शायरी (vafa aur yakin ka sauda-hindi shayri)

गरीब और भूखे के लिये

रोटी एक सपना होती है,

मगर भरे हैं जिनके पेट

भूख भी भूत बनकर

उनके पीछे होती है।

इंसान की जिंदगी

कुछ सपने देखती

कुछ डरों के साथ बीत रही होती है।

.......................



चाहे इंसान कितने भी

बड़े हो जायें

फरिश्ते नहीं बन पाते हैं।

यकीन बेचने वाले

अपने अंदाज-ए-बयां से

चाहे दिलासा दिलायें

यकीन नहीं करना

सर्वशक्तिमान बनने के लिये

सभी मुखौटा लगाकर आते हैं।

काला हो या गोरा

जो चेहरे पर मुस्कराहट ओढ़े हैं

वही वफा और यकीन बेचने आते हैं।


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Friday, January 8, 2010

संवेदनायें मौन हैं-हिन्दी शायरी (sanvednaen-hindi shayri)

अपने अपने शिखर

सभी ने बना लिये

जमीन पर चलता कौन है,

बोल रहे हैं सभी अपनी जुबान से बेकार शब्द

पर सभी के अर्थ मौन हैं।



ऊंचाई पर बैठे हैं जो लोग,

अनदेखा करने का सभी को है रोग,

किसी ने दौलत पर चढ़कर

अपना आशियाना सजाया,

किसी ने शौहरत को मुकाम बनाया,

दिखा रहे हैं सभी एक दूसरे को ताकत

पर अनुभूति करता कौन है,

सभी की संवेदनायें मौन हैं।

-----------------

टूट कर बिखरने से पहले

जो जिंदगी से लड़े हैं,

इतिहास में उनके ही नाम

वीरों की पंक्ति में खड़े हैं।

मतलब की जिंदगी जीने वाले

चमकते हैं खूब, हीरे की तरह

जब तक ताज में जड़े हैं,

गिरे है जमीन पर जब

पत्थरों की तरह पड़े हैं।

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Saturday, January 2, 2010

किस्सा कहानी चोरी का-व्यंग्य आलेख (theft story-hindi satire)

यह पेज
पता नहीं उस लेखक के उपन्यास पर फिल्म बनी हैं या नहीं-जैसा कि वह दावा कर रहा है। बहरहाल फिल्म के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निर्माता-कई जगह नायक का अभिनय करने वाले अभिनेता भी फिल्म में पैसा लगाते हैं पर जाहिर नहीं करते-इससे इंकार कर रहे हैं। फिल्म निर्माता ने तो एक पत्रकार को इस विषय पर प्रश्न करने पर कह दिया-‘शटअप’।
इस विवाद में एक बात निश्चित है कि मुंबईया फिल्म बनाने वालों के पास कल्पनाशक्ति का अभाव है और उससे देखकर यह मजाकिया निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अगर फिल्म की कहानी कुंभ मेले से बिछड़े भाईयो बहिनों के मिलन, किसी मजबूर आदमी के भईया से भाई या बहिन जी बनने या किसी विदेशी फिल्म की देशी नकल न हो तो यकीनन वह किसी देशी लेखक की नकल है।
ऐसा ही एक किस्सा हमारे एक ग्वालियर मित्र लेखक का है जो शायद बीस वर्ष से अधिक पुराना है। उन्होंने एक कहानी संग्रह बड़ी मेहनत से पैसा खर्च कर प्रकाशित कराया था। कहानियां ठीकठाक थी। किताब कोई अधिक प्रसिद्ध नहीं थी पर उनमें से एक कहानी राष्ट्रीय स्तर की साहित्यक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। कुछ दिन बाद बनी एक फिल्म की कथा देखकर उन्होंने दावा किया कि वह उनकी कहानी की नकल है। उन्होंने इसके बारे में तथ्य देकर एक लेख स्थानीय समाचार पत्रों में लिखा था। बाद मेें क्या हुआ पता नहीं पर वह मित्र आज भी हमसे अक्सर मिलते रहते हैं। हम इस बारे में कोई प्रश्न नहीं करते कहीं उनको यह न लगे कि यह व्यंग्यकार जरूर कुछ हमारे बारे में अंटसंट लिखेगा-वह उस पत्रिका के संपादक भी रहे हैं जिसमें हमारे व्यंग्य प्रकाशित होते रहे हैं। सच बात कहें तो उस समय उनकी यह बात अतिश्योक्ति से भरी लगी थी कि कोई बड़ा कलात्मक फिल्मों का निर्माता-आम धारा से हटकर बनी फिल्मों को कलात्मक भी माना जाता है-ऐसी हरकत कर सकता है। व्यवसायिक फिल्मों में उस समय कहानी के नाम पर तो कुछ होता ही नहीं था इसलिये यह आरोप तो कोई उन पर लगाता ही नहीं था।
बहरहाल समय के साथ हमें लगने लगा कि चाहे व्यवसायिक फिल्मकार हों या कलात्मक उनके पास कहानियों का नितांत अकाल है। फिल्मी दृश्यों के तकनीकी पक्ष में उनकी कल्पना शक्ति कितनी भी जोरदार हो कहानी और पटकथा में वह अत्यंत कमजोर हैं।
यह सुंदर, चमकते और ठुमकते हुए चेहरे चिंतन से शून्य हैं और जब कहीं साक्षात्कार होते हैं तब इनकी असलियत वहां दिखाई दे जाती है। अंग्रेजी में बोलेंगे ताकि हिन्दी भाषा का दर्शक औकात न भांप लें और सवालों पर ऐसे भड़केंगे कि जैसे वह हर जगह नायक या निर्देशक हों।
इसलिये हमें उस लेखक की बात पर अधिक यकीन है कि उसके उपन्यास से कहानी चुराकर अपनी पटकथा के साथ फिल्म वालों ने अपनी प्रस्तुति की हो। हालांकि वह लेखक अंग्रेजी का है पर है तो भारतीय। भारतीय लेखकों की कल्पनाशीलता लाजवाब है इस बात को शायद अंग्रेजी के साथ अंग्रेजों के भक्त स्वीकार नहीं करेंगे। यही कारण है कि अंतर्जाल के कुछ लेखक वैश्विक काल में हिन्दी के उद्भव की कामना करते हैं क्योंकि इसमें नया लिखे जाने की पूरी संभावना है। बहरहाल उस लेखक ने अपनी बात टीवी पर हिन्दी में रखी और ऐसा लगा कि उसका कहना सच भी हो सकता है। वैसे वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर का अंग्रेजी का लेखक है इसलिये उसकी बात सुनी जायेगी पर बात यहीं खत्म नहीं होती। इससे पहले भी देश के कुछ हिन्दी लेखकों ने ऐसी शिकायतें की यह अलग बात है कि वह छोटे शहरों के थे और देश के प्रचार माध्यम केवल बड़े शहरों के लेखकों की बातों को ही अधिक महत्व देते हैं। टीवी वालों से इसे महत्व भी इसलिये दिया क्योंकि लेखक एक तो अंग्रेजी का है फिर वैसे ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर है और वह भारतीय प्रचार माध्यमों का मोहताज नहीं है-हिन्दी वाला होता तो शायद उसे वह महत्व नहीं देते क्योंकि उससे उसके प्रसिद्ध होने का भय पैदा हो जाता। यह काम प्रचार माध्यम कभी नहीं कर सकते कि वह किसी हिन्दी भाषी लेखक को स्वयं लेखक बनायें। बन जाये तो फिर उसका उपयोग वह कर सकते हैं।
मुद्दे की बात यह है कि मुंबईया फिल्म वाले हिन्दी के मूल लेखकों का महत्व नहीं समझते-हमने सुना है कि प्रेमचंद फिल्म क्षेत्र छोड़कर अपनी साहित्य दुनियां में लौट गये। कवि नीरज भी वहां के रवैये से संतुष्ट नहीं थे। सच तो यह है कि आजतक एक भी हिन्दी का स्थापित लेखक फिल्म से नहीं जुड़ा है। यह हिन्दी लेखकों की कमी नहीं बल्कि फिल्म वालों की कमजोरी का प्रमाण है। वह अपनी दुनियां को चमकदार बनाये रखना चाहते हैं पर कहानियों के पक्ष को समझते नहीं। कुंभ मेले में बिछड़े बच्चों के मिलन या मजबूरी से भाई बने कहानी में उनको अच्छे और आकर्षक सैट दिखाने का अवसर मिलता है और वह ऐसी कहानियां अपने लिपिक नुमा लेखकों से लिखा लेते हैं। जिसे कहानी कहा जाता है उसे कभी फाइव स्टार होटल में या किसी इमारत में बैठकर केवल कल्पना से नहीं लिखा जा सकता है। उसके लिये जरूरी है कि सत्यता के पुट के लिये आदमी सड़क पर स्वयं निकले। अंधेरी गलियों में घूमे और ऊबड़ खाबड़ सड़कों में धूल फांके। यह उनके व्यवसायिक लेखकों के बूते का नहीं है। अब देखना यह है कि उस अंग्रेजी के अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्ध लेखक के साथ फिल्म वालों का विवाद किस जगह पहुंचता है।
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